Thursday, November 29, 2012

पिता


बारह नवंबर दो हजार तीन को पिता का देहांत हुआ था. उसके बाद इस तरह कविता में उन्‍हें याद किया था. इस बार पखवाड़ा भर पहले ही बारह नवंबर बीती है. उनकी याद आ रही थी. ये कविताएं फिर पढ़ीं. कुछ तस्‍वीरें भी ढूंढीं. पर ज्‍यादा नहीं निकलीं. फिलहाल ये कविताएं देखिए.

                                   




एक 
गला खंखारा
तो अचानक लगा
यह किसके खंखारने की आवाज है
अरे! यह तो पिता खंखारे!!
जैसे गला साफ करते थे
पूजा पर बैठे हुए पाठ शुरू करने से पहले

भतीजे का फोन नहीं आया कई दिन से
मन अटका रहता है
फोन पर बोलेगा, हैल्लो?
घुटे घुटे और बंधे हुए से सुर में
जैसे अपने दादा की युवा आवाज बैठी है उसके गले में

पराजय की थकावट थी अवसाद के झुटपुटे में
बेटी ने चाय का कप थमाया
फुसफुसाहट की तरह मुंह से निकला, थैंक्यू
आखिरी दिनों में हाथ जोड़ कर इसी तरह धन्यवाद देते रहते थे पिता

धूप निकलने पर बिठा दिए जाते थे बरामदे में
शाम ढलने तक धन्यवाद का जप करते थे
सभी जानते थे गिनती के दिन थे
गिनती आती नहीं थी किसी को

उम्मीद की हवा देते थे बदले में दिन रात सब लोग
वे जीए कुछ दिन और
हर अगले दिन थोड़ा कम जीते हुए
देखे को कमदेखा करते हुए
कमदेखे को अनदेखा करते हुए

बहुत बरस पहले शहर की सड़कों पर
सिगरटें फूंकते हुए निकलते थे हम
पिता बाजदफा सामने से रहे होते थे
खुद में खोए हुए से
खुद से ही बतियाते
उंगलियों से इशारे करते हुए
पता होता था हमें नहीं देख पाएंगे वे
एकदम सामने से गुजर जाऊं तो भी नहीं

वे खुद में ही क्या बतियाते थे
वे किसे, क्या कहना चाहते रहे
कहते सुना नहीं उन्हें कभी मन की बात
या हम ही जान नहीं पाए कभी उनके मन की बात

थैले में डाल कंधे पर लटका कर ले गया
गंगा में बहाने
इतने हल्के इतने अदृश्य
इतने पास इतने स्पृश्य
पलक झपकते सब ओझल हो गया


उठने लगा आदतन गुनगुनाते हुए
अरे! यह तो पिता हैं!!
जिन पर प्यार कभी उमड़ा नहीं
जिन्होंने प्यार कभी दिखाया नहीं
कहां कहां हैं वे
नहीं ?

दो
पेट की त्वचा
उसमें सलवटें
उनमें झुर्रियां
उनके बीच सफेद बाल
हल्की सी सिहरन
शरीर के इस हिस्से पर
सड़क पर काम करते नंगे बदन का यह
सांवला सा पिचका हुआ सा पेट

क्या यह पिता के उन दिनों के पेट सा है
जब वे देह के कमजोर होते चले जाने से परेशान थे
फिर भी नहाने से पहले मालिश कर लिया करते थे

बूढ़ा अगरबत्ती बेचने घुस आया सिग्नल पर
नथुने फुलातीं बेलगाम हो भागने को घरघरातीं
मिनट भर को खड़ी गाड़ियों के बीच
कार की खिड़की के पास
निर्वाक निवेदन पर उसके हम पसीजे नहीं
मुस्कुराता हुआ वह आसीस देता हुआ लौट गया
बेबसी का कवच हो जैसे मुस्कुराना
और अपने सम्मान को बचा ले जाना
चुपचाप आभार मानते हुए


पिता को भी जब पता चल गया था
खुद उठना है नामुमकिन
कातर मुस्कुराहट का कनटोप पहन कर
हाथ जोड़ लेते थे
रात रात भर जगे बच्चे कुछ ऊंचा बोल दें

वो आंखें नहीं हटतीं हैं सामने से जो
आज भी दिख गईं बांदरा की झोंपड़पट्टी में
एक बूढ़े के पंजर पर
कल दिखीं थीं जिबह करने ले जायी जाती बकरी में
परसों बेरहमी से पिटते हुए एक बालक के चेहरे पर

भय जिसका पारावार नहीं है
मृत्यु के भंवर में गिरते जाने की छटपटाहट
अकेले, क्षीण, असहाय होने का डर

रोज रोज मृत्यु का सामना करते थे पिता जिन दिनों
आंखों की वो बेचैन दौड़
कोई गोद में उठा ले
बचा ले

रोज रोज दिखती हैं वो डोलती पुतलियां
अनवरत