सब्जी के बीच और सब्जी के बोझ से दबा यह लैटरबॉक्स मुंबई के एक उपनगर में भाजीवाले की शरण में है। भाजीवाला कहता है कि चिंता की कोई बात नहीं, डाक यहां से रोज निकलती है, मैंने तो इसे संभाल रखा है। मैंने यह फोटो खींचकर टाइम्स ऑफ इंडिया के सिटीजन रिपोर्टर को भेजी, जो पिछले हफ्ते छपी थी। शायद डाक विभाग का ध्यान इस तरफ जाए।
लैटर बॉक्सों के हाल पर सन 2005 में मैंने एक कविता लिखी थी जो अन्यथा में छपी थी।
आप यहां उसे फिर पढ़ सकते हैं।
सिरकटा लैटर बॉक्स
(एक टूटे हुए लेकिन सेवारत लैटर बॉक्स के सूखे हुए आंसू)
खोपड़ा फट चुका है पर चिट्ठियां डलती हैं
ताला खुलता है डाक निकलती है ताला बंद होता है
लैटर बॉक्स नुक्कड़ पर खड़ा रहता है अहर्निश
चिड़ियां उड़ पहुंचती हैं दिग् दिगंत
फूटा कपाल दिन लद गए इस सेवा के
खत लिखने वाले अब नहीं रहे
उन बाबुओं के भी भाग फूटे
जिनकी अंगुलियों पर था गणित
कलम से मोती पिरोते थे
खिल खिल पड़ती थी अंग्रेजी की सुंदर लिखाई
इस लियाकत पर नौकरी मिली थी
रजिस्टरों के पेट भरे ताउम्र
आज भी पीठ सीधी करके बैठते हैं
तह लगा रुमाल जेब में होता है
पत्नी के हाथ का फूल कढ़ा
ध्यान मग्न
धूल भरे जाले लगे दड़बे नुमा डाकखानों में
सोचते हुए से सोचते से ही रह जाते से लगते हैं
इमारतों और स्टेशनरी जितने ही पुरातन
क्या वे उनकी ही संतानें हैं जो घूमने लगीं
मल्टी नेशनल कूरियर कंपनियों के झोले लटकाए
पिताओं ने खरीद दी हैं टोपियां धूप में कपाल
बचाने को
माताएं भाग भाग बनाकर बांध देतीं रोटियां भिनसारे
बहनों ने इनकी काढ़े रुमाल
सोखेंगे पसीना जीवन पर्यंत
चप्पल चटकाते नए जमाने के इन हरकारों का
आएगा कबाड़ी एक दिन चार कहारों को लेकर
सिरकटे लैटर बॉक्स को रस्सों से बांध के ले जाया
जाएगा घसीटते हुए
सरकारी विभाग के परखचे उड़ेंगे
संसद में इसकी सुनवाई का वक्त नहीं आएगा कभी
यहां दफ्तर खुलेंगे शेयर दलालों के कल।