जैसा कि आप जानते हैं, मुंबई से प्रकाशित पत्रिका चिंतनदिशा में विजय बहादुर सिंह और विजय
कुमार की चिट्ठियों के जरिए समकालीन
कविता पर बहस शुरू हुई थी. अगले अंकों में इन
चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह; राधेश्याम
उपाध्याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और
मेरी प्रतिक्रियाएं छपी. ताजा अंक में विमल कुमार और नित्यानंद श्रीवास्तव की टिप्पणियां
छपी हैं. विमल कुमार की टिप्पणी आप पढ़ चुके, अब प्रस्तुत हैं नित्यानंद श्रीवास्तव के विचार
समकालीन कविता पर 'चिन्तन दिशा' पत्रिका द्वारा आयोजित बहसों (पत्रों और लेखों) को पढ़ने-गुनने
के दौरान निराला की दो कविताओं 'दान' (अनामिका) एवं 'मास्को डायेलाग्स' (नये पत्ते) का अनायास स्मरण हो आया। इन दोनों कविताओं की
मौलिक चिंता जानने और बरताव करने के बीच अन्तर और अन्तराल की है। यह चिंता हर युग
के सचेत एवं जागृत व्यक्तियों की है- विश्व की हर चिंतन प्रणाली इसीलिए जानने से
अधिक बल व्यवहार के पक्ष पर देती रही है। भारतीय गुरुकुल परम्परा का आचार्य अपने
शिष्यों को दीक्षित करते समय 'गुरु' के अनिन्दित कर्मों का अनुसरण करने पर बल देता है। बुद्ध कहते
हैं, 'भिक्षुओं! मैंने बेडे़ की तरह पार
उतरने के लिए तुम्हें धर्म का उपदेश किया, उसे पकड़ रखने के लिए
नहीं। धर्म को बेडे़ के समान उपदेश जानकर तुम धर्म को भी छोड़ दो, अधर्म की तो बात ही क्या।'
(मज्झिम
निकाय) यह निरंतर स्वयं की परख का विषय है और जाहिर है इसकी ज़रूरत जीवन के हर स्तर
पर है।
भारतीय साहित्य में कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भू: की बात अकारण नहीं की गई
है। वाणी में अर्थ की प्रतिपत्ति का सीधा सम्बन्ध कवि के व्यक्तिगत जीवन से है।
विजय बहादुर सिंह ने समकालीन कविता और उसके कृतिकार के सम्बन्ध में जो
महत्त्वपूर्ण बात कही है उसे इस सन्दर्भ में पुन: देखें। वे कहते हैं, 'अगर कई एक चर्चित कवियों के जीवन प्रवाह का अध्ययन किया जाये
तो नतीजे बहुत दुखदायी निकलेंगे कि उन्होंने कविता को किस तरह चतुर फार्मूलों का
गुलाम बना डाला। उनकी कविता में व्यक्त अनुभवों का चरित्र बेहद अकादमिक शास्त्रीय
किस्म का रहा, जिसमें जीवन की वे पहचानें लगभग
नदारद दिखीं जिन्हें इनसे अधिक वह पाठक जानता है, जिसने
कोई कविता नहीं लिखी। कविता और जीवन का यह भारी अंतराल इस समकालीन रचनात्मकता का
सबसे दुखद पक्ष है।' यहाँ सवाल कविता और पाठक
के बीच दूरी का नहीं बल्कि स्वयं कवि का कविता से है। कवि मन का बार-बार इस प्रश्न
से टकराना ही आत्मसाक्षात्कार की कोटि में आता है। बुद्ध का 'अप्पदीपो भव' कबीर का 'आप पिछाणै आपै आप', तुलसी का 'स्वान्त: सुखाय:' और मुक्तिबोध और अज्ञेय
के आत्मालाप और निराला के बहुतेरे प्रार्थना गीत कवि के 'आत्म' की तलाश के प्रस्थान
बिन्दु हैं। कविता भी यहीं से प्रवर्तित होती है। गोस्वामी तुलसीदास ने वक्ता और
श्रोता के 'समशील' होने
की जो बात की है उसे आज की रचनाधर्मिता पर छाए भयावह संकट की पहचान और उपचार के
सिलसिले में रेखांकित किया जा सकता है। कूप-मंडूकता का आग्रही और उसके प्रति आनंद
भाव रखने वाला 'मन' स्वयं
को प्रश्नांकित करने से बचने के सप्रयास आयोजन करता है- कारण कि पडो़स का मंडूक
कहीं उससे अधिक ऊँची लम्बी छलाँग न लगा ले। विजय बहादुर सिंह के पत्र में उठाए गए
इस गम्भीर सवाल से प्रतिवादी लेखक विजय कुमार और विजेन्द्र जैसे विद्वान साफ़-साफ़
कतरा कर निकल गए हैं।
अब सवाल यह है कि कवि के आत्म-संघर्ष और आत्म-साक्षात्कार से श्रोता या
पाठक का क्या लेना देना है। करता रहे कवि आत्म-संघर्ष और आत्म-साक्षात्कार। जीवन
जैसा उसको मिला है, वैसा ही उसके श्रोता और
पाठक को भी। यहाँ तो सभी अपने ग़म में डूबे हुए हैं, न
ये खाली न वो खाली। यह भी ठीक है कि सिर्फ़ अपने ग़म के दायरे से लिखी गई कविता कोई
स्थायी मूल्य नहीं तलाश पाती। स्वान्त: सुखाय राम कथा कहने वाले तुलसी को राम
सिर्फ़ आराध्य होने के नाते प्रिय नहीं हैं। राम के प्रति तुलसी की प्रणति का एक
बडा़ कारण यह है कि स्वयं राम को 'खिन्न' यानी दुखी आत्तजन 'परम प्रिय' हैं। पूरा तुलसी साहित्य इसी संवाद और आत्मसातीकरण की
प्रक्रिया और उपलब्धि का साहित्य है। 'आत्म' के प्रति यह बोध इधर के कवियों में दुर्भाग्य से या जानबूझकर
एक सिरे से अधिकांशत: नदारद है।
यह 'आत्म' कोई
रहस्यात्मक वस्तु नहीं है। इसके अनिवार्य घटकों में, कवि के व्यापक लोकानुभव जो
उसे अपने मनुष्य और मनुष्येतर परिवेश से मिलते हैं एवं अपने समय तक प्राप्त
साहित्यिक एवं अन्य अनुशासनों की कृतियों के अध्ययन मनन चिंतन से उत्पन्न सचेत बोध,
की चर्चा की जा सकती है। इसके साथ ही वह 'विवेक' अपेक्षित है जो कवि को आरोपित प्रतिबद्धताओं तथा प्रगतिशील
चिन्ताओं को समय-समय पर प्रश्नांकित करने का हौसला देता रहे। यह हौसला जीवन के लिए
उसी तरह आवश्यक है जिस तरह हवा और पानी।
विज्ञान और तकनीक के यांत्रिक विकास ने धरती पर, 'जीवन' पर ही भयावह संकट उत्पन्न
किए हैं। लेकिन सबसे बडा़ भयावह संकट जिसे मनुष्य ने स्वयं अपने लिए सिरजा है, भस्मासुर की तरह, वह आत्म-विस्थापन और
आत्म-उन्मूलन का संकट है। स्मृतिहीनता का महारास रचातीं तमाम किस्म की विचार
सरणियाँ कई बार हितैषी जैसी बनकर मनुष्य को विक्षिप्त और अकेला कर देती हैं। यह
दैन्य और वर्तमान सभ्यता की ऊपरी चमक-दमक और उसके भीतर रिक्तता का दैन्य आज एक बडा़
संकट है। भक्ति साहित्य रचने वाले कवियों ने इस दैन्य की ठीक पहचान की थी। परकीय
और स्वकीय आततायी शक्तियों ने मनुष्यता की शक्ति एवं स्रोत के अपहरण का जो भयावह
कुचक्र चला रखा था, भक्ति के तत्त्व ने उन
दिनों इस शक्ति और स्रोत को सूखने से बचा लिया। 'प्रभु' दीनदयाल और ग़रीब नवाज इसीलिए हैं कि वे मनुष्य को सिर्फ़
आर्थिक ही नहीं बल्कि आत्मिक संघर्ष हेतु सन्नद्ध करने के लिए अपनी 'कृपा' का पात्र बनाते हैं।
भक्ति का यह तत्त्व ऍंग्रेज़ी सभ्यता के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष का मूलभूत प्रेरक
भी रहा है। क्रान्तिकारियों की प्रेरणाभूमि बंगाल से उस समय के योद्धा संन्यासी
स्वामी विवेकानन्द ने उन दिनों कहा था, 'आगामी पचास वर्ष के लिए
यह जननी जन्मभूमि भारतमाता ही मानो आराध्य देवी बन जाए। तब तक के लिए हमारे
मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। अपना
सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा
जाग्रत देवता है।'
विजेन्द्र ने अपने लेखसंवाद में 'समकालीन' शब्द में अर्थ-व्याप्ति मार्क्सवाद के सन्दर्भों में एवं
भारतीय मुक्ति संग्राम को रामविलास शर्मा के हवाले से नई जनवादी क्रान्तियों की
पहली महत्त्वपूर्ण कडी़ के सन्दर्भ में देखा है। इसी सिलसिले में विजय कुमार ने 'आदर्श भारतीयता' की बात नाक-भौं सिकोड़ते
हुए उठाई है।
अब रामविलास जी ने मार्क्स से कितना और क्या सीखा, मार्क्स स्वयं भारत के बारे में कितना और क्या समझते हैं और
भारतीयता के नाम पर आपकी नाक-भौं क्यों सिकुड़ जाती है। यह सोचने विचारने का एक
मुद्दा हो सकता है। सोचने-विचारने का मुद्दा यह भी है कि जिस स्वातंत्र्य संघर्ष
को आप जनवादी क्रान्ति की कडी़ के रूप में देखते हैं, उस स्वातंत्र्य संघर्ष में बहुतेरे मार्क्सवादी अनुकर्त्ताओं
की दिलचस्पी देश-विभाजन के प्रसंग में ज्यादा थी, बहुतेरे
लोग सुभाषचन्द्र बोस के प्रति विकृत मनोभाव रखते थे और बहुत से लोग स्वंतत्रता
प्राप्ति के बाद चीन से हुए संघर्ष में चीनी आक्रमण का स्वागत कर रहे थे।
विजेन्द्र किस मार्क्सवाद के पक्ष में खडे़ हैं, यह
उन्हें बेहतर पता होगा।
बहरहाल, बात यहाँ 'समकालीन' शब्द की अर्थ योजना और
अवधारणा की थी- विद्वज्जनों से इतना आग्रह अवश्य है कि इस शब्द के अर्थ के रूप में
आप चाहे मार्क्सवाद को रखें या भारतीयता को रखें या और भी कुछ जो आपकी समझ में आता
हो, यदि कविता, राधेश्याम उपाध्याय के शब्दों में, मर्मस्पर्शी अनुभव अपने
पाठक या श्रोता को नहीं दे पाती तो वह सब बेकार है।
पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से 'समकालीन' शब्द साहित्य के इतिहास लेखन, आलोचना, समीक्षा एवं सृजनात्मक साहित्य के पठन-पाठन के केन्द्रीय
विमर्श के रूप में चर्चा में रहा है। जितनी अधिक चर्चा में रहा है उससे अधिक चर्चा
इसके अर्थ और अवधारणा को लेकर हुई है। आधुनिकता बनाम परम्परा, नया काव्य आदि अनेक ऐसे शब्दों की गिनती की जा सकती है जिन पर
आलोचकों, इतिहास लेखकों और रचनाकारों को बहुत
माथापच्ची करनी पडी़ है।
इस बहस का एक पक्ष यह भी हो सकता है कि 'समकालीन' और इस तरह के अनेक शब्द हिन्दी साहित्य में पाश्चात्य समीक्षा
के कुछ शब्दों के अनुवाद के रूप में प्रचलन में हैं। जैसे समकालीन शब्द अंगरेजी के
कण्टेम्पररी शब्द का अनुवाद है जैसे उत्तर आधुनिकता, पोस्ट-माडर्निज्म
का। हिन्दी का सृजनात्मक साहित्य तो कुछ सीमा तक इस अनुवादजीवी और बहुत हद तक
गुलाम मानसिकता से मुक्त है लेकिन आलोचना और समीक्षा का अपना कोई स्वतंत्र
व्यक्तिवाद स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य में नहीं दीखता। दूसरी बात जो इस बहस
में जोडी़ जा सकती है वह पिछले लगभग सौ वर्षों के हिन्दी साहित्य में इतिहास लेखन, आलोचना और समीक्षा के विचित्र घालमेल की है। विचार का विषय है
कि इस घालमेल से जो द्राक्षासव तैयार हुआ है उसने साहित्यकार के रचनात्मक विवेक को
नकारात्मक दिशा देने में कितनी भूमिका निभाई है।
इसमें महत्त्वपूर्ण बात यह है कि साहित्य का इतिहास लेखन पाश्चात्य अथवा
सेमेंटिक कालबोध पर आधारित है जो समय को खण्डों में बाँटकर देखने का ही अभ्यस्त है।
आदि और अन्त वहाँ अनिवार्य स्थितियाँ हैं- खंडित दृष्टिबोध इसीलिए सम्यक् इतिहास
बोध का कारक नहीं बन पाता। व्यक्ति के जीवन में, परिवार-समाज के जीवन में और साहित्यिक
रचना के क्षेत्र में छोटी-बडी़ घेरेबन्दी और गोलबंदी यहीं से शुरू होती है।
समकालीन कविता के साथ एक और अद्भुत दुर्योग घटित हुआ है। रचनात्मक
आलोचनात्मक और समीक्षात्मक बहसें रूपवादी चर्चा में उलझ गई हैं। मुक्तछन्द और
छन्दमुक्ति के नाम पर गद्य जैसी कविताओं के रचनाकारों का ताल ठोंकता गिरोह एक तरफ
तो दूसरी तरफ साहित्यिक अल्पसंख्यकवाद की तान टेरता हुआ गीत ग़ज़लकारों का वर्ग।
सुल्तान अहमद की ग़ज़लों के माध्यम से की गई रूप चर्चा कोठों की नायिकाओं की शृंगार
सज्जा से होड़ लेती है। रदीफ़ काफिए में थोडी़ छूट लेती हुई और हिन्दी वर्तनी के
हिसाब से लिखी गई दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें मर्मस्पर्शी होने के नाते ही लोगों की
ज़बान पर चढी़ हुई हैं। एक आम गृहिणी की श्रृंगार सज्जा और कोठे की नायिकाओं की
शृंगार सज्जा में थोडा़ अन्तर तो रहता ही है। बहरहाल इन रूपवादी दुराग्रहों ने भी
पिछले तीस पैंतीस वर्षों से कविता की रचनात्मक धार को कुंद किया है। बल्कि ठीक-ठीक कहें तो कवि और कविता के समग्र व्यक्तित्त्व का पिछले
तीस-पैंतीस वर्षों की हिन्दी कविता में निरन्तर ह्रास हुआ है।
कवि का 'आत्म' जिन
घटकों से निर्मित होता है, वही उसके व्यक्तित्त्व का
अता-पता है। आज 'समकालीन' नामधारी कविता के पास कितने कवि हैं जिन्हें छन्द, संगीत और लोकमन की सही तड़प का 'अनुमान' भी है। विश्व-बिरादरी में
शामिल होने की होड़ में हाँफते-काँखते कितने आलोचक और समीक्षक अपने 'पराधीन चिंतन' को प्रश्नांकित करने का
साहस रखते हैं। जल-स्रोतों से लेकर मस्तिष्क के कोषों के प्रदूषण कारक केन्द्रों
के विरुद्ध सोचने का साहस सरकारों के पास नहीं है- साहित्यकार कब तक अपने-अपने
मठों में कैद रहेंगे?
इस पूरी चर्चा में लेखकों ने जिस तरह अपने-अपने मठों के लेखकों का उल्लेख
किया है उससे निराशा ही हाथ लगती है। विजेन्द्र ने जिस भोंडे़ तरीके से भवानी
प्रसाद मिश्र को विचारहीन कवि कह दिया है उससे सोच-विचार के उनके स्तर का पता चलता
है। क्या उन्होंने 'गीत-फ़रोश' में भूमिका की ये पंक्तियाँ पढी़ हैं-
बात कठिन है लेकिन करना
चाहिए!
शब्दकार को अगर ज़रूरत पडे़ तो अपने शब्दों पर मरना चाहिए!!!
क्या विजेन्द्र
पर्यावरण के लिए मौन भाव से निरंतर कर्म में संलग्न भवानी भाई के सुपुत्र अनुपम
मिश्र से परिचित हैं? अगर परिचित हो तो भाई!
अनुपम जी से मिलकर अपने ऑंगन में तुलसी का एक पौधा लगवा लो- विचारहीनता का
परिष्कार हो जाएगा। और यह भी पता चलेगा कि कैसे और कितने विचार की ज़रूरत कविता को
है। कविता में विचार की ज़रूरत है दाल में नमक बराबर। ज्यादा विचार कविता को बेकार
कर देते हैं जैसे ज्यादा नमक दाल को। और ठीक से जानना हो तो तुलसीदास को पढ़िए-
हृदय सिंधु मति सीप समाना।
स्वाति सारदा कहहि सुजाना॥
जौं बरसइ बर बारि बिचारू।
होहिं कवित मुकुतामनि चारू॥ बा0कां0
भक्त कवि 'श्रेष्ठ विचार' की बात करता है। वैदिक कवि 'आ
नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:' यानी 'भद्र विचार' की बात करता है और
समकालीन कवि? समकालीन कवि 'इस' या 'उस' विचार की चर्चा करता है। 'इस' विचार की अपने लाभ के लिए
और 'उस' विचार
की दुर-दुराने के लिए। कबीर का 'मुतिया' अब आधुनिक उत्तर-आधुनिक हो गया है। अब उसके गले में श्रेष्ठ
विचार या भद्र विचार की नहीं 'इस' या 'उश' विचार की पट्टी पडी़ है।
इस पूरी बहस में कविता के एक सामान्य पाठक की श्रोता की माँग यही हो सकती
है कि कवि और आलोचक जो भी लिखें, जिन भी शब्दों का प्रयोग
करें सचेत प्रयोग करें। मर्मस्पर्शी प्रयोग करें। और मर्म तक यदि न पहुँच पाएँ तो
कविता न लिखें - कुछ और लिखें वह भी जो मर्मस्पर्शी हो नहीं तो कुछ भी न लिखें-
यदि मिला न तुमसे हृदय छन्द तो एक गीत मत गाना तुम...
09452847328
कविता में पाठक वर्ग की सूझ की दिशा और कवि की आत्माभिव्यक्ति कौन से सन्धिस्थल पर जा एकान्वित होती है , यह एक विचारणीय पहलु है ! कोई भी विमर्श और बहस तब तक सार्थक नहीं जब तक उसके उचित और पाठक वर्ग के मनोनुकूल निकष न हो .... बात पुनः सम्प्रेश्नियता की ही है ...... आज का साहित्य मतलब समकालीन साहित्य साहित्यकारों की भाषा समकालीन साहित्य कार ही समझ रहे हैं ..... "कवि का 'आत्म' जिन घटकों से निर्मित होता है ,वाही उसके व्यक्तित्व का अत पता है ...." समकालीन केवल यांत्रिकता , आधुनिकता , दुरुहता को अपना भर लेना नहीं है , वरन यह तो मानसिक जाग्रति की परिचायक हो सकती है ..... नए पुराने का घाल मेल नहीं बल्कि उनका परस्पर तदात्मिकरण ही समकालीन को सही संदर्भों में सृजित करना है ........ बड़ी प्रचलित उक्ति है सुदृढ़ भवन का आधार एक मजबूत नीव होती है ..... नए के नाम पर पुराने से गुरेज नहीं बल्कि हम improoved verjan की बात अरस्तू के विचार से करें तो ठीक होगा .......... समकालीन के इस बहस की कड़ी में नित्यानंद श्रीवास्तव जी का चिंतन अच्छा लगा ....... कह सकते हैं ठंढी हवा के झोके की तरह ! वक्ता और श्रोता की समशीलता समकालीन के सन्दर्भ में भी अपेक्षित है .....साथ में कवि सम्मत विवेक और पाठक का ह्रदय और आलोचक की सूझ ....... यह भी उतनी ही सिद्धत के साथ अपेक्षित हैं ......!! अनूप सेठी जी को हार्दिक धन्यवाद एक अच्छे विमर्श से साक्षत्कार कराने हेतु .... नित्यानंद श्रीवास्तव जी को धन्यवाद एक विवेक पूर्ण एवं सारगर्भित चिंतन के लिए .............
ReplyDeleteधन्यवाद बंधुवर
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