Thursday, November 18, 2010

बदलते समाज को समझना जरूरी


कथाकार सलाम बिन रजाक और धीरेंद्र अस्‍थाना


पिछले साल कवि राजेश जोशी मुंबई आए तो जनवादी लेखक संघ ने मुंबई के एक उपनगर मीरा रोड में एक गोष्ठी आयोजित की। इसमें राजेश जोशी ने क़रीब घंटाभर अपनी कवितों का पाठ किया और उसके बाद साथियों ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत है राजेश जोशी से उसी बातचीत के कुछ अंश। पिछली किसत से आगे...
रमन मिश्र: हमारे यहां समकालीन साहित्य में यह माना जाता है कि लोकप्रिय होना बुरी बात है। जैसे जिस कवि को बहुत सुना जाता है या वह प्रसिद्ध हो जाता है तो मान लिया जाता है कि वह कवि ही नहीं रहा। समकालीन जगत के इस पक्ष को आप कैसे देखते हैं?

राजेश जोशी: सबसे बड़ी समस्या मुझे लगती है कि हमने पापुलर और पालुलिस्ट में भेद नहीं किया। दूसरी बात कि मराठी और बांग्ला में साहित्यिक लेखकों के अलावा भी लेखक होते हैं जिन्हें पापुलर राइटर कहा जाता है जैसे विमल मित्र और शंकर थे। उन्होंने बहुत अच्छे उपन्यास लिखे जो बहुत पढ़े गए। विमल मित्र के उपन्यास पर साहब बीबी गुलाम जैसी फिल्म भी बनी। दुर्भाग्यवश हिंदी में साहित्य की वह श्रेणी लगभग नहीं ही बन पाई। और पल्प या घासलेटी साहित्य को हमने पापुलर की श्रेणी में डाल दिया। अभी कुछ दिन पहले यहीं मुंबई के अंधेरी इलाक़े में एक गोष्ठी हुई। इसमें एक अध्यापिका ने कहा कि गुलशन नंदा और ओमप्र्ाकाश शर्मा तो महान लेखक हैं और समझ में आते हैं। लेकिन निर्मल वर्मा क्या लिखते हैं? उन्हें तो समझा भी नहीं जा सकता। ये हिंदी के वो लोग हैं जो पीएचडी हैं और पढ़ा रहे हैं। मैं किसी का अपमान नहीं कर रहा पर ऐसे लोग पापुलर के बारे में भी नहीं जानते। जैसे शिवानी और मालती जोशी पापुलर लेखक हैं। धर्मवीर भारती एक बड़े लेखक थे पर उन्होंने गुनाहों का देवता जैसा लोकप्रिय उपन्यास भी लिखा है। श्रीलाल शुक्ल ने आदमी का जहर नाम का उपन्यास लिखा। और कहकर लिखा कि जासूसी उपन्यास लिख रहा हूं। सोचने की बात है कि अगर लोकप्रियता इतनी बुरी चीज़ है तो भारतीय, ख़ासकर हिंदी समाज में तुलसी और कबीर से ज़्यादा पापुलर कौन है। हम जितने भी बड़े लेखक हो जाएं, इनकी धूल के बराबर भी नहीं है। लोगों के बीच पहुंचने के लिए इस तरह के सेतु बनने ही चाहिए। साहित्य लोगों के बीच लोकप्रिय हो पर वह लोकप्रियतावाद से ग्रस्त हो। पापुलिस्ट होने के लिए वह टोटके अपनाए। पापुलर होने से किसे ऐतराज हो सकता है साहित्य लिखा ही इसलिए जाता है कि वह जनता तक पहुंचे। शायद कवियों ने यह भ्रम ज़्यादा फैलाया है, क्योंकि कवि कम लोकप्रिय थे। गद्य ज़्यादा लोकप्रिय हुआ है। इसलिए कवियों को पापुलिस्ट से एक नकली ख़तरा बना रहा। उन्होंने अपने को विशिष्टता प्रदान करने की कोशिश की, जो कि एक फाल्स (मिथ्या) विशिष्टता है। वरना आप देखें नागार्जुन, धूमिल, दुश्यंत बहुत लोकप्रि्ाय थे, बहुत पढ़े गए और बड़े लेखक भी थे। मतलब पापुलर होने और पापुलिस्ट होने में बहुत अंतर है।
हरि मृदुल: राजेश जी, इसी से जुड़ा एक और सवाल है कि आजकल कम लिखने वाले को बड़ा माना जाता है. जो कम लिखे वह विशिष्ट।


राजेश जोशी: कम और ज़्यादा लिखते रहने से कोई महान या कमज़ोर नहीं होता। गुलेरी जी को कम लिखने वाला माना जाता है, पर उन्होंने तीन कहानियों के अलावा बहुत सारे निबंध लिखे थे। मैं ऐसा भेद नहीं मानता। कुछ कम लिखते हैं, कुछ ज़्यादा।
हरि मृदुल: बांग्ला में हरेक लेखक बड़ी मात्रा में लिखता है। हिंदी में ऐसा नहीं है।
राजेश जोशी: ऐसा नहीं है। उपेन्द्रनाथ अश्क ने बहुत लिखा। नरेश मेहता ने बहुत लिखा। नागरजी ने बहुत सारा लिखा। ऐसा नहीं है कि हिंदी में प्रोलेफिक - अधिक मात्रा में लिखने वाले राइटर कम हुए हैं। ख़ुद प्रेमचंद ने बहुत लिखा है। इधर के लेखकों में भी ऐसे कई लेखक हैं। हालांकि ज्ञानरंजन ने सिऱ्फ २५ कहानियां लिखीं। लेकिन वे बड़े कहानीकार हैं। अमरकांत बड़े लेखक हैं। इसलिए ऐसा कोई मानदंड नहीं बनाया जा सकता।
चित्र - सलाम बिन रजाक और धीरेंद्र अस्‍थाना, रमन मिश्र और हरि मृदुल

जारी...

No comments:

Post a Comment