टी एस एलियट 1888-1965 |
टी एस एलियट की कविताओं की किताब पलटते हुए मेरी नज़र
उनकी लंबी कविता ‘हॉलो मेन’
पर पड़ी। शीर्षक ने ही पकड़ लिया। ‘खोखले
लोग’ बिंब की प्रतिध्वनि सघन थी। बिंब की छवियां घेरने लगीं।
पिछले साल से कोरोना ने जिस तरह हमें बंधक बना रखा है, वह
कम तकलीफदेह नहीं है। ऊपर से हमें चालित करने वाले तमाम खिलाड़ी हमें जिस तरह
हतप्रभ और हतकर्म बना रहे हैं;
क्या सत्ता पक्ष क्या विपक्ष; क्या
प्रगतिकामी-प्रगतिगामी क्या प्रतिगामी; क्या न्यायपालिका
क्या कार्यपालिका; क्या बाजार क्या विज्ञापन और उसका सहोदर मीडिया; हमारे
गोचर-अगोचर तमाम हरकारों ने हमें मानो पंगु, विवेकशून्य
और कर्महीन बना दिया है। पूरी तरह से न भी बनाया हो, तो
भी उस तरफ धकेलने की प्रकिया जारी है। मानसिक रूप से तो निचोड़ ही लिया है। ऐसा
लगता है हम ढांचा मात्र हैं,
हमारी संवेदना, भावना, विवेक, बोध, कर्मठता, पुरुषार्थ, अंर्तदृष्टि, दूरदृष्टि
को ग्रस लिया गया है। परफेक्ट खोखले लोग। यह कविता 1925 में लिखी गई थी। करीब सौ
साल बाद भी यह हमारे समय को कुछ उसी तरह उघाड़ रही है जैसे उस समय विश्वयुद्ध के
बाद की हताशा-निराशा-बीहड़पन को उघाड़ा था। आज हम अलग तरह के युद्धकाल में हैं।
शीर्षक पढ़ते ही इन झनझनाते ख्यालों ने मुझे कविता की
तरफ धकेल दिया। एलियट को पढ़ना-समझना आसान नहीं। मैं तो उलझ ही गया। न जाने क्या
सोच कर हिंदी में उल्था करने लगा। पहले अंश को मक्षिका स्थाने मक्षिका रख कर पूरा
कर दिया, अर्थ की परवाह किए बिना। तो भी बिंबों ने बांधे रखा। वह
अंश अपनी हमसफर सुमनिका और बेटी अरुंधती को सुनाया। अरुंधती अंग्रेजी साहित्य के पठन-पाठन से
जुड़ी है। उसने कविता के जाले जरा साफ किए,
कविता के संदर्भों को खोला। मेरी हिम्मत बढ़ गई।
कविता में कई संदर्भ हैं। उन्हें देने पर कविता शोधपरक निबंध के भार से दब जाती। इटैलिक्स में दी गई पंक्तियां पुरानी किताबों, बाइबल और नर्सरी राइम से हैं। मैं कविता के अनुवाद में इसलिए उलझ गया क्योंकि इसके बिंब और भय का माहौल आज के माहौल के बहुत करीब है। जबकि यह कविता पहले विश्व युद्ध के बाद की है, सन् 1925 में लिखी हुई। लगभग सौ साल बाद महामारी ने वक्त का चक्का इस तरह घुमा दिया है। दूसरी कविता एलियट ने आम्तीय उद्गार की तरह अपनी पत्नी के लिए लिखी है। निजी उद्गार होने के बावजूद यह कविता उनके काव्य संग्रह में अंतिम कविता के रूप में संग्रहीत है। भारतीय संदर्भ की एक कविता भी मुझे मिल गई। एलियट ने यह कविता एक भारतीय महिला (प्रथम भारतीय महिला ग्रेजुएट) कोरनीलिया सोराबजी के अनुरोध पर लिखी थी। ये तीनों कविताएं वेब-पत्रिका समालोचन पर प्रकाशित हुई हैं।
एक
खोखले लोग
एक बागी को याद करते हुए
1
हम ऐसे लोग जो खोखले हैं
हम ऐसे लोग जिनकी खाल भर दी गई है
झुके हुए एक साथ
खोपड़े में भरा है भूसा,
आह!
हमारी खुश्क आवाज़ें,
जब
हम फुसफुसाते हैं एक साथ
होती हैं चुप्पा और अर्थहीन
जैसे सूखी घास में हवा
या टूटे कांच पर चूहे के पंजे
हमारे सूखे तहखाने में
आकार रूप के बिना,
छाया रंग के बिना
शक्तिहीन बल, भंगिमा हरकत के बिना
जो पार कर गए हैं
आंखें गड़ा कर, मौत की दूसरी सल्तनत
हमें याद करना, अगर करना ही हो,
मत मान लेना बागी रूहें,
पर सिर्फ
जैसे खोखले लोग
ऐसे लोग जिनकी खाल भर दी गई है
2
आंखें मैं मिलाने की जुर्रत नहीं करता सपने तक में
मौत की ख्वाबी सल्तनत में
वे प्रकट नहीं होतीं:
वहां, आंखें हैं
धूप, टूटे खंभे पर
वहां, झूलता रूख
और आवाज़ें हैं
हवा के गाने में
डूबते तारे से
ज्यादा दूर और ज्यादा शांत
मैं और करीब न रहूं
मौत की ख्वाबी सल्तनत में
मैं बना लूं
जानबूझ कर ऐसे भेस
चूहे का कोट, कव्वे की खाल, बिजूके का डंडा
खेत में
ऐसे हिलूं जैसे हवा हिलती है
पर और करीब नहीं-
वो आखिरी मुलाकात नहीं
अस्त होती सल्तनत में
3
यह है मरी हुई ज़मीन
यह है नागफनी की ज़मीन
यहां पत्थर के बुत्त
उभरते हैं, उन्हें मिलती हैं
मरे हुए मानुस की याचना
डूबते तारे की टिमटिमाहट तले
क्या यह ऐसा है
मौत की दूसरी सल्तनत में
जागना अकेले
उस घड़ी जब हम
कांप रहे हों करुणा से
ओंठ जो चूम लें
इबादत करें, टूटे पत्थर को
4
आंखें यहां नहीं हैं
यहां कोई आंखें नहीं हैं
मरते तारों की इस घाटी में
हमारी खो चुकी सल्तनतों के टूटे जबड़े
की इस खोखली घाटी में
मिलने के इस आखिरी ठिकाने में
हम टटोलते हैं मिलजुल कर
बोलने से बचते हैं
जुटे हुए इस उफनती नदी के तट पर
नज़रविहीने, जब तक
दृष्टि फिर न मिल जाए
जैसे मौत की अस्त होती सल्तनत
का सनातन सितारा
बहुपंखुड़ी गुलाब
इकलौती उम्मीद
रीते हुए लोगों की
5
घूमो घूमो चारों ओर नागफनी के
नागफनी के नागफनी के
घूमो घूमो चारों ओर नागफनी के
पांच बजे सुबह सवेरे
विचार
और यथार्थ के बीच
हरकत और
कृत्य के बीच
गिरती है छाया
परमात्मा तेरी ही है यह सल्तनत
संकल्पना और
सृजना के बीच
भाव और
प्रतिक्रिया के बीच
गिरती है छाया
ज़िंदगी बहुत लंबी है
काम और
रति के बीच
शक्ति और
होने के बीच
सार और
अवरोहण के बीच
गिरती है छाया
परमात्मा तेरी ही है यह सल्तनत
तेरी है
ज़िंदगी
तेरी है
इस तरह खत्म होती है दुनिया
इस तरह खत्म होती है दुनिया
इस तरह खत्म होती है दुनिया
धमाके से नहीं रिरियाहट से
दो
अपनी पत्नी को समर्पित
जिसकी वजह से है उछाह भरी खुशी
जो मेरी चेतना में डाल देती है जान, हमारी
जागबेला में
और चैन भरी लय, रात की हमारी आरामबेला में,
सांस लेना एक सुर में
प्रेमी, एक दूसरे की महक से महकती हैं जिनकी देहें
जिनको आते हैं एक से ख्याल, बोलना वहां ज़रूरी नहीं
और बोलते हैं एक से बोल, मानी वहां ज़रूरी नहीं
चुभती सर्द हवा, ठिठुराएगी नहीं
सिर पर चिड़चिड़ा सूरज, कुम्हलाएगा नहीं
गुलाबों की बगिया के गुलाब जो हमारे हैं, सिर्फ
हमारे
पर यह समर्पण पढ़ेंगे दूसरे:
हैं ये अंतरंग बोल तुम्हारे लिए सरेआम।
तीन
दक्षिण अफ्रीका में
मारे गए भारतीयों के लिए
(यह कविता भारत पर
क्वीन मेरी की किताब (हराप एंड कं. लि. 1943) के लिए सुश्री सोराबजी के अनुरोध पर
लिखी गई थी। एलियट ने यह कविता बोनामी डोबरी को समर्पित की है।)
आदमी का ठिकाना
होता है उसका अपना गांव
उसका अपना चूल्हा
और उसकी घरवाली की रसोई;
अपने दरवाज़े के
सामने बैठना दिन ढले
अपने और पड़ोसी के
पोते को
एक साथ धूल में
खेलते निहारना।
चोटों के निशान हैं
पर बच गया है, हैं उसे बहुत सी यादें
बात चलती है तो याद
आती है
(गर्मी या सर्दी,
जैसा हो मौसम)
परदेसियों की,
जो परदेसों में लड़े,
एक दूसरे से
परदेसी।
आदमी का ठिकाना
उसका नसीब नहीं है
हरेक मुल्क घर है
किसी इंसान का
और किसी दूसरे के
लिए बेगाना। जहां इंसान मर जाता है बहादुरी से
नसीब का मारा,
वो मिट्टी उसकी है
उसका गांव रखे याद।
यह तुम्हारी ज़मीन
नहीं थी,
न हमारी: पर एक गांव था मिडलैंड में,
और एक पंजाब में,
हो सकता है एक ही हो कब्रस्तान।
जो घर लौटें वे
तुम्हारी वही कहानी सुनाएं:
कर्म किया साझे
मकसद से,
कर्म
पूर्ण हुआ, फिर भी न तुम न हम
जानते हैं, मौत आने के पल तक,
क्या है फल कर्म का।