यह लेख कुछ वर्ष पहले शिखर संस्था द्वारा हिमाचल की युवा रचनाशीलता पर आयोजित संगोष्ठी में पढ़ा गया था. हाल में यह स्वाधीनता के शारदीय विशेषांक में छपा है. इस बीच आत्मारंजन का काव्यसंग्रह पगडंडियां गवाह हें भी आ गया है और अजेय के संग्रह की घोषणा हो चुकी है. सुरेश सेन का पहले ही आ गया था. अब कुलदीप शर्मा और प्रदीप सैनी के संग्रहों का इंतजार है. इस लेख में कवियों पर ज्यादा चर्चा नहीं है, इसलिए आपको निराशा भी हो सकती है. जैसे जब यह पढ़ा गया था, तब भी इसे कोई वाह-वाही नहीं मिली थी. फिर भी मुझे लगता है कि हमें अनुभव के रचना में तब्दील होने की प्रक्रिया पर बार बार चिंतन मनन करना ही चाहिए.
युवा रचनाशीलता हमेशा ही उत्साह का संचार करती रही है. युवाओं के बीच युवा बने रहने का अवसर भी मिलता है. मैं पिछले पच्चीस-तीस सालों से हिमाचल से बाहर हूं, इसलिए हिमाचली रचनाकारों के प्रति विशेष आकर्षण रहा है. हिमाचल मित्र पत्रिका के साथ काम करने के दौरान भी रचनाकारों के साथ काम करने का मौका मिला. फिर भी आज लेखन कार्य इतना बढ़ गया है कि मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मैं हिमाचल के सभी युवा रचनाकारों पर बात करने की योग्यता रखता हूं. छपने वाले रचनाकारों का जितना लेखन पढ़ने का मौका मुझे मिला है, उसी के आधार पर मैं बात करूंगा. यह एक तरह की कोशिश ही है. वह भी अपने प्रभाव (इम्प्रैशन) व्यक्त करने की कोशिश. विधिवत् आकलन इसे नहीं कहा जाना चाहिए.
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अजेय, सुरेश सेन निशांत, निरंजन, मुरारी शर्मा, मोहन साहिल, इषिता गिरीश, कुलदीप शर्मा का काम ध्यान खींचता है. इनके साथ साथ आत्मारंजन, नवनीत शर्मा, प्रदीप सैनी, ओम भारद्वाज, राजीव त्रिगर्ती, रेखा डढवाल, विनोद राही ध्रब्याल, के नाम भी ध्यान में आते हैं.
अजेय एक दुर्गम प्रदेश से हैं. अपने डिक्शन की तलाश में सबसे सजग युवा कवि. कठिन रोजमर्रा के जीवन के साथ साथ अजेय दर्शन, इतिहास, पुराख्यान, भाषा जैसे मसलों से भी दो चार होते हैं. इनकी कविता में मुझे कई तत्वों का गुंफन प्रतीत होता है. इनकी समकालीनता, प्राचीनता के साथ संवाद करते हुए घटित होती है. पारस्थितिकी (इकॉलिजी) की शायद यहां खास भूमिका है. इनके सामने भविष्योन्मुखता की भयावहता है. अजेय की कर्मभूमि बहुत दुर्गम है. उनकी कविता में अपने इलाके को समकाल में स्थापित करने की आकांक्षा भी है और समकाल की भयावहता का आतंक भी उनके सम्मुख है. वे प्राचीन, समकाल और सार्वभौम के बीच बहुत तड़प के साथ विचरण करते हैं. सुरेश सेन निशांत का संग्रह 'वे जो लकड़हारे नहीं हैं' इसी वर्ष आया है. आसपास का जीवन सुरेश की कविता में बहुत सहजता से आता है. सुरेश के यहां पहाड़ी ग्राम्य जीवन, पर्यावरण, अन्याय, गरीबी का न केवल जिक्र आता है, बल्कि उनकी दृष्टि भी स्पष्ट है. विचारधारात्मक बड़बोलापन नहीं है, लेकिन प्रगतिशीलता मुखर है. सुरेश की कविता में एक खास तरह की मार्मिकता और भावालोड़न है जो उन्हें लोक गीतों और लोक आख्यानों के करीब ले जाता है. मोहन साहिल की कविता में भी पहाड़ी जीवन की संघर्ष गाथा और विकास के मॉडल के साथ मुठभेड़ है. मोहन की कहनी बड़ी सहज सरल है. वे बहुत ज्यादा काव्य भंगिमा के चक्कर में नहीं पड़ते. इनके भी सरोकार बहुत स्पष्ट हैं. मनुष्य, प्रकृति और सामाजिक लोकाचार इनकी चिंता के केंद्र में रहते हैं. मनुष्य और प्रकृति की समरसता, मनुष्य को स्थापित करने की अभिलाषा इनकी कविता का संवादी स्वर लगता है. मोहन साहिल का संग्रह 'एक दिन टूट जाएगा पहाड़' कई साल पहले छपा था. प्रदेश के बाहर उसकी खास चर्चा नहीं हो पाई. बाकी रचनाकारों की ज्यादा कविताएं पढ़ने का मौका नहीं मिला है इसलिए उन पर अलग से बात करना उचित नहीं होगा. समग्र प्रभाव की बात करेंगे तो आसानी होगी. कहानीकारों में मुरारी शर्मा और इषिता गिरीश ने ज्यादा ध्यान आकर्षित किया है. मुरारी शर्मा का कहानी संग्रह बाणमूठ प्रकाशित हो चुका है. मुरारी कृषक जीवन, लोक जीवन के माध्यम से जनजातीय समाजों के अंधेरे पक्षों को उजागर करते हैं. मुरारी के पास लोकनाट्य, पत्रकारिता और सामाजिक कार्यकर्ता होने का अनुभव है जिससे उनकी कहानियों में धार पैदा होती है. इषिता गिरीश की कहानियों में यथार्थ का वर्णन बड़ा चाक्षुष, प्राणवान और नाटकीय त्वरा लिए हुए आता है. पहाड़ी भाषा का प्रयोग उनके चरित्रों और कथन की चित्रात्मकता को प्रामाणिक बनाता है. इनकी जो भी कहानियां मैंने पढ़ी हैं, वे स्त्री विमर्श का दस्तावेज हैं. इन दोनों कथाकारों से हमें बहुत उम्मीदें हैं. इनके अलावा कविता कहानी में और भी कई संभावनाशील युवा रचनाकार सक्रिय हैं.
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हिंदी के पूरे परिदृश्य के संदर्भ में देखें तो इस समय हिमाचल में सक्रिय युवा रचनाकार कई दृष्टियों से ध्यान खींचते हैं. हिमाचल प्रदेश पिछले दो दशकों से सड़कों के जाल और सूचना क्रांति के संजाल के कारण मैदानी इलाकों की तरह ही मुख्य भूमि बन चुका है. अब यह प्रदेश पहले की तरह अलग-थलग नहीं है. फिर भी यहां न तो वैसा औद्योगीकरण है, न ही उस तरह का शहरीकरण. शिमला को छोड़ दें तो जयपुर, लखनऊ भी हमारे लिए महानगर ही हैं. हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि हमारे यहां आदर्श शहरीकरण है. हमारे यहां हमारे देश के बेडौल बेढब नगरों के छोटे प्रतिरूप हैं. कृषि भी पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश से छोटे पैमाने पर और अलग तरह की है. मतलब यह कि हिमाचल के शहरी और ग्रामीण समाज का यथार्थ अपनी तरह का है. यूं आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता की धमक केलंग और सांगला तक पंहुच रही है.
इसी समानुपाती भूगोल में हमारा रचनाकार पूरे हिंदी साहित्य की परंपरा से कदम मिला कर चल रहा है. हमें यह संतोष और प्रसन्नता है कि ये युवा रचनाकार पूरे हिंदी साहित्य-समाज का ध्यान भी अपनी ओर खींच पा रहे हैं. ये सभी रचनाकार प्रगतिशील हैं; ये न पूरी तरह से विचारधारा के प्रवक्ता हैं, न शुद्ध कलावादी हैं. इधर हिंदी के कुछ युवा कवियों ने कविता को अत्यधिक गद्यात्मक बना दिया है, कला कौशल की जगह बुद्धि कौशल ज्यादा दिखाया है और भाषा को भी किताबी हो जाने दिया है. इस करतब में कविता कहीं दुबक गई प्रतीत होती है. कहानी में भी लंबाई, जटिलता और कलाबाजियों को तरजीह दी गई है. कुछ लोगों को ये प्रयोग पसंद भी आए हैं और इस पसंद की धूम भी मचाई गई है. पर इसी सब के समकक्ष हिंदी में दूर दराज के क्षेत्रों से युवा स्वर भी उभरे हैं. उनमें स्थानीयता और वैश्विकता एक संतुलन बनाते हुए प्रकट होती है. हमारे प्रदेश के युवा रचनाकार इसी तरह सक्रिय हैं. उनमें अपनी बात को सुनाने की छटपटाहट है. यूं शोहरत तो हर कोई पाना चाहता है पर इनमें शोहरत पाने की कोई अतिरिक्त ललक नहीं दिखाई पड़ती. बल्कि यहां के कई संभावनाशील कवि बार बार अज्ञातवास में चले जाते हैं. ऐसी स्थिति में हम उनकी रचनाओं से वंचित रहते हैं और उनके विकास के अवरुद्ध हुए रहने की आशंका रहती है.
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पूरे हिंदी साहित्य के परिदृश्य में देखें तो हिमाचली युवा रचनाशीलता, खासकर कविता का स्वरूप कुछ इस तरह का बनता है. कविता अपने दुर्गम भूगोल के बीच पुराख्यान, नृत्तत्व, दर्शन और स्मृति में गहरे उतरती है और समकालीन विश्व के साथ नजर मिलाती है. आज समकालीन विश्व अपने सहस्र फनों के साथ भयभीत करते हुए लील लेने को उद्यत प्रतीत होता है. यह कविता अपने सांस्कृतिक आयुधों से लैस होकर, आत्मसंभवा बनकर इस समकालीन विश्व के साथ नजर मिलाती है. अपना स्थान मांगती है. समर्पित होने को तैयार नहीं है. यह हिमालयी शिखरों से सब देख रही है और हरेक बुद्ध के लिए करुणा की नमी ढूंढ रही है. इस कविता के सरोकार सीधे सीधे जमीनी भी हैं. जहां नष्ट होते पर्यावरण की चिंता है, वनमाफिया का तंत्र है, सीमेंट फैक्ट्री की धूल है, घासनियों के सामने जानलेवा पहाड़ियां हैं, मेहनतकश कृषक समाज के खून पसीने से पसीजा हुआ गीत संगीत है, बदलते हुए समाज की धड़कन है. आज जीवन जगत की जटिलताएं इतनी ज्यादा बढ़ गई हैं कि उन्हें ठीक ठीक समझ लेना ही अपने आप में एक बड़ी चुनौती है. हिमाचली युवा रचनाकार अपने यथार्थ को स्थानीयता और प्राचीनता के साथ पकड़ने की कोशिश करता है. पहले के रचनाकार भी यह काम करते रहे हैं चूंकि पेचीदगियां पहले से कहीं ज्यादा हैं, खुशी की बात है कि लेखकों की नजर इन पेचीदगियों को संजीदगी से खंगाल रही है.
हिमाचल प्रदेश बड़ा खूबसूरत, मासूम अनछुआ सा प्रदेश माना जाता रहा है. ज्यादातर लोगों की पर्यटकीय नजर ही इस पर पड़ती रही है. पर यहां के दुख नितांत अपने हैं. दुख-तकलीफ और संघर्ष कम नहीं हैं. चाहे वो दुर्गम इलाकों का जीवन हो, जनजातीय परंपराओं की जकड़न हो, कृषक समाज की तकलीफें हों, बढ़ते मध्यवर्गीय जीवन के अंतर्विरोध हों, पढ़ाई और नौकरी के लिए पलायन हो, या उद्यमशीलता की कमी हो – यह सब आज की कविता कहानी में आ रहा है. इस बात पर बहस हो सकती है कि यह सब किस तरह आ रहा है, पाठक को कितना प्रभावित कर रहा है या खुद में रचनात्मकता के क्या मानक खड़े कर रहा है.
आज अजीब सी विडंबना का समय है कि जहां छपने-छपाने की सुविधा बढ़ गई है, वहीं पाठक के होने न होने और पाठकीय प्रतिक्रिया या हस्तक्षेप के बारे में संदेह पहले से ज्यादा हो गया है. इसी बिंदु से आज के लेखक की सीमाओं की शुरुआत हो जाती है. इन सीमाओं को चुनौती भी कहा जा सकता है जिनका सामना उसे करना है.
आज हिंदी में पत्रिकाएं पहले से कहीं ज्यादा हैं. हिमाचल से ही कई पत्रिकाएं निकल रही हैं. पुस्तक प्रकाशन सस्ता और सुविधाजनक हुआ है. अब किसी को पत्रिका में छपकर चर्चित होने की कसौटी पर खरा उतरने की जरूरत नहीं होती. वह सीधा अपनी पुस्तक छपा सकता है. हिमाचल में भी ऐसे कई लेखक हैं जिनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं लेकिन साहित्य समाज में उनका नाम सुनाई नहीं पड़ता. आम जनता तो आज लेखक को किसी खाते में रखती ही नहीं. ऐसी स्थिति में आपको कई लेखक ऐसे मिल जाएंगे जिन पर एम. फिल. या पीएचडी के लिए शोध हो चुका होगा. लेकिन उनके साहित्य से हम अनभिज्ञ हैं. यह काम कालेजों विश्वविद्यालयों के विभागों के विद्वान प्रोफैसरों के निर्देशन में होता है. इससे श्रेष्ठ लेखन, साधारण लेखन और अलेखन के बीच भ्रम पैदा होने की आशंका रहती है. हमारे सामने अगर श्रेष्ठ लेखन के निकष स्पष्ट नहीं होंगे तो ये भ्रम और बढ़ेंगे. इसी तरह कुकरमुत्ते की तरह पुरस्कार फैल रहे हैं. पुरस्कार भी भ्रमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. युवा रचनाकार अगर इस तरह के प्रलोभनों का शिकार हो गया तो वो अपना नुकसान कर लेगा क्योंकि वह सफल और पुरस्कृत लेखक तो बन जाएगा, श्रेष्ठ लेखक बन पाएगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता.
आज सूचना की बमबारी का भी जोर है. अखबारें, चैनल, एफएम, इंटरनैट चौबीसों घंटे सूचनाओं के हमले करने में लगे हैं. हिमाचल भी इस हमले की जद में है. इसके साथ साथ हमारे समय में लेखन की मात्रा भी बहुत है. पाठक के सामने चुनाव का प्रश्न है. और विडंबना है कि चुनाव की कसौटी मौजूद नहीं है. हमें इसी 'धम्मड़धूसे' के बीच लिखना है. यह हमारे लिए एक सीमा भी है, चुनौती भी.
ये सीमाएं बाहरी या परिवेश से संबंधित लग सकती हैं. एकांतवास करते हुए अध्यात्म का अभ्यास तो हो सकता होगा, साहित्य लेखन नहीं. लेखन समाज के चहबच्चे के बीच में रह कर ही होता है. इसलिए समाज हमें प्रभावित करेगा ही. सूचना की बमवारी में हम खुद को कैसे बचाएं, अपने लेखन को केसे बचाएं, फिर अपने लेखन को केसे श्रेष्ठ बनाएं, यह हमारी चुनौती है. कोई सिखाएगा नहीं. हमें खुद ही सीखना होगा.
जब हम लिखना शुरू करते हैं तो हम अपनी परंपरा और खासकर प्रसिद्ध लेखकों से बहुत कुछ ग्रहण करते हैं. बहुत बार हम उन्हीं की तरह लिखने लग जाते हैं. फिर धीरे धीरे हम अपना रास्ता बनाते हैं. हम सिर्फ शैली ही नहीं, सोच के स्तर पर भी ग्रसित हो जाते हैं. यह काम बड़े बेमालूम ढंग से होता है. जैसे बेटा पिता को रोल मॉडल मान कर पिता की तरह का पुरुष बनने के उपक्रम करता है. हमें पता ही नहीं चलता और हम अपने पसंदीदा कवियों की छाया बनने लग जाते हैं. कभी गहरी कभी धुंधली छाया. कभी कभी हम एक से अधिक कवियों के प्रभाव में आ जाते हैं. बल्कि किसी पूरे दौर के अंदाज को ही अपना अंदाज बना डालते हैं. सतर्क और सजग कवि जल्दी ही इन प्रभावों को जान जाता है और अपनी राह ढूंडता है. हमारे प्रदेश ही क्यों सभी जगह के कई कवियों में इस तरह के प्रभाव दिख जाते हैं. जो रचनाकार जितना सजग होगा, वह दतनी ही जल्दी इस ग्रहण से मुक्ति पाने का उद्यम करेगा. अपना मुहावरा गढ़ेगा.
अपना मुहावरा गढ़ना केवल शैलीगत प्रयोग नहीं होता. अनुभव का शब्द में रूपांतरण एक संपूर्ण और स्वायत्त प्रक्रिया है. हरेक रचनाकार की प्रक्रिया अनन्य होती है. इस प्रसंग में हम मुक्तिबोध के कला के तीन क्षणों को भी याद कर सकते हैं.
'' कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव-क्षण. दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते-दुखते हुए मूलों से पृथक् हो जाना, और एक ऐसी फैण्टेसी का रूप धारण कर लेना, मानो वह फैण्टेसी अपनी आंखों के सामने ही खड़ी हो. तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैण्टेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णता तक की गतिमानता.''
हमारे युवा रचनाकारों को इस दिशा में और काम करना है. इस प्रक्रिया में हम मुक्तिबोध के ही ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान के सूत्र को भी याद कर लें.
''जिस प्रकार हम संवेदनात्मक ज्ञान तथा ज्ञानात्मक संवेदन द्वारा बचपन से ही बाह्य जीवन-जबत को आत्मसात् कर उसे मनोवैज्ञानिक रूप देते आए हैं, उसी तरह हम इस आत्मसात्कृत, अर्थात् मन द्वारा संशोधित-संपादित-संस्कारित-गठित-पुनर्गठित, जीवन-जगत् को बाह्य रूप भी देते हैं. ... बाह्य जीवन-जगत् का आभ्यन्तरीकरण और आभ्यन्तरीकृत का बाह्यकरण एक सनातन मानव-प्रक्रिया है. कला आत्म-जगत् के बाह्यकरण का ही एक मार्ग है- एक विशेष रूप है. हम बाह्य जगत् से आभ्यंतर जगत् में और आभ्यंतर जगत् से बाह्य जगत् में मिलना चाहते हैं. इसीलिए हम कविता लिखते हैं.''
साहित्य- संस्कृति की अपनी परंपरा से, अपने समय के धक्कों से, अपने जीवन से हमें सीखना होगा. यही हमारी खुराक है. जो हमारे सामने है और जो हमसे ओझल है, उसे परत दर परत उघाड़ कर जानना होगा. उसका आभ्यंतरीकरण करना होगा. उसी में से रचनाकर्म जन्म लेगा. पिछले दिनों विजय कुमार ने बड़ी अच्छी बात कही कि हमें फोटोग्राफ और पेंटिंग में अंतर करना आना चाहिए. फोटो में सारा का सारा यथार्थ जस का तस आ जाता है. पेंटिंग में भी अगर सारा यथार्थ जस का जस आ जाएगा तो बात नहीं बनेगी. चित्रकार को यथार्थ को कुछ और आयाम देने होंगे. यथार्थ की जटिलता को किसी दूसरे तरीके से खोलना होगा. तभी उसका चित्र कलाकृति बनेगा. इसी तरह हमें रिपोर्ताज और निबंध में अंतर करना सीखना होगा. वर्णन और कहानी में फर्क सीखना होगा. गद्यांश चाहे वह धाराप्रपाह पैराग्राफ की तरह आए या पंक्ति दर पंक्ति दूट कर आए, कविता नहीं हो सकता. कविता की भाषा में सघनता लानी होगी. मार्मिकता का महत्व हमें समझना होगा. गीत और गजलों के सरलीकृत यथार्थ और रोमानी भावुकता को समझना होगा. बकौल श्रीनिवास श्रीकांत, लिरिसिज्म का अपना महत्व है लेकिन जीवन के खुरदुरेपन को यह गीतात्मकता पकड़ नहीं पाती. इसमें कोई शक नहीं कि पाठक गीत-गजल को आसानी से स्वीकार कर लेता है. लेकिन इधर तुक्कड़ और हंसोड़ कवियों ने गजलों को भी पीछे सरका दिया है. मतलब यह कि पाठक की रुचि और भी भ्रष्ट हो गई है. इसलिए संप्रेषण और कविता दोनों पर हमें ध्यान देने की जरूरत है.
इन बातों का संबंध केवल परिवेश और कविता के रूप पक्ष से नहीं है. रूप तत्व तो असल में कथ्य के साथ अंतर्गुंफित ही रहता है. कथ्य खुद ही अपना रूप चुनता है. हम कविता सिर्फ अपने लिए नहीं लिखते. यह एक साथ ऐकांतिक और सामाजिक गतिविधि है. लेकिन क्या हम अपनी कविता लेकर जनता में उतरने की हिम्मत कर सकते हैं. अव्वल तो कोई हमें सुनेगा नहीं, और अगर सुनेगा तो समझेगा नहीं. यह भी हमारी एक सीमा है. (मुझे लगता है कि जो युवा रचनाकार की सीमा है वह मेरी भी सीमा है). ऐसी स्थिति में हमें नाटक के निर्देशक को याद करना चाहिए. निर्देशक अपनी बात को दर्शक तक पहुंचाने के लिए कथ्य के साथ साथ फार्म पर भी खूब मेहनत करता है. जब कथ्य और रूप एकमेक होकर सामने आते हैं तो कृति पूर्णता यानी परफेक्शन की ओर बढ़ने लगती है.
मतलब यह कि रचनाकार की आंतरिक तैयारी और बाहरी तैयारी दोनों का महत्व है. इसका यह मतलब भी नहीं है कि जिन मुद्दों का जिक्र यहां किया गया है, उन मुद्दों की युवा रचनाकार में कमी है. लेखन एक सतत प्रक्रिया है. और विकास भी एक सतत प्रक्रिया है. लेखन के जरिए हम खुद को भी संवार रहे होते हैं. अगर आंतरिक जरूरत के तहत लेखन किया जाएगा, तो वह अपनी सीमाओं को स्वयं तोड़ता जाएगा.
इसी के साथ मैं एक और बात कहना चाहता हूं. हिमाचल प्रदेश एक छोटा सा प्रदेश है. यह भारत वर्ष की मुख्य भूमि से जुड़ तो गया है पर अभी भी यहां बहुत कुछ बचा हुआ है. साहित्य के संस्कारों के प्रसार का काम यहां अपेक्षाकृत आसानी से हो सकता है, ऐसा लगता है. हिंदी जगत में लेखक संघ लगभग निष्क्रिय हो गए हैं. मिलजुल कर काम करने की भावना भी क्षीण पड़ गई है. इसके बरक्स यहां कुछ लोग काम कर रहे हैं. इस काम को रेखांकित करना और उनसे सहयोग करना मुझे जरूरी लगता है. आज हर शहर में एक हरनोट और निशांत की जरूरत है जो पत्रिकाएं बेचने की हिम्मत जुटाए. आज हर शहर में एक उरसेम लता और निरंजन देव चाहिए जो छात्रों के बीच काम करें. हमें अपनी वरिष्ठ पीढ़ी के साथ भी संवाद बनाए रखना होगा. दोनों पीढ़ियों को अपनी अपनी अकड़ कम करनी होगी. हमें यह याद रखना होगा कि चाहे वरिष्ठ चाहे युवा, आज सारा का सारा लेखक समुदाय सारे समाज में अल्पसंख्यक ही है. नक्कारखाने में तूती. इस सीमा बनाम चुनौती का सामना मिल कर ही किया जा सकता है.
अब ये आतें बहस के लिए खुली हैं.
आपकी िलरंतरता प्रभावित करती है। मैं समकालिक बननेसेचूक गया बेशक पढ़ना बराबर होता है। अच्छा लिखा है
ReplyDeleteमैं अजेय की कविताओं का मुरीद हूं अनूप जी। पहल में अजेय को पढ़ने के बाद से ही उनकी कविताओं का पीछा किया है मैंने। वो इधर आपके प्रदेश के सबसे समर्थ कवि के रूप में सामने आए हैं....गो कविता का अपना प्रदेश होता है....सभी तरह के भूगोल से बाहर।
ReplyDeleteसृजनशीलता सदा ही प्रभावित करती है..
ReplyDeleteबहुत धीरज से लिखा है आपने अनूप जी. अजेय जैसे कवि पर ध्यान दिए जाने की ज़रुरत तो है ही, साथ में कई दूसरे कवियों ही नहीं उन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का भी एक पूरा दृश्य बनता है जिसमें हिमाचल का समकाल निर्मित हो रहा है.
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