भारतीय विद्या भवन का मासिक कोरोना काल की घरबंदी के दौरान ऑनलाइन शाया हो गया है। संपादक विश्वनाथ सचदेव जी ने कोरोना आवरण कथा आयोजित करके भविष्य की दुनिया पर गंभीर बहस में योगदान दिया है । मेरा यह लेख नचनीत के इसी अंक में है ।
खलील जिब्रान की एक छोटी सी कहानी है जिसमें जिक्र आता है कि एक भागता हुआ
कुत्ता दूसरे कुत्ते को पूछने पर बताता है कि जल्दी करो सभ्यता हमारे पीछे पड़ी है
। पर्यावरण को बचाने यानी उसे मूल रूप में रखने या कुदरत के कुदरती रूप में बने रहने पर जब हम
विचार करने लगते हैं तो 'सभ्यता' शब्द बीच में आ खड़ा होता है । यूं 'संस्कृति' शब्द भी बीच में आता है पर वह 'सभ्यता' की तरह रोड़ा नहीं बनता । लेकिन सभ्यता और संस्कृति का आपस
में चोली दामन का संबंध है इसलिए संस्कृति भी कटघरे में खड़ी हो जाती है ।
कुछ चिंतक यह मानते हैं कि मनुष्य ने जब से अपने रहने खाने-पीने की आदतें
डालीं,
तभी से वह कृत्रिम होना शुरू हो गया । यानी उसकी रहनी में
नकलीपन या कृत्रिमता आने लगी । यानी वह वैसा ही नहीं रहा जैसा कोई भी अन्य कुदरती
पदार्थ या प्राणी होता है। पर सत्य इतना एक रेखीय नहीं है । यह खासा गुंझलक भरा है
।
इसी तरह जो लोग मौजूदा रहन-सहन और कृत्रिमता से परेशान हैं वे सीधे सृष्टि के
आरंभ में लौट जाना चाहते हैं । पर क्या ऐसा संभव है ? पीछे लौटना इतना ही आसान होता तब तो कोई दिक्कत ही नहीं थी
। इसलिए जहां हम आज हैं उससे आगे ही बढ़ना है । और कोई रास्ता नहीं । आगे की इस
यात्रा में ही हमें तय करना है कि हमें क्या और कितना परिवर्तन करना है या हम क्या
और कितना परिवर्तन करना चाहते हैं ।
यहां तक पहुंचने की प्रक्रिया में हमारी मनुष्य बनने की प्रक्रिया भी शामिल है
। यानी हम बाकी प्राणियों से थोड़ा अलग तरह के प्राणी हैं । हमारा मस्तिष्क, हमारा स्नायुतंत्र, हमारा मन, हमें बाकियों से अलग करता है । प्रकृति के बीच जीवित बचे
रहने तक की जद्दोजहद होती तो ठीक था, जिसे सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट कहते हैं । यह सहजवृत्ति जीवित
रहने से जुड़ी है । लेकिन मनुष्य के पास सोचने के लिए दिमाग भी है महसूस करने के
लिए दिल भी है । यहीं से खुराफात शुरू हो जाती है ।
मनुष्य अपने लिए चीजों को आसान करने की कोशिश करता है । वह प्रकृति के लगभग
सभी अवयवों का उपयोग करना शुरू करता है । मनुष्य के पास कर्मेंद्रियां और
ज्ञानेंद्रियां भी हैं । दिमाग, दिल, मन,
कर्मेंद्रियां, ज्ञानेंद्रियां, मनुष्य के बहुत ही परिष्कृत, महीन और श्रेष्ठ उपकरण हैं जो अवसर आने पर आयुध भी बन जाते
हैं । इंद्रियां अन्य प्राणियों में भी हैं पर मस्तिष्क के प्रयोग से मनुष्य ने
इनका बहुविध उपयोग सीख लिया है । इन उपकरणों के इस्तेमाल से वह दूसरे प्राणियों के
बीच खुद को अपनी इच्छा अनुसार स्थापित कर सका है । इन जटिल औजारों की वजह से
मनुष्य सोचने लगा, बोलने लगा, उसने
भाषा बना ली, लिपि
बना ली;
इसी क्रम में उसने स्मृति बना ली । एक तरफ उसकी भौतिक
यात्रा है जिसमें कृषि सभ्यता का विकास होता है । साथ साथ बौद्धिक यात्रा है
जिसमें वह अपने इन अतिरिक्त औजारों की मदद से भौतिक यात्रा को उत्तरोत्तर अधिक
उपयोगी और आसान करने की जुगत करता रहता है । एक तरह से देखा जाए तो इस सारे उपक्रम
में वह प्रकृति से दूर ही जा रहा था ।
यानी जो उसका प्राकृतिक स्वरूप या स्वभाव था उसमें परिवर्तन आता चलता है
। एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाएगी
। जब आदमी ने कच्चा मांस खाना छोड़ दिया, आग ढूंढ़ ली और मांस पकाने लग गया तो उसके दांत कम हो गए, छोटे भी हो गए और उनकी संख्या भी कम हो गई । अपने रहने के
लिए गुफा बनाई, फिर छत
बनाई,
तो उसके लिए नंगा रहना मुश्किल हो गया। उसे बदन ढकना पड़ा । फिर ठंड और गर्मी से बचने के उपाए करने पड़े
। मतलब वह थोड़ा कम कुदरती होता गया ।
मनुष्य की मानसिक संरचना ऐसी है कि वह सोच-समझ सकता है, उसमें सुख-दुख की भावनाएं भी है, वह महसूस भी कर सकता है और अभिव्यक्त भी कर सकता है । अगर
किसी जीव को मारकर खुश होता है तो दुखी भी हो सकता है । वह दूसरे के दुख के प्रति
संवेदनशील भी हो सकता है, करुणा की दृष्टि भी उसे प्राप्त है । ये ऐसी शक्तियां हैं जिनकी सहायता से वह
प्रकृति के साथ अपने रिश्ते को परिभाषित करता है या कर सकता है ।
वह अपने खाने भर के लिए कमाने तक सीमित नहीं रहा । वह संग्रह करने लगा ।
संग्रह किया तो उसे लालच आने लगा । लालच आया तो वह दूसरे का हिस्सा छीनने से नहीं
हिचकिचाया । उसकी न्याय बुद्धि डावांडोल हो गई । इसी क्रम में वह आमोद-प्रमोद और
विलास की सीढ़ियां चढ़ता है । यह पाने के लिए वह ‘पुरुषार्थ’ करता है । उसकी विवेक
बुद्धि उसे ‘परमार्थ’ की सीख देती है लेकिन वह ‘पराक्रम’ की तरफ भी झुकने लगता है
। पराक्रम का आनंद उठाने और दूसरों के सामने उसका प्रदर्शन करने के चक्कर में वह
‘विजयी’ होने की तरफ बढ़ता है । विजयी होने का अर्थ है कि जो वह सोच रहा है वही
सत्य है । वह अपने चाहे हुए को येन केन प्रकारेण पा लेना चाहता है । जब इस वृत्ति
पर कोई अंकुश नहीं हो तो यह ‘अपराध’ में बदल जाएगी । मतलब यह कि विजय भाव की
निरंकुशता उसके भीतर ‘अहंकार’ भरती जाती है और वह ‘न्याय भावना’ को छोड़ता चलता है
। जब मनुष्य किसी के प्रति ‘अन्याय’ कर रहा होता है तो उसे दूसरे शब्दों में
‘अपराध’ कहा जाता है । यह वृत्ति ‘वीर
भोग्या वसुंधरा’ जैसी परंपरा में बदलती है ।
हम अपनी सभ्यता के विकास में इसी वीर भोग्या वसुंधरा को फलीभूत होता देखते हैं
। यानी मनुष्य इस ब्रह्मांड के केंद्र में है और वह पृथ्वी का किसी भी प्रकार और
किसी भी सीमा तक भोग कर सकता है । संस्कृति में ज्ञान, न्याय, करुणा, और कोमलता आदि की विचारसरणीयां भी विकसित हुई हैं जिनकी वजह
से विजय भाव को बार-बार प्रश्नांकित किया जाता है । लेकिन हम पाषाणकाल से कोरोना
काल तक आते-आते अच्छी तरह देख लेते हैं कि हम प्रकृति का व्यभिचार की हद तक दोहन
करने से चूके नहीं ।
हम यही नहीं भूले कि हम प्रकृति के एक मामूली अंश हैं, हम उसके साथ सह अस्तित्व तक बनाकर रखना भी भूल गए । हमने
अपने रहन-सहन, खान-पान, सोच-विचार का ऐसा आडंबर रच डाला कि प्रकृति और प्राकृतिक
तरीकों से दूर होते गए । हम प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने में जरा भी नहीं
हिचके । पर्यावरण को दूषित करने के बाद घड़ियाली आंसू बहा कर पता नहीं हम किसे
मूर्ख बनाते रहे ।
यूं तो यह सवाल हमेशा से उठते रहे हैं और ये सवाल खुद मनुष्य ही उठाता रहा है
पर इधर कोरोना वायरस के उभरने पर जैसे प्रकृति ने एक चेतावनी दी है । प्रकृति पहले
भी चेतावनी देती रही है । वह मनुष्य को उसकी ‘औकात’ दिखाती रही है । इस बार यह
वायरस ऐसा फैला है जिसकी वजह से हमारे रहन-सहन के तरीकों पर बंधन लग गया है ।
तकरीबन सभी देशों के सभी तरह के कारोबार पिछले दो-तीन महीने से ठप पड़े हैं । हमने
पिछली कई शताब्दियों से खुद को अर्थव्यवस्था, औद्योगिकीकरण, मशीनीकरण और प्रौद्योगिकीकरण के जटिल और महीन जाल में फंसा
लिया है । यह सारा तंत्र इस समय ‘पॉज’ या ‘रुके होने’ या ‘फ्रीज’ के मोड में है ।
इस ठहराव में भय बहुत है । रोग के संक्रमण का भय, मृत्यु का भय, अर्थव्यवस्थाओं के चौपट होने का भय । दूसरी तरफ उम्मीद भी
है । उम्मीद है कि जल्दी ही यह विषाणु मर जाएगा या इसकी दवा ढूंढ़ ली जाएगी या
वैक्सीन बना ली जाएगी और जीवन यथावत चलने लगेगा । एक अन्य रोमांचकारी उम्मीद है, जो यूटोपिया जैसी ज्यादा है। यह उम्मीद बताती है कि इस ठहरे
हुए समय में प्रकृति अपने वास्तविक रूप में लौट रही है । हवा साफ हो गई है, समुद्री पानी साफ हो रहा है, ध्वनि प्रदूषण घट रहा है, ओजोन परत फिर से बनने लगी है । जीव जंतु निर्भय होकर विचरण
कर रहे हैं ।
अब सवाल उठता है कि भविष्य के गर्भ में क्या है ? लगता है यह कायनात तो बनी रहेगी । यक्ष प्रश्न है कि कौन सी
उम्मीद फलीभूत होगी ? दवा बन जाएगी और दुनिया धीरे-धीरे विकास की उसी रफ्तार को पकड़ लेगी ? उसी विकास की जो सत्यानाशी किस्म का है । या स्वप्नजीवियों
की उम्मीद को साकार करते हुए प्रकृति केंद्र में आ जाएगी और मनुष्य हाशिए में चला
जाएगा ?
मनुष्य हाशिए में जाएगा तो उसकी अब तक बनाई गई दुनिया भी
हाशिए में चली जाएगी ?
लगता है कि दोनों उम्मीदें ‘अति’ की तरफ झुकी हुई हैं । कोरोना के बाद दुनिया
पहले जैसी नहीं रहेगी । उसमें बहुत से परिवर्तन लाने ही पड़ेंगे । फिलहाल किए जा
रहे उपायों को देखें तो मनुष्य की सामाजिकता पर गहरा असर पड़ेगा । जब तक वैक्सीन
नहीं बनती उसे शारीरिक दूरी और स्वच्छता की घुट्टी पीनी पड़ेगी । सामूहिक
गतिविधियों पर अंकुश लगा जाएगा । इससे काम धंधे भी प्रभावित होंगे ।
अर्थव्यवस्थाएं चरमराएंगी । आर्थिक गतिविधि चालू न हुई तो लोग भूखों मरेंगे ।
पुराने ढर्रे पर चल पड़ी तो रोग से लोग मरेंगे । इसलिए अब गतिविधि की गति धीमी
होगी । दूरसंचार, इंटरनेट जैसे साधनों (यह भी तो कृत्रिम ही हैं) पर निर्भरता और बढ़ेगी ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-06-2020) को 'बिगड़ गया अनुपात' (चर्चा अंक 3726) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
-रवीन्द्र सिंह यादव
सटीक विशलेषण।
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteपठनीय आलेख . हाशिये पर मनुष्य नहीं जाना चाहेगा पर लगता है प्रकृति भेजकर ही मानेगी . जैसे अभी भेजा है .क्योंकि विकास और विनाश कहीं न कहीं आपस में जुड़े हैं .
ReplyDeleteशुक्रिया। जी आपकी बात सही है, प्रकृति अपनी गति से ही चलेगी।
Deleteप्रकृति और मनुष्य हमेशा ही सामंजस्य स्थापित करते हे आपस में उस से ही जीवन चक्र चलता है
ReplyDeleteबढ़िया रचना
जी इंसान यही तो भूल जाता है।
Deleteमनुष्य को उसकी औकात दिखाती सभ्यता...हाशिए पर जाती मनुष्यता और उसकी अहंकारी प्रवृत्ति ने इस बार अच्छा सबक दिया बशर्ते हम इसे याद रख पायें... बहुत खूब आलेख अनूप जी
ReplyDeleteजी यही बात है, इंसान को अक्ल आ जाए किसी तरह।
Deleteसटीक। मनुष्य हाशिए में नही जाएगा,ना ही प्रकृति केंद्र में आ सकेगी, किंतु संतुलन तो आवश्यक है।
ReplyDeleteधन्यवाद, पढ़ने और टिप्पणी करने के लिए। सही कह रही हैं, संतुलन आवश्यक है, सबको इसे साधने की सद्बुद्धि आए।
Deleteप्रकृति एवं मनुष्य के बीच सामंजस्य की अनिवार्यता को बताती यह रचना प्रत्येक मनुष्य के लिए उत्तम संदेश है । "प्रकृति की तरफ लौटो" का मर्म समझने का यही सही समय है।
ReplyDeleteआप सही कह रहे हैं। मनुष्य इस समय चूक गया तो बहुत नुकसान होगा ।
Deleteवाह! बहुत सुंदर शब्दों और लयबद्धता के साथ कुदरत का मनुष्य द्वारा काफी समय से अंधाधुंध तरीके से किए गए दोहन तथा प्रकृति के पलटवार साथ साथ समाधान भी को बयां करता लेख।
ReplyDeleteराम कृष्ण दीक्षित
ReplyDeleteधन्यवाद दीक्षित जी।
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