लगे रहो मुन्ना भाई फिल्म 2006
में आई थी। उसके बाद गांधीवाद को गांधीगिरी नाम मिला और उछाल में भी रहा। यह भी
लगा कि सामाजिक आंदोलनों की शुरुआत फिल्मों से भी हो सकती है।
लेकिन जल्दी ही इस
अवधारणा की हवा निकल गई।
12 साल बाद इस समीक्षा पर नजर डाली जाए तो महसूस होता है
कि माहौल काफी बदल गया है।
गांधी कहीं गहरे भारतीय चित्त में तो बैठा प्रतीत होता
है
लेकिन इस समय गांधी विरोध की हवा फैलाने की कोशिशें भी लगातार हो रही हैं।
लगे रहो मुन्ना भाई गांधीगिरी के लिए चर्चा में आ गई
है। फिल्में आम तौर पर नौजवानों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। क्योंकि सबसे ज्यादा
दर्शक इसी वर्ग से मिलता है। फिल्म का हिट होना या पिट जाना युवावर्ग की पसंद से ही
तय होता है। गांधीवाद जैसे पिटे हुए विचार को इस फिल्म ने हिट बना दिया है। गांधीवाद
की अंहिसा और असहयोग अचानक परिवर्तन के हथियार बन गए हैं। पिछले कुछ बरसों में ये हथियार
म्यूजियम में रख दिए गए थे। खादी, चरखा, सत्य, अहिंसा असहयोग आदि
किताबी किस्म की बातें हो चुकी थीं। इनका मजाक उड़ाया जाता था। प्रदर्शनी लगाई जाती थी। इन्हें राजनीति में इस्तेमाल
किया जाता था।
गांधीगिरी शब्द को दादागिरी के वरक्स खड़ा करने से मानो
गांधीवाद को नवजीवन मिल गया है। वह भी फिल्म जैसे लोकप्रिय माध्यम के जरिए। फिल्म में
गांधीगिरी संजय दत्त करता है, जिसका अपना एक पेचीदा इतिहास है। पिता अभिनेता के साथ
साथ सच्ची किस्म का नेता रहा है। खुद संजू बाबा टाडा में हथियार रखने का आरोपी रहा
है, अपनी लतों के कारण भी खबरों में रहा है। पर इसके साथ साथ संजय दत्त लोकप्रिय
स्टार भी बना हुआ है। मुन्ना भाई एमबीबीएस ने इस गांधीगिरी की जैसे नींव रख दी थी।
उस फिल्म में मानववाद की एक धारा बहती रहती है, जो नौकरशाही और निर्मम मेडिकल साइंस की कली खोलती है, रिश्तों को और प्रेम को महत्व देती है। समाज के प्रति समभाव भी उसमें बना रहता
है। यह सब मसाला फिल्मों के स्टाइल में होता है।
अपने मानववाद के कारण ही शायद यह फिल्म हिट हुई थी।
लगे रहो मुन्ना भाई में गांधीवाद पर अमल करके दिखा दिया
गया है। इससे भ्रष्टाचार का सामना किया जाता है, सच्चाई का महत्व पता चलता है। हृदय परिवर्तन भी हो जाता
है। यह अलग बात है कि फिल्म इन सिद्धांतों का प्रयोग अपनी सुविधा से करती है। जैसे
नायक का गांधी से परिचय ही प्रेमिका से मिलने की जुगत भिड़ाने के लिए होता है। गांधी
से जुड़े सवालों का जवाब देने के लिए भाड़े के प्रोफैसरों को लाने वाला सीन काफी विडम्बनापूर्ण
है, लेकिन सच्चा है। मजेदार बात यह है कि इस गांधीगिरी का प्रयोग मुंबई का एक भाई
कर रहा है जिसका पेशा दादागिरी करना है। यह भाई धीरे-धीरे गांधी के प्रभाव में आता
जाता है।
नौजवान पीढ़ी को लगता है कि इस अस्त्र का इस्तेमाल किया
जा सकता है। सत्य, शांति, अहिंसा, असहयोग वगैरह उसे अचानक आकर्षक औजार लगने लगे हैं।
इसी तरह रंग दे बसंती भी नौजवान पीढ़ी में खासी लोकप्रिय
हुई है। वह फिल्म इसके बिल्कुल उलट है। वह आजादी के क्रांतिकारियों को याद करती है।
उस समय और इस समय की जक्स्टापोजीशन उस फिल्म को मार्मिक और प्रामाणिक बनाती है। वह
नौजवान पीढ़ी के सरोकारों को छूती है। पर हिंसा का रास्ता चुनती है। गुस्सा तो आज हर
कहीं उबल ही रहा है। आंदोलनों की कमी गुस्से को दिशा नहीं दे पाती। मध्यवर्ग की बेहतर
बनने की दौड़ और होड़ उसे अपने से बाहर सोचने नहीं देती। जीवन में शाùर्टकट उसे और भी आत्म केंद्रित और हड़बड़िया बनाते हैं। सब कुछ बहुत जल्दी और
ज्यादा मिल जाए। अगर गृहस्थी चला रहे बाप और पढ़ाई कर रहे बेटे दोनों के मकसद इसी तरह
के हों तो बड़े सपने नहीं देखे जा सकते। गुस्सा रोजमर्रा के जीवन से है, मतलब प्रशासन, सिस्टम, सरकार आदि के खोट
नजर आते हैं। निजी तरक्की में जब ये चीजें बाधा बनती हैं, तभी आदमी को गुस्सा आता है। मिलों के बंद होने पर, किसानों के आत्महत्या करने पर, सूखे बाढ़ से होने वाली तबाही पर, कालाहांडी पर गुस्सा नहीं आता। भुक्तभोगी को गुस्सा आता है, पर वो बेबसी में बदल जाता है। हमारे समय में एम्पेथी या समानुभूति के जज्बे को
पाला मार गया है। मुन्नाभाई को गांधीगिरी की
जरूरत अपनी प्रेमिका को पाने के लिए पड़ती है। रंग दे बसंती में क्रांति अपने मित्र
की दुर्घटना में हुई मृत्यु के बाद जन्म लेती है।
इन दोनों फिल्मों में मीडिया की विशेष भूमिका है। खास
तौर से रेडियो का इस्तेमाल पुनर्जागरण की तरह होता है। परिवर्तन की दुंधुवी एफएम रेडियो
से बजती है। ध्यान देने की बात है कि यह माध्यम खालिस युवा वर्ग का है। मुन्ना गांधीगिरी
के नुस्खे रेडियो पर सुनाता है। जनता मानो आपस में जुड़ जाती है। रंग दे बसंती में
भी सारा देश रेडियो से चिपक जाता है और क्रांतिकारियों से सवाल जवाब करता है। मीडिया
का प्रयोग यह दिल है हिंदुस्तानी और नायक जैसी फिल्मों में पहले भी हुआ है लेकिन उनके
पास विचारधारा नहीं थी। यहां गांधीवाद और इन्कलाब की जांची परखी विचारधाराएं नए अवतार
में सामने आती हैं।
ये फिल्में विरोध को एक रूप देने लगी हैं। मुन्नाभाई
की सफलता के बाद गांधीगिरी को बढ़ावा देने के लिए कई मंच सामने आने लगे हैं। इंटरनेट
पर भी इस विचार को फैलाया जा रहा है। कुछ युवकों ने एक थप्पड़ खाकर दूसरा गाल आगे करने
के नुस्खे आजमाने शुरु कर दिए हैं। जैसे, प्रसिद्ध हास्य कलाकार राजू श्रीवास्तव कहता है कि मजाक
- मजाक में बहुत लोग आ गए, मजाक मजाक में गांधी बापू फिर से लोकप्रिय हो गए।
गांधी के इस अवतार से यह भी पता चलता है कि विरोध के
हमारे तरीके पुराने पड़ चुके हैं। जुलूस, हड़ताल, पोस्टर, जैसे माध्यम अब नकारा साबित हो जाते हैं। बदलते वक्त
के साथ लोग विरोध और प्रतिरोध के नए नए तरीके तलाश कर रहे हैं। जैसे आंदोलनों की बागडोर
अब लगभग एनजीओं के हाथ में चली गई है। अब इसका जज्बा बदल गया है। असल में अब दुनिया
भी बदल गई है। दुश्मन भी पहले से कहीं ज्यादा जटिल, कुटिल, खल और कामी हो गया है। वह लुभाता भी है, भुनाता भी है और विषदंत भी गड़ाता है।
गांधी का नया अवतार मध्यमवर्ग को एक नए, लुभावने लेकिन कारगर हथियार के रूप मे वरदान की तरह
मिला है। भले ही छोटी छोटी निजी लड़ाइयों के
लिए ही सही, उस सिंगल हड्डी आदमी की कीमत पहचानी तो जाने लगी है।