Wednesday, February 24, 2010

कुनबा






बाल कटाकर शीशा देखूं

आंखों में आ पिता झांकते

बाल बढ़ा लेता हूं जब

दाढ़ी में नाना मुस्काते हैं

कमीज हो या कुर्ता पहना

पीठ से भैया जाते लगते हैं


नाक पर गुस्सा आवे

लौंग का चटख लश्कारा अम्मा का

चटनी का चटखारा दादी का

पोपले मुंह का हासा नानी का


घिस घिस कर पति पत्नी भी सिल बत्ता हो जाते हैं


वह रोती मैं हंसता हूं

मैं उसके हिस्से में सोता

वह मेरे हिस्से में जगती है


बेटी तो बरसों से तेरी चप्पल खोंस ले जाती है

बेटे की कमीज में देख मुझे

ऐ जी क्यों आज नैन मटकाती है.

यह कविता हाल में अमर उजाला में छपी है.


6 comments:

  1. कविता में आपने बहुत कुछ समावेश किया है. एक बेहतरीन कविता.

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  2. सुन्दर कभी himdhara.feedcluster.com पर भी आये

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  3. घिस घिस कर पति पत्नी भी सिल बत्ता हो जाते हैं

    वाह!! क्या लेखनी है..

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  4. मित्रो, धन्‍यवाद. कविता को पढ़ने और टिप्‍पणी करने के लिए. इस तरह बैटरी चार्ज हो जाती है. रोशन जी, वो साइट अच्‍छी है. शायद अब तक और समृद्ध हो गई होगी.

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  5. वाह,बहुत सुन्दर!
    घुघूती बासूती

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  6. धन्‍यवाद, घुघती बासूती.
    पंकज जी की तरह और मित्रों ने भी, घिस घिस कर पति पत्नी भी सिल बत्ता हो जाते हैं,पंक्ति का जिक्र किया है. अगर समझदानी ठीक रहे तो धीरे धीरे ये एक दूसरे के पूरक बन जाते हें. गृहस्‍थी का आधार ही समझिए. क्‍योंकि ज्‍यादा वक्‍त और ऊर्जा गृहस्‍थी को चलाने में लग जाती है. यूं पति पत्‍नी चक्‍की के दो पाट भी हो सकते हैं, पर कबीर और मुक्तिबोध वह दि‍खला ही चुके हैं. वैसे भी चक्‍की जीवन की कठिनता और पेट भरने के जुगाड़ का बिंब ज्‍यादा है. सिल बत्‍ते पर चटनी बनती है. चटनी से भोजन में स्‍वाद आता है. चटखारा भी. और कुछ न हो तो नमक मिर्च पीस के भी रोटी खाई जा सकती है.

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