Monday, March 22, 2010

किंतु परंतु लेकिन फिर भी आओ साथी सपना देखें



पृथ्‍वी थियेटर में कल शाम (21 मार्च 6 बजे का शो) एक नाटक देखा, आओ साथी सपना देखें. दो साल पहले पृथ्‍वी फैस्‍टीवल में जब यह पहली बार खेला गया था, तो देखना था पर छूट गया. कल मौका मिला. वह भी बच्‍चों के साथ. दस, चौदह और सत्रह साल के तीन बच्‍चे हमारे साथ थे. मजे की बात है के तीनों बच्‍चों को नाटक अव्‍छा लगा. सुमनिका को भी पसंद आया. मुझे हमेशा की तरह किंतु परंतु का सामना करना पड़ा.

नाटक दिल्‍ली के चांदनी चौक के बैजू खान और गौरेया की प्रेम कहानी है. बैजू के पिता मियां खान बैंड मास्‍टर हैं. गैरेया के पिता चिरौंजी लाल गुप्‍ता की परचून की दुकान है. बहुमुखी नामक सूत्रधार कहानी सुनाता है. सारा नाटक गीत-संगीत मय है.

पहले इस जोड़े का प्रेम घर की छत पर बनी दीवारों को फांद कर पनपता है. मियां खान और गुप्‍ता को लोग एक दूसरे का दुश्‍मन समझते हैं जबकि वे दोस्‍त हैं. उनका निष्‍कर्ष है कि बच्‍चों से जो काम कराना हो, उसके लिए मना करो. अगर वे खुद को एक दूसरे का दुश्‍मन न दिखाते तो समधी न बन पाते. लड़की को अपनी सोलह साल की उमर के सिवा और कुछ नहीं सूझता. बैजू यूं तो बैंड में झुनझुना बजाता है, पर उसमें कलाकर बनने की ललक है. जीवन के सुख दुख दिखाने के लिए बैजू को संघर्ष करते दि‍खाया गया है. वह दो असफल कलाकारों के हत्‍थे चढ़ जाता है और हार और तजुर्बा लेकर लौटता है. पहले ये दोनों इसे सबक सि‍खाते हैं और बाद में यह इन दोनों को अपना गुलाम बना लेता है. पहले जहां वह पहलवान से पिट कर भागता है, लौट कर पहलवान को पीट कर महबूबा को हासिल कर लेता है.


दर्शकों ने बहुत तालियां बजाईं. नाच गाने पर, चटपटे, कुरकुरे, खस्‍ता, सटीक-सटाक संवादों पर, नृत्‍य पर और मजाक मजाक में नृत्‍य की और अभिनय की टांग तोड़ने पर. निर्देशक ने तालियां बटोरने के लिए ये सब करतब किए थे. हल्‍के फुल्‍के खेल के लिए स्‍टैंडिंग ओवेशन. इतनी जोर से और इतनी देर तक कि अंत में अभिनेताओं के नाम भी सुनाई नहीं पड़े.


किंतु परंतु

साथी को सपना देखने के लिए बुलाया जा रहा है और सपना वही पुराना घिसा-पिटा प्रेमी प्रेमिका का मिलना, बिछुड़ना और अंत में फिर मिलना. यह जिंदगी में भी होता है पर बहुत अलग तरह से होता है. इस नाटक में जीवन का स्‍पर्श सिर्फ कुछ जगह दि‍खता है, जब दो असफल कलाकारों को अपहरण का सीन करने के‍ लिए बुलाया जाता है. बाकी तो सब गुडी गुडी, नकली नकली, पर झिलमिलाता हुआ.

लेखक ने भाषा पर इतनी मेहनत की है पर दि‍शाहीन. कथ्‍य नजर ही नहीं आता. हिंदू मस्लिम विवाद से भी वो साफ बच गया है. इतनी भर टिप्‍पणी है कि अगर रिश्‍ता टूट गया तो लोग बखेड़ा खड़ा कर देंगे. हालांकि बीच-बीच में टिप्‍पणियां बड़ी प्रासंगिक और चुभती हुई हैं. भाषा में रवानी है, फूहड़ता नहीं है, द्विअर्थी नहीं है (जिसके शिकार नाटक वाले अक्‍सर हो जाते हैं), संवाद सटीक और चुस्‍त हैं. पर अफसोस! भाषा के ये जुगनू नाटक में कोई रोशनी पैदा नहीं करते. नाटक कुल मिलाकर हंसी खुशी भरा ड्रामा बन कर रह जाता है.

चूंकि नाटक गीत-संगीतमय है, इसलिए नृत्‍य उसका हिस्‍सा है. ऐसा लगता है कि नृत्‍य निर्देशक ने बड़ी मेहनत की है. किंतु आजकल के फिल्‍मी डांस का असर पूरी दृश्‍यावली को अपने प्रभाव में ले लेता है. यूं गाने कथा को आगे बढ़ाने वाले हैं, संगीत नाटक की तरह का ही है, ढोलक, तबला, डफ, पेटी और क्‍लेरनट के साथ. पर बीट और नाच पर टीवी का असर दिखता है, जहां नृत्‍य झटकेदार होता है, जहां ठुमके में लचक कम और झटका ज्‍यादा होता है. इससे नाटक अपनी पहचान खोता है. ऊपर से अभिनेताओं की देह जिम-पकी है, पसीना-पगी और धूप-जली नहीं है. उनके मैनरिज्‍म भी टीवी –फिल्‍मों वाले हैं. वैसे यह समस्‍या सिर्फ इसी ग्रुप की नहीं है. सबके यही हाल हैं. यहां पर ऐसा लगता है कि अब नाटक का स्‍वतंत्र अस्तित्‍व नहीं है, टीवी फिल्‍म है इसलिए नाटक भी है.

इन सब के बीच चिरौंजी लाल गुप्‍ता का चेहरा मोहरा, कपड़ा लत्‍ता और अभिनय प्रामाणिक है. सूत्रधार का साथी गजब का अभिनेता है. उसमें लोच है, ऊर्जा है, ठहराव है और पकड़ भी है. वह बैंड मास्‍टर के क्‍लेरनट के सुर को मूर्त करता है. यह संकल्‍पना और इसका अभिनटन दोनों की बहुत अच्‍छे हैं, अनोखे भी.

असल में ऐसा लगता है कि अगर इस नाटक का शीर्षक कुछ और होता तो किंतु परंतु का सवाल खड़ा नहीं होता. शायद नाटक देखने ही न जाता. ह‍म सपना देखने गए और मिला नाच-गाना. तो लगता है कि क्‍या अब हमारे रचनाकारों ने भी बड़े सपने देखने बंद कर दिए हैं ? रचनाकारों ही ने क्‍यों दर्शकों ने भी इस स्थिति को स्‍वीकार कर लिया है. वरना लगभग हाउसफुल और तालियों की छतफोड़ गड़गड़़ाहट क्‍यों होती ?

चित्र मुंबई थियेटर गाइड से साथार

5 comments:

  1. "बहुत तफसील से वर्णन किया है आपने....अब तो नाटकों में भी टीवी घुस आया है....."
    amitraghat.blogspot.com

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  2. जिम पकी देह....
    मज़ा सा आया सुन कर. भाई आप को इतना तो मिल जाता है देखने को. शुकर मानिए. यहाँ तो अच्छी, साफ , नफीस हिन्दी -उर्दू सुनने के लिए तरस जाते हैं. हाँ, सुना है कुल्लू में उर्सेम, कहर सिंग आदि ठसक दार 'पहाड़ी हिन्दी' का प्रयोग करने लग पड़े हैं. पर उन का शो देखे दो वर्ष हो गए....
    फील गुड पोस्ट. आभार.

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  3. दोस्‍तो धन्‍यवाद. अमित जी, तफसील में जाए बिना बात बनती नहीं है. इसमें तो मैं लेखक और निर्देशक का नाम देना भूल ही गया. अजय जी, आंचलिक पुट लिए हुए ठसकदार भाषा का अपना ही मजा है.

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