Thursday, April 23, 2020

कोरोना काल

सुमनिका द्वारा करीब पचीस साल पहले चारकोल से बनाया गया स्केच 


यह थकना भी कोई थकना है लल्लू!

हम अजीबोगरीब वक्त में फंस गए हैं । एक तरह से सारी दुनिया ही ठहर सी गई है । आगे हम लोगों को जीवन कैसा होगा कुछ पता नहीं ।  कुछ लोग कोरोना के शिकार हो गए हैं, कुछ उन्हें बचाने में लगे हैं । बाकियों को बचे रहने की सलाहें दी जा रही हैं । अभी सम्मुख निरा वर्तमान है । 


बीस मार्च के बाद मैं दफ्तर नहीं गया । दफ्तर तो छोड़िए स्वामी विवेकानंद रोड या गोरेगांव बाजार तक भी नहीं । हमारी हाउसिंग सोसाइटी के गेट के सामने एक सब्जी वाला बैठता है, एक आलू प्याज वाला, एक फल वाला, दो जनरल स्टोर हैं, एक मेडिकल स्टोर है, एक हलवाई है और दो चार दुकानें और । इसी सड़क के एक छोर पर राम मंदिर रोड लोकल स्टेशन की सीढ़ियां उतरती हैं । सड़क के सीमेंटीकरण का काम चल रहा था । जनता कर्फ्यू और फिर लॉकडाउन के बाद सब्जी वाला, आलू प्याज वाला, एक जनरल स्टोर और मेडिकल स्टोर सुबह शाम खुल रहे हैं, बाकी सुनसान है ।  सुनसान शब्द में एक तरह से रोमांस की या नीरवता की कौंध रहती है, यह तो उजाड़, भुतहा, और बियाबान के करीब का मंजर है । करीब दो हफ्ते पहले बेटी के साथ एक रात गाड़ी से हमारी इमारत से सटे  फ्लाईओवर तक गया था। सुनमिका ने अपनी खिड़की से देखा था, वहां एक कुत्ता अकेला पड़ गया लगता था । उसे पानी और रोटी दी । रात की उस खाली सड़क में जगह जगह कुत्ते भटक रहे थे । वो शायद इंसानों की गैर मौजूदगी से बौखलाए हुए थे । 

अलबत्ता हफ्ते में तकरीबन एक बार सब्जी वगैरह के लिए मैं अपनी इमारत से नीचे उतरता रहा हूं। टुथपिक, टिशू पेपर, सैनिटाइजर, मास्क से लैस होकर बाहर निकलता हूं । लिफ्ट के बटन छूते हुए डर लगता है । टुथपिक से बटन दबाता हूं । गेट तक की सड़क पर सूखे और पीले पत्तों के बिछावन बिछे हैं । गाड़ियों पर धूल जमी है । इक्का-दुक्का लोग दिखते हैं अजनबियों की तरह । दुकानों पर थोड़ी मानवीय हरकत रहती है । सब्जी वाला या और एक आध कमेरा जो दिखता है, उनकी देह भाषा में भय नहीं दिखता । खाते पीते लोगों की मानो सिट्टी-पिट्टी गुम है । उनमें भय ज्यादा व्याप्त है । हालांकि यह भी ध्यान में है कि बहुत से अनिवार्य सेवा वाले लोग नौकरियों पर जा रहे हैं, स्वास्थ्य कर्मी पुलिसकर्मी जान हथेली पर लिए घूम रहे हैं, पर हमें घरों में सिमटे रहने की ड्यूटी दी गई है । हम भय का पीपीई पहने हुए हैं । हमारे व्यक्तित्व की दूसरी परत है घरों में सकारात्मक बने रहने की जद्दोजहद, तरह-तरह के करतबों से सोशल मीडिया और खबरों से आने वाले संक्रमण से बचने की कबायद ।

हमारी सोसाइटी में व्हट्सएप के कई ग्रुप हैं, कुछ इन दिनों के खास इंतजाम के लिए और कुछ पुराने औपचारिक ।  यहां बीच-बीच में मस्ती का तेल चुपड़ने की हरकतें भी होती रहती हैं । हम तीनों को ही थोड़े-थोड़े वर्क फ्रॉम होम के होम में आहुति भी डालनी होती है। मन न पढ़ने-लिखने में लगता है, न काम में । ऊपर से अपराधबोध की पपड़ी भी खाल पर जमने लगती है । उस पर भी मस्त रहने का तेल चुपड़ना पड़ता है ।  नजरबंदी में स्वस्थ बने रहने की चुनौती भी है ।  बीमार पड़े तो कहीं डॉक्टर मिलने वाला नहीं ।  हमारे घर में सादा लेकिन स्वादिष्ट भोजन कराने का बीड़ा सुमनिका जी ने उठा रखा है ।  हर तरह की इंडल्जेंस लगभग बंद है ।  सामान जितना मिलता है उसी से काम चला रहे हैं । अपार जनसंख्या को जब बे-दर बे-घर होने के हृदय विदारक दृश्य देखते हैं, खबरें पढ़ते हैं तो अपने खाने-पीने, ओढ़ने-सोने पर अपराधबोध की गर्द जमती प्रतीत होती है । अपनी रहनी अय्याशी से कम नहीं लगती ।  अपने वर्ग में रहने की जकड़बंदी कम नहीं होती ।

ऐसे माहौल में कल बाइस अप्रैल का दिन बहुत हरकत भरा रहा ।  कल राशन वाले को सामान की सूची व्हट्सऐप से भेजी । दस बजे उसके यहां सामान लेने गया ।  कल ही सोसाइटी वालों ने एक सब्जी वाले को बुला लिया था ।  ग्यारह बजे के बाद उस लाइन में लगा ।  करीब ढाई घंटे बाद सब्जी खरीदने की मेरी बारी आई । हाउसिंग सोसाइटी के एक समूह ने आमों की सामूहिक खरीद का अभियान चलाया हुआ था । इसमें शामिल होने में थोड़ी मानसिक उलझन हो रही थी, कि सादा खाना खाओ ज्यादा स्वादों के पीछे न भागो, लेकिन अर्थशास्त्र के इस तर्क की ही विजय हुई कि किसानों की फसल बर्बाद हो जाएगी, उन्हें ग्राहक चाहिए । तो दो बजे के करीब उन आमों को लेने की वजह से फिर नीचे जाना पड़ा । उसके बाद संदेश आ गया कि शाम को सोसाइटी में एटीएम आ रहा है ।  यह पहली बार हो रहा था और पिछले डेढ़ महीने से जो नकदी घर में थी उसी से हम काम चला रहे थे ।  सोचा इस अवसर का भी लाभ उठा लेना चाहिए,  तो शाम सात बजे से आठ बजे तक फिर पंक्ति को दे दिया गया ।  मतलब यह कि करीब डेढ़ महीने बाद कल चार- पांच घंटे लाइनों में खड़े रहने की मशक्कत करनी पड़ी ।  पहले रोज लाइनों में खड़े नहीं होते थे लेकिन थोड़ी बहुत हरकत और आवाजाही तो होती थी । ऊपर से कल धूप में मुंह पर जुंगला बांधे हुए खड़े रहना पड़ा।  

हमारी बेटी नियम की बहुत पक्की है ।  मुझे बाहर से लौटने पर हर बार नहाना पड़ता है, कपड़े बदलने पड़ते हैं । कल चार जोड़ी कपड़े धोने पड़े ।  कितना पानी उसमें बहा होगा ।  शाम तक मेरी पींबोल गई । वरिष्ठता की देहरी पार कर ली है, इकसठ का हो गया हूं, जिस्मानी मेहनत की आदत भी नहीं है, जाहिर है रात तक बुरी तरह थक गया ।   पर उस थकने से तुलना करने का अपराध कभी कर ही नहीं सकता जो हजारों किलोमीटर चलकर अपने घरों को गए,  जो मानो पिछले सत्तर साल से चलते रहे और हमें दिखे ही नहीं ।  उनसे भी तुलना करना मुनासिब नहीं जो इस महामारी से लड़ने के लिए दिन-रात जुटे हुए हैं ।  उन सबकी थकान के सामने यह थकना भी कोई थकना है लल्लू!