हाल में पर्वत राग का लीलाधर जगूड़ी अंक छपा है. उसमें जगूड़ी जी ने अपने और अपनी कविताई के बारे में लिखा है. आप भी पढि़ए.
मेरा जन्म 1 जुलाई, 1940 के सोमवार को साढ़े
नौ बजे सुबह हुआ। मुझे कैसा लगा, नहीं मालूम, पर अपने आज के अनुभव से जानता हूं कि मां और पिता जी को बहुत अच्छा लगा होगा।
संभवत: उन्होंने भेली फाड़कर बांटी होगी। तब पहाड़ पर मिठाइयां और चीनी दुर्लभ वस्तुओं
में होती थीं, सिर्फ मेरठ, मुज्जफरनगर
और देहरादून से गुड़ की भेलियां ही आदमियों और खच्चरों की पीठ पर पहाड़ चढ़ पाती थीं।
पहाड़ी गन्ना सिर्फ कोदे के डंठलों को कहते थे जिसे जानवर ज्यादा पसंद करते थे। आज
भी कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में कोदे को पहाड़ी गन्ना बनाने पर कोई शोध नहीं हुआ है।
मेरी बहुत दिनों से यह मांग रहीं है....? मैं जितनी विकट परिस्थितियों
में पैदा हुआ, युवा होते ही मुझे वे विषमताएं बड़ी काव्यात्मक
लगने लगीं। गांवों में सुने हुए बचपन के लोकगीत और स्कूल में पढ़ी हुई कविताओं से बार-बार
एक आवेग सा मन में पैदा होता था कि मैं भी ऐसा कुछ लिख बोल सकता हूं, या कि मैं इसे कुछ अपने ढंग से अपनी स्थितियों के बीच कहूं तो कैसे कहूंगा
? संभवत: इसी अनुकरणप्रियता की जद्दोजेहद में मेरे प्रारंभिक
कवि का जन्म हुआ। जाहिर है कि यह एक तरह से दूसरा जन्म था। युवा होते ही मुझे जयशंकर
प्रसाद, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध',
मैथिलीशण गुप्त, सुमित्रा नंदन पंत, निराला और दिनकर ने बहुत प्रभावित किया। वाक्देवी के विपुल संसार में कविता
के परिसर की ओर ले जाने वाले पुराने जोगी दरअसल पुराने कवि ही होते हैं। नये कवि का
पहला जन्म पुराने कवियों के वैचारिक आशयों से होता है। बाद में लगभग 21-22 वर्ष की उम्र में मैं अज्ञेय, मुक्तिबोध, नरेश मेहता, शमशेर बहादुर सिंह, विजयदेव नारायण साही, कुंवर नारायण, शंभुनाथ सिंह, केदारनाथ सिंह आदि स्थापित कवियों की रचनाओं
से प्रभावित हुआ। यानी कि 1960 के बाद मैं तेजी से अपने लिए अपना
कोई ढंग और अपना कोई रास्ता तलाशने में लग गया। युवा कवियों में राजकमल चौधरी और धूमिल
मुझ से उम्र, अनुभव और अध्ययन में बड़े थे। उनसे भी प्रभावित हुआ।
अपने को दुनिया से संलग्न करते हुए कविता की अभिव्यक्ति में अलग करते चलने का संघर्ष
आज भी जारी है।
कविता में इतिहास का होते
हुए भी अपने समय का होना पड़ता है। जो अपने समय का नहीं वह इतिहास का भी नहीं हो सकता।
कुछ लोग समय को अपने इतिहास से अलग इकाई समझते हैं लेकिन मैं समझता हूं कि सारे काल
इतिहास के बस्ते में ठूंसे हुए हैं। सारा इतिहास अपने समय का वर्तमान रहा हुआ होता
है। इसलिए वर्तमान ही है जो रोज इतिहास में दैनिक इतिहास होकर दाखिल हो रहा है। जो
अपने समय का होता है, इस तरह वह इतिहास
का हो जाता है। इतिहास के लिए जो इतिहास में घुसे हुए रहते हैं वे कविता क्षेत्र में
अपने होने के इतिहास से वंचित हो जाते हैं। कहीं एक जगह जमा वर्तमान ही अतीत बन जाता
है।
मैं काशी (बनारस) और उत्तरकाशी
का विशेष मुरीद हूं कि उनकी प्रकृति और जीवन पद्धति ने मुझे कविता की ओर अधिकतम संलग्न
किया। धूमिल और काशीनाथ सिंह मेरे अग्रज हैं पर उन्हीं के आस-पास मेरी भी शुरूआत हुई
है, यह सौभाग्य समझता हूं। निराला निवेश में आयोजित एक
गोष्ठी में डॉ0 बच्चन सिंह ने धूमिल से कहा था कि तुम जगूड़ी के
प्रभाव से बचो, हम लोगों ने इस उक्ति का उस दिन खूब मजा लिया
था। उसी तरह की व्यक्तिगत खुशी उस दिन भी हुई थी जब इमरजेंसी के दिनों में 'भेद' कविता 'आलोचना' के लिए स्वीकार करते हुए डॉ0 नामवर सिंह ने कहा था कि
-'बाबू रघुवीर सहाय अब क्या खाकर कविता लिखेंगे'। उसके बाद रघुवीर सहाय ने एक से एक उम्दा कविताएं लिखीं। लेकिन दिल बहलाने
को गालिब ये याल अच्छा है। रघुवीर सहाय से आज भी बहुत कुछ सीखा जाना चाहिए। हर कवि,
अभिव्यक्ति के किसी न किसी अंग का पूरक होता है। अच्छी कविता और अच्छे
कवियों की सोहबत व्यक्तित्व में तब्दीलियां लाती है। सोच और शब्दावली में फर्क पड़ता
है। लेकिन उसके बाद एक ऐसी स्थिति आती है कि खुद को सब घेरों से बाहर करने की इच्छा
होती है। प्रचलन से चिढ़ होने लगती है। परिवर्तन में पर परा की शाश्वतता दिखने लगती
है। बदलाव और अभिव्यक्ति एक नया उपार्जन मांगने लगते हैं। कुछ लोग केवल कौशल,
कुछ कौशल व कथ्य दोनों स्तरों पर संकट का अनुभव करते हैं। प्रतिष्ठित
और प्रचलित दोनों के विरूद्ध अपना रास्ता निकालना हर बार चुनौतियों भरा होता है।
व्याधि और उपाधि की लालसा
की तरह कविता भी परिवर्तन की आकांक्षा का पीछा नहीं छोड़ती। कवि के पास अच्छे लोगों
के अलावा बुरे लोगों के बीच रहने के भी अच्छे खासे अनुभव होने चाहिएं। बुराइयों को
जाने बगैर अच्छाइयों की पहचान और उनका पोषण संभव नहीं। कवि को गर्हित, निकृष्ट, वर्जित और निषिद्ध का
भी पीछा करना चाहिए। कवि की संवेदना को अनुभव सिद्ध होना आवश्यक है वरना बिना कीमत
चुकाये मुफत की कविताई यशस्वी नहीं हो सकती। कवि को दुश्चरित्रों, दुश्शीलों, पतितों, अटकों,
भटकों और अपराधियों तक के प्रति मानवीय जिम्मेदारी और करुणा से भरा
हुआ होना चाहिए। रवि की तरह कवि को भी सब जगह बिना घृणा के जाने, रहने और सहने का तजुर्बा और साहस होना चाहिए। लाचारी और मजबूरीवश ऐसा होना
कवि की अयोग्यता है। सोच समझकर, जानबूझकर, जिज्ञासु भाव से ऐसा हो तो वह अपने कवि के निर्माण में बेहतर सहायक हो सकता
है। चीजें स्वभावत: सब अच्छी नहीं होती, उन्हें अच्छा बनाना पड़ता
है। यह तभी संभव है जब सबसे पहले अपनी खराबी और कमजोरी का बोध हो। साहित्य की जटिलता,
ढांचे और प्रभाव दोनों स्तरों पर शुरू से ही मौजूद रही है, इसीलिए खासकर कविता की समझदारी के लिए अपने भीतर 'शीघ्र
बोध' भी पैदा करने का ज्ञानात्मक अभ्यास विकसित करना पड़ता है।
सरलीकरण और अतिरंजना से तभी छुटकारा पाया जा सकता है।
मैंने पहले कवि होने के
बारे में नहीं सोचा था लेकिन मेरी परिस्थितियों ने मुझे इतना विपत्तिग्रस्त और अकेला
बनाये रखा कि मुझे अपने चुप्पेपन में शब्दों और ध्वनियों के अर्थ समझने और बरतने की
तलब सी हो गयी। अकेलापन साहित्य में व्यक्ति की मानसिक मरम्मत करता है। मेरे मन में
अपार असफलताओं और असुरक्षाओं ने डेरा जमा लिया था। अगर मैं साहित्य के संपर्क में न
आता तो मैं संभवत: एक अपराधी हो जाता। साहित्य ने और कुछ किया हो या न किया हो, कम से कम मुझे अपराधी होने से रोका है। मैंने खुद धोखे
खाये, अन्याय झेले, उनका प्रतिकार किया
मगर हर जगह मैं उन्हें न्याय में नहीं बदलवा पाया। साहित्य अच्छे आदमी का निर्माण संभवत:
इसी तरह करता है कि वह अपने से जुड़ने वाले को अन्यायी, अपराधी
और निरर्थक ईष्याओं का पात्र नहीं बनने देता। जो हों या होते होंगे वे कवि तो कतई नहीं
हो सकते। मैं खुद को कवि होने का प्रमाणपत्र नहीं दे रहा हूं लेकिन मैं खुद को कविता
से अलग भी नहीं कर सकता। न मैं बिना किसी भाषा के कविता की कल्पना कर सकता हूं।
मैं दृश्यों और आंतरिक
अनुभवों को भी भाषा में सोचता हूं। भाषा के बिना मैं रंगों और आकृतियों के बारे में
भी नहीं सोच सकता। मैं अनुभव और भाषा का आजाद गुलाम हूं। मैं पहले नये विचार का पीछा
करता हूं और उसे अपने अनुरूप बनाने की कोशिश करता हूं अन्यथा वह अगर कोई नया रास्ता
मुझे दिखाता है तो उसी पर चलकर मैं उसकी उपयोगिता के बारे में सोचता रहता हूं। मैंने
बहुत सी कविताएं नींद में सपना देखते हुए सोची हैं और तुरंत जगकर उन्हें लिखा भी है।
किसी मौके पर मैं बताऊंगा कि कौन-कौन सी कविताएं मैंने सपने में सोची और बोली हैं।
मैं अपनी कविताएं उस तरह कण्ठस्थ ज्यादा दिन नहीं रख पाता हूं जिस तरह कुछ कवि सम्मेलनी
कवि अपनी कविताओं को रट्टा मारकर याद रखते हैं। उनके साथ सुविधा यह है कि उन्हें वे
ही कविताएं सुनानी हैं जो उन्हें अपने जीवन काल में सुनाते-सुनाते रट गयी हैं। मैं
खुद को भुला देने के लिए फिर एक नयी कविता रचता हूं और फिर उससे आगे किसी और नयी कविता
की ओर बढ़ जाता हूं। मैंने अब तक क्या-क्या सोचा, किया और लिखा, उसे याद रखता हूं पर दोहराता नहीं हूं
। अगला जन्म अगर होता है तो मैं उसमें भी कवि होना चाहूंगा, सबसे
बेहतर कवि।
लीलाधर जगूड़ी
जगूडी जी ने अपनी मन की बाते इस अंक में दी है जिन्हें आपके माध्यम से जानने का मौका मिला। आभार॥
ReplyDeleteकवि बनने की चाह मेरी भी अपनी है,
ReplyDeleteकल कल बहता स्वर नदिया का भाता है।
जगूड़ी को जी इस तरह जानना अच्छा लगा।
ReplyDeleteजुगाड़ू ..... !!!
ReplyDeleteबहुत कुछ मिला सीखने को...
ReplyDeleteजगूड़ी जी सचमुच प्रतिभावान कवि हैं. उनका आत्मकथ्य बहुत गहराई लिए हुए है. आपके माध्यम से यह जानने को मिला, इसलिए आपको भी बधाई.
ReplyDeleteजगूड़ी जी सचमुच प्रतिभावान कवि हैं. उनका आत्मकथ्य बहुत गहराई लिए हुए है. आपके माध्यम से यह जानने को मिला, इसलिए आपको भी बधाई.
ReplyDeleteवाह जी वाह !
ReplyDeleteअच्छा लगा जगूड़ी जी के बारे में जानकर!
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