कवि को देशनिकाला है
कुदरत ने बनाए मिट्टी पानी पेड़ और पहाड़
इंसान ने कथनी करनी का फैलाया जंजाल
कवि ने गाया कुदरत औ' इंसान का गान
दुख और राग रक्त में घुला
मिट्टी में सना
कवि ने छेड़ी जीवन की ऐसी खट मिट्ठी तान
सुनने वालों का दिल दहला जी पिघला
आंसू लुढ़के पत्थर हो गए
आह से निकली जलधार
जब जब गाया कवि ने जीवन का सच्चा गान
उसका रुदन उसका हास
उसकी घृणा उसकी प्रीत
कवि का जीना हुआ मुहाल
इंसान ने घड़ डाले चारण
आगे पीछे घूम विरुदावलियां गाने को
सच से बचने औ' सौ झूठ छिपाने को
आसान नहीं सच का गीत सुन पाना
अंतरमन तक छिल जाता है
जीवन के घमासान में भी कुछ कर जाता है
वो जिगरा कहां कि कोई आग में जले
वो हुलस कहां कि कोई चंदन मले
यहां कवि को देशनिकाला है.
यह भी सन् 2001 की ही कविता है और पिछले साल वागर्थ में छपी थी.