10 दिसंबर को यहां मुंबई के एक उपनगर कल्याण में एक कालेज में हिंदी ब्लॉगिंग पर एक सेमिनार में भाग लेने का मौका मिला। इसमें कई ब्लॉर आए थे। अकादमिक जगत के लागों के बीच यह चर्चा इस दृष्टि से अच्छी थी कि अगर हिंदी विभाग ब्लागिंग में रुचि लेने लग जाएं तो हिंदी ब्लागिंग को और आयाम मिलेंगे. इसमें मुझे भी अपनी बात रखने का मौका मिला. मैंने पावर प्रजेंटेशन बनाया था, उसी जानकारी को यहां दे रहा हूं. स्लाइड बनाने का फायदा यह होता है कि बात बिंदुवार चलती है. बहकने का खतरा नहीं रहता. विषय को साहित्यिक ब्लागों तक केंद्रित रखा था.
ब्लॉग का चरित्र
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रीयल टाइम में घटित होता है
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भौगोलिक सीमाओं से परे है
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जनतांत्रिक है
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स्वायत्त
है
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क्षैतिज
चलता है
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इसलिए कोई छोटा बड़ा नहीं
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इसलिए छोटे बड़े की लिहाज नहीं
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इसलिए मुंहफट और मुंहजोर
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और कभी
कभी बदतमीज भी हो जाता है
- सार्वजनिक
अभिव्यक्ति का सहज सुलभ माध्यम
- चाहे जितने मर्जी ब्लॉग बनाओ
- अभी महंगा है
- मध्यवर्ग में पैठ बना रहा है
- उम्मीद
करें यह मुफ्त ही बना रहे
- बेथाह मुनाफा कमाने वाली आई टी कंपनियों के जोर
के बावजूद
- इसे मुफ्त कराने की मुहिम सफल हो
- ऐसी कामना करें
- ढूंढने चलो
तो हर दिन कोई नया ब्लॉग या पत्रिका मिल जाती है
- सामग्री की बमवारी है
- एग्रिगेटरों को देखिए पल पल नई पोस्टें अवतरित होती हैं
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साहित्य में कुछ स्थापित लेखकों के ब्लॉग है
- कुछ युवा
लेखकों के, और कुछ नव
लेखकों के
- ज्यादातर
अपनी रचनाएं लगाते हैं
- अपनी पसंद की दूसरे लेखकों की रचनाएं लगाते हैं.
- कुछ अपने ब्लाग पत्रिकाओं की तरह पेश करते हैं
- कुछ ब्लॉगर
सामूहिक रूप से ब्लॉग चलाते हैं
- इस तरह हरेक ब्लॉगर लेखक भी है संपादक भी
- यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है क्योंकि संपादक
- कड़ाई बरतने वाला हो – क्या पोस्ट नहीं करना है
- सजग रहने वाला हो – क्या पोस्ट करना है
- बहुपठित हो – पिष्टपेषण से बचेगा चुनिंदा सामग्री रखेगा
- सौंदर्यबोध संपन्न हो – उसे शब्द रंग रेखा और स्पेस की समझ हो
सीमाएं
- अथाह भंडार
है
- एग्रिगेटरों की भूमिका असंदिग्ध है
- कुछ और छलनियों की जरूरत है
- जैसे विषय आधारित
- काल आधारित
- स्थान आधारित
- नाम आधारित
- जो हैं वो
लेखक हैं और स्वनामधन्य हैं
- क्वालिटी कंट्रोल नहीं है
- यह सोशल माडिया का चरित्र भी है
- संक्षिप्त, तुरंत, उच्छृंखल, इसलिए
- गंभीरता और जिम्मेदारी की कमी
- और जिम्मेदारी
के बिना साहित्य क्या होगा पता नहीं
अपेक्षाएं
- जितना है
बेथाह है पर कम है
- और की जरूरत है
- अभी भी
सर्च करते हैं तो हिंदी साहित्य की सामग्री नहीं मिलती
- सतही चलताऊ माल मिलता है
- गहराई और विस्तार दोनों चाहिए
- टिप्पणी
पाने के मोह से ऊपर उठना होगा
- टिप्पणी टीआरपी की तरह है
- क्लासीफाइड सर्च की सुविधा बने
- ज्यादातर ब्लॉगर युवा लेखक और पत्रकार हैं
- अब शिक्षक वर्ग आए
- शिक्षक
वर्ग आएगा तो
- छात्र वर्ग आएगा
- प्रत्येक विभाग को कम से कम एक पीसी मिलना
चाहिए
- प्रत्येक विभाग अपना ब्लॉग बनाए
- क्लासिक साहित्य को डाले
- कर्तव्य की तरह
- लिखें और
लिखना सीखें
- हर लिखे शब्द को अपलोड करने का मोह त्यागें
- अपना श्रेष्ठ लेखन ही अपलोड करें
- अपनी भड़ास से ब्लॉग को न भरें
इस सेमिनार मे विविध भारती के उद्घोषक यूनुस खान ने संगीत संबंधी ब्लागों की जानकारी दी. यूनुस खुद रेडियोनामा और रेडियोवाणी ब्लाग चलाते हैं. सेमिनार की बाकी जानकारी यहां पर मिलेगी. |
आपके विश्लेषण से पूर्णतया सहमत, इसीलिये अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम दिख रहा है यह, आने वाले दिनों में।
ReplyDeleteऐसे सेमिनार और होने चाहिए ताकि ब्लागिंग का सही मार्गदर्शन हो सके॥
ReplyDeleteशिक्षक तो बहुत से हैं!
ReplyDeleteब्लॉग मूलतः भड़ास निकालने का मंच ही है, सस्कृत परिष्कृत साहित्य किताबों मे ही सही लगता है . कभी प्रसंग वश अनायास क्लासिक और गम्भीर माल आए तो स्वागत, लकिन इसे ज़बरन गम्भीर नही बनाना चाहिए . गम्भीर चीज़ों के लिए वेब पत्रिकाएं हैं न ! ब्लॉग पहाड़ी खड्ड जैसा हो वनैला , अराजक , मुक्त ..... नैसर्गिक !! कि आदमी का असल चेहरा दिख सके . ब्लॉग किताबी तो बिल्कुल ही न हो .....
ReplyDeleteअजेय जी, यह तो आपने बिल्कुल ब्लाग के स्वभाव की बात कर दी. मसलन जैसे 'रूप', 'कथ्य' को प्रभावित करता है, वैसे ही आप कह रहे हैं कि ब्लाग का जो स्वभाव है उसे वैसा ही रहने दो. सर, यह हमारे समय की चुनौती है. प्रौद्योगिकी से हम चालित होंगे या वह हमें चालित करेगी.
ReplyDeleteदूसरे आप गंभीरता को ब्लाग-बाहर कर दे रहे हैं. जरा विचार कीजिए, यह कहां तक उचित है. इतना सशक्त माध्यम खिलंदड़ा बन कर रह जाए. और आदमी का असल चेहरा कौन सा - आदिम, इन्स्टिंक्ट आधारित? क्या मनुष्य की चेतना की विकास यात्रा में प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए?
भाई जी, चेतना का विकास तभी होगा जब हम उस के मूल को जानें . खुशफहमियाँ ओढ़ कर हम व्यक्तित्व का विकास कर सकते हैं, चेतना का नहीं . दोनो मे फर्क़ को आप मानते ही होंगे.
ReplyDeleteगम्भीरता को बाहर करने वाला मैं कौन ? वह दरकार होगी तो आयेगी ; रोकने वाला भी मैं कौन ? मै यह कह रहा हूँ कि ज़बरन हम नीति निर्देशिकाएं न बनाएं. ब्लॉग को उस के स्वभाव अनुसार ग्रो करने दें .संस्कारों के रिफाईनमेंट के लिए कितनी तो हार्ड पत्रिकाएं और कितनी ही वेब पत्रिकाएं हैं , ......... और स्वच्छन्द , मुक्त और अराजक होना खिलन्दड़ा होना नही .
सर मैं नीति निर्देशिका बनाने की बात नही कर रहा. आपने जिस बात को उठाया था उसी संदर्भ में अर्ज कर रहा था कि यह आखिर तकनीक है या एक माध्यम है और उसका प्रयोग हम कर रहे हैं. हम ही तय करेंगे कि प्रयोग और प्रयोजन क्या हो. वरना माध्यम डिक्टेट करने लगेगा. आपकी बात से लगता है कि डिक्टेट करने दो. फिल्म का मामला भी देख लीजिए फिल्मकार अपनी बात कहता है, फिल्म बनाने की तकनीक उससे नहीं कहलवाती. रिफाइनमेंट या परिष्कार एक प्रक्रिया है, मानव सभ्यता को उसे साधना ही है.
ReplyDeleteजी मैं मान गया. इंटरनेट एक सशक्त मीडियम है, और तकनीक भी.हमे इसे चूकना नही चाहिए. लेकिन उस के लिए वेब साईट और वेब पत्रिकाएं हैं न ? ब्लॉग को हम एक्स्क्ल्यूसिवली भड़ास निकालने के माध्यम के रूप मे रहने क्यों न दें.... जो भड़ास निकालना नहीं चाहता,य जिसे भड़ास निकालने की ज़रूरत महसूस न होती हो; ( और ऐसे लोग भी होते हैं समाज में, होने भी चाहिएं, ) ब्लॉग पे न आए,परिष्कृत गम्भीर डोमेंन्ज़ तक ही खुद को सीमित रखे.......लेकिन मैने यह भी नही कहा, कि गम्भीर माल ब्लॉग पे स्वीकार न किए जाएं, स्वागत है उन का भी, और अगर ब्लॉग गम्भीर ही बनना चाहता है तो बन जाए, *भड़ास* अपनी निकासी का कोई और माध्यम तलाश लेगी, वो तलाश ही लेती है. लेकिन हम ज़बरन उसे *साहित्यिक* और गम्भीर न बनाएं....
ReplyDeleteमैं यह मान कर चल रहा हूं कि ब्लाग फेसबुक ट्विटर सार्वजनिक माध्यम हैं, व्यक्तिगत डायरियां नहीं. भड़ास निकालना भी व्यक्तिगत मामला है, मुझे यह हक क्यों मिले कि मैं अपनी भड़ास से सारी दुनिया को भरूं. व्यक्तिगत और सार्वजनिक दो अलग अलग दायरे हैं. ये माध्यम आपका कुछ निजी नहीं रहने देना चाहते. जब आप कहते हो कि भड़ास निकालने दो तो व्यक्तिगत से सार्वजनिक की सीमाएं एक दूसरे का अतिक्रमण कर डालती हैं. इसका असर हमारे व्यक्तित्व पर हमारे और सामाजिक व्यवहार पर भी पड़ेगा.
ReplyDeleteवही मैं भी कह रहा हूँ ..... जिस को अपने व्यक्तित्व का जितना भाग दिखाना(देखना) और दूसरे का जितना देखना(दिखाना) है उसी अनुरूप अपना माध्यम चुने . यह मूलतः परिष्कार और संस्कारों का मसला है..... जिन का कोई निश्चित माप्दण्ड नही हो सकता .लोग एक टाईम मे छिप कर दूसरों के प्रेम पत्र पढ़ते हैं ,फिर उत्तेजक साहित्य पढ़ते/ उत्तेजक फिल्मे देखतेहैं , फिर बेड रूम पीपिंग करते हैं , फिर रेड लाईट जाते हैं, फिर एक टाईम सरोकार बदल जाते हैं , सामाजिक मसले ऊपर आजाते हैं, रोटी पानी , देश दुनिया , राजनीति ..... कुछ लोग इन मे से कोई स्टेज स्किप भी कर जाते हैं ....ज़रूरत ही नहीं पड़ती, अपने अपने संस्कार, अपनी अपनी ग्रोथ !! अब यह तो हम नही न कहसकते ते कि वैशयाल्यो को विद्यालय , धरम्स्थल या संसद बना देना चाहिए .....समझ दार आदमी इस के बजाय वैशायालय को अवॉयड करेगा . लेकिन वैश्यालय की अहमियत और ज़रूरत बनी रहती है न .... सर, कोई वहाँ तरीक़े से जाएगा , छिप छिप कर , कोई सरेआम जाएगा . यह अलग बात है कि अपनी ग्रोथ की प्रक्रिया मे इन मे से कुछ संगीत के विद्यालय बन जाते हैं और कुछ भक्ति के पीठ .... अब हम सभी सेक्स वर्करों से आम्रपालि ,वसंतसेना या उमराओ जान अदा बन जाने की अपेक्षा नही न कर सकते .......
ReplyDeleteभाई लोग ! यह वैचारिक भिड़ंत भी तो ब्लॉग के चरित्र के निकट है । ब्लॉग भड़ास निकालने का जरिया हो ऐसी संभावना एक तरफा ही हो सकती है । किसी दूसरे को 'क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया' करनी हो तो उस पर नकेल कसने की सुविधा भी इस तकनीक में है । आप प्रतिक्रिया को सेंसर कर सकते हैं । मैं तो कभी-कभी ब्लॉग देखता हूँ । आप दोनों ही के ब्लॉग पर महत्वपूर्ण साहित्यिक -सांस्कृतिक जानकारी उपलब्ध रहती है । कबाड़खाना से परिचय भी अजेय ने कराया । मेरा थोड़ा -बहुत अनुभव यही कहता है कि तुरंत जानकारी बाँटने , चर्चा-विमर्श करने का महत्वपूर्ण जरिया है यह तकनीक ।इसी रूप में इसका स्वरूप भी विकसित हो चुका है । स्वछंदता भी तो एकतरफा मामला है और ब्लॉग एकतफ़ा माध्यम तो नहीं ।
ReplyDeleteभाई निरंजन देव शर्मा की टिप्पणी मेल में आई है पर ब्लाग में नहीं दिख रही थी. पेस्ट कर रहा हूं. -
ReplyDeleteभाई लोग ! यह वैचारिक भिड़ंत भी तो ब्लॉग के चरित्र के निकट है । ब्लॉग भड़ास निकालने का जरिया हो ऐसी संभावना एक तरफा ही हो सकती है । किसी दूसरे को 'क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया' करनी हो तो उस पर नकेल कसने की सुविधा भी इस तकनीक में है । आप प्रतिक्रिया को सेंसर कर सकते हैं । मैं तो कभी-कभी ब्लॉग देखता हूँ । आप दोनों ही के ब्लॉग पर महत्वपूर्ण साहित्यिक -सांस्कृतिक जानकारी उपलब्ध रहती है । कबाड़खाना से परिचय भी अजेय ने कराया । मेरा थोड़ा -बहुत अनुभव यही कहता है कि तुरंत जानकारी बाँटने , चर्चा-विमर्श करने का महत्वपूर्ण जरिया है यह तकनीक ।इसी रूप में इसका स्वरूप भी विकसित हो चुका है । स्वछंदता भी तो एकतरफा मामला है और ब्लॉग एकतफ़ा माध्यम तो नहीं ।
निरंजन भाई से *अंतिम वाक्य से ठीक पहले* तक सहमत . ब्लॉग क्या है, हम सब देख ही रहे हैं . लेकिन ब्लॉग क्या हो ; बहस इसी पर है. अनूप जी इसे गम्भीर परिष्कृत रूप मे देखना चाहते हैं .... जब कि मैं इसे ब्लॉग की मौत जैसा मान रहा हूँ.... मुझे इस का बिन्दास अंनगढ़�रूप पसन्द आया है . जहाँ आप को खास औपचारिक होने के ज़रूरत नही पड़ती. बहुत लिहाज़ भी करना नही पड़ता . तपाक से अपनी बात कह जाते हैं और तीखी प्रतिक्रिया भी सह जाते हैं .... यह असल मे मज़ेदार है. कुंठाएं बह जाती हैं ..... कुछ लोगों को कुंठाए जमा करने मे मज़ा आता है. और कुछ के मन मे कुंठाएं होती ही नहीं है और कुछ लोग बहुत नफासत ,तहज़ीब और अदब के साथ कुंठाओं का विरेचन करते हैं वे लोग किताबों और गम्भीर माध्यमों ( चाहे ब्लॉग इतर ई माध्यम ही सही) तक ही सीमित रह सकते हैं.इस के लिए ब्लॉग के परिष्कार की क्या ज़रूरत ? भड़ास और स्वच्छन्दता से मेरा यही आशय है.
ReplyDeleteमुझे ऐसा लग रहा है यहां टिप्पणियां देख कर जैसे खिलंदड़ेपन को गंभीरता से नीचे स्तर का समझा जा रहा है। जब कि मेरा मानना ऐसा है कि बड़ी से बड़ी गंभीर बात भी खिलंदड़े अंदाज में कही जा सकती है और कम से कम ब्लॉग पर खिलंदड़ा अंदाज होना कोई बुरा नहीं। गंभीर क्लासिक साहित्य की अपनी गरिमा है और वो नेट पर होना चाहिए। लेकिन हर ब्लॉगर साहित्यकार नहीं पर उसे भी अभिव्यक्ति की उतनी ही तड़प है जितनी एक कवि को और ये तकनीक उसे अवसर दे रही है उस अभिव्यक्ति को अंजाम देने का। वो जैसा चाहे और जो चाहे लिख सके, यहां तक की कोई भड़ास भी निकालनी हो अपने बॉस के खिलाफ़, सरकार के खिलाफ़, या और किसी के खिलाफ़ तो जरूर निकाल सके बस इतना ध्यान रहे कि सामाजिक शिष्टता की सीमा न पार करे।
ReplyDeleteजैसे एक शहर में कई मौहल्ले हैं वैसे ही ब्लॉगजगत में हैं। जिन गलियों से गुजरने में हमारी संवेदनाएं आहत होती हैं वहां न जायें।
जहां तक हो सके लोग एक विषय से न बंधे रहें। विविध विषयों पर लिखें पर जो भी लिखें दिल से लिखें। क्लासीफ़ाइड सर्च की सुविधा होनी चाहिए ये मैं मानती हूँ। हाँ यूं तो बहुत से शिक्षक ब्लॉगिंग में उतर रहे हैं फ़िर भी अभी उनकी संख्या बहुत कम हैं और छात्रों की संख्या तो न के बराबर है। पर सोचिए जब छात्र वर्ग उतरेगा तो हमें भी सतही चलताऊ माल झेलने के लिए तैयार रहना होगा, ये बात हम फ़ेस बुक पर अभी भी देख सकते हैं।
मुझे लगता है भड़ास शब्द नकारत्मक कोनोटेशन लिए है उसकी जगह अगर कोई और शब्द उपयोग किया जाए तो ज्यादा अच्छा होगा।
इस चर्चा में सिद्धार्थ शंकर जी की प्रतिक्रिया भी बहुत जरूरी है क्युं कि वर्धा में जो संगोष्ठी उन्हों ने आयोजित की थी उसका टाइटल ही था ' ब्लॉगिंग की आचार सहिंता' और वहां दो दिन इसी मुद्दे पर चर्चा हुई थी
'वही मैं भी कह रहा हूँ ..... जिस को अपने व्यक्तित्व का जितना भाग दिखाना(देखना) और दूसरे का जितना देखना(दिखाना) है उसी अनुरूप अपना माध्यम चुने . यह मूलतः परिष्कार और संस्कारों का मसला है.....'
ReplyDeleteअजय जी की इस बात से मैं सहमत हूँ, अनूप जी अगर आप को याद हो तो मेरे पेपर के शुरु में मैं ने यही बात कही थी।
मैं आचार संहिता की बात नहीं कर रहा हूं. मैं तो ब्लागर के स्वयं के संस्कार और परिष्कार की बात कर रहा हूं.
ReplyDeleteदूसरे, यह माध्यम आपको अपना सब कुछ सार्वजनिक कर देने को उकसाता है, इसके सामने समर्पण कर देना हमारे मनोजगत पर, हमारी चिंतन प्रक्रिया पर, हमारे व्यक्तित्व पर कितना और कैसा प्रभाव डालेगा, ये मेरी चिंता है.
अछूते विषयों के ब्लाग मैं चाव से पढ़ता हूं. लेकिन किसी भी विषय में (रचनात्मक, सूचनात्मक नहीं) मिडियाक्रिटी उत्कृष्टता की ललक को कुंद ही करेगी, ऐसा लगता है.
कृपया इस बात पर भी विचार करें कि क्या केवल कह देना पर्याप्त है, या कहने में विचार, विवेक, चिंतन, भावजगत और इनकी अंतर्क्रियाओं की भी हमारे जीवन में कोई जगह है या नहीं.
पत्रिकाओं, किताबों आदि के लिखित तथा सम्मेलन व गोष्ठीयों के मंचीय माध्यम की तरह ब्लाग भी एक माध्यम है जो तकनीक ने लिखने वालों को उपलब्ध कराया है। यह दूसरे माध्यमों की अपेक्षा ज्यादा स्वायत और आजाद भी है इसलिए ब्लागर की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह संयम और विवेक से इसका उपयोग करे। अन्यथा तकनीकी रूप से छपाई आसान होने के बाद जो हश्र कविता और दूसरे निजी संग्रहों का हुआ है उससे भी बुरा इस माध्यम का हो सकता है। शायद कहने के पहले न परखने की लेखकों की आदत ने ही साहित्य को आम जनता से दूर किया है तो ब्लाग कहां टिकेगा।
ReplyDeleteपत्रिकाओं, किताबों आदि के लिखित तथा सम्मेलन व गोष्ठीयों के मंचीय माध्यम की तरह ब्लाग भी एक माध्यम है जो तकनीक ने लिखने वालों को उपलब्ध कराया है। यह दूसरे माध्यमों की अपेक्षा ज्यादा स्वायत और आजाद भी है इसलिए ब्लागर की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह संयम और विवेक से इसका उपयोग करे। अन्यथा तकनीकी रूप से छपाई आसान होने के बाद जो हश्र कविता और दूसरे निजी संग्रहों का हुआ है उससे भी बुरा इस माध्यम का हो सकता है। शायद कहने के पहले न परखने की लेखकों की आदत ने ही साहित्य को आम जनता से दूर किया है तो ब्लाग कहां टिकेगा।
ReplyDeleteपत्रिकाओं, किताबों आदि के लिखित तथा सम्मेलन व गोष्ठीयों के मंचीय माध्यम की तरह ब्लाग भी एक माध्यम है जो तकनीक ने लिखने वालों को उपलब्ध कराया है। यह दूसरे माध्यमों की अपेक्षा ज्यादा स्वायत और आजाद भी है इसलिए ब्लागर की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह संयम और विवेक से इसका उपयोग करे। अन्यथा तकनीकी रूप से छपाई आसान होने के बाद जो हश्र कविता और दूसरे निजी संग्रहों का हुआ है उससे भी बुरा इस माध्यम का हो सकता है। शायद कहने के पहले न परखने की लेखकों की आदत ने ही साहित्य को आम जनता से दूर किया है तो ब्लाग कहां टिकेगा।
ReplyDeleteपत्रिकाओं, किताबों आदि के लिखित तथा सम्मेलन व गोष्ठीयों के मंचीय माध्यम की तरह ब्लाग भी एक माध्यम है जो तकनीक ने लिखने वालों को उपलब्ध कराया है। यह दूसरे माध्यमों की अपेक्षा ज्यादा स्वायत और आजाद भी है इसलिए ब्लागर की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह संयम और विवेक से इसका उपयोग करे। अन्यथा तकनीकी रूप से छपाई आसान होने के बाद जो हश्र कविता और दूसरे निजी संग्रहों का हुआ है उससे भी बुरा इस माध्यम का हो सकता है। शायद कहने के पहले न परखने की लेखकों की आदत ने ही साहित्य को आम जनता से दूर किया है तो ब्लाग कहां टिकेगा।
ReplyDeleteभाई कुशल कुमार की भी टिप्पणी मेल में आई है पर ब्लाग में नहीं दिख रही थी. पेस्ट कर रहा हूं. -
ReplyDeleteपत्रिकाओं, किताबों आदि के लिखित तथा सम्मेलन व गोष्ठीयों के मंचीय माध्यम की तरह ब्लाग भी एक माध्यम है जो तकनीक ने लिखने वालों को उपलब्ध कराया है। यह दूसरे माध्यमों की अपेक्षा ज्यादा स्वायत और आजाद भी है इसलिए ब्लागर की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह संयम और विवेक से इसका उपयोग करे। अन्यथा तकनीकी रूप से छपाई आसान होने के बाद जो हश्र कविता और दूसरे निजी संग्रहों का हुआ है उससे भी बुरा इस माध्यम का हो सकता है। शायद कहने के पहले न परखने की लेखकों की आदत ने ही साहित्य को आम जनता से दूर किया है तो ब्लाग कहां टिकेगा।
बहुत रोचक रहा यह टिप्पणियों का दौर ....और संभवतः बहुतु कुछ निष्कर्ष के रूप में निकला ....अजय भाई जी की बातों में उनका दृष्टिकोण नजर आया और आपकी बातों में ....आपका .....लेकिन अब मुझे कुछ कह कर इस बहस को आगे बढ़ाना है ......लेकिन > चलते-चलते किसी दिन .....!
ReplyDeleteशुभस्य शीघ्रम्
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