जैसे सोशल मीडिया नए जमाने की चौपाल है वैसे ही फिल्मी गीत नए जमाने का लोक संगीत है। पर यह तकनीक और ग्लैमर के प्लेटफार्म पर खड़ा है। मुंबई के षणमुखानंद ऑडिटोरियम में विशाल और रेखा भारद्वाज के लाइव शो की आपबीती पेश है।
मुंबई में कला संस्कृति के अलग-अलग ठिकाने हैं। पृथ्वी थियेटर, एनसीपीए, जहांगीर आर्ट गैलरी, म्यूजियम वगैरह तो कई बार जाना हुआ है। हर जगह का माहौल अलग है। बीच में बीकेसी के नीता मुकेश अंबानी केंद्र में गए। एक बार दादर में सावरकर ऑडिटोरियम में भी गए।
इस बार 14 जुलाई को गांधी मार्केट में षणमुखानंद हॉल में गए। मुंबई शहर के पुराने विशाल सभागारों में से एक, साइन माटुंगा के बीच गांधी मार्केट के इलाके में। मुंबई के शुरुआती दिनों में यानी आकाशवाणी की नौकरी के दौरान किंग सर्किल स्टेशन से लोकल ट्रेन लेते, शाम को वहीं उतरते। एंटॉप हिल में सात साल रहना हुआ। षणमुखानंद हॉल के बगल से सरकारी कॉलोनी में घुसते। कितने बरस बीत गए, कभी इस विशाल सभागार में जाने का सबब नहीं बना। उस्तादों की महफिलें यहां हुआ करती थीं। आकाशवाणी के हमारे सहकर्मी हंपीहोली कहते, भीमसेन जोशी मेरा भाई है (उनकी शक्ल भी मिलती थी), उसकी संगीत सभा का संचालन मैं ही करता हूं। हंपीहोली साहब के घर पर धारवाड़ के पेड़े तो कई बार खाए पर उनके भाई की संगीत सभा नहीं सुन पाए।
हम लोग विशाल और रेखा भारद्वाज का शो 'ओ साथी रे' देखने गए थे। बरसात के मौसम में हम तो समय से पहुंच गए लेकिन मुख्य कलाकार देर से पहुंचे। जब हम अंदर बैठे तो मंच खुला हुआ था। साज़ रखे थे, साज़िंदे आ जा रहे थे। वे तब तक आते जाते रहे जब तक उद्घोषक ने आकर माफी मांगते हुए विशाल और रेखा को मंच पर आमंत्रित नहीं कर लिया।
अब नई कबायद शुरू हुई साजोंं के सुर मिलाने की। संगीत सभाओं में आमतौर पर तबले और तानपूरे को ही मुख्य साज या गायक के सुर से मिलाया जाता है पर यहां नजारा अलग था। तबले के अलावा एक ड्रमर, गिटार के अलावा बेस गिटार, मेंडोलियन, सैक्सोफोन और क्लेरिनेट, सिंथेसाइजर और दो सहायक गायक। इनके सुर खुले कान से नहीं मिल रहे थे। विशाल भारद्वाज दूर कहीं छुप कर बैठे साउंड इंजीनियर से बातें करते हुए सुर मिला रहे थे। यह सब हमें दिखाई भी पड़ रहा था और सुनाई भी पड़ रहा था। विशाल भारद्वाज बीच बीच में तकनीकी खराबी के कारण हुई देरी के लिए माफी भी मांग ले रहे थे और बातचीत में चुटकियां भी ले ले रहे थे। सभागारों में महाकाय स्पीकर होते हैं। उनसे पता नहीं कितने डीबी की आवाज निकलती है।
हालांकि कार्यक्रम की शुरुआत गजलों और गीतों से ही हुई। थोड़े प्रयोगशील शब्द, उतनी ही प्रयोगशील धुनें जिनके लिए विशाल भारद्वाज जाने जाते हैं। विशाल अपनी तरह के सिनेकर, संगीतकार और गीतकार हैं। एक जमाने में गुलजार साहब के सहायक रहे हैं। गुलजार अपने गीतों में अपनी तरह के प्रयोगधर्मी कवि हैं, कोमल, कमनीय, लता लंतरानियों सरीखे, लेकिन नवीन भी। विशाल भी लगता है इसी परंपरा के लेखक हैं। वे एक तरह के शैलीबद्ध गीतकार नहीं हैं। नूतनता का एहसास देने वाले रोमानी गीतकार हैं। रेखा भारद्वाज उनके साथ गाती हैं। गायन में उनका अपना व्यक्तित्व है। उन्होंने सूफी कलाम या गायन की राह पकड़ी है। यह पारंपरिक सूफी गायन नहीं है। इसे नवसूफी गायन या सूफीवत् गायन कहना ज्यादा उचित होगा। विशाल के शब्द और धुनें इस नवसूफीवाद को मोहक बनाती हैं। शायद समकालीन, प्रासंगिक या कहना चाहिए नवीन भी। इस तरह के सॉफ्ट गायन के भी कद्रदान हैं। महफिल में जमा लोगों की प्रतिक्रियाओं से पता चल रहा था कि विशाल कितने लोकप्रिय हैं, टिकट के दाम चाहे जितने भी हों। बल्कि लोकिप्रियता के आधार पर भी तो टिकट के दाम तय होते होंगे।
कार्यक्रम में एक मध्यांतर भी हुआ। कैंटीन भूतल पर है। वहां जन सैलाब था। काउंटर तक पहुंचना मुश्किल। हमारे बच्चे पहले निकल आए थे। वे बड़ा पाव खरीदने में कामयाब रहे। चाय नहीं मिल पाई। यह जनता की कैंटीन जैसी जगह है जहां एक गलियारे में काउंटर लगाकर चीजें बेची जाती हैं। हजारों की भीड़ एक साथ टूट पड़ती है। यहां एनसीपी या पृथ्वी या अंबानी सेंटर जैसी उच्च भ्रू नफासत नहीं है। अलबत्ता बटाटा बड़ा ₹70 में एक प्लेट और चाय ₹30 में मिल जाती है।
मध्यांतर से पहले का हिस्सा थोड़ा सादा, शुरू में पटरी से उतरता हुआ सा लग रहा था, पर धीरे-धीरे अपनी रौ में आ गया। एक्सपेरिमेंटल गायन के नाम पर इसे सफल ही कहा जाएगा। विशाल ने मुक्तिबोध की रोमानी सी कविता भी गा कर सुनाई। इसे उन्होंने कन्हैया कुमार के नाम किया, जो विशाल के मुताबिक सभागार में मौजूद थे।
इन धमाकेदार गीतों के बजते वक्त अचानक मैंने महसूस किया कि मेरी कुर्सी हिल रही है। मेरे जाने मैं तो स्थिर था, जड़ी-भूत जैसा, कुर्सी के हत्थों को कस कर पकड़े हुए। पर दिमाग ध्वनि और प्रकाश के उन घन प्रहारों के बीच विचलित था। क्या मेरे पड़ोसी हिल रहे थे या पीछे वाले थिरक रहे थे या कहीं मैं ही तो सम्मोहित नहीं हो गया था? कुछ समझ नहीं आ रहा था। ध्वनियां और रोशनी अंदर तक धंस रही थी। मैंने महसूस किया मेरी अंतड़ियां खिंच रही हैं। मेरा पेट एकदम गुच्छा हो गया है। आवाजों का वह क्रिसेंडो चरम पर था। तब भी विशाल भारद्वाज होश में थे। उन्हें पता था वे क्या कर रहे हैं। असल में वे अपने चहेतों के लिए गला फाड़ परफॉर्म कर रहे थे। फिर उन्होंने इस ढैं-ट-ढैं के बीच ही अपने साज़िन्दों का परिचय दिया।
मैंने धीरे से खुद को उठाया और उस लाइन में लग गया जो सभागार से बाहर जाने की तैयारी कर रही थी। हम घर आ गए पर मेरी अंतड़ियों की ऐंठन अगले दिन शाम को जाकर ही खत्म हुई।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 25 जुलाई 2024 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteमज़ा आया पढ़ के।
ReplyDeleteक्या संगीत का स्वर्णिम युग बीत गया!!! अपने कानों और अंतड़ियों को इस दुर्गति से बचाने के लिए इस तरह के आयोजनों से तौबा!! 🙏
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