क से लिखता हूं कव्वा
कर्कश
क से कपोत छूट जाता
है पंख फड़फड़ाता हुआ
लिखना चाहता हूं कला
कल बनकर उत्पादन करने
लगती है
लिखता हूं कर्मठ पढ़ा
जाता है कायर
डर जाता हूं लिखूंगा
कायदा
अवतार लेगा उसमें से
कातिल
कैसा है यह काल कैसी
काल की रचना-विरचना
और कैसा मेरा काल का
बोध
बटी हुई रस्सी की तरह
उलझते, छिटकते, टूटते-फूटते
पहचान बदलते चले जाते
हैं
शब्द अर्थ विचार आचार
और व्यवहार
क से खोलना चाहा अपने
समय का खाता
क से ही शुरू हो गया
क्लेश
क्या क्ष त्र ज्ञ तक
पहुंचना होगा मुमकिन?
जब जुड़ेंगे स्वर
व्यंजन
बनेंगे शब्द
फिर अर्थगर्भा शब्द
वाक्य और विचार
आचार और व्यवहार
तो किस किस तरह के
खुलेंगे अर्थ
और कितना होगा अनर्थ
क्या करूं कोरा ही
छोड़ जाऊं कागज?
(यह कविता वागर्थ के अक्तूबर 2011 अंक में छपी है)
ज्ञ के ज्ञान में पहुँचना तो बहुत ही कठिन है।
ReplyDeleteधीरे धीरे रे मना, धीरे धीरे सब कछु होय :)
ReplyDeleteवर्णानामर्थसंघानां...
ReplyDeleteभयावह !
ReplyDeleteमैंने भी लिखा था
"बात मुंह से निकली
तो अजब बात होगी
बदले सन्दर्भों में
जाने क्या क्या अर्थ लगाए जाएंगे
अच्छा है चुप रहूँ
शब्द खो जाएं
अर्थ छिप जाएं
सीधे दिल से दिल में पहुँचे बात
जैसे आग पहुँचती है
दीये से दीये में"
लेकिन नहीं, उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के खतरे . अभी से दुश्चिंता मे पड़ गए, कवि ??
अभी तो ककहरा शुरू ही किया है .
अक्षर से शब्द ,वाक्य,भाषा फिर आचार और व्यवहार|
ReplyDeleteअच्छे भाव हैं।
ReplyDeleteकवि के "क" से बड़े कटु अनुभव है।
ReplyDeleteआज के इस कलि काल में कोई "क" से न छेड़ने की काहली न कर बैठे।
"क" से छेड़ी जब भी बात
लगा सीधा सीने में आघात
कोढ़ी "क" का कुढ़पन
कचरा कबाड़ उत्पात।