Sunday, October 28, 2012

तकनीक और साहित्‍य

  SDC14406

कुछ समय पहले मुंबई में कहानीकार लखनऊ से हरिचरण प्रकाश और कानपुर से अमरीक सिंह दीप आए हुए थे। कथाकार ओमा शर्मा, आर.के. पालीवाल और हरियश राय मुंबई में हैं ही। कवि विनोद दास भी अब मुंबई में ही हैं। ओमा ने इनसे मिलाने का प्रोग्राम बनाया। 'चिंतन दिशा'  के संपादक हृदयेश मयंक और शैलेश सिंह भी शामिल हो गए। अनौपचारिक बातचीत में तकनीक का मुद्दा उठा तो चर्चा व्यक्ति, साहित्य और समाज के सिरों को पकड़ती छोड़ती आगे बढ़ती गई।  बातचीत चूंकि बिना किसी तैयारी के हुई तो एक तरह का विखराव भी इसमें है। कुछ स्‍फुरण यहां मिल जाएंगे लेकिन बात को आगे बढ़ाने की पूरी गुंजाइश है।

अनूप सेठी : विनोदजी आप तकनीक की बात कर रहे हैं तकनीक का हमारी संवेदना पर क्या असर हुआ है?
SDC15453
विनोद दास : हमारे जीवन में तकनीक का बहुत महत्व है। जब कोई तकनीक आती है तो उसका आपके व्यवहार में, पूरे जीवन में असर हो जाता है। उदाहरण के तौर पर पहले की तकनीक रेडियो थी, पूरा घर एक साथ रेडियो सुनता था। आज संगीत कान में लगा कर अकेले सुना जा रहा है। यह आपको अकेला बनाती है। यह तकनीक सामूहिकता से काटकर अकेला मनुष्य बना रही है। यानी सामूहिकता से कटने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इस तरह तकनीक से कई तरह के परिवर्तन आते हैं जिससे हमारे इमोशन्स में भी परिवर्तन आ रहा है। जैसे अब जीवन से चिट्ठियां गायब हो गई हैं। एसएमएस आ गए हैं। इनमें तात्कालिक संदर्भ तो हो सकते हैं, लेकिन चिट्ठियों में जिस तरह उस समय के मूड में लंबे समय तक आप रह सकते हैं बल्कि जब चाहें उस समय में चले जाएं, यह एसएमएस से संभव नहीं है। टेक्‍नोलॉजी जीवन में बहुत तरह के बदलाव ला रही है, और मुझे लगता है साहित्य में भी इसी तरह के बदलाव देखने में आएंगे।
शैलेश सिंह : कलाएं मूलत: समूह को या समाज को सम्बोधित करती थीं। अगर उनका आस्वाद सामूहिकता में नहीं हो रहा है व्यक्ति के स्तर पर आ गया है तो क्या इसका यह अर्थ है कि कलाएं अप्रासंगिक हो रही हैं या हम अपने माध्यम को बदलें?
विनोद दास : सामूहिकता में भी बदलाव आया है। फेसबुक की वजह से एक नई सामूहिकता बनी है लेकिन उससे केवल संपर्क बनता है। हमारा काम संवेदनाओं से है, वे यहां नहीं हैं। जब तक साहित्य और कलाएं भावनाओं और संवेदनाओं के आधार पर काम नहीं करती हैं तब तक बात नहीं बनती है। आज जो मनुष्य बन रहा है उसकी संवेदना अलग किस्म की बन रही है। हमारी पहले की सामूहिक आधार वाली संवेदना रही है। पर यह जो आधुनिक संवेदना है वह तात्कालिक है। आज साहित्य की प्रासंगिकता भी शायद इसी वजह से कम हो रही है। तो नए मनुष्य के हिसाब से हमें नई तरह का साहित्य लिखना पडे़गा जिसमें सामूहिक के बजाए एकल मनुष्य के अंतर्मन की, उसके घात-प्रतिघात की बात होगी।
शैलेश सिंह : मनुष्य का अस्तित्व सामाजिकता में ही है यदि हम उसकी सामाजिकता को कम करते हैं तो वह किस हद तक मनुष्य रह पाएगा? काट देंगे तो उसकी क्या अहमयित होगी?
अनूप सेठी : ओमाजी, आप यह बताइए कि यहां सामूहिकता बनाम एकलता का यह सवाल पूरी तरह से सत्य है? पिछले दिनों जो विश्वव्यापी आंदोलन हुए हैं जिसमें कि मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है तो क्या यह दूसरी तरह का सत्य नहीं है? तो चाहे कलाएं हों या जीवन, क्या हमें दूसरी तरह के मानक या दूसरी तरह की दृष्टि नहीं रखनी होगी?
Oma Sharma
ओमा शर्मा : मैं सोचता हूं कि तकनीक को लेकर जो बात हो रही है उसका एक पक्ष या विपक्ष नहीं है सब एक अर्ध सत्य के रूप में परिवर्तित हो गया है। मैं विनोद जी की इस बात से सहमत नहीं हो पा रहा हूं कि रेडियो पर सामूहिक रूप से संगीत सुनने के बजाए अकेले कान में ईअर फोन लगा कर सुनने से आनंद कम हो जाता है। संगीत अब तकनीक के माध्यम से माइक्रोस्कोपिक स्तर पर उपलब्ध हो गया है। इसे हम चाहे जहां सुन सकते हैं। आज व्यक्ति कानों में लगाकर सिर्फ़ संगीत नहीं सुन रहा है वह ख़बरें भी सुन रहा है। दूसरे, हम सामूहिकता को एक बहुत बडे़ मूल्य की तरह लेते हैं। लेकिन इसे विकास के तौर पर मूल्य से जोड़ना ज्यादती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लेकिन क्या वह सामाजिकता से इतना बिंधा हुआ या बंधा है कि उससे बिछड़ते ही उसका रोना शुरू कर दें? जबकि सामाजिकता की सिर्फ़ परिभाषाएं बदली हैं। हम चूंकि मनुष्य की सामाजिकता को ख़ास तरह से देखने के आदी रहे हैं तो हमें लगता है कि यह उसका अकेलापन है। उन्नत समाजों में अकेले में ही प्रतिभाएं जन्मी हैं। आप नीत्से को देखें। बालजाक की क्या सामाजिकता थी? उपादेयता की नहीं, यदि सृजन की बात करें तो वह हमेशा एकलता को ही तलाश करती रही है। इस तरह मैं समझता हूं लेखक के लिए स्थितियां खराब नहीं हैं।
अनूप सेठी : आपने लेखक के अकेले होने और सृजनात्मकता की जो बात की यह एक अलग पहलू है, और दूसरी बात कि जब व्यक्ति लोगों के बीच रहते हुए जैसे ट्रेन में चलते हुए प्लग लगा कर अकेले में सुनता है तो वह दुनिया में रहते हुए अलग हो रहा होता है।
विनोद दास : मेरा कहना था कि प्रौद्योगिकी मनुष्य को मनुष्य से दूर भी कर रही है। इस तरह जो अकेला व्यक्ति बनता है उसका चरित्र भी दूसरी तरह का होगा तो क्या हम साहित्य में उस चरित्र को वर्णित करने का तरीका वही रखेंगे जो सामूहिकता के समय वाले व्यक्ति के चरित्र को वर्णित करने का रहा है?
अनूप सेठी : अमरीक सिंह दीप आप बताएं कि इन मुद्दों को जोड़कर कथा साहित्य में चीज़ें कैसे आ सकती हैं, आ रही हैं या नहीं आ रही हैं?
अमरीक सिंह दीप : हमारा ये मानना है कि कलाएं मर रही हैं। जो चीज़ें पहले हाथ से बनाई जाती थीं, अब उन्हें तकनीक बना रही है। हमारा एक नाती है वह न सितार बजाना जानता है न तबला लेकिन उसने कंप्यूटर से अपना एलबम बना लिया। पहले हम लोग एक कहानी के छह-छह सात-सात ड्राफ्ट लिखते थे, हर बार हम नया जोड़ते थे। अब के लेखक लगता है पहले ही ड्राफ्ट में कहानी भेज देते हैं, तो लगता नहीं है कि कहानी या लेखन के स्तर में परिवर्तन हुआ है।
अनूप सेठी : तकनीकी दृष्टि से कंप्यूटर पर आप चाहे जितनी बार सुधार कर सकते हैं। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है वह कितनी मेहनत करना चाहता है। अशोक वाजपेयी ने एक बार कहा था कि उनकी वे कविताएं पहले ड्राफ्ट की ही हैं।
अमरीक दीप : हो सकता है.... अपना-अपना अनुभव है। पर आजकल जो लेखन हो रहा है उसे देखते हुए पहले ड्राफ्ट वाली रचना ही लगती है।
अनूप सेठी : प्रकाशजी, दीप जी ने यह नया मुद्दा जोड़ दिया। ये बताएं कि पहले ड्राफ्ट की कहानियों का क्या मामला है फिर संपादक की क्या भूमिका रह जाती है?
SDC15449
हरिचरण प्रकाश : मैं टेक्‍नोलॉजी चैलेंज्ड आदमी हूं। मुझे तो अगर स्विच भी आन-आफ करना होता है तो मेरे लिए यही एक बड़ा काम है। ख़ुद कंप्यूटर सैवी नहीं हूं हालांकि मेरे बच्चे हैं। मैं एक बात कहता हूं कि टेक्‍नोलॉजी नई चीज़ नहीं है। सिर्फ़ उसकी गति बदल गई है। मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूं, जिसने भी एल्विन टॉफलर की फ्यूचर शॉक किताब पढ़ी होगी वह जानता है कि पहले पहिया आया, गाड़ी और हवाई जहाज के आविष्कार के बीच साठ सत्तर साल का अंतर है। हर जनरेशन को नई तकनीक से सामंजस्य करना होगा। इसके अलावा कोई चारा नहीं है। तकनीक अपने आप में बुरी चीज़ नहीं है। साहित्य पर इसका असर इतना ही है कि यदि आप कालीदास की कृतियां पढ़ें या महाभारत पढ़ें तो वहां घोड़े, तीर, धनुष, रथ होंगे। यह उस समय की टेक्‍नोलॉजी है। आज हवाई जहाज, बंदूकें आदि हैं। विनोदजी की बात पर मेरा यह कहना है कि साहित्य का एक बेसिक इमोशन या क्राफ्ट होता है, उस पर असर नहीं आना चाहिए। अगर वो आता है या तकनीक इस इस सीमा तक आक्रांत करती है कि आपकी मूल भावनाएं पूरी तरह से मेटामॉरफाइज (रूपांतरित) हो जाएं ... पर शायद अभी ऐसा नहीं है। ऐसा हो सकता है कि नहीं मुझे नहीं मालूम। मुझे नहीं लगता कि यह इतना आसान है क्योंकि इसके अनेक ध्वंसात्मक पहलू हैं जिससे समाज भी विनष्ट हो सकता है। ओमा जी की बात के संदर्भ में कहना चाहता हूं कि सृजनात्मकता के लिए सामाजिकता गले की फांस नहीं है। उदाहरण के लिए भक्ति साहित्य के समय में वे सामाजिकता को एड्रेस नहीं कर रहे थे, वे ख़ुद को एड्रेस कर रहे थे। बाद में उनका साहित्य लोकप्रिय हुआ। लेखक का सेल्फ (आत्म) कितना बड़ा है यह उसी पर निर्भर करेगा। यदि उसमें पूरा समाज शामिल है तो उसे बहुत ज्यादा सामाजिक होने की ज़रूरत नहीं है।
अनूप सेठी : आपने भक्तिकाल के समय की बात की, आधुनिक काल में व्यक्तिवादी धारणा अस्तित्ववाद के परिप्रेक्ष्य में आप क्या कहेंगे। आप कह रहे हैं कि भक्तिकाल की जो व्यक्तिकेंद्रिकता है वह उस तरह से सामाजिक नहीं है। लेकिन आधुनिक समय में, ख़ास तौर से महायुध्दों के बाद तो बाकायदा व्यक्तिवादी साहित्य लिखा गया, हमारे यहां भी लिखा गया वह अत्यधिक व्यक्तिकेंद्रित है। ('चिंतन दिशा' में भी समकालीन कविता पर एक बहस चल रही है) व्यक्ति के अंदर जो तोत्रड-फोत्रड हो रही है, जिसकी अगली कत्रडी विनोदजी जोत्रड रहे हैं कि प्रौद्योगिकी के साथ व्यक्ति के भीतर जो ध्वंस की प्रक्रिया संभावित है या चल रही है उसे आप कैसे देखते हैं?
हरिचरण प्रकाश : मैं इसे व्यक्ति के भीतर तोत्रड-फोत्रड मानने को तैयार नहीं हूं। जब भी कोई नई चीज़ आयेगी तो तोत्रडफोत्रड करेगी ही। एक ज़माने में लखनऊ में तांगे चलते थे लोग कहते थे कि आटो आते ही तांगे खतम हो जाएंगे। कोई भी नई तञफॅलोजी रोज़गार के नए अवसर प्रदान करती है।
अनूप सेठी : व्यापार और ग्लोबलाइजेशन तो हर समय में अपने हिसाब से हुई ही है। लेकिन आधुनिक समय में इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रानिक्स के अंतर और टेञ्ािफ्कल और टैञफॅलोजिकल के अंतर को ध्यान में रखना ही पत्रडेगा। व्यक्ति और समाज पर तांगे और मर्सीडीज के प्रभाव में बहुत अंतर है, ट्रेन के चलने और हवाई जहाज के चल जाने ने व्यक्ति को बदला है।
हरिचरण प्रकाश : इस सेंस में तो बदला ही। आदमी अपने क्षेत्र से बाहर निकला तो उसके इंट्रक्शन का दायरा बत्रढा है। इससे उसकी तात्कालिक क्षेत्रीयता कम र्हुई है। इस तात्कालिक क्षेत्रीयता को वह बत्रडा गुण और मूल्य मानता था यह उसकी आइडेंटिटी था। कुछ लोग मानते हैं कि उस आइडेंटिटी का ध्वंस हुआ है, मेरा मानना है कि उस आइडेंडिटी का परिष्कार हुआ है।
SDC15450
अमरीक दीप : हम इस बात से सहमत नहीं हैं कि तकनीक रोज़गार के अवसर देती है। हम फैक्ट्री में वर्कर की तरह काम करते रहे हैं। इसकी वजह से मजदूरों की संख्या घट गई है। फैक्टरी में जहां कई हजार लोग थे अब कम हो गये हैं।
हरिचरण प्रकाश : वहां कम हुए हैं लेकिन दूसरे क्षेत्रों में नए अवसर पैदा हुए हैं।
विनोद दास : तकनीक ने एक और परिवर्तन किया है कि चीज़ों को लोकतांत्रिक भी बनाया है। जैसे लोग चप्पल पहनने लगे, कमीज़ पहनने लगे, प्रोडक्शन बत्रढ गया है। पहले लोग नंगे घूमते थे अब सस्ती कमीज़ें मिल जाती हैं, मोबाइल उपलब्ध हैं। यह सब तकनीक ने ही तो उपलब्ध कराया है। तकनीक ने एक तरह से हमें सशक्त भी बनाया है। इस सब से एक नया मनुष्य बन रहा है इसे पहचानने की ज़रूरत है। क्या हम इसे पहचानने की कोशिश करते हैं? इसके लिए नई भाषा, नई शैली, नई तकनीक चाहिए।
आर के पालीवाल : मैं वापस घूम के तकनीक के ही मुद्दे पर आता हूं। चीज़ों को सफेद और काले में देखने की हमारी परंपरा रही है। तकनीकी को भी साहित्य में ब्लैक एंड ह्वाइट ही देखने की कोशिश हो रही है। तकनीक को इस एंगल से नहीं देखना है। तकनीक से सुविधाएं भी हैं परेशानी भी है। सवाल अपनाने का है। जैसे अमरीक सिंह ने कहा कि हमारे यहां मनुष्य बल अधिक है। यहां पर यदि लाभ को देखते हुए सुपर कंप्यूटर आदि लगा लिए जाएं और मनुष्य को हटा दिया जाए तो इस तरह तकनीक को हमें नहीं अपनाना चाहिए। तकनीक की कई खामियां भी हैं जिनका हमें आसानी से पता नहीं चलता। मोबाइल व कंप्यूटर की संस्कृति ने हममें स्मृति लोप ला दिया है। पहले बहुतों के नंबर याद रहते थे, नाम याद रहते थे। अब फीड करके रखने में यक़ीन रखते हैं। गांधी और विनोवा को याद करते हुए हमें तकनीक का सावधानी से चुनाव करना होगा। अभी फोन की जो बात हुई कि यदि मुझे एकांत मिले तो संगीत सुन सकता हूं पर जब मैं कई लोगों के बीच बैठा हूं क्या तब अकेले में संगीत सुनना ठीक है। या सत्रडक पर चलते हुए सुनना है और दुर्घटना को आमंत्रित करना है। तकनीक को मास्टर की तरह नहीं बनने दिया जा सकता कि वो आप पर कब्जा कर ले। ऐसी तकनीक के अपनाने में हमें कोई हर्ज नहीं जो हमारी सहायता करे। तकनीक और साहित्य, तकनीक व समाज, तकनीक व विश्व सबको हमें समग्रता में लेना पत्रडेगा। ऐसी तकनीक से हम बचें जो हमारी स्मृतियों को नष्ट करे जो हमारी मित्रताओं को नष्ट करे, हम किसी से मिलें-जुलें नहीं बस केवल फेसबुक पर ही मिलें। जबकि तकनीक का अच्छा पहलू है कि हम कट पेस्ट कर के ड्राफ्ट बना लेते हैं। जो हमारे काम को सहज बनाते हैं उनको अपनाने में गुरेज नहीं करना चाहिए। हमें विवेक से काम लेना पत्रडेगा कि हमारे सरोकार, हमारा साहित्य संस्कृति बची रहे।
हरिचरण प्रकाश : प्रश्न यह था कि यह जो तकनीक आ रही है इससे क्या संवेदनाओं के स्तर पर कोई परिवर्तन हो रहा है। मैं समझता हूं आज संवेदना के हर स्तर पर परिवर्तन हुआ है। आज के साहित्य में अनेक लेयर्स मिलती हैं। ये लेयर्स पचास साल पहले के साहित्य में नहीं मिलेंगी लेकिन महाभारत में ज़रूर मिल जाएंगी।
अनूप सेठी : वजह?
R K Paliwal 1
हरिचरण प्रकाश : वजह बहुत साफ़ है। जो तकनीक दिखाई नहीं पत्रडी, उसकी उन्होंने कल्पना कर डाली। जो तकनीक आज आपको दिखाई पत्रड रही है, वह सारी तकनीक महाभारत में इमैजिन्ड (कल्पित) है। वहां सब वर्चुअल है।
विनोद दास : पालीवालजी ने एक बहुत अच्छी बात कही है कि तकनीक हमारी स्मृति को नष्ट कर रही है। साहित्यकार स्मृति का एक बहुत बत्रडा रोल अदा करता है। एक तरह से वह स्मृति का ही पुनर्पाठ या पुनर्रचना करता है। स्मृति को याद रखने के लिए साहित्यकार स्मृतियों का ही पुनर्लेखन करता है। टेञफेलॉजी स्मृति का लोप करने का बत्रडा आघात करने जा रही है। यदि व्यक्ति के स्वभाव से स्मृति ही ख़त्म हो जाएगी तो वह स्मृति को याद रखने के लिए साहित्य क्यों पत्रढना चाहेगा। अगर टेञफेलॉजी व्यक्ति को साहित्य से विमुख करेगी तो बहुत सारे इमोशन्स से भी विमुख करेगी।
हरियश राय : मैं तकनीक को एक शैली के रूप में देखता हूं। इसने हमें एक सुविधा दी है कि हम अपनी बात को सहज और जल्दी कर सकें। जहां तक लेखन को प्रभावित करने की बात है, हरिचरण ने जैसा कहा कि मूल रूप में हमारे सरोकार हैं, हमारी संवेदना है। क्या कंप्यूटर के आने से हमारे सरोकार बदल जायेंगे या हमारी संवेदना में कोई फ़र्क आ जायेगा। तकनीक से हम अपनी चीज़ें लोगों तक जल्द-से-जल्द पहुंचा सकते हैं। तकनीक से आक्रांत होने की ज़रूरत नहीं है। हम पोस्टकार्ड से टेलीफोन पर आये। हमें याद है ज्ञानरंजनजी कार्ड लिखा करते थे। आज यदि 'पहल' निकलता तो एस.एम.एस आता पर बात तो वही रहती। मोबाइल व लैपटाप के आने से हमारे व्यक्तित्व में कोई ज्यादा फ़र्क आया हो ऐसा मुझे नहीं लगता। बल्कि हमारे लिए चीज़ें सहज और सुविधाजनक हो गईं। मूल बात मनुष्यता की है। इसे व्यक्त करने में मोबाइल या लैपटाप बहुत मदद नहीं कर पायेगा। सिर्फ हमारी बात को जल्द पहुंचाने में ही मदद करेगा। विनोदजी ने इंदिरा व नेहरू के पत्रों का ज़िक्र किया था। क्या आज पत्र नहीं लिखे जा रहे हैं। मैं उदाहरण दूंगा हाल में विजेंद्रजी ने 'चिंतन दिशा' को एक लंबा पत्र लिखा। लिखा शायद हाथ से ही होगा पर भेजा ज़रूर ई-मेल से होगा। यानी तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ़ भेजने में किया होगा। एक बात और कि तकनीक के चाहे लाख फायदे हों फिर भी हम किताब तो पत्रढना ही चाहते हैं। किताब से जो सुकून मिलेगा वह इंटरनेट से नहीं मिलेगा। तकनीक एक शैली है जिसने समय के अंतराल को कम किया है। इसलिए आक्रांत होने की ज़रूरत नहीं है।
अनूप सेठी : मुझे यह लग रहा है कि तकनीक सिर्फ़ शैली नहीं है। जैसे विनोद जी ने स्मृति के लोप की बात कही, तो मुझे लगता है कि तकनीक के साथ हमारे संबंधों में एक तरह की रासायनिक प्रक्रिया भी चल रही होती है। जैसे पत्र की जगह एस.एम.एस ने ले ली। चिट्ठियों में जो अंतराल होता था, घटना के घटित होने, उसकी सूचना देने और दूसरे व्यक्ति तक उसके पहुंचने के वक्फे तक वह भावभूमि दोनों छोरों पर व्याप्त रहती थी। प्रोलॉन्ग्ड टैंशन यानी प्रदीर्घ तनाव। उससे व्यक्ति के भीतर एक भिन्न प्रकार की हरकत होती थी। एक भावनात्मक, संवेदनात्मक, वैचारिक प्रक्रिया चलती थी। इसकी तुलना में देखें तो एस.एम.एस तुरंत आ जाता है रीयल टाइम में। जहां एक्शन तो है रिएक्शन के लिए समय नहीं है। सिर्फ़ संचार के साधन ही नहीं, परिवहन के साधनों ने भी तो समय को सिकोत्रड दिया है। अलग अलग तरह का जेट-लॉग व्यक्ति को झेलना होता है। जीवन में इतनी ज्यादा तेजी आ गई है, हरिचरण जी ने टाफलर का ज़िक्र किया कि जो फ्यूचर शॉक लग रहा है, क्या व्यक्ति में इसे झेलने की क्षमता है? वह यह क्षमता अर्जित कर लेगा? कब करेगा? इस प्रक्रिया में से गुज़रने को ही मैंने टूटफूट कहा था। सहस्राब्दियों से जो हमारे क्रिया प्रतिक्रिया के पैटर्न बने हुए हैं वो तेजी से बदलेंगे तो कैसे मनुष्य की रचना होगी। साहित्यकार के नाते हम यह सोच रहे हैं कि मनुष्य इस प्रभाव को कैसे ग्रहण और अभिव्यक्त करेगा।
हरिचरण प्रकाश : क्या हम कुछ लाउड थिंकिड नहीं कर सकते कि जो प्राब्लम हो रही है यानी तकनीक कम्युनिकेशन बत्रढाती है पर कम्युनिकेशन इम्पर्सनल होती जाती है। क्या साहित्यकार इस इम्पर्सनल इंटरेक्शन को साहित्य में ला पायेगा या नहीं। मेरे ख्याल से यही प्रश्न है। मेरा मानना है कि वह कर सकता है। तकनीक कहीं से बाधित नहीं कर पायेगी। कोई अक्रांत होने की ज़रूरत नहीं है। हाथी घोत्रडे तीर कमान जब बाधित नहीं किये तो हवाई जहाज बाधित नहीं करेगा।
अनूप सेठी : तो यहां एक निष्कर्ष यह निकल रहा है कि तकनीक से आक्रांत होने की ज़रूरत नहीं है साहित्यकार इससे उबर सकता है।
अमरीक दीप : जो जिस तरह से लिख रहा है उसी तरह लिखता रहे, उसमें बाधा नहीं पड़नी चाहिए।
SDC15455
हरियश राय : जब तक हम समाज से नहीं जुत्रडेंगे बेहतर नहीं रच सकेंगे। तकनीक इस मामले में घातक है, हमें समाज से कहीं-न-कहीं काट रही है। हमको सायास प्रयास करने पत्रडेंगे। इसकी अच्छाइयों को स्वीकार करें और बुराइयों से बचें।
शैलेश सिंह : मेरा मानना है कि तकनीक हमारे इमोशन्स को हैंपर कहीं-न-कहीं बुरी तरह से कर रही है। अब नए इमोशन जो बनेंगे उनकी शक्लो सूरत क्या होगी यह अभी धुंधला है। कोई कांक्रीट शेप अभी नहीं है। यदि आप गति को लेते हैं, एक व्यक्ति जो लगातार वायुयान से यात्रा करता है वह ज़मीन की तमाम वनस्पतियों से खोता चला जाता है। उसे रंगों की गंध की तमीज नहीं होती है। उसकी चेतना को वे कैसे प्रभावित करती हैं कैसे बनाती हैैं। हमारे इमोशन को ये चीज़ें हैंपर कर रही हैं। तकनीक के बहुत सारे लाभ हैं लेकिन एक बेसिक ह्यूमन सरोकार आहत व प्रभावित हो रहा है। किस तरह का नया मनुष्य बनेगा, उसकी चेतना कैसी होगी, कहा नहीं जा सकता। स्मृति लोप की बात कही गई। मैं बताऊं लोकल ट्रेन में यात्रा किये बिना मुंबई को जाना नहीं जा सकता। तकनीक हमें लोकेल से सेपरेट करती है जो कला के लिए घातक है। कला की प्रथम शर्त है कि कला केवल आत्मानंद नहीं है वह मुक्ति भी है और समूह की मुक्ति है यह केवल स्व की मुक्ति नहीं है। इस पर प्रभाव पत्रडने का ख़तरा मुझे नज़र आता है। यह चिंता की बात है।
ओमा शर्मा : जैसा हरियशजी ने और शैलेशजी ने कहा कि हम अपने संस्कारों व मूल्यों से ही हमेशा बाधित होते रहते हैं। यह कहना कि हर रचना का एक सामाजिक आयाम होता है या रचना समाज को बदलती है या प्रभाव डालती है यह उसका अतिरिक्त आयाम है। रचना की सार्थकता समाज से इतर है।
अनूप सेठी : क्या यह स्वायत्त है?
ओमा शर्मा : स्वांत: सुखाय नहीं हो सकती।
हरियश राय : फिर रचना की सार्थकता क्या है? इससे दूसरा सवाल यह उठता है कि रचना क्यों?
ओमा शर्मा : उस पर भी हम आएंगे। कोई भी रचना चाहे संगीत हो या लेखन हो यह अंतत: एक कला है। उससे समाज पर जो असर पत्रडता है वह उसकी लोकप्रियता का आधार तो हो सकता है पर कलात्मकता का नहीं है। तकनीक हमें कहीं से भी आत्रडे नहीं आती। तकनीक का अपना एक समाजशास्त्र, अपनी प्रवृत्ति होती है। जब हम यह कहते हैं कि वह कितनी गति से आनी चाहिए या उसे किस हद तक हमें लेना चाहिए, तब हम इस पर अपना वैल्यू जजमेंट आरोपित करने लगते हैं। तकनीक किसी भी दौर में, न पहले न अब, ज़रूरत के मुताबिक या हमारे मूल्यों के मुताबिक नहीं बदली है, न आगे बदलेगी। जो बात कही गई है कि स्मृति सृजन का आधार होती है, मैं इससे भी बहुत ज्यादा इत्तिफाक नहीं रखता हूं। क्योंकि ये पिछले सौ-पचास वर्ष की ही सोच का निष्कर्ष है जिस धारा में निर्मलजी या मिलान कुंदेरा आते हैं। यह दरअसल एक सोच या विचार है। ये कोई सार्वभौमिक सत्य नहीं है। इसे तकनीक के बरक्स देखें तो स्मृति लोप भले हो रहा हो क्योंकि हम सूचना के अंबारों के बीच जी रहे हैं लेकिन स्मृति को सहेजने की जो क्षमता हमें तकनीक दे रही है वह अकल्पनीय है। आपको फोटो को या नंबर को जेहन में रखने की ज़रूरत नहीं है।
अनूप सेठी : बाहरी साधन के रूप में दे रही है, व्यक्ति के भीतर नहीं दे रही है।
SDC14751
शैलेश सिंह : जब हम आपको देखते हैं तो पूरा व्यक्तित्व स्मृति में कौंधता है। आपकी कहानी पत्रढकर यदि कोई फोन पर संवाद करता है तो उस पर आपके व्यक्तित्व का कोई असर नहीं पत्रडता है। लेकिन जो आपको जानता है वह आपकी कहानी को आपके व्यक्तित्व से जोत्रड कर देखेगा। उसके आस्वादन की स्थिति अलग हो जाती है। स्मृति को इससे जोत्रडकर भी देखना चाहिए।
अनूप सेठी : हेरिडिटरी कुछ चीज़ें बायोलाजिकली चल रही होती हैं हर एक व्यक्ति के भीतर।
हरिचरण प्रकाश : मैं मानता हूं कि स्मृति एक बायलॉजिकल फिनोमिना है पूरे तरीकों से। स्मृति को यदि ट्रेडिशनल अर्थों में देखेंगे तो मुश्किल हो जायेगी। जब वेद पहली बार लिखे गए तो कहा गया यह श्रुति है। इसे नहीं लिखा जाना चाहिए। तो तकनीक का मतलब है कि वह लिखा जाने लगा। स्मृति का मतलब यही नहीं है कि जो चीज़ें आपको याद आ रही हैं वही स्मृति है बल्कि आप जो कुछ करते हैं वह स्मृति का हिस्सा हो जाता है। आप उसे कितना बचाते हैं वह आप पर है। स्मृति पर आघात बहुत हैं। माइंड फिल्टर करता चलता है उसकी कैपिबिल्टिी के अनुरूप। रचना एक केमिकल कंपोजीशन भी है। कोई देवदूत नहीं आकर लिख जाता है। तकनीक प्रभावित तो निश्चित ही कर रही है। लेकिन उससे साहित्य का कोई नुकसान नहीं हो रहा है। क्योंकि हर ज़माने के साहित्य ने अपने समय की टैञफॅलोजी को अपना वशवर्ती बनाया है। और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि आज का साहित्यकार आज की टैञफॅलोजी को अपना वशवर्ती न बना ले। वशवर्ती का मतलब टैञफे सेवी हो जाना नहीं है। उसकी एक समझ होना ज़रूरी है कि यह समाज को कैसे प्रभावित कर रही है।
आर.के. पालीवाल : मैं तकनीक के बेहद व्यावहारिक पहलू की बात बताता हूं। दूर दराज के इलाकों में जहां तकनीक नहीं है वहां नये बच्चे काम के लिए जाते ही नहीं। क्योंकि वहां कंप्यूटर मोबाइल काम नहीं करता। बुजुर्गों का कहना है कि तकनीकी सुविधाएं न होने से वहां काम करना मुश्किल है। मतलब यह कि तकनीक को हमने इतना हावी होने दिया, हम उससे इतने प्रभावित हो गये हैं कि बिना उसके नहीं रह सकते। यह भौगोलिक रूप से भी बत्रडा इलाका है। मतलब लोग वहीं रहना चाहेंगे जहां तकनीकी सुविधाएं हैं। अब तकनीक का दूसरा उदाहरण देखिए, वन अधिकारियों ने बताया कि उन्होंने युवकों से पूछा कि आप लोग जंगल वगैरह में घूमने क्यों नहीं आते? तो उन्हें उत्तर मिला कि सर जियोग्रेफी चैनल पे इतना अच्छा टाइगर शिकार करते हुए सेक्स करते हुए देखने को मिल जाता है, यहां तो कुछ नहीं मिलता। अधिकारी कहता है कि यहां इसके अलावा पेत्रड, नदी पहात्रड भी तो हैं। वो कहते हैं साहब वहां सब दिख जाता है और इससे अच्छा दिखता है। तो तकनीक इस तरह भी प्रभावित कर रही है।
अनूप सेठी : विनोद जी, यह बातचीत आपसे शुरू हुई थी। और हम लोग मनुष्य और समाज पर प्रौद्योगिकी के प्रभाव पर बात करना चाह रहे थे। जैसा अक्सर सामूहिक चर्चा में होता है, कुछ बातें काम की निकल आती हैं। आज की इस बातचीत में भी हम प्रौद्योगिकी के चरित्र और प्रभाव पर बिखरी हुई सी ही सही पर कुछ चर्चा तो कर ही पाए हैं। यह विषय घोर वर्तमान का है और जटिल भी है, इसलिए एक सत्र में पूरी तरह पकत्रड में आने से रहा। फिर भी आप ही इस चर्चा को समेटने की कृपा करिए।
विनोद दास : हम यही तो कह रहे थे कि एक जो नया मनुष्य बन रहा है, तकनीक की वजह से उसकी चेतना पर क्या असर हो रहा है? उसका अंतरमन कैसे बदल रहा है और जो नया मनुष्य या नये करेक्टर हमारे पास आ रहे हैं हरिचरण ने कहा इम्परसनल मनुष्य बन रहा है जिसके संबंधों में रागात्मकता नहीं रहेगी। जब रागात्मकता नहीं रहेगी तो वह राग वाली चीज़ों के प्रति मुत्रडेगा या नहीं। यदि मुत्रडेगा तो किस तरह के राग व संबंधों की ओर मुत्रडेगा। उसे हम किस तरह एड्रेस कर सकेंगे। इम्परसनल होते हुए व्यक्ति को हम किस तरह परसनल या रागात्मकता से जोत्रडें। यह एक मुद्दा है। इसे कैसे कर पायेंगे यह हर लेखक अपनी तरह से सोचेगा। मेरा कहना है कि इस तरह के नये मनुष्य की भावनाओं को व्यक्त करने की, उनके इमोशन्स को पकत्रडने की ज़रूरत होगी। एक दूसरे से जोत्रडने की... जुत्रडने की ज़रूरत होगी। हर लेखक इसे अपनी तरह से करेगा। वह कैसा मनुष्य रचता है यह महत्वपूर्ण होगा न कि किस तकनीक से वह जुत्रडता है। क्या वह अपने समय के मनुष्य को बदलने में सक्षम है? शायद सक्षम होगा। क्योंकि यही हमारी चिंता है। यही हमारी भूमिका भी है।
ओमा शर्मा : पता नहीं इस चर्चा में अब आगे बोलना चाहिए या नहीं, पर फिर भी एक बात मन में आ रही है कि आधुनिक समय में जो तकनीक से इतना ज्यादा संचालित है और प्रेरित है उसके लिए साहित्य व कला की ज़रूरत है भी कि नहीं। पहले भी जब साहित्य पराकाष्ठा पर रहा है, तब संगीत को छोत्रडकर दूसरी विधायें नहीं थीं तो मनुष्य के एकांत को भरती हों या उसे सामाजिकता से जोत्रडती हों। आनंद के लिए आज साहित्य से इतर चीज़ें उपलब्ध हैं। तथाकथित जो साहित्य के शेड्स हैं जैसे चालू साहित्य का बत्रडा बाज़ार है। गंभीर साहित्य के पाठक हैं क्या। क्या अब कोई साहित्य क्रांति के लिए प्रेरित कर पायेगा या उसकी ज़रूरत है भी? क्रांति के जो कारक हैं वे साहित्य से इतर हैं। जिन मुल्कों में जबरदस्त क्रांतियां हुई हैं सबके राजनीतिक आर्थिक कारण रहे हैं। राजनीति से भी ज्यादा आर्थिक। ये अंतत: वही शक्तियां हैं जो समाज को संचालित कर रही हैं। इन्हें दबा के नहीं रखा जा सकता। धीरे-धीरे भारत में भी दबी आकांक्षाओं वाले लोग जुत्रडेंगे। हमारा साहित्य आत्रडे नहीं आयेगा। तकनीक लोगों को जोत्रडेगी।
शैलेश सिंह : मैं एक उदाहरण दे रहा हूं। जापान, तकनीकी दृष्टि से विकसित देश है। अभी जो सुनामी आयी थी बत्रडी तबाही हुई वहां तकनीक का जो दुष्परिणाम हुआ आप जानते हैं। मैं तकनीक का विरोधी नहीं हूं। वहां पच्चीस वर्षों से यह प्रकृति रही है कि युवक जो है वह विवाह नहीं कर रहा था। वह तकनीक में इतना इन्वाल्व था कि वह विवाह को भी ज़रूरी नहीं मानता था। वहां का मैरिज रेशियो गिरकर 12् तक आ गया था। एक डॉक्टर की रिपोर्ट है। इस दुर्घटना के बाद बहुत से लोग वहां अकेले हो गये हैं। दुर्घटना के समय आपको परिजन की ज़रूरत होती है कम-से-कम कंधे पर सर रख कर रोने के लिए। इस घटना ने लोगों को विवाह के लिए प्रेरित किया। अब वहां शादियों में करीब पांच गुना वृध्दि हुई है।
हरियश राय : साहित्य से भले ही क्रांति न होती हो, पर सामाजिक बदलाव में इसकी बत्रडी भूमिका होती है। साहित्य का समाज से गहरा रिश्ता है। आज़ादी की लत्रडाई के दौरान फ़ैज़, नजरुल इस्लाम की ग़ज़लों का लोग हिरावल दस्ते की तरह गायन करते रहे और प्रेरित होते रहे। भगत सिंह ने लेनिन को पत्रढते हुए अपने अंतिम दिन बिताए थे। कहीं-न-कहीं अंत:चेतना को अच्छा साहित्य प्रभावित करता है। अच्छे साहित्य की मांग हमेशा बनी रही है। गोर्की, रेणु, परसाई सबको हम पत्रढते रहते हैं। किताबें कलाएं मनुष्य की संवेदना को एड्रेस करती हैं।
ओमा शर्मा : क्या इन रचनाओं के बिना आज़ादी की लत्रडाई नहीं लत्रडी जा सकती थी?
अनूप : माना कि साहित्य से सीधे-सीधे क्रांति नहीं होती लेकिन कला क्या सिर्फ़ रंजन का कार्य करती है? कला जो संवेदनात्मक क्रिया व्यक्ति के भीतर करती है क्या इसका व्यक्ति के परिष्कार में कोई रोल होता है या नहीं? संगीत चाहे शास्त्रीय चाहे लोक, ज़ाहिरा तौर पर कोई परिवर्तन नहीं करता, लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि संगीत कुछ नहीं करता? और जब संगीत के साथ शब्द जुत्रड जाते हैं तब तो उन्हें पंख लग जाते हैं। माना कि समाज को दूसरी शक्तियां चलाती हैं लेकिन व्यक्ति को चलाने वाली तो बहुत सी चीज़ें होती हैं। शब्द पर आरूत्रढ जब विचार व्यक्ति में प्रविष्ट होता है तो क्या वह स्मृति की रचना का कारक नहीं बनता? और अगर बनता है तो क्या वह कोई परिवर्तन नहीं करता? आप सहमत होंगे कि करता है। असल में कला शब्द विचार संवेदना का परस्पर गहरा अंत:संबंध है। इसलिए कलाएं सिर्फ़ रंजन नहीं करतीं बल्कि व्यक्ति के जीवन को परिमार्जित भी करती हैं। कलाएं अंदर से बदल देती हैं। कोई भी कलात्मक अभिव्यक्ति समाज निरपेक्ष नहीं होती।
हरिचरण प्रकाश : बिल्कुल, कलाएं अंततोगत्वा समाज निरपेक्ष होती ही नहीं।

यह चर्चा चिंतनदिशा के ताजा अंक में छपी है।
Copy of SDC14750 
हृदयेश मयंक, संपादक चिंतनदिशा

Wednesday, October 17, 2012

समकालीन कविता

       


जैसा कि आप जानते हैं, मुंबई से प्रकाशित पत्रि‍का चिंतनदिशा में विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार की चिट्ठियों के जरिए समकालीन कविता पर बहस शुरू हुई थी. अगले अंकों में इन चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह; राधेश्‍याम उपाध्‍याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और मेरी प्रतिक्रियाएं छपी.  ताजा अंक में विमल कुमार और नित्‍यानंद श्रीवास्‍तव की टिप्‍पणियां छपी हैं. विमल कुमार की टिप्‍पणी आप पढ़ चुके, अब प्रस्‍तुत हैं नित्‍यानंद श्रीवास्‍तव के विचार


समकालीन कविता पर 'चिन्तन दिशा' पत्रिका द्वारा आयोजित बहसों (पत्रों और लेखों) को पढ़ने-गुनने के दौरान निराला की दो कविताओं 'दान' (अनामिका) एवं 'मास्को डायेलाग्स' (नये पत्ते) का अनायास स्मरण हो आया। इन दोनों कविताओं की मौलिक चिंता जानने और बरताव करने के बीच अन्तर और अन्तराल की है। यह चिंता हर युग के सचेत एवं जागृत व्यक्तियों की है- विश्व की हर चिंतन प्रणाली इसीलिए जानने से अधिक बल व्यवहार के पक्ष पर देती रही है। भारतीय गुरुकुल परम्परा का आचार्य अपने शिष्यों को दीक्षित करते समय 'गुरु' के अनिन्दित कर्मों का अनुसरण करने पर बल देता है। बुद्ध कहते हैं, 'भिक्षुओं! मैंने बेडे़ की तरह पार उतरने के लिए तुम्हें धर्म का उपदेश किया, उसे पकड़ रखने के लिए नहीं। धर्म को बेडे़ के समान उपदेश जानकर तुम धर्म को भी छोड़ दो, अधर्म की तो बात ही क्या।' (मज्झिम निकाय) यह निरंतर स्वयं की परख का विषय है और जाहिर है इसकी ज़रूरत जीवन के हर स्तर पर है।

भारतीय साहित्य में कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भू: की बात अकारण नहीं की गई है। वाणी में अर्थ की प्रतिपत्ति का सीधा सम्बन्ध कवि के व्यक्तिगत जीवन से है। विजय बहादुर सिंह ने समकालीन कविता और उसके कृतिकार के सम्बन्ध में जो महत्त्वपूर्ण बात कही है उसे इस सन्दर्भ में पुन: देखें। वे कहते हैं, 'अगर कई एक चर्चित कवियों के जीवन प्रवाह का अध्ययन किया जाये तो नतीजे बहुत दुखदायी निकलेंगे कि उन्होंने कविता को किस तरह चतुर फार्मूलों का गुलाम बना डाला। उनकी कविता में व्यक्त अनुभवों का चरित्र बेहद अकादमिक शास्त्रीय किस्म का रहा, जिसमें जीवन की वे पहचानें लगभग नदारद दिखीं जिन्हें इनसे अधिक वह पाठक जानता है, जिसने कोई कविता नहीं लिखी। कविता और जीवन का यह भारी अंतराल इस समकालीन रचनात्मकता का सबसे दुखद पक्ष है।' यहाँ सवाल कविता और पाठक के बीच दूरी का नहीं बल्कि स्वयं कवि का कविता से है। कवि मन का बार-बार इस प्रश्न से टकराना ही आत्मसाक्षात्कार की कोटि में आता है। बुद्ध का 'अप्पदीपो भव' कबीर का 'आप पिछाणै आपै आप', तुलसी का 'स्वान्त: सुखाय:' और मुक्तिबोध और अज्ञेय के आत्मालाप और निराला के बहुतेरे प्रार्थना गीत कवि के 'आत्म' की तलाश के प्रस्थान बिन्दु हैं। कविता भी यहीं से प्रवर्तित होती है। गोस्वामी तुलसीदास ने वक्ता और श्रोता के 'समशील' होने की जो बात की है उसे आज की रचनाधर्मिता पर छाए भयावह संकट की पहचान और उपचार के सिलसिले में रेखांकित किया जा सकता है। कूप-मंडूकता का आग्रही और उसके प्रति आनंद भाव रखने वाला 'मन' स्वयं को प्रश्नांकित करने से बचने के सप्रयास आयोजन करता है- कारण कि पडो़स का मंडूक कहीं उससे अधिक ऊँची लम्बी छलाँग न लगा ले। विजय बहादुर सिंह के पत्र में उठाए गए इस गम्भीर सवाल से प्रतिवादी लेखक विजय कुमार और विजेन्द्र जैसे विद्वान साफ़-साफ़ कतरा कर निकल गए हैं।

अब सवाल यह है कि कवि के आत्म-संघर्ष और आत्म-साक्षात्कार से श्रोता या पाठक का क्या लेना देना है। करता रहे कवि आत्म-संघर्ष और आत्म-साक्षात्कार। जीवन जैसा उसको मिला है, वैसा ही उसके श्रोता और पाठक को भी। यहाँ तो सभी अपने ग़म में डूबे हुए हैं, न ये खाली न वो खाली। यह भी ठीक है कि सिर्फ़ अपने ग़म के दायरे से लिखी गई कविता कोई स्थायी मूल्य नहीं तलाश पाती। स्वान्त: सुखाय राम कथा कहने वाले तुलसी को राम सिर्फ़ आराध्य होने के नाते प्रिय नहीं हैं। राम के प्रति तुलसी की प्रणति का एक बडा़ कारण यह है कि स्वयं राम को 'खिन्न' यानी दुखी आत्तजन 'परम प्रिय' हैं। पूरा तुलसी साहित्य इसी संवाद और आत्मसातीकरण की प्रक्रिया और उपलब्धि का साहित्य है। 'आत्म' के प्रति यह बोध इधर के कवियों में दुर्भाग्य से या जानबूझकर एक सिरे से अधिकांशत: नदारद है।

यह 'आत्म' कोई रहस्यात्मक वस्तु नहीं है। इसके अनिवार्य घटकों में, कवि के व्यापक लोकानुभव जो उसे अपने मनुष्य और मनुष्येतर परिवेश से मिलते हैं एवं अपने समय तक प्राप्त साहित्यिक एवं अन्य अनुशासनों की कृतियों के अध्ययन मनन चिंतन से उत्पन्न सचेत बोध, की चर्चा की जा सकती है। इसके साथ ही वह 'विवेक' अपेक्षित है जो कवि को आरोपित प्रतिबद्धताओं तथा प्रगतिशील चिन्ताओं को समय-समय पर प्रश्नांकित करने का हौसला देता रहे। यह हौसला जीवन के लिए उसी तरह आवश्यक है जिस तरह हवा और पानी।

विज्ञान और तकनीक के यांत्रिक विकास ने धरती पर, 'जीवन' पर ही भयावह संकट उत्पन्न किए हैं। लेकिन सबसे बडा़ भयावह संकट जिसे मनुष्य ने स्वयं अपने लिए सिरजा है, भस्मासुर की तरह, वह आत्म-विस्थापन और आत्म-उन्मूलन का संकट है। स्मृतिहीनता का महारास रचातीं तमाम किस्म की विचार सरणियाँ कई बार हितैषी जैसी बनकर मनुष्य को विक्षिप्त और अकेला कर देती हैं। यह दैन्य और वर्तमान सभ्यता की ऊपरी चमक-दमक और उसके भीतर रिक्तता का दैन्य आज एक बडा़ संकट है। भक्ति साहित्य रचने वाले कवियों ने इस दैन्य की ठीक पहचान की थी। परकीय और स्वकीय आततायी शक्तियों ने मनुष्यता की शक्ति एवं स्रोत के अपहरण का जो भयावह कुचक्र चला रखा था, भक्ति के तत्त्व ने उन दिनों इस शक्ति और स्रोत को सूखने से बचा लिया। 'प्रभु' दीनदयाल और ग़रीब नवाज इसीलिए हैं कि वे मनुष्य को सिर्फ़ आर्थिक ही नहीं बल्कि आत्मिक संघर्ष हेतु सन्नद्ध करने के लिए अपनी 'कृपा' का पात्र बनाते हैं। भक्ति का यह तत्त्व ऍंग्रेज़ी सभ्यता के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष का मूलभूत प्रेरक भी रहा है। क्रान्तिकारियों की प्रेरणाभूमि बंगाल से उस समय के योद्धा संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने उन दिनों कहा था, 'आगामी पचास वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारतमाता ही मानो आराध्य देवी बन जाए। तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा जाग्रत देवता है।'

विजेन्द्र ने अपने लेखसंवाद में 'समकालीन' शब्द में अर्थ-व्याप्ति मार्क्सवाद के सन्दर्भों में एवं भारतीय मुक्ति संग्राम को रामविलास शर्मा के हवाले से नई जनवादी क्रान्तियों की पहली महत्त्वपूर्ण कडी़ के सन्दर्भ में देखा है। इसी सिलसिले में विजय कुमार ने 'आदर्श भारतीयता' की बात नाक-भौं सिकोड़ते हुए उठाई है।

अब रामविलास जी ने मार्क्स से कितना और क्या सीखा, मार्क्स स्वयं भारत के बारे में कितना और क्या समझते हैं और भारतीयता के नाम पर आपकी नाक-भौं क्यों सिकुड़ जाती है। यह सोचने विचारने का एक मुद्दा हो सकता है। सोचने-विचारने का मुद्दा यह भी है कि जिस स्वातंत्र्य संघर्ष को आप जनवादी क्रान्ति की कडी़ के रूप में देखते हैं, उस स्वातंत्र्य संघर्ष में बहुतेरे मार्क्सवादी अनुकर्त्ताओं की दिलचस्पी देश-विभाजन के प्रसंग में ज्यादा थी, बहुतेरे लोग सुभाषचन्द्र बोस के प्रति विकृत मनोभाव रखते थे और बहुत से लोग स्वंतत्रता प्राप्ति के बाद चीन से हुए संघर्ष में चीनी आक्रमण का स्वागत कर रहे थे। विजेन्द्र किस मार्क्सवाद के पक्ष में खडे़ हैं, यह उन्हें बेहतर पता होगा।

बहरहाल, बात यहाँ 'समकालीन' शब्द की अर्थ योजना और अवधारणा की थी- विद्वज्जनों से इतना आग्रह अवश्य है कि इस शब्द के अर्थ के रूप में आप चाहे मार्क्सवाद को रखें या भारतीयता को रखें या और भी कुछ जो आपकी समझ में आता हो, यदि कविता, राधेश्याम उपाध्याय के शब्दों में, मर्मस्पर्शी अनुभव अपने पाठक या श्रोता को नहीं दे पाती तो वह सब बेकार है।

पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से 'समकालीन' शब्द साहित्य के इतिहास लेखन, आलोचना, समीक्षा एवं सृजनात्मक साहित्य के पठन-पाठन के केन्द्रीय विमर्श के रूप में चर्चा में रहा है। जितनी अधिक चर्चा में रहा है उससे अधिक चर्चा इसके अर्थ और अवधारणा को लेकर हुई है। आधुनिकता बनाम परम्परा, नया काव्य आदि अनेक ऐसे शब्दों की गिनती की जा सकती है जिन पर आलोचकों, इतिहास लेखकों और रचनाकारों को बहुत माथापच्ची करनी पडी़ है।

इस बहस का एक पक्ष यह भी हो सकता है कि 'समकालीन' और इस तरह के अनेक शब्द हिन्दी साहित्य में पाश्चात्य समीक्षा के कुछ शब्दों के अनुवाद के रूप में प्रचलन में हैं। जैसे समकालीन शब्द अंगरेजी के कण्टेम्पररी शब्द का अनुवाद है जैसे उत्तर आधुनिकता, पोस्ट-माडर्निज्म का। हिन्दी का सृजनात्मक साहित्य तो कुछ सीमा तक इस अनुवादजीवी और बहुत हद तक गुलाम मानसिकता से मुक्त है लेकिन आलोचना और समीक्षा का अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तिवाद स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य में नहीं दीखता। दूसरी बात जो इस बहस में जोडी़ जा सकती है वह पिछले लगभग सौ वर्षों के हिन्दी साहित्य में इतिहास लेखन, आलोचना और समीक्षा के विचित्र घालमेल की है। विचार का विषय है कि इस घालमेल से जो द्राक्षासव तैयार हुआ है उसने साहित्यकार के रचनात्मक विवेक को नकारात्मक दिशा देने में कितनी भूमिका निभाई है।

इसमें महत्त्वपूर्ण बात यह है कि साहित्य का इतिहास लेखन पाश्चात्य अथवा सेमेंटिक कालबोध पर आधारित है जो समय को खण्डों में बाँटकर देखने का ही अभ्यस्त है। आदि और अन्त वहाँ अनिवार्य स्थितियाँ हैं- खंडित दृष्टिबोध इसीलिए सम्यक् इतिहास बोध का कारक नहीं बन पाता। व्यक्ति के जीवन में, परिवार-समाज के जीवन में और साहित्यिक रचना के क्षेत्र में छोटी-बडी़ घेरेबन्दी और गोलबंदी यहीं से शुरू होती है।

समकालीन कविता के साथ एक और अद्भुत दुर्योग घटित हुआ है। रचनात्मक आलोचनात्मक और समीक्षात्मक बहसें रूपवादी चर्चा में उलझ गई हैं। मुक्तछन्द और छन्दमुक्ति के नाम पर गद्य जैसी कविताओं के रचनाकारों का ताल ठोंकता गिरोह एक तरफ तो दूसरी तरफ साहित्यिक अल्पसंख्यकवाद की तान टेरता हुआ गीत ग़ज़लकारों का वर्ग। सुल्तान अहमद की ग़ज़लों के माध्यम से की गई रूप चर्चा कोठों की नायिकाओं की शृंगार सज्जा से होड़ लेती है। रदीफ़ काफिए में थोडी़ छूट लेती हुई और हिन्दी वर्तनी के हिसाब से लिखी गई दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें मर्मस्पर्शी होने के नाते ही लोगों की ज़बान पर चढी़ हुई हैं। एक आम गृहिणी की श्रृंगार सज्जा और कोठे की नायिकाओं की शृंगार सज्जा में थोडा़ अन्तर तो रहता ही है। बहरहाल इन रूपवादी दुराग्रहों ने भी पिछले तीस पैंतीस वर्षों से कविता की रचनात्मक धार को कुंद किया है। बल्कि ठीक-ठीक कहें तो कवि और कविता के समग्र व्यक्तित्त्व का पिछले तीस-पैंतीस वर्षों की हिन्दी कविता में निरन्तर ह्रास हुआ है।

कवि का 'आत्म' जिन घटकों से निर्मित होता है, वही उसके व्यक्तित्त्व का अता-पता है। आज 'समकालीन' नामधारी कविता के पास कितने कवि हैं जिन्हें छन्द, संगीत और लोकमन की सही तड़प का 'अनुमान' भी है। विश्व-बिरादरी में शामिल होने की होड़ में हाँफते-काँखते कितने आलोचक और समीक्षक अपने 'पराधीन चिंतन' को प्रश्नांकित करने का साहस रखते हैं। जल-स्रोतों से लेकर मस्तिष्क के कोषों के प्रदूषण कारक केन्द्रों के विरुद्ध सोचने का साहस सरकारों के पास नहीं है- साहित्यकार कब तक अपने-अपने मठों में कैद रहेंगे?

इस पूरी चर्चा में लेखकों ने जिस तरह अपने-अपने मठों के लेखकों का उल्लेख किया है उससे निराशा ही हाथ लगती है। विजेन्द्र ने जिस भोंडे़ तरीके से भवानी प्रसाद मिश्र को विचारहीन कवि कह दिया है उससे सोच-विचार के उनके स्तर का पता चलता है। क्या उन्होंने 'गीत-फ़रोश' में भूमिका की ये पंक्तियाँ पढी़ हैं- 
बात कठिन है लेकिन करना चाहिए! 
शब्दकार को अगर ज़रूरत पडे़ तो अपने शब्दों पर मरना चाहिए!!! 

क्या विजेन्द्र पर्यावरण के लिए मौन भाव से निरंतर कर्म में संलग्न भवानी भाई के सुपुत्र अनुपम मिश्र से परिचित हैं? अगर परिचित हो तो भाई! अनुपम जी से मिलकर अपने ऑंगन में तुलसी का एक पौधा लगवा लो- विचारहीनता का परिष्कार हो जाएगा। और यह भी पता चलेगा कि कैसे और कितने विचार की ज़रूरत कविता को है। कविता में विचार की ज़रूरत है दाल में नमक बराबर। ज्यादा विचार कविता को बेकार कर देते हैं जैसे ज्यादा नमक दाल को। और ठीक से जानना हो तो तुलसीदास को पढ़िए-

हृदय सिंधु मति सीप समाना।
स्वाति सारदा कहहि सुजाना॥
जौं बरसइ बर बारि बिचारू।
होहिं कवित मुकुतामनि चारू॥ बा0कां0

भक्त कवि 'श्रेष्ठ विचार' की बात करता है। वैदिक कवि 'आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:' यानी 'भद्र विचार' की बात करता है और समकालीन कवि? समकालीन कवि 'इस' या 'उस' विचार की चर्चा करता है। 'इस' विचार की अपने लाभ के लिए और 'उस' विचार की दुर-दुराने के लिए। कबीर का 'मुतिया' अब आधुनिक उत्तर-आधुनिक हो गया है। अब उसके गले में श्रेष्ठ विचार या भद्र विचार की नहीं 'इस' या 'उश' विचार की पट्टी पडी़ है।

इस पूरी बहस में कविता के एक सामान्य पाठक की श्रोता की माँग यही हो सकती है कि कवि और आलोचक जो भी लिखें, जिन भी शब्दों का प्रयोग करें सचेत प्रयोग करें। मर्मस्पर्शी प्रयोग करें। और मर्म तक यदि न पहुँच पाएँ तो कविता न लिखें - कुछ और लिखें वह भी जो मर्मस्पर्शी हो नहीं तो कुछ भी न लिखें- यदि मिला न तुमसे हृदय छन्द तो एक गीत मत गाना तुम...











  
 09452847328

Thursday, October 4, 2012

समकालीन कविता




जैसा कि आप जानते हैं, मुंबई से प्रकाशित पत्रि‍का चिंतनदिशा में विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार की चिट्ठियों के जरिए समकालीन कविता पर बहस शुरू हुई थी. अगले अंकों में इन चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह; राधेश्‍याम उपाध्‍याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और मेरी प्रतिक्रियाएं छपी. ताजा अंक में विमल कुमार और नित्‍यानंद श्रीवास्‍तव की टिप्‍पणियां छपी हैंपहले पढ़िए विमल कुमार के विचार      

मुझे यह देखकर अत्यंत प्रसन्नता हुई की 'चिंतन दिशा' में समकालीन कविता के संकट को लेकर एक बहस चल रही है। विजयकुमार, विजेंद्र और विजय बहादुर सिंह की टिप्पणियों को लेकर यह बहस कुछ तीखी और कुछ निजी किस्म की भी हो गयी है और एक ध्रुवीकरण भी दिखाई देने लगा है। हिन्दी में अक्सर बहसें दो शिविरों में बंट जाती है। हम यह मानकर चलते हैं कि कविता या रचना का सच श्वेत-श्याम होता है, वह या तो इस पाले में होता है या उस पाले में। इस दृष्टि का नुकसान यह होता है कि रचना का 'सत्य' पकड़ में नहीं आता है। हालांकि मुझे विजयकुमार और विजेंद्र तथा विजय बहादुर सिंह की चिंताओं से सहमति है और कई बिंदुओं पर असहमतियां भी है। मेरे ख्याल से मूल प्रश्न है कि हम साहित्य में अच्छी और बुरी रचना की पहचान कैसे करें? असली और नकली किस्म की रचना की कसौटियां क्या हों? उत्कृष्ट और निकृष्ट रचना का पैमाना क्या हो? क्या पाठक वर्ग ही अंतिम कसौटी है या आलोचक वर्ग? हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह भी देखा गया है कि किसी रचना के विशाल पाठक वर्ग हैं पर वह रचना साहित्य की कसौटियों पर खरी नहीं उतरीं। इसका एक उदाहरण 'मधुशाला' ही है। दूसरी तरफ यह भी देखा गया है कि किसी रचना के पाठक वर्ग कम हैं पर वह रचना उत्कृष्ट मानी गयी। मुक्तिबोध की कविताओं का वह पाठक वर्ग नहीं जो 'मधुशाला' या दिनकर की या मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं का है।

इसी तरह धर्मवीर भारती की कविताओं का पाठक वर्ग अज्ञेय की कविताओं के पाठक वर्ग से भिन्न है। या शमशेर का पाठक वर्ग वह नहीं है जो नागार्जुन का पाठक वर्ग है? प्रश्न यह है कि कोई कवि अपने समय के यथार्थ की जटिलता और संशलिष्टता का, अंतर्विरोध और विडंबनाओं का चित्रण कर पा रहा है या नहीं? क्या वह अपनी परंपरा में कही गयी भाषा और शैली में उसका चित्रण कर पा रहा है या वह कोई नयी भाषा, नयी शैली और नये शिल्प में प्रस्तुत कर पा रहा है। पर यह भी प्रश्न है कि नएपन से उसका आग्रह क्या है? क्या वह नयापन केवल शिल्पगत है या कथ्यगत?

विजयकुमार की इन चिंताओं को सही मानता हूं कि समकालीन हिन्दी कविता अपने समय के भयावह यथार्थ और उसकी क्रूरता को तीखे अंदाज़ में व्यक्त नहीं कर पा रही है, पर वह कवियों का जो रोल मॉडल पेश करते हैं, मुझे तो उन कवियों की कविताओं पर भी विजयकुमार की कसौटियां लागू होती प्रतीत होती है, लेकिन विजयकुमार को आठवें दशक में सब कुछ हरा-हरा दिखता है। वह मानते हैं कि हिन्दी कविता की असली समझ आठवें दशक के बाद की कविता को प्राप्त होती है। वह आठवें दशक में व्याप्त दो काव्य प्रवृत्तियों की तरफ इशारा नहीं करते। वह यह मानकर चलते हैं कि एक दशक या एक समय में एक ही काव्य प्रवृत्ति काम कर रही है, यही मुश्किल विजय बहादुर सिंह और विजेंद्र के साथ भी है। वह भी एक sweeping statement दे देते हैं और समकालीन कविता को नागार्जुन, त्रिलोचन के मॉडल के आधार पर पूरी तरह खारिज कर देते हैं। हम उनकी इन चिंताओं में साझीदार है कि हिन्दी कविता में एक रुढ़ि बन गयी है पर काव्य रूढ़ियां तो हर दौर में बनीं चाहे वो छायावाद हो या प्रगतिवाद या नयी कविता - शायद यही कारण है कि हर दस-पंद्रह साल में हिन्दी कविता में कुछ कवि तोड़-फोड़ करते हैं पर यह भी अजीब विडंबना है कि वे ख़ुद अपनी काव्य रूढ़ियों के शिकार भी हो जाते हैं। कितने कवि ख़ुद को बदल पाते हैं, अतिक्रमण कर पाते हैं। क्या वे दुहराव के शिकार नहीं होते। दरअसल हिन्दी में हम रचना पर नहीं, बल्कि रचनाकार पर बात करते हैं। हम यह मान लेते हैं कि एक रचनाकार की सभी रचनाएं साहित्य की कसौटियों पर या पाठक की कसौटियों पर खरी होंगी ही। हम या तो नागार्जुन की पूर्ति बताते हैं या फिर रघुवीर सहाय की और उसे कभी अज्ञेय बनाम मुक्तिबोध या शमशेर बनाम भारती या रघुवीर सहाय बनाम केदारनाथ सिंह बनाकर पेश करते हैं। यह माना जा सकता है कि हिन्दी कविता में तुलसी और कबीर के समय से ही या नाथों और सिद्धों के समय से दो काव्यधाराएं काम कर रही हैं पर तुलसी बनाम कबीर की बहस में हम एक को खारिज करते हैं और दूसरे को स्थापित करते हैं जबकि दोनों कवियों के पाठक वर्ग हैं और दोनों कवियों का योगदान है।

 लेकिन समकालीन कविता के संदर्भ में बात करते हुए हम अपने-अपने रोल मॉडलों को दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं। रचना का विश्लेषण करने की बजाय रचनाकार व्यक्ति का विश्लेषण अधिक करते हैं और यह नहीं देखते कि कौन-सी रचना किस ऐतिहासिक दवाब की उपज है। क्या सातवें-आठवें दशक के ऐतिहासिक दवाब वही हैं जो नवें दशक के कवियों पर काम कर रहे हैं? सोवियत संघ के पतन के पहले या बाद में, भूमंडलीकरण तथा बाज़ारवाद के पहले या बाद में हिन्दी कविता का वही स्वरूप है या सकंट वही है जो पूर्ववर्ती कवियों के यहां दिखाई देता है। लेकिन विजयकुमार, विजेंद्र और विजय बहादुर सिंह का हमला कवियों पर अधिक है, काव्य प्रवृत्तियों और समय तथा इतिहास पर कम है। लगता है, ये लोग अपने personal agenda और निजी खुंदकों तथा पूर्वाग्रहों को समकालीन कविता पर अधिक लागू कर रहे हैं। यह सच है कि हिन्दी कविता इस समय संकट में है पर यह संकट केवल कविता के साथ नहीं, बल्कि पूरी भारतीय राजनीति और समाज में व्याप्त है। यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विचारधारात्मक संकट का भी reflection है। लेकिन यह भी सच है कि हिन्दी कविता को अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना चाहिए. लेकिन यह काम आलोचकों और संपादकों का भी है कि वे अच्छी और बुरी रचना का फ़र्क करें। हिन्दी में बहुत खराब कविताएं और कहानियां भी प्रकाशित होती रहती हैं और उनकी पीठ थपथपायी जाती है। इससे नुकसान यह हुआ है कि अच्छी रचना कई बार अलक्षित रह जाती है। 'चिंतन दिशा' अगर पिछले तीस साल की अच्छी कविताओं पर बातचीत करे तो यह बेहतर होगा, इससे कुछ धुंध छंट जाएगा। हिन्दी कविता के श्रेष्ठ संचयन निकलें और संपादक यह बताएं कि अमुक रचना क्यों महत्वपूर्ण है, लेकिन सार्थक और ठोस काम न होने की बजाय हवा में तलवारबाज़ी अधिक चलती है।

लेकिन समकालीन हिन्दी कविता को इस संकट में ले आने के लिए केवल कविगण ही जिम्मेदार नहीं हैं। उनकी पहली और प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है पर ज़रूरी है कि एक ही दशक में सक्रिय दो काव्य-प्रवृत्तियों की पड़ताल की जाए, न कि कुछ कवियों के नाम गिना दिए जाएं। बेहतर हो रचनाओं के नाम गिनाए जाएं. एक बात यह भी जोड़ना चाहूंगा कि समकालीन कविता 'विलक्षणतावादी' की भी शिकार है। कविता में कवि की ईमानदारी दिखनी चाहिए, केवल काव्य-कौशल अर्जित करने से अच्छी कविता नहीं लिखी जाती। इस समय दुर्भाग्य से काव्य-कौशल पर अधिक ज़ोर दिया जाता है। कविता में संवेदना तत्व पर ध्यान कम केंद्रित है। कविता केवल विचारधारा से नहीं लिखी जाती, वह हृदय की पीड़ा और अनुभव की तिक्तता से लिखी जाती है। हिन्दी कविता का मर्म कहां खोता जा रहा है यह एक गंभीर प्रश्न है? क्या हम सब को नयी भाषा और शिल्प में बात कहनी होगी या प्रचलित शिल्प और रोज़मर्रा की भाषा में नयी बात पैदा करनी होगी। यह जिम्मेदारी सामूहिक जिम्मेदारी है। उसे कवि, संपादक, आलोचक और प्रकाशक सभी उठाएं। समकालीन कविता की इस जड़ता को तोड़ा जाना बहुत ज़रूरी है। मेरे ख्याल से विजयकुमार, विजेंद्र और विजय बहादुर सिंह की मूल चिंता एक ही है, फ़र्क केवल अपनी-अपनी दृष्टियों और सीमाओं का है, आरोप-प्रत्यारोप अधिक है। संवाद कम है।











09968400416