कवि को देशनिकाला है
कुदरत ने बनाए मिट्टी पानी पेड़ और पहाड़
इंसान ने कथनी करनी का फैलाया जंजाल
कवि ने गाया कुदरत औ' इंसान का गान
दुख और राग रक्त में घुला
मिट्टी में सना
कवि ने छेड़ी जीवन की ऐसी खट मिट्ठी तान
सुनने वालों का दिल दहला जी पिघला
आंसू लुढ़के पत्थर हो गए
आह से निकली जलधार
जब जब गाया कवि ने जीवन का सच्चा गान
उसका रुदन उसका हास
उसकी घृणा उसकी प्रीत
कवि का जीना हुआ मुहाल
इंसान ने घड़ डाले चारण
आगे पीछे घूम विरुदावलियां गाने को
सच से बचने औ' सौ झूठ छिपाने को
आसान नहीं सच का गीत सुन पाना
अंतरमन तक छिल जाता है
जीवन के घमासान में भी कुछ कर जाता है
वो जिगरा कहां कि कोई आग में जले
वो हुलस कहां कि कोई चंदन मले
यहां कवि को देशनिकाला है.
यह भी सन् 2001 की ही कविता है और पिछले साल वागर्थ में छपी थी.
बहुत सुन्दर लिखा है आपने अनूप जी,
ReplyDeleteसचमुच यहां जो सच कहता है, लिखता है उसे लोग पागल समझते हैं.. देशनिकाला क्या लोगों का बस चले तो उसे सूली पर चढा दें.
सब के लिए नहीं फक़त कवियों के लिए. कवि का कोई देश भी होता होएगा जो उसे ऐसी अदना, नामालूम सी सज़ा मिल्ती होएगी?
ReplyDeleteप्रिय मोहिंदर और अजेय जी,
ReplyDeleteमुझे लगता है हमारे यहां जो चौरासी लाख योनियों की अवधारणा है या आज के विज्ञान से पूछ लें तो जितनी जैव प्रजातियां हैं, उतनी तरह के कवि हो सकते हैं. और अगर इस पर गणित का संभाव्यता या प्रोबेबिलिटी का सिद्धांत लागू कर दो, तो जितनी संख्या आएगी, उतनी तरह के कवि हो सकते हैं.
इसका मतलब कि हर किसी के अंदर एक कवि होता ही है. वह जाग्रत है या सुप्त, यह अलग बात है. जैसे हरेक आदमी थोड़ा सा पागल होता ही है.
पर होड़ यही है कि साले कवि को जागने मत दो.
जाग जाए तो भरमाओ. ऐसा भरमाओ कि करतब दिखाए, सच न कह पाए.
और अगर कह दे तो उसे झुठलाओ, हड़काओ, बस न चले तो शहरबदर करो.
कुछ कवि सरेआम सरेराह सल्तनतों से टकरा के मरते हैं, कुछ ऐशोआराम में मरते हैं, कुछ घुट घुट के मरते हैं.