Wednesday, July 24, 2024

लोकप्रियता की धमक


जैसे सोशल मीडिया नए जमाने की चौपाल है वैसे ही  फिल्मी गीत नए जमाने का लोक संगीत है। पर यह तकनीक और ग्लैमर के प्लेटफार्म पर खड़ा है। मुंबई के षणमुखानंद ऑडिटोरियम में विशाल और रेखा भारद्वाज के लाइव शो की आपबीती पेश है।      


मुंबई में कला संस्कृति के अलग-अलग ठिकाने हैं। पृथ्वी थियेटर, एनसीपीए, जहांगीर आर्ट गैलरी, म्यूजियम वगैरह तो कई बार जाना हुआ है। हर जगह का माहौल अलग है। बीच में बीकेसी के नीता मुकेश अंबानी केंद्र में गए। एक बार दादर में सावरकर ऑडिटोरियम में भी गए। 


इस बार 14 जुलाई को गांधी मार्केट में षणमुखानंद हॉल में गए। मुंबई शहर के पुराने विशाल सभागारों में से एक, साइन माटुंगा के बीच गांधी मार्केट के इलाके में। मुंबई के शुरुआती दिनों में यानी आकाशवाणी की नौकरी के दौरान किंग सर्किल स्टेशन से लोकल ट्रेन लेते, शाम को वहीं उतरते। एंटॉप हिल में सात साल रहना हुआ। षणमुखानंद हॉल के बगल से सरकारी कॉलोनी में घुसते। कितने बरस बीत गए, कभी इस विशाल सभागार में जाने का सबब नहीं बना। उस्तादों की महफिलें यहां हुआ करती थीं। आकाशवाणी के हमारे सहकर्मी हंपीहोली कहते, भीमसेन जोशी मेरा भाई है (उनकी शक्ल भी मिलती थी), उसकी संगीत सभा का संचालन मैं ही करता हूं। हंपीहोली साहब के घर पर धारवाड़ के पेड़े तो कई बार खाए पर उनके भाई की संगीत सभा नहीं सुन पाए। 


हमें पता ही नहीं कि यह पुराना सभागार जो 1952 में शुरू हुआ था, 1990 में आग से क्षतिग्रस्त हो गया था। इसे नए सिरे से खड़ा किया गया। तिमंजिला सभागार में करीब 3000 दर्शक बैठ पाते हैं। यह सभागार राष्ट्र की अखंडता को समर्पित है। उन नामचीन कलाकारों की स्थाई प्रदर्शनी यहां के गलियारों में लगी है जो यहां अपनी सभाएं कर चुके हैं। इनमें शास्त्रीय संगीत के उस्ताद भी हैं और फिल्मी गायक भी। साथ ही सभा शहीद सैनिकों का भी सम्मान करती रही है। अनेक शहीदों की मूर्तियां स्थाई रूप से यहां स्थापित की गई हैं। 

हम लोग विशाल और रेखा भारद्वाज का शो 'ओ साथी रे' देखने गए थे। बरसात के मौसम में हम तो समय से पहुंच गए लेकिन मुख्य कलाकार देर से पहुंचे। जब हम अंदर बैठे तो मंच खुला हुआ था। साज़ रखे थे, साज़िंदे आ जा रहे थे। वे तब तक आते जाते रहे जब तक उद्घोषक ने आकर माफी मांगते हुए विशाल और रेखा को मंच पर आमंत्रित नहीं कर लिया।

 

अब नई कबायद शुरू हुई साजोंं के सुर मिलाने की। संगीत सभाओं में आमतौर पर तबले और तानपूरे को ही मुख्य साज या गायक के सुर से मिलाया जाता है पर यहां नजारा अलग था। तबले के अलावा एक ड्रमर, गिटार के अलावा बेस गिटार, मेंडोलियन, सैक्सोफोन और क्लेरिनेट, सिंथेसाइजर और दो सहायक गायक।  इनके सुर खुले कान से नहीं मिल रहे थे। विशाल भारद्वाज दूर कहीं छुप कर बैठे साउंड इंजीनियर से बातें करते हुए सुर मिला रहे थे। यह सब हमें दिखाई भी पड़ रहा था और सुनाई भी पड़ रहा था। विशाल भारद्वाज बीच बीच में तकनीकी खराबी के कारण हुई देरी के लिए माफी भी मांग ले रहे थे और बातचीत में चुटकियां भी ले ले रहे थे। सभागारों में महाकाय स्पीकर होते हैं। उनसे पता नहीं कितने डीबी की आवाज निकलती है। 


यह पता चला कि आवाज को एमप्लीफाई करने की तकनीक बेहद जटिल है। जो दो मनुष्य वहां गीत गाने वाले थे और जो सहायक उनके गीतो में संगत करने वाले थे, वह पुराने जमाने का सीधा-सादा, भोला-भाला संगीत कार्यक्रम नहीं है। गाने बजाने वाले अदना से इंसान हैं। उसे कई तरह से कई गुना फैलाने का ध्वनि और बिजली और यंत्रों का अजीब सा खेल है। यह सारा खेल लार्जर दैन लाइफ होने वाला था। हजारों वाट की भारी भरकम आवाज दीवारों में बंद तीन हजार लोगों के दिलों पर धमाके करने वाली थी। शायद लोग इन्हीं आवाजों का नशा करने वहां जाते हैं। हम शायद किसी पुरानी पिछड़ी हुई दुनिया के बौड़म थे जो गीत सुनने यहां आए थे। 


हालांकि कार्यक्रम की शुरुआत गजलों और गीतों से ही हुई। थोड़े प्रयोगशील शब्द, उतनी ही प्रयोगशील धुनें जिनके लिए विशाल भारद्वाज जाने जाते हैं। विशाल अपनी तरह के सिनेकर, संगीतकार और गीतकार हैं। एक जमाने में गुलजार साहब के सहायक रहे हैं। गुलजार अपने गीतों में अपनी तरह के प्रयोगधर्मी कवि हैं, कोमल, कमनीय, लता लंतरानियों सरीखे, लेकिन नवीन भी। विशाल भी लगता है इसी परंपरा के लेखक हैं। वे एक तरह के शैलीबद्ध गीतकार नहीं हैं। नूतनता का एहसास देने वाले रोमानी गीतकार हैं।  रेखा भारद्वाज उनके साथ गाती हैं।  गायन में उनका अपना व्यक्तित्व है। उन्होंने सूफी कलाम या गायन की राह  पकड़ी है। यह पारंपरिक सूफी गायन नहीं है। इसे नवसूफी गायन या सूफीवत् गायन कहना ज्यादा उचित होगा। विशाल के शब्द और धुनें इस नवसूफीवाद को मोहक बनाती हैं। शायद समकालीन, प्रासंगिक या कहना चाहिए नवीन भी। इस तरह के सॉफ्ट गायन के भी कद्रदान हैं। महफिल में जमा लोगों की प्रतिक्रियाओं से पता चल रहा था कि विशाल कितने लोकप्रिय हैं, टिकट के दाम चाहे जितने भी हों। बल्कि लोकिप्रियता के आधार पर भी तो टिकट के दाम तय होते होंगे। 


कार्यक्रम में एक मध्यांतर भी हुआ। कैंटीन भूतल पर है। वहां जन सैलाब था। काउंटर तक पहुंचना मुश्किल। हमारे बच्चे पहले निकल आए थे। वे बड़ा पाव खरीदने में कामयाब रहे। चाय नहीं मिल पाई। यह जनता की कैंटीन जैसी जगह है जहां एक गलियारे में काउंटर लगाकर चीजें बेची जाती हैं। हजारों की भीड़ एक साथ टूट पड़ती है। यहां एनसीपी या पृथ्वी या अंबानी सेंटर जैसी उच्च भ्रू नफासत नहीं है। अलबत्ता बटाटा बड़ा ₹70 में एक प्लेट और चाय ₹30 में मिल जाती है।


मध्यांतर से पहले का हिस्सा थोड़ा सादा, शुरू में पटरी से उतरता हुआ सा लग रहा था, पर धीरे-धीरे अपनी रौ में आ गया। एक्सपेरिमेंटल गायन के नाम पर इसे सफल ही कहा जाएगा। विशाल ने मुक्तिबोध की रोमानी सी कविता भी गा कर सुनाई। इसे उन्होंने कन्हैया कुमार के नाम किया, जो विशाल के मुताबिक सभागार में मौजूद थे। 


मध्यांतर के बाद साज़ों की जगह बदली हुई थी। रेखा भारद्वाज साड़ी की जगह काले या गाढ़े रंग का पैरों तक लंबा और घेरदार ड्रेस पहने हुए थीं। वह सूफियों का चोगा नहीं था। सूफीवत् था। वह गाने की एक सतर गातीं और घूमने लग जातीं। सूफी तो निरंतर घूमते जाते हैं। लेकिन रेखा जी को घूमने का अभ्यास है। रुकने पर उन्हें चक्कर नहीं आता। दस चक्कर लगाकर भी गीत के अंतरे को उठा लेती हैं। क्या यह नव सूफी गायन था नफासत भरा? उनके अंदर भी कुछ सूफीपन निश्चित ही आता होगा। बाहर तो उसका एक इलस्ट्रेशन दिखता है। रेखा जी की आवाज दिलकश है। विशाल भी गाने में सहज हैं, परफॉर्मेंस में भी। इतने शोर शराबे में भी कोमल पदावली वाला गायक होश कायम रख लेता है। इस कार्यक्रम से पता चला कि यह शो बिजनेस भी उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा है। इस व्यक्तित्व को साकार करने के लिए विशाल मध्यांतर के बाद कुर्ते पजामे की बजाय जैकेट और जींस में पधारे थे। यह उनका नया ही अवतार था। प्रदर्शनों की भाषा में कहा जाए तो इस हिस्से में एनर्जी का स्तर अलग ही था। पहले रेखा तेज रोशनी से परेशान थीं। अब रोशनी तेज सूरज की तरह मंच पर प्रहार कर रही थी और वे लोग उसे पर थिरक रहे थे। इस हिस्से में उन दोनों ने अपनी फिल्मों के लोकप्रिय गीत गाए। जनता मानो इन्हीं गीतों का इंतजार कर रही थी। दोनों गायको ने भी ये लोकप्रिय गीत इस हिस्से के लिए चुनकर रखे थे। पहले मानो वे में रिहर्सल कर रहे थे। ‘बीड़ी जलई ले’, 'दिल तो बच्चा है' ‘नमक इश्क का’ और 'नैणा ठग लेंगे' जैसे गीत मानो मंच से कूद कर सीधे दर्शक को बींध रहे थे। बहुत तेज आवाज, बेहद तीखे साज़, अति गंभीर धमाके। और इस के साथ रोशनियों के जलने बुझने मटकने अटकने का महा खेला। पूरा सभागार जैसे दहल रहा था। ये गीत गुलजार के लिखे हुए हैं। यह सोचना दिलचस्प होगा कि वे इस तरह की प्रस्तुति को साक्षात देख रहे होते तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती।


इन धमाकेदार गीतों के बजते वक्त अचानक मैंने महसूस किया कि मेरी कुर्सी हिल रही है। मेरे जाने मैं तो स्थिर था, जड़ी-भूत जैसा, कुर्सी के हत्थों को कस कर पकड़े हुए। पर दिमाग ध्वनि और प्रकाश के उन घन प्रहारों के बीच विचलित था। क्या मेरे पड़ोसी हिल रहे थे या पीछे वाले थिरक रहे थे या कहीं मैं ही तो सम्मोहित नहीं हो गया था? कुछ समझ नहीं आ रहा था। ध्वनियां और रोशनी अंदर तक धंस रही थी। मैंने महसूस किया मेरी अंतड़ियां खिंच रही हैं। मेरा पेट एकदम गुच्छा हो गया है। आवाजों का वह क्रिसेंडो चरम पर था। तब भी विशाल भारद्वाज होश में थे। उन्हें पता था वे क्या कर रहे हैं। असल में वे अपने चहेतों के लिए गला फाड़ परफॉर्म कर रहे थे। फिर उन्होंने इस ढैं-ट-ढैं के बीच ही अपने साज़िन्दों का परिचय दिया।  


मैंने धीरे से खुद को उठाया और उस लाइन में लग गया जो सभागार से बाहर जाने की तैयारी कर रही थी। हम घर आ गए पर मेरी अंतड़ियों की ऐंठन अगले दिन शाम को जाकर ही खत्म हुई।

6 comments:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 25 जुलाई 2024 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  3. क्या संगीत का स्वर्णिम युग बीत गया!!! अपने कानों और अंतड़ियों को इस दुर्गति से बचाने के लिए इस तरह के आयोजनों से तौबा!! 🙏

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