कुछ समय पहले मुंबई में कहानीकार लखनऊ से हरिचरण प्रकाश और कानपुर से अमरीक सिंह दीप आए हुए थे। कथाकार ओमा शर्मा, आर.के. पालीवाल और हरियश राय मुंबई में हैं ही। कवि विनोद दास भी अब मुंबई में ही हैं। ओमा ने इनसे मिलाने का प्रोग्राम बनाया। 'चिंतन दिशा' के संपादक हृदयेश मयंक और शैलेश सिंह भी शामिल हो गए। अनौपचारिक बातचीत में तकनीक का मुद्दा उठा तो चर्चा व्यक्ति, साहित्य और समाज के सिरों को पकड़ती छोड़ती आगे बढ़ती गई। बातचीत चूंकि बिना किसी तैयारी के हुई तो एक तरह का विखराव भी इसमें है। कुछ स्फुरण यहां मिल जाएंगे लेकिन बात को आगे बढ़ाने की पूरी गुंजाइश है।
अनूप सेठी : विनोदजी आप तकनीक की बात कर रहे हैं तकनीक का हमारी संवेदना पर क्या असर हुआ है?
विनोद दास : हमारे जीवन में तकनीक का बहुत महत्व है। जब कोई तकनीक आती है तो उसका आपके व्यवहार में, पूरे जीवन में असर हो जाता है। उदाहरण के तौर पर पहले की तकनीक रेडियो थी, पूरा घर एक साथ रेडियो सुनता था। आज संगीत कान में लगा कर अकेले सुना जा रहा है। यह आपको अकेला बनाती है। यह तकनीक सामूहिकता से काटकर अकेला मनुष्य बना रही है। यानी सामूहिकता से कटने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इस तरह तकनीक से कई तरह के परिवर्तन आते हैं जिससे हमारे इमोशन्स में भी परिवर्तन आ रहा है। जैसे अब जीवन से चिट्ठियां गायब हो गई हैं। एसएमएस आ गए हैं। इनमें तात्कालिक संदर्भ तो हो सकते हैं, लेकिन चिट्ठियों में जिस तरह उस समय के मूड में लंबे समय तक आप रह सकते हैं बल्कि जब चाहें उस समय में चले जाएं, यह एसएमएस से संभव नहीं है। टेक्नोलॉजी जीवन में बहुत तरह के बदलाव ला रही है, और मुझे लगता है साहित्य में भी इसी तरह के बदलाव देखने में आएंगे।
शैलेश सिंह : कलाएं मूलत: समूह को या समाज को सम्बोधित करती थीं। अगर उनका आस्वाद सामूहिकता में नहीं हो रहा है व्यक्ति के स्तर पर आ गया है तो क्या इसका यह अर्थ है कि कलाएं अप्रासंगिक हो रही हैं या हम अपने माध्यम को बदलें?
विनोद दास : सामूहिकता में भी बदलाव आया है। फेसबुक की वजह से एक नई सामूहिकता बनी है लेकिन उससे केवल संपर्क बनता है। हमारा काम संवेदनाओं से है, वे यहां नहीं हैं। जब तक साहित्य और कलाएं भावनाओं और संवेदनाओं के आधार पर काम नहीं करती हैं तब तक बात नहीं बनती है। आज जो मनुष्य बन रहा है उसकी संवेदना अलग किस्म की बन रही है। हमारी पहले की सामूहिक आधार वाली संवेदना रही है। पर यह जो आधुनिक संवेदना है वह तात्कालिक है। आज साहित्य की प्रासंगिकता भी शायद इसी वजह से कम हो रही है। तो नए मनुष्य के हिसाब से हमें नई तरह का साहित्य लिखना पडे़गा जिसमें सामूहिक के बजाए एकल मनुष्य के अंतर्मन की, उसके घात-प्रतिघात की बात होगी।
शैलेश सिंह : मनुष्य का अस्तित्व सामाजिकता में ही है यदि हम उसकी सामाजिकता को कम करते हैं तो वह किस हद तक मनुष्य रह पाएगा? काट देंगे तो उसकी क्या अहमयित होगी?
अनूप सेठी : ओमाजी, आप यह बताइए कि यहां सामूहिकता बनाम एकलता का यह सवाल पूरी तरह से सत्य है? पिछले दिनों जो विश्वव्यापी आंदोलन हुए हैं जिसमें कि मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है तो क्या यह दूसरी तरह का सत्य नहीं है? तो चाहे कलाएं हों या जीवन, क्या हमें दूसरी तरह के मानक या दूसरी तरह की दृष्टि नहीं रखनी होगी?
ओमा शर्मा : मैं सोचता हूं कि तकनीक को लेकर जो बात हो रही है उसका एक पक्ष या विपक्ष नहीं है सब एक अर्ध सत्य के रूप में परिवर्तित हो गया है। मैं विनोद जी की इस बात से सहमत नहीं हो पा रहा हूं कि रेडियो पर सामूहिक रूप से संगीत सुनने के बजाए अकेले कान में ईअर फोन लगा कर सुनने से आनंद कम हो जाता है। संगीत अब तकनीक के माध्यम से माइक्रोस्कोपिक स्तर पर उपलब्ध हो गया है। इसे हम चाहे जहां सुन सकते हैं। आज व्यक्ति कानों में लगाकर सिर्फ़ संगीत नहीं सुन रहा है वह ख़बरें भी सुन रहा है। दूसरे, हम सामूहिकता को एक बहुत बडे़ मूल्य की तरह लेते हैं। लेकिन इसे विकास के तौर पर मूल्य से जोड़ना ज्यादती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लेकिन क्या वह सामाजिकता से इतना बिंधा हुआ या बंधा है कि उससे बिछड़ते ही उसका रोना शुरू कर दें? जबकि सामाजिकता की सिर्फ़ परिभाषाएं बदली हैं। हम चूंकि मनुष्य की सामाजिकता को ख़ास तरह से देखने के आदी रहे हैं तो हमें लगता है कि यह उसका अकेलापन है। उन्नत समाजों में अकेले में ही प्रतिभाएं जन्मी हैं। आप नीत्से को देखें। बालजाक की क्या सामाजिकता थी? उपादेयता की नहीं, यदि सृजन की बात करें तो वह हमेशा एकलता को ही तलाश करती रही है। इस तरह मैं समझता हूं लेखक के लिए स्थितियां खराब नहीं हैं।
अनूप सेठी : आपने लेखक के अकेले होने और सृजनात्मकता की जो बात की यह एक अलग पहलू है, और दूसरी बात कि जब व्यक्ति लोगों के बीच रहते हुए जैसे ट्रेन में चलते हुए प्लग लगा कर अकेले में सुनता है तो वह दुनिया में रहते हुए अलग हो रहा होता है।
विनोद दास : मेरा कहना था कि प्रौद्योगिकी मनुष्य को मनुष्य से दूर भी कर रही है। इस तरह जो अकेला व्यक्ति बनता है उसका चरित्र भी दूसरी तरह का होगा तो क्या हम साहित्य में उस चरित्र को वर्णित करने का तरीका वही रखेंगे जो सामूहिकता के समय वाले व्यक्ति के चरित्र को वर्णित करने का रहा है?
अनूप सेठी : अमरीक सिंह दीप आप बताएं कि इन मुद्दों को जोड़कर कथा साहित्य में चीज़ें कैसे आ सकती हैं, आ रही हैं या नहीं आ रही हैं?
अमरीक सिंह दीप : हमारा ये मानना है कि कलाएं मर रही हैं। जो चीज़ें पहले हाथ से बनाई जाती थीं, अब उन्हें तकनीक बना रही है। हमारा एक नाती है वह न सितार बजाना जानता है न तबला लेकिन उसने कंप्यूटर से अपना एलबम बना लिया। पहले हम लोग एक कहानी के छह-छह सात-सात ड्राफ्ट लिखते थे, हर बार हम नया जोड़ते थे। अब के लेखक लगता है पहले ही ड्राफ्ट में कहानी भेज देते हैं, तो लगता नहीं है कि कहानी या लेखन के स्तर में परिवर्तन हुआ है।
अनूप सेठी : तकनीकी दृष्टि से कंप्यूटर पर आप चाहे जितनी बार सुधार कर सकते हैं। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है वह कितनी मेहनत करना चाहता है। अशोक वाजपेयी ने एक बार कहा था कि उनकी वे कविताएं पहले ड्राफ्ट की ही हैं।
अमरीक दीप : हो सकता है.... अपना-अपना अनुभव है। पर आजकल जो लेखन हो रहा है उसे देखते हुए पहले ड्राफ्ट वाली रचना ही लगती है।
अनूप सेठी : प्रकाशजी, दीप जी ने यह नया मुद्दा जोड़ दिया। ये बताएं कि पहले ड्राफ्ट की कहानियों का क्या मामला है फिर संपादक की क्या भूमिका रह जाती है?
हरिचरण प्रकाश : मैं टेक्नोलॉजी चैलेंज्ड आदमी हूं। मुझे तो अगर स्विच भी आन-आफ करना होता है तो मेरे लिए यही एक बड़ा काम है। ख़ुद कंप्यूटर सैवी नहीं हूं हालांकि मेरे बच्चे हैं। मैं एक बात कहता हूं कि टेक्नोलॉजी नई चीज़ नहीं है। सिर्फ़ उसकी गति बदल गई है। मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूं, जिसने भी एल्विन टॉफलर की फ्यूचर शॉक किताब पढ़ी होगी वह जानता है कि पहले पहिया आया, गाड़ी और हवाई जहाज के आविष्कार के बीच साठ सत्तर साल का अंतर है। हर जनरेशन को नई तकनीक से सामंजस्य करना होगा। इसके अलावा कोई चारा नहीं है। तकनीक अपने आप में बुरी चीज़ नहीं है। साहित्य पर इसका असर इतना ही है कि यदि आप कालीदास की कृतियां पढ़ें या महाभारत पढ़ें तो वहां घोड़े, तीर, धनुष, रथ होंगे। यह उस समय की टेक्नोलॉजी है। आज हवाई जहाज, बंदूकें आदि हैं। विनोदजी की बात पर मेरा यह कहना है कि साहित्य का एक बेसिक इमोशन या क्राफ्ट होता है, उस पर असर नहीं आना चाहिए। अगर वो आता है या तकनीक इस इस सीमा तक आक्रांत करती है कि आपकी मूल भावनाएं पूरी तरह से मेटामॉरफाइज (रूपांतरित) हो जाएं ... पर शायद अभी ऐसा नहीं है। ऐसा हो सकता है कि नहीं मुझे नहीं मालूम। मुझे नहीं लगता कि यह इतना आसान है क्योंकि इसके अनेक ध्वंसात्मक पहलू हैं जिससे समाज भी विनष्ट हो सकता है। ओमा जी की बात के संदर्भ में कहना चाहता हूं कि सृजनात्मकता के लिए सामाजिकता गले की फांस नहीं है। उदाहरण के लिए भक्ति साहित्य के समय में वे सामाजिकता को एड्रेस नहीं कर रहे थे, वे ख़ुद को एड्रेस कर रहे थे। बाद में उनका साहित्य लोकप्रिय हुआ। लेखक का सेल्फ (आत्म) कितना बड़ा है यह उसी पर निर्भर करेगा। यदि उसमें पूरा समाज शामिल है तो उसे बहुत ज्यादा सामाजिक होने की ज़रूरत नहीं है।
अनूप सेठी : आपने भक्तिकाल के समय की बात की, आधुनिक काल में व्यक्तिवादी धारणा अस्तित्ववाद के परिप्रेक्ष्य में आप क्या कहेंगे। आप कह रहे हैं कि भक्तिकाल की जो व्यक्तिकेंद्रिकता है वह उस तरह से सामाजिक नहीं है। लेकिन आधुनिक समय में, ख़ास तौर से महायुध्दों के बाद तो बाकायदा व्यक्तिवादी साहित्य लिखा गया, हमारे यहां भी लिखा गया वह अत्यधिक व्यक्तिकेंद्रित है। ('चिंतन दिशा' में भी समकालीन कविता पर एक बहस चल रही है) व्यक्ति के अंदर जो तोत्रड-फोत्रड हो रही है, जिसकी अगली कत्रडी विनोदजी जोत्रड रहे हैं कि प्रौद्योगिकी के साथ व्यक्ति के भीतर जो ध्वंस की प्रक्रिया संभावित है या चल रही है उसे आप कैसे देखते हैं?
हरिचरण प्रकाश : मैं इसे व्यक्ति के भीतर तोत्रड-फोत्रड मानने को तैयार नहीं हूं। जब भी कोई नई चीज़ आयेगी तो तोत्रडफोत्रड करेगी ही। एक ज़माने में लखनऊ में तांगे चलते थे लोग कहते थे कि आटो आते ही तांगे खतम हो जाएंगे। कोई भी नई तञफॅलोजी रोज़गार के नए अवसर प्रदान करती है।
अनूप सेठी : व्यापार और ग्लोबलाइजेशन तो हर समय में अपने हिसाब से हुई ही है। लेकिन आधुनिक समय में इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रानिक्स के अंतर और टेञ्ािफ्कल और टैञफॅलोजिकल के अंतर को ध्यान में रखना ही पत्रडेगा। व्यक्ति और समाज पर तांगे और मर्सीडीज के प्रभाव में बहुत अंतर है, ट्रेन के चलने और हवाई जहाज के चल जाने ने व्यक्ति को बदला है।
हरिचरण प्रकाश : इस सेंस में तो बदला ही। आदमी अपने क्षेत्र से बाहर निकला तो उसके इंट्रक्शन का दायरा बत्रढा है। इससे उसकी तात्कालिक क्षेत्रीयता कम र्हुई है। इस तात्कालिक क्षेत्रीयता को वह बत्रडा गुण और मूल्य मानता था यह उसकी आइडेंटिटी था। कुछ लोग मानते हैं कि उस आइडेंटिटी का ध्वंस हुआ है, मेरा मानना है कि उस आइडेंडिटी का परिष्कार हुआ है।
अमरीक दीप : हम इस बात से सहमत नहीं हैं कि तकनीक रोज़गार के अवसर देती है। हम फैक्ट्री में वर्कर की तरह काम करते रहे हैं। इसकी वजह से मजदूरों की संख्या घट गई है। फैक्टरी में जहां कई हजार लोग थे अब कम हो गये हैं।
हरिचरण प्रकाश : वहां कम हुए हैं लेकिन दूसरे क्षेत्रों में नए अवसर पैदा हुए हैं।
विनोद दास : तकनीक ने एक और परिवर्तन किया है कि चीज़ों को लोकतांत्रिक भी बनाया है। जैसे लोग चप्पल पहनने लगे, कमीज़ पहनने लगे, प्रोडक्शन बत्रढ गया है। पहले लोग नंगे घूमते थे अब सस्ती कमीज़ें मिल जाती हैं, मोबाइल उपलब्ध हैं। यह सब तकनीक ने ही तो उपलब्ध कराया है। तकनीक ने एक तरह से हमें सशक्त भी बनाया है। इस सब से एक नया मनुष्य बन रहा है इसे पहचानने की ज़रूरत है। क्या हम इसे पहचानने की कोशिश करते हैं? इसके लिए नई भाषा, नई शैली, नई तकनीक चाहिए।
आर के पालीवाल : मैं वापस घूम के तकनीक के ही मुद्दे पर आता हूं। चीज़ों को सफेद और काले में देखने की हमारी परंपरा रही है। तकनीकी को भी साहित्य में ब्लैक एंड ह्वाइट ही देखने की कोशिश हो रही है। तकनीक को इस एंगल से नहीं देखना है। तकनीक से सुविधाएं भी हैं परेशानी भी है। सवाल अपनाने का है। जैसे अमरीक सिंह ने कहा कि हमारे यहां मनुष्य बल अधिक है। यहां पर यदि लाभ को देखते हुए सुपर कंप्यूटर आदि लगा लिए जाएं और मनुष्य को हटा दिया जाए तो इस तरह तकनीक को हमें नहीं अपनाना चाहिए। तकनीक की कई खामियां भी हैं जिनका हमें आसानी से पता नहीं चलता। मोबाइल व कंप्यूटर की संस्कृति ने हममें स्मृति लोप ला दिया है। पहले बहुतों के नंबर याद रहते थे, नाम याद रहते थे। अब फीड करके रखने में यक़ीन रखते हैं। गांधी और विनोवा को याद करते हुए हमें तकनीक का सावधानी से चुनाव करना होगा। अभी फोन की जो बात हुई कि यदि मुझे एकांत मिले तो संगीत सुन सकता हूं पर जब मैं कई लोगों के बीच बैठा हूं क्या तब अकेले में संगीत सुनना ठीक है। या सत्रडक पर चलते हुए सुनना है और दुर्घटना को आमंत्रित करना है। तकनीक को मास्टर की तरह नहीं बनने दिया जा सकता कि वो आप पर कब्जा कर ले। ऐसी तकनीक के अपनाने में हमें कोई हर्ज नहीं जो हमारी सहायता करे। तकनीक और साहित्य, तकनीक व समाज, तकनीक व विश्व सबको हमें समग्रता में लेना पत्रडेगा। ऐसी तकनीक से हम बचें जो हमारी स्मृतियों को नष्ट करे जो हमारी मित्रताओं को नष्ट करे, हम किसी से मिलें-जुलें नहीं बस केवल फेसबुक पर ही मिलें। जबकि तकनीक का अच्छा पहलू है कि हम कट पेस्ट कर के ड्राफ्ट बना लेते हैं। जो हमारे काम को सहज बनाते हैं उनको अपनाने में गुरेज नहीं करना चाहिए। हमें विवेक से काम लेना पत्रडेगा कि हमारे सरोकार, हमारा साहित्य संस्कृति बची रहे।
हरिचरण प्रकाश : प्रश्न यह था कि यह जो तकनीक आ रही है इससे क्या संवेदनाओं के स्तर पर कोई परिवर्तन हो रहा है। मैं समझता हूं आज संवेदना के हर स्तर पर परिवर्तन हुआ है। आज के साहित्य में अनेक लेयर्स मिलती हैं। ये लेयर्स पचास साल पहले के साहित्य में नहीं मिलेंगी लेकिन महाभारत में ज़रूर मिल जाएंगी।
अनूप सेठी : वजह?
हरिचरण प्रकाश : वजह बहुत साफ़ है। जो तकनीक दिखाई नहीं पत्रडी, उसकी उन्होंने कल्पना कर डाली। जो तकनीक आज आपको दिखाई पत्रड रही है, वह सारी तकनीक महाभारत में इमैजिन्ड (कल्पित) है। वहां सब वर्चुअल है।
विनोद दास : पालीवालजी ने एक बहुत अच्छी बात कही है कि तकनीक हमारी स्मृति को नष्ट कर रही है। साहित्यकार स्मृति का एक बहुत बत्रडा रोल अदा करता है। एक तरह से वह स्मृति का ही पुनर्पाठ या पुनर्रचना करता है। स्मृति को याद रखने के लिए साहित्यकार स्मृतियों का ही पुनर्लेखन करता है। टेञफेलॉजी स्मृति का लोप करने का बत्रडा आघात करने जा रही है। यदि व्यक्ति के स्वभाव से स्मृति ही ख़त्म हो जाएगी तो वह स्मृति को याद रखने के लिए साहित्य क्यों पत्रढना चाहेगा। अगर टेञफेलॉजी व्यक्ति को साहित्य से विमुख करेगी तो बहुत सारे इमोशन्स से भी विमुख करेगी।
हरियश राय : मैं तकनीक को एक शैली के रूप में देखता हूं। इसने हमें एक सुविधा दी है कि हम अपनी बात को सहज और जल्दी कर सकें। जहां तक लेखन को प्रभावित करने की बात है, हरिचरण ने जैसा कहा कि मूल रूप में हमारे सरोकार हैं, हमारी संवेदना है। क्या कंप्यूटर के आने से हमारे सरोकार बदल जायेंगे या हमारी संवेदना में कोई फ़र्क आ जायेगा। तकनीक से हम अपनी चीज़ें लोगों तक जल्द-से-जल्द पहुंचा सकते हैं। तकनीक से आक्रांत होने की ज़रूरत नहीं है। हम पोस्टकार्ड से टेलीफोन पर आये। हमें याद है ज्ञानरंजनजी कार्ड लिखा करते थे। आज यदि 'पहल' निकलता तो एस.एम.एस आता पर बात तो वही रहती। मोबाइल व लैपटाप के आने से हमारे व्यक्तित्व में कोई ज्यादा फ़र्क आया हो ऐसा मुझे नहीं लगता। बल्कि हमारे लिए चीज़ें सहज और सुविधाजनक हो गईं। मूल बात मनुष्यता की है। इसे व्यक्त करने में मोबाइल या लैपटाप बहुत मदद नहीं कर पायेगा। सिर्फ हमारी बात को जल्द पहुंचाने में ही मदद करेगा। विनोदजी ने इंदिरा व नेहरू के पत्रों का ज़िक्र किया था। क्या आज पत्र नहीं लिखे जा रहे हैं। मैं उदाहरण दूंगा हाल में विजेंद्रजी ने 'चिंतन दिशा' को एक लंबा पत्र लिखा। लिखा शायद हाथ से ही होगा पर भेजा ज़रूर ई-मेल से होगा। यानी तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ़ भेजने में किया होगा। एक बात और कि तकनीक के चाहे लाख फायदे हों फिर भी हम किताब तो पत्रढना ही चाहते हैं। किताब से जो सुकून मिलेगा वह इंटरनेट से नहीं मिलेगा। तकनीक एक शैली है जिसने समय के अंतराल को कम किया है। इसलिए आक्रांत होने की ज़रूरत नहीं है।
अनूप सेठी : मुझे यह लग रहा है कि तकनीक सिर्फ़ शैली नहीं है। जैसे विनोद जी ने स्मृति के लोप की बात कही, तो मुझे लगता है कि तकनीक के साथ हमारे संबंधों में एक तरह की रासायनिक प्रक्रिया भी चल रही होती है। जैसे पत्र की जगह एस.एम.एस ने ले ली। चिट्ठियों में जो अंतराल होता था, घटना के घटित होने, उसकी सूचना देने और दूसरे व्यक्ति तक उसके पहुंचने के वक्फे तक वह भावभूमि दोनों छोरों पर व्याप्त रहती थी। प्रोलॉन्ग्ड टैंशन यानी प्रदीर्घ तनाव। उससे व्यक्ति के भीतर एक भिन्न प्रकार की हरकत होती थी। एक भावनात्मक, संवेदनात्मक, वैचारिक प्रक्रिया चलती थी। इसकी तुलना में देखें तो एस.एम.एस तुरंत आ जाता है रीयल टाइम में। जहां एक्शन तो है रिएक्शन के लिए समय नहीं है। सिर्फ़ संचार के साधन ही नहीं, परिवहन के साधनों ने भी तो समय को सिकोत्रड दिया है। अलग अलग तरह का जेट-लॉग व्यक्ति को झेलना होता है। जीवन में इतनी ज्यादा तेजी आ गई है, हरिचरण जी ने टाफलर का ज़िक्र किया कि जो फ्यूचर शॉक लग रहा है, क्या व्यक्ति में इसे झेलने की क्षमता है? वह यह क्षमता अर्जित कर लेगा? कब करेगा? इस प्रक्रिया में से गुज़रने को ही मैंने टूटफूट कहा था। सहस्राब्दियों से जो हमारे क्रिया प्रतिक्रिया के पैटर्न बने हुए हैं वो तेजी से बदलेंगे तो कैसे मनुष्य की रचना होगी। साहित्यकार के नाते हम यह सोच रहे हैं कि मनुष्य इस प्रभाव को कैसे ग्रहण और अभिव्यक्त करेगा।
हरिचरण प्रकाश : क्या हम कुछ लाउड थिंकिड नहीं कर सकते कि जो प्राब्लम हो रही है यानी तकनीक कम्युनिकेशन बत्रढाती है पर कम्युनिकेशन इम्पर्सनल होती जाती है। क्या साहित्यकार इस इम्पर्सनल इंटरेक्शन को साहित्य में ला पायेगा या नहीं। मेरे ख्याल से यही प्रश्न है। मेरा मानना है कि वह कर सकता है। तकनीक कहीं से बाधित नहीं कर पायेगी। कोई अक्रांत होने की ज़रूरत नहीं है। हाथी घोत्रडे तीर कमान जब बाधित नहीं किये तो हवाई जहाज बाधित नहीं करेगा।
अनूप सेठी : तो यहां एक निष्कर्ष यह निकल रहा है कि तकनीक से आक्रांत होने की ज़रूरत नहीं है साहित्यकार इससे उबर सकता है।
अमरीक दीप : जो जिस तरह से लिख रहा है उसी तरह लिखता रहे, उसमें बाधा नहीं पड़नी चाहिए।
हरियश राय : जब तक हम समाज से नहीं जुत्रडेंगे बेहतर नहीं रच सकेंगे। तकनीक इस मामले में घातक है, हमें समाज से कहीं-न-कहीं काट रही है। हमको सायास प्रयास करने पत्रडेंगे। इसकी अच्छाइयों को स्वीकार करें और बुराइयों से बचें।
शैलेश सिंह : मेरा मानना है कि तकनीक हमारे इमोशन्स को हैंपर कहीं-न-कहीं बुरी तरह से कर रही है। अब नए इमोशन जो बनेंगे उनकी शक्लो सूरत क्या होगी यह अभी धुंधला है। कोई कांक्रीट शेप अभी नहीं है। यदि आप गति को लेते हैं, एक व्यक्ति जो लगातार वायुयान से यात्रा करता है वह ज़मीन की तमाम वनस्पतियों से खोता चला जाता है। उसे रंगों की गंध की तमीज नहीं होती है। उसकी चेतना को वे कैसे प्रभावित करती हैं कैसे बनाती हैैं। हमारे इमोशन को ये चीज़ें हैंपर कर रही हैं। तकनीक के बहुत सारे लाभ हैं लेकिन एक बेसिक ह्यूमन सरोकार आहत व प्रभावित हो रहा है। किस तरह का नया मनुष्य बनेगा, उसकी चेतना कैसी होगी, कहा नहीं जा सकता। स्मृति लोप की बात कही गई। मैं बताऊं लोकल ट्रेन में यात्रा किये बिना मुंबई को जाना नहीं जा सकता। तकनीक हमें लोकेल से सेपरेट करती है जो कला के लिए घातक है। कला की प्रथम शर्त है कि कला केवल आत्मानंद नहीं है वह मुक्ति भी है और समूह की मुक्ति है यह केवल स्व की मुक्ति नहीं है। इस पर प्रभाव पत्रडने का ख़तरा मुझे नज़र आता है। यह चिंता की बात है।
ओमा शर्मा : जैसा हरियशजी ने और शैलेशजी ने कहा कि हम अपने संस्कारों व मूल्यों से ही हमेशा बाधित होते रहते हैं। यह कहना कि हर रचना का एक सामाजिक आयाम होता है या रचना समाज को बदलती है या प्रभाव डालती है यह उसका अतिरिक्त आयाम है। रचना की सार्थकता समाज से इतर है।
अनूप सेठी : क्या यह स्वायत्त है?
ओमा शर्मा : स्वांत: सुखाय नहीं हो सकती।
हरियश राय : फिर रचना की सार्थकता क्या है? इससे दूसरा सवाल यह उठता है कि रचना क्यों?
ओमा शर्मा : उस पर भी हम आएंगे। कोई भी रचना चाहे संगीत हो या लेखन हो यह अंतत: एक कला है। उससे समाज पर जो असर पत्रडता है वह उसकी लोकप्रियता का आधार तो हो सकता है पर कलात्मकता का नहीं है। तकनीक हमें कहीं से भी आत्रडे नहीं आती। तकनीक का अपना एक समाजशास्त्र, अपनी प्रवृत्ति होती है। जब हम यह कहते हैं कि वह कितनी गति से आनी चाहिए या उसे किस हद तक हमें लेना चाहिए, तब हम इस पर अपना वैल्यू जजमेंट आरोपित करने लगते हैं। तकनीक किसी भी दौर में, न पहले न अब, ज़रूरत के मुताबिक या हमारे मूल्यों के मुताबिक नहीं बदली है, न आगे बदलेगी। जो बात कही गई है कि स्मृति सृजन का आधार होती है, मैं इससे भी बहुत ज्यादा इत्तिफाक नहीं रखता हूं। क्योंकि ये पिछले सौ-पचास वर्ष की ही सोच का निष्कर्ष है जिस धारा में निर्मलजी या मिलान कुंदेरा आते हैं। यह दरअसल एक सोच या विचार है। ये कोई सार्वभौमिक सत्य नहीं है। इसे तकनीक के बरक्स देखें तो स्मृति लोप भले हो रहा हो क्योंकि हम सूचना के अंबारों के बीच जी रहे हैं लेकिन स्मृति को सहेजने की जो क्षमता हमें तकनीक दे रही है वह अकल्पनीय है। आपको फोटो को या नंबर को जेहन में रखने की ज़रूरत नहीं है।
अनूप सेठी : बाहरी साधन के रूप में दे रही है, व्यक्ति के भीतर नहीं दे रही है।
शैलेश सिंह : जब हम आपको देखते हैं तो पूरा व्यक्तित्व स्मृति में कौंधता है। आपकी कहानी पत्रढकर यदि कोई फोन पर संवाद करता है तो उस पर आपके व्यक्तित्व का कोई असर नहीं पत्रडता है। लेकिन जो आपको जानता है वह आपकी कहानी को आपके व्यक्तित्व से जोत्रड कर देखेगा। उसके आस्वादन की स्थिति अलग हो जाती है। स्मृति को इससे जोत्रडकर भी देखना चाहिए।
अनूप सेठी : हेरिडिटरी कुछ चीज़ें बायोलाजिकली चल रही होती हैं हर एक व्यक्ति के भीतर।
हरिचरण प्रकाश : मैं मानता हूं कि स्मृति एक बायलॉजिकल फिनोमिना है पूरे तरीकों से। स्मृति को यदि ट्रेडिशनल अर्थों में देखेंगे तो मुश्किल हो जायेगी। जब वेद पहली बार लिखे गए तो कहा गया यह श्रुति है। इसे नहीं लिखा जाना चाहिए। तो तकनीक का मतलब है कि वह लिखा जाने लगा। स्मृति का मतलब यही नहीं है कि जो चीज़ें आपको याद आ रही हैं वही स्मृति है बल्कि आप जो कुछ करते हैं वह स्मृति का हिस्सा हो जाता है। आप उसे कितना बचाते हैं वह आप पर है। स्मृति पर आघात बहुत हैं। माइंड फिल्टर करता चलता है उसकी कैपिबिल्टिी के अनुरूप। रचना एक केमिकल कंपोजीशन भी है। कोई देवदूत नहीं आकर लिख जाता है। तकनीक प्रभावित तो निश्चित ही कर रही है। लेकिन उससे साहित्य का कोई नुकसान नहीं हो रहा है। क्योंकि हर ज़माने के साहित्य ने अपने समय की टैञफॅलोजी को अपना वशवर्ती बनाया है। और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि आज का साहित्यकार आज की टैञफॅलोजी को अपना वशवर्ती न बना ले। वशवर्ती का मतलब टैञफे सेवी हो जाना नहीं है। उसकी एक समझ होना ज़रूरी है कि यह समाज को कैसे प्रभावित कर रही है।
आर.के. पालीवाल : मैं तकनीक के बेहद व्यावहारिक पहलू की बात बताता हूं। दूर दराज के इलाकों में जहां तकनीक नहीं है वहां नये बच्चे काम के लिए जाते ही नहीं। क्योंकि वहां कंप्यूटर मोबाइल काम नहीं करता। बुजुर्गों का कहना है कि तकनीकी सुविधाएं न होने से वहां काम करना मुश्किल है। मतलब यह कि तकनीक को हमने इतना हावी होने दिया, हम उससे इतने प्रभावित हो गये हैं कि बिना उसके नहीं रह सकते। यह भौगोलिक रूप से भी बत्रडा इलाका है। मतलब लोग वहीं रहना चाहेंगे जहां तकनीकी सुविधाएं हैं। अब तकनीक का दूसरा उदाहरण देखिए, वन अधिकारियों ने बताया कि उन्होंने युवकों से पूछा कि आप लोग जंगल वगैरह में घूमने क्यों नहीं आते? तो उन्हें उत्तर मिला कि सर जियोग्रेफी चैनल पे इतना अच्छा टाइगर शिकार करते हुए सेक्स करते हुए देखने को मिल जाता है, यहां तो कुछ नहीं मिलता। अधिकारी कहता है कि यहां इसके अलावा पेत्रड, नदी पहात्रड भी तो हैं। वो कहते हैं साहब वहां सब दिख जाता है और इससे अच्छा दिखता है। तो तकनीक इस तरह भी प्रभावित कर रही है।
अनूप सेठी : विनोद जी, यह बातचीत आपसे शुरू हुई थी। और हम लोग मनुष्य और समाज पर प्रौद्योगिकी के प्रभाव पर बात करना चाह रहे थे। जैसा अक्सर सामूहिक चर्चा में होता है, कुछ बातें काम की निकल आती हैं। आज की इस बातचीत में भी हम प्रौद्योगिकी के चरित्र और प्रभाव पर बिखरी हुई सी ही सही पर कुछ चर्चा तो कर ही पाए हैं। यह विषय घोर वर्तमान का है और जटिल भी है, इसलिए एक सत्र में पूरी तरह पकत्रड में आने से रहा। फिर भी आप ही इस चर्चा को समेटने की कृपा करिए।
विनोद दास : हम यही तो कह रहे थे कि एक जो नया मनुष्य बन रहा है, तकनीक की वजह से उसकी चेतना पर क्या असर हो रहा है? उसका अंतरमन कैसे बदल रहा है और जो नया मनुष्य या नये करेक्टर हमारे पास आ रहे हैं हरिचरण ने कहा इम्परसनल मनुष्य बन रहा है जिसके संबंधों में रागात्मकता नहीं रहेगी। जब रागात्मकता नहीं रहेगी तो वह राग वाली चीज़ों के प्रति मुत्रडेगा या नहीं। यदि मुत्रडेगा तो किस तरह के राग व संबंधों की ओर मुत्रडेगा। उसे हम किस तरह एड्रेस कर सकेंगे। इम्परसनल होते हुए व्यक्ति को हम किस तरह परसनल या रागात्मकता से जोत्रडें। यह एक मुद्दा है। इसे कैसे कर पायेंगे यह हर लेखक अपनी तरह से सोचेगा। मेरा कहना है कि इस तरह के नये मनुष्य की भावनाओं को व्यक्त करने की, उनके इमोशन्स को पकत्रडने की ज़रूरत होगी। एक दूसरे से जोत्रडने की... जुत्रडने की ज़रूरत होगी। हर लेखक इसे अपनी तरह से करेगा। वह कैसा मनुष्य रचता है यह महत्वपूर्ण होगा न कि किस तकनीक से वह जुत्रडता है। क्या वह अपने समय के मनुष्य को बदलने में सक्षम है? शायद सक्षम होगा। क्योंकि यही हमारी चिंता है। यही हमारी भूमिका भी है।
ओमा शर्मा : पता नहीं इस चर्चा में अब आगे बोलना चाहिए या नहीं, पर फिर भी एक बात मन में आ रही है कि आधुनिक समय में जो तकनीक से इतना ज्यादा संचालित है और प्रेरित है उसके लिए साहित्य व कला की ज़रूरत है भी कि नहीं। पहले भी जब साहित्य पराकाष्ठा पर रहा है, तब संगीत को छोत्रडकर दूसरी विधायें नहीं थीं तो मनुष्य के एकांत को भरती हों या उसे सामाजिकता से जोत्रडती हों। आनंद के लिए आज साहित्य से इतर चीज़ें उपलब्ध हैं। तथाकथित जो साहित्य के शेड्स हैं जैसे चालू साहित्य का बत्रडा बाज़ार है। गंभीर साहित्य के पाठक हैं क्या। क्या अब कोई साहित्य क्रांति के लिए प्रेरित कर पायेगा या उसकी ज़रूरत है भी? क्रांति के जो कारक हैं वे साहित्य से इतर हैं। जिन मुल्कों में जबरदस्त क्रांतियां हुई हैं सबके राजनीतिक आर्थिक कारण रहे हैं। राजनीति से भी ज्यादा आर्थिक। ये अंतत: वही शक्तियां हैं जो समाज को संचालित कर रही हैं। इन्हें दबा के नहीं रखा जा सकता। धीरे-धीरे भारत में भी दबी आकांक्षाओं वाले लोग जुत्रडेंगे। हमारा साहित्य आत्रडे नहीं आयेगा। तकनीक लोगों को जोत्रडेगी।
शैलेश सिंह : मैं एक उदाहरण दे रहा हूं। जापान, तकनीकी दृष्टि से विकसित देश है। अभी जो सुनामी आयी थी बत्रडी तबाही हुई वहां तकनीक का जो दुष्परिणाम हुआ आप जानते हैं। मैं तकनीक का विरोधी नहीं हूं। वहां पच्चीस वर्षों से यह प्रकृति रही है कि युवक जो है वह विवाह नहीं कर रहा था। वह तकनीक में इतना इन्वाल्व था कि वह विवाह को भी ज़रूरी नहीं मानता था। वहां का मैरिज रेशियो गिरकर 12् तक आ गया था। एक डॉक्टर की रिपोर्ट है। इस दुर्घटना के बाद बहुत से लोग वहां अकेले हो गये हैं। दुर्घटना के समय आपको परिजन की ज़रूरत होती है कम-से-कम कंधे पर सर रख कर रोने के लिए। इस घटना ने लोगों को विवाह के लिए प्रेरित किया। अब वहां शादियों में करीब पांच गुना वृध्दि हुई है।
हरियश राय : साहित्य से भले ही क्रांति न होती हो, पर सामाजिक बदलाव में इसकी बत्रडी भूमिका होती है। साहित्य का समाज से गहरा रिश्ता है। आज़ादी की लत्रडाई के दौरान फ़ैज़, नजरुल इस्लाम की ग़ज़लों का लोग हिरावल दस्ते की तरह गायन करते रहे और प्रेरित होते रहे। भगत सिंह ने लेनिन को पत्रढते हुए अपने अंतिम दिन बिताए थे। कहीं-न-कहीं अंत:चेतना को अच्छा साहित्य प्रभावित करता है। अच्छे साहित्य की मांग हमेशा बनी रही है। गोर्की, रेणु, परसाई सबको हम पत्रढते रहते हैं। किताबें कलाएं मनुष्य की संवेदना को एड्रेस करती हैं।
ओमा शर्मा : क्या इन रचनाओं के बिना आज़ादी की लत्रडाई नहीं लत्रडी जा सकती थी?
अनूप : माना कि साहित्य से सीधे-सीधे क्रांति नहीं होती लेकिन कला क्या सिर्फ़ रंजन का कार्य करती है? कला जो संवेदनात्मक क्रिया व्यक्ति के भीतर करती है क्या इसका व्यक्ति के परिष्कार में कोई रोल होता है या नहीं? संगीत चाहे शास्त्रीय चाहे लोक, ज़ाहिरा तौर पर कोई परिवर्तन नहीं करता, लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि संगीत कुछ नहीं करता? और जब संगीत के साथ शब्द जुत्रड जाते हैं तब तो उन्हें पंख लग जाते हैं। माना कि समाज को दूसरी शक्तियां चलाती हैं लेकिन व्यक्ति को चलाने वाली तो बहुत सी चीज़ें होती हैं। शब्द पर आरूत्रढ जब विचार व्यक्ति में प्रविष्ट होता है तो क्या वह स्मृति की रचना का कारक नहीं बनता? और अगर बनता है तो क्या वह कोई परिवर्तन नहीं करता? आप सहमत होंगे कि करता है। असल में कला शब्द विचार संवेदना का परस्पर गहरा अंत:संबंध है। इसलिए कलाएं सिर्फ़ रंजन नहीं करतीं बल्कि व्यक्ति के जीवन को परिमार्जित भी करती हैं। कलाएं अंदर से बदल देती हैं। कोई भी कलात्मक अभिव्यक्ति समाज निरपेक्ष नहीं होती।
हरिचरण प्रकाश : बिल्कुल, कलाएं अंततोगत्वा समाज निरपेक्ष होती ही नहीं।
यह चर्चा चिंतनदिशा के ताजा अंक में छपी है।
हृदयेश मयंक, संपादक चिंतनदिशा
अच्छा विमर्श हुआ। तकनीक का एक फ़ायदा यह भी हुआ कि आपका विमर्श हम तक पहुंच गया। :)
ReplyDeleteतकनीक ने विस्तार दिया है, उसमें खो न जाना हमारी चुनौती।
ReplyDeleteये अच्छा है कि हम इसके अच्छे और बुरे दोनो परिणाम समझें
ReplyDeleteआप लोगों ने एक जटिल विषय पर चर्चा की . यह बड़े हिम्मत का काम था . आज कोई नहीं करता . इसे प्रकाशित करना और भी हिम्मत का काम था . साधुवाद.
ReplyDeleteतकनीक जितनी चीज़ों को जीवन और कला के परिदृश्य से मिटा रही है ; उस से सैंकड़ों गुना अधिक चीज़ों को वहाँ पैदा भी कर दे रही है -- कुल मिला कर तकनीक ने अनुभव संसार को व्यापक बनाया है और अभिव्य्क्ति के स्कोप को भी विस्तार दिया है . मुझे इस मे *खोने* जैसा कुछ महसूस नही होता क्यों कि जब तक हम बदलावों की त्वरा को पकड़े रख पाएंगे कुछ नही खोएंगे . न जीवन मे , न उस की अभिव्यक्ति में , न ही जीवन की गति को सुनिश्चित करने वाले वाईटल संवाद में .
क्या है कि हम कुछ चीज़ों के आदी हो जाते हैं .उन्हे भूलना आसान नही होता . आप को एक निजी अनुभव सुनाता हूँ -- जब मैं पहली बार लाहुल से बाहर निकला , रोह्ताँग पार कर कुल्लू और फिर चण्डीगढ़ आया था तो मुझे टोपी उतारने मे बड़ी भारी तकलीफ हुई थी .बाद मे पता लगा कि मेरे हेयर स्टाईल से कॉलेज की सुन्दर लड़्कियाँ आकर्षित हो रहीं हैं तो टोपी का मोह अपने आप मिटता चला गया ;)आज मै उस टोपी का तमाम *सुकून* भूल चुका हूँ . बल्कि टोपी उतारने के बाद ही मुझे पता चला कि लाहुल मे भी अब बिना टोपी के काम चल जाता है . तापमान बढ़ गया है .(यह और भी हैरत अंगेज़ है कि इस बदलाव का कारण क्लाईमेट चेंज है, जो कि तकनीक का बाई प्रोडक्ट है )
लेकिन कुछ लोग अभी भी टोपी से चिपके हुए हैं , टोपी की शान मे क़सीदे पढ़ रहे हैं . उन की अपनी दुनिया है . उन के अपने सच हैं . वहाँ जो देशी ऊन की गन्ध है , नरम मुलायम तपिश है वह बहुत ज़िन्दा है उन के अपने तईं जायज़ है .इन स्मृतियों का लोप नही हो सकता ..... क्यों कि आज भी जब साईबेरिया की *ठण्डी * हवाएं चलती हैं तो ये टोपियाँ बेतरह याद आतीं हैं. तो ये लेयर्ज़, यह रेंज, यह विविधता और उन का आपसी संघर्ष आज के अनुभव संसार को व्यापक और अभिव्यक्ति को अधिक समृद्ध बनाता है. कहने की ज़रूरत नही कि तकनीक ने ही मुझे शहर पहुँचाया और मेरी टोपी उतारी . और यह तकनीक ही है जिस ने अभी अभी मुझे देश के कुछ गिने चुने बुद्धिजीवियों से सम्वाद करने मे मदद की . इस ने कम से कम मुझे तो किसी से काटा नही ; जोड़ा ही है. कोई चीज़ मुझे अपने समाज से काटती है वह मेरी व्यक्तिवादी सोच है न कि तकनीक . मेरी समझ मे तकनीक को महज़ एक टूल की तरह इस्तेमाल करने की ज़रूरत है .