Friday, November 12, 2010

बदलते समय को समझना जरूरी







पिछले साल कवि राजेश जोशी मुंबई आए तो जनवादी लेखक संघ ने मुंबई के एक उपनगर मीरा रोड में एक गोष्ठी आयोजित की। इसमें राजेश जोशी ने क़रीब घंटाभर अपनी कवितों का पाठ किया और उसके बाद साथियों ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत है राजेश जोशी से उसी बातचीत के कुछ अंश। पिछली किस्‍त से आगे...

अनूप सेठीः हमारे एक मित्र हैं अजेय। यहां से दूर हैं। हिमाचल के दुर्गम इलाक़े लाहुल स्पिति में कल जब उन्होंने रमन मिश्र के फेसबुक पर देखा कि आप इस गोष्ठी में आने वाले हैं तो उन्होंने मुझे फोन करके इंटरनेट में `कृत्या पत्रिका' में स्वाल्टर्न के बारे में चली बहस की याद दिलाई। उस बहस में अक्का महादेवी और ललदयद का हवाला आता है। इनका जिक्र आपकी पुस्तक एक कवि की नोटबुक में भी है। रोहतांग दर्रे के उस पार जहां के अजेय हैं, उस इलाक़े में मध्यकाल में एक संत हुए मिलारेपा। वे बड़े विद्रोही संत थे। अजेय की जिज्ञासा है कि जब हम अक्का महादेवी और ललदयद का नाम लेते हैं तब हमें मिलारेपा याद क्यों नहीं आते। अभी जो आपने इक्कीसवीं सदी को साधने की बात कही, उसके संदर्भ में ये जो स्वाल्टर्न परंपराएं हैं, जो पीछे छूटता जाता है, उससे हम किन उक्तियों से रिश्ता बनाए रख सकते हैं और ये हमारी कैसे मदद कर सकती हैं?
राजेश जोशी: हम लोगों से पहले की पीढ़ी जो अकविता के तत्काल बाद आई थी, उसमें एक रिएक्शन था अकविता को लेकर और उस पीढ़ी ने लगभग खारिज करते हुए यह मान लिया कि अकविता ने जो कुछ भी किया वह अश्लीलता थी। या उसका कोई औचित्य नहीं था। इसी तरह रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्र्ासाद द्विवेदी हिंदी के महान आलोचक हुए, लेकिन अब इतने साल बाद रीतिकाल के बारे में ठीक उसी तरह उनसे सहमत नहीं हुआ जा सकता। हमें अब रीइन्वेंट करना होगा और री-इन्वेस्टीगेट पहलू भी थे, जो बहुत महत्वपूर्ण थे। जैसे एक पहलू ख़ुद हजारीप्रसाद द्विवेदी ने बताया था कि वह पहली सेकुलर कविता थी। सेकुलर यानी धर्मनिरपेक्ष नहीं, ऐहिक। यानी जिसमें पहली बार मनुष्य ने मनुष्य से प्र्ोम किया। आंलबनों से जो प्र्ोम चल रहा था उससे हटकर उसने पूरी देह को स्वीकार किया। तो हिंदी, बल्कि भारतीय कविता में पहली ऐहिकता आती है रीतिकाल में।
इसी तरह जब मैं अकविता के बारे में सोच रहा था तो मुझे लगा उसने कई महत्वपूर्ण काम किए। उसने हमारी बहुत सारी बनी हुई मान्यताओं को तोड़ दिया, ध्वस्त कर दिया। इससे हम बहुत स्वतंत्र हुए, भाषा के स्तर पर और सोचने के स्तर पर।

अगर हम अपनी परंपराओं को दुबारा टटोलें तो पाएंगे कि वैष्णव परंपराओं की तुलना में शैव परंपराएं ज़्यादा विद्रोही थीं। मीरा भी विद्रोहिणी हैं, लेकिन आप ललदयद, अक्का महादेवी या पंडाल को देखें तो पाएंगे कि इनमें विद्रोह की चेतना कहीं अधिक है। ललदयद और अक्का महादेवी ने तो वस्त्र तक उतार दिए। यानी विद्रोह का चरम है। ऐसा वैष्णव परंपराओं में नहीं मिलता। जो लोग इस इलाक़े में रहते हैं, वे समानांतर परंपराओं के बारे में कम सोचते हैं। रामचरित मानस पर एक निबंध लिखने के लिए (जो वाक पत्रिका में छपा) तुलसीदास को दुबारा पढ़ा तो मुझे बहुत सारी बातें समझ में आई। जैसे वे शैवों और वैष्णवों के बीच एडजेस्टमेंट (समन्वय) कर रहे थे। मानस में शिव, पार्वती को रामकथा सुनाते हैं। राम शिव की आराधना करते हैं। और शिव कहते हैं कि जो राम को प्यारा नहीं वह किसी को प्यारा नहीं। यह सब शैवों और वैष्णवों के बीच चल रहा है। उधर शास्त्रों के साथ तुलसीदास का क्या व्यवहार है? मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। क़रीब से देखने पर बहुत से रहस्य उजागर हुए। पूरे मानस में सरस्वती की आराधना केवल दो बार है। पहली बार, जब राम का राज्याभिषेक होने लगता है तो देवताओं को लगता है कि यह क्या हो रहा है! यह तो राज्याभिषेक होने लग गया! तो सरस्वती को बुलाया जाता है कि तू कुछ कर। सरस्वती आती है और मंथरा की बुद्धि को भ्रष्ट करके जाती है। जरा सोचिए, सरस्वती का क्या उपयोग किया गया है। मानस में पहली बार सरस्वती बुद्धि भ्रष्ट करने का काम करती है। दूसरी बार, जब भरत मिलाप हो रहा है, तो राम भरत से कहते हैं कि अगर भरत कह देंगे तो मैं अयोध्या वापस चला जाऊंगा। देवता पुन: आहवान करते हैं कि हे देवी! कुछ कर। वहां सरस्वती कहती है कि भरत धर्म के अवतार हैं। मैं धर्म का कुछ नहीं बिगाड़ सकती। और असहाय सी यह वापस लौट जाती है। तो तुलसीदास की सरस्वती के बारे में यह धारणा है। तुलसी ने उसकी वंदना की है और उसके बाद ही वे कहते हैं कि वह राम के हाथों में धागों से बंधी कठपुतली की तरह हैं जिसे वे नचाते हैं। यहां शैवों और वैष्णवों के बीच के टकराव दिखाई देते हैं। अगर तुलसी शैवों के साथ समस्वय करते तो उन्हें स्त्री के बारे में अपनी धारणाएं बदलनी पड़तीं। आप सभी जानते हैं कि वे बहुत जगह गड़बड़ हैं।
तो इस तरह हमें अपनी परंपराओं को रीइन्वेस्टिगेट करना चाहिए. मिथक किसी की बपौती नहीं है। धर्म की तो बिल्कुल ही नहीं है। धर्म से इनका कोई ताल्लुक नहीं है। यह अलग बात है कि हमारे यहां राजनीतिकों ने इनका बहुत ग़लत ढंग से उपयोग किया। वरना राम कथाएं तो बहुत हैं। फादर कामिल बुल्के ने राम कथाओं पर काम किया है और तीन सौ से ज़्यादा रामकथाओं का जिक्र किया है। रामकथाओं में कई तरह के अंतर भी हैं। कृतिवास मानस और बाल्मीकि रामायण तक में अंतर है। कृतिवास में ही वह किस्सा आता है कि आंख कमल की पंखुड़ी के समान है। दो फूल कम पड़ते हैं तो आंखों को अर्पित कर देते हैं। निराला ने राम की शक्ति पूजा इसी पर लिखी। यह किस्सा मानस या बाल्मीकि रामायण में नहीं है। देखा यह जाना चाहिए कि भारतीय समाज मिथक को बहुत स्वतंत्रता से सोचता रहा है। उसमें बड़ा खुलापन रहा है। मिथकों की वृहद व्याख्याएं करता है। खट्टर काका तक आते आते देखिए, यह कैसा बदलता है। इसके लेखक हरिमोहन झा बीसवीं सदी के आदमी हैं। वे राम की गलतियां निकालते हैं और कहते हैं कि हम तो जनकपुर के हैं, वे तो हमारे दामाद हैं। अगर परंपरा के बारे में आप खुलापन नहीं रखेंगे तो कुछ नहीं हो सकता।


मिलारेपा वाली जो बात उठाई थी, तो मुझे लगता है कि बौद्ध परंपरा में भी ऐसे बहुत से आचार्य हुए हैं जो विद्रोही रहे हैं। मिलारेपा पर बहुत बाद में किताब आई और लोगों ने उसे जाना। केदारनाथ सिंह ने एक पूरी कविता उन पर लिखी है। मतलब हमारी परंपरा में ऐसा बहुत कुछ मौजूद है। शर्त है कि हम दिमाग़ को खुला रखें और राजनीतिज्ञ जैसा उपयोग करना चाहते हैं वैसा होने दें। मुझे लगता है कि लेखकों को, ख़ासकर के कवियों को इन अन्य परंपराओं को देखना चाहिए। समाज को देखना चाहिए जो मजाक उड़ाने से लेकर नई व्याख्याएं करने तक बहुत से काम करता है।

जारी...

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