चिंतनदिशा में समकालीन कविता पर विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार की चिट्ठियां आप पढ़ चुके हैं. फिर अगले अंक में उन चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह की प्रतिक्रिया भी पढ़ चुके हैं. चिंतनदिशा के ताजा अंक में राधेश्याम उपाध्याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और मेरी प्रतिक्रियाएं छपी हैं. इन्हें बारी बारी से यहां रखने का इरादा है. आइए पहले राधेश्याम उपाध्याय की प्रतिक्रिया पढ़ें.
चिंतन-दिशा में आपने विजय बहादुर सिंह तथा विजय कुमार के बीच हुए निजी पत्राचार को प्रकाशित कर एक अच्छी पहल की थी। उम्मीद यह थी कि दोनों के बीच हुआ यह पत्र-व्यवहार हिंदी की समकालीन कविता पर एक सार्थक बहस को जन्म देगा और कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर केंद्रित होकर यह बहस आगे बढ़ेगी, पर अक्टूबर-दिसंबर 2011 के अंक में वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी के पत्र ने सब गुड़ गोबर कर दिया। अपने पत्र में विजेंद्र जी अनावश्यक रूप से आक्रामक, बौखलाए हुए से तथा उपदेशक की मुद्रा में लगते हैं। इतना ही नहीं, कवियों को लेकर वे जिस तरह की गुटबाजी करने में लगे हुए हैं, वह उनकी संकीर्ण दृष्टि का परिचायक तो है ही, आज की कविता पर हो रही एक महत्वपूर्ण बहस को दिग्भ्रमित करने का प्रयास भी है समकालीन कविता के परिदृश्य में रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह तथा कुंवर नारायण का अवदान महत्वपूर्ण माना गया है। हिंदी जगत में ये नाम समादृत रहे हैं। बिना मार्क्सवाद का ढोल पीटे भी ये कवि दूसरे किसी कवि से कम लोकतांत्रिक तथा प्रगतिशील नहीं हैं। विजेंद्र जी यदि इनके महत्व को नकारते हैं तो, इनका तो कुछ भी नहीं बिगड़ता, पर विजेंद्रजी की निजी कुंठाएं ही ज़ाहिर होती हैं। विजेंद्र जी के भीतर की फांस तब और ज़ाहिर हो जाती है जब वे अपने साथ के कवियों राजकमल चौधरी, धूमिल, जगूड़ी, विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, ॠतुराज, विष्णु खरे तथा भगवत रावत जैसे महत्वपूर्ण कवियों को तो छोड़ देते हैं, पर कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह या शलभ श्री रामसिंह जैसे कवियों को याद करने लगते हैं। उनकी यह कोशिश लगभग अप्रासंगिक हो चुके कवियों को प्रासंगिक नहीं बना देती। इसके लिए जो आवश्यक औजार चाहिए, वे भी नहीं हैं उनके पास। इसके अलावा आज जो कविता लिखी जा रही है, उसमें कुछ नाम तो ऐसे हैं जिनके बिना समकालीन कविता की कोई भी चर्चा अधूरी है। जैसे राजेश जोशी, अरुण कमल, मंगलेश डबराल या नरेश सक्सेना की कविताओं को व्यापक स्तर पर सराहना मिली है। इन्होंने अस्सी के दशक के बाद की धारा को बदला है, लेकिन विजेंद्रजी जानबूझकर इन नामों की तरफ से आंखें फेर लेते हैं। हद तो तब हो जाती है जब वे अपने ही द्वारा संपादित पत्रिका 'कृति ओर' में अपने कुछ 'टहलुआ' किस्म के आलोचकों से निरंतर अपना ही प्रशस्तिगान करवाते रहते हैं। इसमें उन्हें न तो कोई संकोच होता है और न कोई ग्लानि होती है। यानी एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा, लेकिन ऐसी तमाम कोशिशें भी उन्हें आज की कविता के लिए प्रासंगिक नहीं बना पातीं। समय निर्मम होता है। वह ऐसी सारी आत्ममुग्धताओं तथा उठापटक को ठिकाने लगाकर आगे बढ़ जाता है। रचनाशीलता की बहती धारा में आप कहीं पीछे छूट जाते हैं।
बहरहाल विजेंद्रजी की सोच और उनकी रचनात्मकता को लेकर आपत्तियां कहीं इससे भी अधिक गंभीर हैं और वे ज्यादा बड़े मुद्दों को उठाती हैं। समकालीन कविता में विजेंद्र जैसे लोग जिस तरह की बहसें चलाते हैं, उनके अंतर्विरोधों पर बात करना भी ज़रूरी है। इसीलिए यह पत्र लिखने के लिए विवश भी हुआ हूं। बड़ा मुद्दा यह है कि विजेंद्र जी आधुनिकता का अर्थ औपनिवेशिक चेतना से जोड़कर किसी अमूर्त 'भारतीयता' की खोह में घुस जाना चाहते हैं। कोई भी विचारवान व्यक्ति यह जानता है कि भारतीयता की कोई सरल और एकपक्षीय अवधारणा नहीं बनाई जा सकती। भारतीयता में अनेक देश, काल तथा संस्कृतियां एक साथ उपस्थित हैं। पिछले हजार वर्षों में भारतीयता का रूप विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, संस्कृतियों, परपंराओं जीवन-शैलियों तथा चेतनाओं के आपसी समागम से बना है। यह निरंतर बनता और बदलता रहा है। भारतीयता की किसी एकल या अमूर्त अवधारणा को बनाना कठमुल्ले किस्म की सांप्रदायिक शक्तियों और सांस्कृतिक पुन्तरूत्थानवाद की तरफ चले जाना है। भारतीयता और लोकजीवन या 'लोक संस्कृति' की भी कोई काल निरपेक्ष, इतिहास-निरपेक्ष या स्वायत्त अवधारणा नहीं बनाई जा सकती। आज निरंतरता और परिवर्तन की जटिल अंत: क्रियाओं को समझने की ज़रूरत है। इन्हीं के द्वारा हम अपनी समकालीनता को परिभाषित कर सकते हैं। एक 'भारत' के भीतर कई भारत हैं। एक 'लोक' के भीतर कई तरह के 'लोक' हैं। एक 'समय' के भीतर कई तरह के समय हैं। लोक की जीवन स्थितियां हमारे समूचे इतिहास में परिवर्तनशील रही हैं, लेकिन आज भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण के दबावों में इस 'लोकजीवन' को समझना ज्यादा कठिन और चुनौतीपूर्ण हो गया है। नए सूचना समाज, टेक्नोलॉजी, औद्योगिक उत्पादन, बाज़ार की ताकतों तथा पूंजी के आबाध प्रसार ने हमारे चारों तरफ परिवर्तनों की गति को बहुत अधिक तेज़ कर दिया है और ये परिवर्तन बहुआयामी हैं। इन परिवर्तनों तथा मनुष्य जीवन पर उनके प्रभावों-परिणामों को जो कि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की ही परिणति है, किसी एक जगह पर केंद्रित करना तक कठिन हो गया है। जीवन का कोई क्षेत्र आज ऐसा नहीं है जो इन परिवर्तनों से अछूता रह गया हो।
विजेंद्रजी जैसे लोगों के लोकजीवन की अवधारणा बहुत यांत्रिक तथा जड़ाऊ किस्म की है, जबकि डॉ. रामविलास शर्मा, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रेणु, हरिशंकर परसाई या श्रीलाल शुक्ल जैसे रचनाकारों ने लगातार लोकजीवन, समाज, राजनीति, परंपरा, मूल्य दृष्टि, सामूहिक अवचेतन, रहन-सहन, परिवेश तथा पर्यावरण की अवधारणाओं पर पड़ रहे दबावों को व्याख्यायित करते हुए 'भारतीयता' की खोज की है। लोकजीवन का जो लालित्य नागार्जुन की कविताओं में है या श्रम का जैसा सौंदर्य केदारनाथ अग्रवाल रचते हैं, क्या वैसा कुछ भी विजेंद्र जी के पास है? उन रचनाकारों के यहां लोकजीवन स्वायत्त, अमूर्त, अवैज्ञानिक, समाज निरपेक्ष तथा इतिहास विहीन नहीं है, लेकिन विजेंद्रजी लोकजीवन और लोक संस्कृति की अमूर्त बातें ही करते रहते हैं। वे 'लोक-लोक-लोक-लोक' इस तरह से करते रहते हैं जैसे साहित्य में कबड्डी खेल रहे हों और दूसरे पाले में घुसकर उन्हें चित कर देना चाहते हों। सवाल तो यह है कि पहले का कवि जब कहता था कि 'अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है क्यों न इसे सबका मन चाहे' तो क्या वही स्थिति आज भी है? विजेंद्रजी जिस 'चैत की लाल टहनी', 'उठे गूमड़ नीले' तथा 'कठफोड़वा पक्षी' को अपनी कविता में लाते हैं, क्या वह इतिहास निरपेक्ष हो सकता है? यह उनका कैसा 'लोक' है जिसमें अपने समय की स्थितियों का कोई दबाव ही नहीं है। उत्तर प्रदेश के ग्रामांचल से मेरा गहरा संबंध रहा है। गांवों के जीवन की परंपरागत लय, सादगी, सरलता, निष्कपटता, आत्मनिर्भरता, उच्च जीवन मूल्यों से जुड़ाव भाई चारे, स्नेह, आपसी सौहार्द तथा सामूहिक सह अस्तित्व की स्थितियों पर मंडराते संकट को मैं देख रहा हूं। मूल्य विहीन राजनीति, स्वार्थ, तिकड़मबाजी, क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं, स्पर्धा, जातिवाद तथा संगठित अपराध ने ग्रामीण समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। क्या यह हमारे समय का बड़ा संक्रमण नहीं है? विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नज़र भारत के ग्रामीण बाज़ार पर है। विजेंद्रजी बताएं कि वह परंपरागत लोकजीवन अब कहां रह गया है? गांवों में रोजगार नहीं है। भूमंडलीकरण के इस दौर में ग्रामीण विकास पर खर्च होने वाली राशि में भारी कटौती और विकास की बदलती परिभाषाओं ने किस कदर उथल-पुथल मचा रखी है। गाय-बैल, खेती के काम आने वाले उपकरणों, कारीगरों, परंपरागत काम-धंधों तथा आत्मनिर्भरता के तमाम स्रोतों का कितनी तेज़ी से क्षरण हो रहा है। कुएं, ताल-तलैया , पोखर, नदियों, अमराई चौपाल से जुड़े वे संस्कार अब बीते जमाने की बातें हो रही हैं। कृषि का वह आत्मनिर्भर ढांचा बदल रहा है। वहीं कारपोरेट कंपनियों की घुसपैठ, उर्वरक, कीटनाशक दवाओं, सिंचाई की आधुनिक मशीनों, निर्माण सामग्री, टेलीविजन, मोबाइल, बैंकों की निवेश योजनाओं के बड़े-बडे़ पोस्टर, शीतल पेय, टूथपेस्ट, चाय-काफ़ी, मोटर साइकिलों के विज्ञापन तो आज गांवों में देख ही रहे हैं। अब शीघ्र ही बीयरबारों हेयर ड्रेसिंग सैलूनों, ब्यूटी पार्लरों तथा साइबर कैफे की मौजूदगी भी संभव है। बाज़ार खोलने के बाद कृषि तंत्र को खोलने की तैयारी भी हो रही है!
इस दृश्य के साथ यह कौन सा समय गांवों में आ रहा है? क्या इसकी व्याख्या लोकजीवन की कविता लिखने वाले ये लोग करेंगे? गांव में अब कितना गांव बचा है? अब तो आपसी विवाद चौपाल पर नहीं, पुलिस थानों तथा कचहरियों में निपटाए जाते हैं। जिला अदालतों में चले जाइए, गांवों के लोग वकीलों के पास बैठे मिलेंगे। छोटे-छोटे विवाद, मारपीट के मुकदमों से लेकर धोखाधड़ी, खून-खराबे तथा कत्ल के किस्से जैसे अब रोजमर्रा की बातें हैं। ग्राम केंद्रित विकास विकेंद्रीकरण, आत्मनिर्भरता तथा आमजन की सहभागिता वाला वह सपना कहां तिरोहित हो गया है? बडे़-बडे़ पूंजीपति, कारपोरेट घराने साम्राज्यवाद के दलाल हमारे लोक जीवन तथा लोक संस्कृति के सौदागर बन गए हैं। भू-माफियाओं का उदय, लाखों किसानों की आत्महत्याएं, विशेष आर्थिक क्षेत्रों तथा राजमार्गों के निर्माण, छोटे-छोटे किसानों की ज़मीनों का छीना जाना, जंगलों तथा पहाड़ों से आदिवासियों का खदेडा़ जाना, चारागाहों पर पूंजी का कब्जा और पर्यावरण का विनाश, क्या इस नई औपनिवेशिक दासता को हमारी लोकसंस्कृति की ये तथाकथित अलम्वरदार अपनी कविता में कुछ भी महसूस कर पा रहे हैं। कहां है भारत का यह बदलता गांव और उसका लोकजीवन इनकी कविता में? 'भारतीयता' और 'लोक संस्कृति' का राग अलापने वाले इन बौद्धिकों के कविता-विमर्श में विस्थापन का वह दर्द क्यों नहीं उभरता जो आज भारत का आम किसान और आदिवासी भोग रहा है।
आज की कविता में शहरी जीवन के यथार्थ को पश्चिमी औपनिवेशिक मानसिकता कह देने से पहले यदि विजेंद्रजी गांवों से विस्थापित हो रहे किसानों को रेल के डिब्बे में खचाखच भरे आदिवासियों, पलायन कर रहे खेतिहर मजदूरों को बडे़-बडे़ शहरों के सीमांत पर फैलती झुग्गी झोपड़ियों को, गंदी बस्तियों के जीवन को एक बार देख लेते तो उन्हें समझ में आ जाता कि आज के भारतीय ग्राम जीवन का वास्तविक यथार्थ क्या है? मैं उन्हें मुंबई में असल्फा, धारावी, गोवंडी तथा कुरार गांव की धूल सनी बस्तियों में घूमने के लिए आमंत्रित करता हूं। वे लोकसंस्कृति के अपने शीश महल से बाहर निकलकर समकालीन समय को देखें तो उन्हें समझ में आ जाएगा कि किसानों, खेतिहर मजदूरों और आदिवासियों के जीवन में किस तरह का रूपांतरण हुआ है और हो रहा है। हो सकता है कि उन्हें यह बदलता हुआ यथार्थ कुछ समझ में आने लगे और वे एक बेहतर कविता की ओर अग्रसर हों। वे इस ओर ज़रूर देखें कि वास्तव में श्रमजीवी जनता के जीवन में रोजमर्रा की आपाधापी के बीच कितने सूर, तुलसी और मीरा बन पा रहे हैं और उनकी झुग्गी-झोपड़ियों में शाहरुख खान, सलमान खान, करीना कपूर, बिपाशा बसु तथा कैटरीना कैफ आकर बस गए हैं। बड़ी-बड़ी किताबी बातें करने से कुछ नहीं होता। वे देखें कि गांवों में किस तरह अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ आई हुई है। वे इस बदलते यथार्थ को देखें और आज के लोकजीवन को समझने की कोशिश करें। शाश्वत किस्म का लोकजीवन तो कालीदास की कविता में भी आ चुका है और उनसे ज्यादा प्रकृति-चित्रण करना किसके बूते का है! अपने पूर्वग्रहों तथा यांत्रिक समझ से थोड़ा बाहर निकलने पर इस संक्रमणशील समय को अधिक समझा जा सकता है और अपने लिए एक नई ऊर्जा भी प्राप्त की जा सकती है।
अच्छी बात तो यह है कि हिंदी की समकालीन कविता में आज इस बात की अभिव्यक्ति अनेक प्रकार से हो रही है कि केंद्रीकृत विकास पूंजीवाद का सबसे बड़ा रोग है। विजेंद्रजी जैसे हमारे कुछ अग्रज कवियों को भले ही गांव की समकालीन स्थितियों तथा बनवासियों की समस्याओं का कोई अंदाजा न हो, पर हिंदी कविता इस संक्रमणशील वर्तमान की अनेक प्रकार से व्याख्या कर रही है। नंदीग्राम, सिंगुर से लेकर भट्टा पारसौल तथा नियमगिरी की पहाड़ियों तक लड़ते हुए किसान और आदिवासियों के साथ जो नया यथार्थ उभर रहा है, वह बहुत सारे युवा कवियों के यहां अभिव्यक्ति पा रहा है। खाप पंचायत, लड़कियों की भ्रूण हत्या, भूमि अधिग्रहण, ग्रामीण बेरोजगारी, बड़ी-बड़ी बांध योजनाओं के कारण विस्थापित होते किसानों और डूब क्षेत्र में आने वाले गांवों पर इधर अनेक कविताएं आई हैं। यही हमारी वास्तविक समकालीनता है। डॉ. रामविलास शर्मा की आड़ में अपनी कविता की कमजोरियों को छिपाने की कोशिश करने वाले कुछ लोग काश रामविलाजी के कविता संबंधी कथन की गहराई को समझ पाते। 'वसुधा' के ताजे अंक में स्व. रामविलास से हुई सुधीर रंजन सिंह की बातचीत पढ़ें। रामविलास जी स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि 'राजनीतिक कविता केवल विचारों की कविता नहीं होती, विचारों के साथ जब तक भावशक्ति नहीं होगी तब तक राजनीतिक कविता प्रभावशाली नहीं होगी। भावशक्ति के बिना विचार शक्ति अधूरी है। विचार में जान होनी चाहिए। ताकत होनी चाहिए- उधार लिए विचार से काम नहीं चलेगा।
इसी तरह मुक्तिबोध ने भी बहुत पहले साहित्य में 'जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि' के खतरे का सवाल उठाया था। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया था कि मार्क्सवाद की किताबों की बातें करने से वर्ग चरित्र नहीं बदल जाता। आपको 'संवेदनात्मक ज्ञान' और ज्ञानात्मक 'संवेदन' की लड़ाई लड़नी होगी। एक बहुत बड़ी लड़ाई अपने भीतर के बने दिमाग़ और उसके यथास्थितिवाद में है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए रघुवीर सहाय ने कहा था-
टूट रे मेरे मन टूट
एक बार टूट
अच्छी तरह से टूट
यह जो रचनाकार का आत्म संघर्ष है, अपनी ही गढ़ी हुई मूरत को तोड़ने का साहस- वह एक दिन की चीज़ नहीं, वह तो रोज-रोज की लड़ाई है। रघुवीर सहाय ने ही कहा था-' पावों में यह कील जो रोज-रोज गड़ती है रोज इस दर्द को समझना पड़ता है।' तीस पैंतीस वर्षों में और भी कितना कुछ बदल गया है।
कविता में 21वीं सदी की लड़ाइयां और भी जटिल हैं। आज लोक संस्कृति बनाम नगर संस्कृति या मुख्य धारा बनाम आंचलिकता की सारी बहसें कृत्रिम और बेमानी हो चुकी हैं। गांव हो या शहर आम आदमी हर जगह परेशान है और अपनी जड़ों से बेदखल हो रहा है। उसका यह विस्थापन जितना भौतिक है, उतना ही आत्मिक भी है। विकास के तमाम रोज़ रोज़ गढे़ जाते मिथकों तथा वस्तुओं के उपभोग के भीतर छिपी अन्याय, हिंसा शोषण, बदहाली तथा उन्मूलन की नंगी सच्चाइयों को समझना ज़रूरी है। ठीक है कि मनुष्य जब तक ज़िंदा है, स्वप्न देखेगा और संघर्ष भी करेगा, पर उसका यह स्वप्न देखना और उसकी यह जिजीविषा बहुत कठिन किस्म की चीज़ है। उसे बहुत सरलीकृत रूप में कविता में रुपायित करना खेल नहीं है, जैसा कि हमारे ऐसे कुछ कवियों ने समझ रखा है। मनुष्य की जिजीविषा उसके संकटों के बीच से ही परिभाषित होगी। आप संकटों की चर्चा ही नहीं करेंगे तो जिजीविषा को कैसे रचेंगे? यह असल में तो कुछ ऐसा होना चाहिए जो जितना हृदय विदारक हो, उतना ही आस्था जगाने वाले भी हो। इस द्वंद्वात्मकता को हासिल किए बिना कोई भी असाधारण रचना संभव नहीं है। खोखले आशावाद तथा लोक संस्कृति की ठहरी हुई अवधारणा और सतही ऐश्वर्य गायन से कुछ नहीं होता। इस तरह तो लोक संस्कृति को भी पंच सितारा होटल या शॉपिंग माल में बिकने वाली एक वस्तु में बदल दिया जाता है। आज की कविता का सामना सत्ता की उस संस्कृति से है जहां व्यवस्था हर विपत्ति को एक सामान्य स्थिति बना देती है। सारी नृशंशता रोजमर्रा के एक अनुभव में बदल जाती हैं। उनके एक तरफ फासिस्ट राजनीति है और दूसरी तरफ कवि का एक मध्यमवर्गीय सुविधापरस्त, सुखी, प्रसन्न संसार है। धूमिल ने कभी क्या इसी पूंजीवादी मानसिकता की ओर तो इशारा नहीं किया था-
यद्यपि यह सही है कि मैं
कोई ठंडा आदमी नहीं हूं
मुझमें भी आग... है
मगर वह
भभककर बाहर नहीं आती
क्योंकि उसके चारों तरफ
चक्कर काटता हुआ
एक पूंजीवादी दिमाग़ है
जो परिवर्तन तो चाहता है
मगर आहिस्सा आहिस्ता
कुछ इस तरह कि चीज़ों की
शालीनता बनी रहे
कुछ इस तरह कि कांख भी दबी रहे
और विरोध में उठे हुए हाथ की
मुट्ठी भी तनी रहे
और यही वजह कि बात
फैसले के हद तक
आते-आते रुक जाती है
क्योकि हर बार
चंद टुच्ची सुविधाओं की
लालच के सामने
अभियोग की भाषा चुक जाती है।
अंत में मैं विजेंद्र जी से सिर्फ़ इतना ही निवेदन करना चाहता हूं कि बंधुवर, हम कविता के चाहे जितने खांचे बना लें, पर हमारा पाठक उसकी चिंता नहीं करता। वह तो कविता में सिर्फ़ एक सिर्फ़ एक गहरा मर्मस्पर्शी अनुभव ढूंढता है। यदि यह अनुभव उसे मिलता है तो वह आपको स्वीकार करता है और यदि आप मर्मस्पर्शी कविता नहीं रच पाते हैं तो चाहे जितनी बड़ी-बड़ी बातें कर लें, चाहे जितने सिद्धांतों तथा विचारधाराओं का घटाटोप खड़ा कर लें, वह सब बेकार है। अनुभूति और 'संवेदनात्मक ज्ञान य ज्ञानात्मक संवेदन' के बिना ये सारे 'स्कूल' दुकानदारी में बदल जाते हैं। आप 'लोक संस्कृति' की भी दुकानदारी कर सकते हैं और नागर संस्कृति की भी, लेकिन इसके परे मनुष्य का जीवन बहुत विराट है। उसमें हर तरह के रंग की ज़रूरत है। हमें जितनी नागार्जुन की ज़रूरत है, उतनी ही शमशेर की भी। जितनी अज्ञेय की ज़रूरत है, उतनी ही मुक्तिबोध की भी। हर अच्छी कविता चाहे जिस ज़मीन से उठी हो, पाठकों द्वारा सराही ही जाएगी।
रघुवीर सहाय बनाम नागार्जुन या केदारनाथ सिंह बनाम पारसनाथ सिंह जैसी तमाम बहसें नकली बहसें है। ये आलोचकों की ख़ास तरह के धंधे हैं। और साहित्य के सट्टा बाज़ार में उनका कोई भरोसा नहीं होता। हमारा आलोचक कल तक मुक्तिबोध को बड़ा कवि बता रहा था आज अचानक अज्ञेय जन्मसदी में अज्ञेय को बड़ा कवि बता रहा है यह बौद्धिक कलाबाजी नहीं तो और क्या है। कविता अच्छी है तो चिंता नहीं कि वह गांव के पोखर पर है या शहर के ट्रैफिक सिग्नल पर। अच्छी नहीं तो तमाम विषयवस्तु और सारी कवियों से यह वसुंधरा पटी रहती है।
राधेश्याम उपाध्याय
मो.: 09969382160
is patrlekh ko padane ke bad yahi kaha ja sakata hai ki yah vijendra ji ke sahitya ko pade-samajhe bina khunnas main likha gaya hai. yadi lekhak unaka sahitya padakar likhata to achha likh sakata tha. isamain vijendra ji ki awadharnaon ko galat dhang se prastut kiya gaya hai. lekhak vijendra ji dwara di gayi lok ki awadharana ko hi nahi janata hai. is aalekh ki ek-ek pankti ke uttara main bahut sara likha ja sakata hai.
ReplyDeleteआज लोकजीवन बुरी तरह से क्षतिग्रस्त है.हमारे इन स्वनामधन्य कवियों को मार्क्स और लेनिन के विचारों के तोतारटंत से बाहर निकल कर इस भीषण यथार्थ को आँख खोलकर को देखना होगा. तभी उनकी कविता को पाठक मिलेंगे. कविता में लोक जीवन का पाखण्ड बहुत रचा जाता है.पर कोई बात ऐसी होती ही नहीं जो आम पाठक के मन को छू सके. बहुत सटीक विश्लेष्ण .
ReplyDeleteटिप्पणीकार ने विजेन्द्र को कायदे से पढ़ा हो ऐसा नहीं लगता । विजेन्द्र ने कभी रघुवीर सहाय या केदारनाथ सिंह को खारिज नहीं किया बल्कि उनकी महानता को प्रश्नांकित भर किया है । "श्रेष्ठ" कवि और "महान" कवि में फ़र्क किया जाना चाहिए । रही "लोक" की अवधारणा की बात , तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ गांवों तक सीमित है , मेरी जानकारी में , ऐसा कोई दावा विजेन्द्र ने नहीं किया है। लोक की व्याप्ति गांव से लेकर नगर तक है , और सर्वव्यापी है । लोक , व्यापक अर्थ में वह है जो एलिट वर्ग से पृथक अस्तित्व रखता है । खैर , हिन्दी में इस तरह की अखाड़ेबाजी कोई नई बात नहीं ..
ReplyDeleteकेदारनाथसिंह या रघुवीर सहाय की 'महानता ' पर सवाल उठाने वाले विजेंद्र की अपनी स्वयं की कविता की गुणवत्ता क्या है ?कविता में थोथी सैद्धान्तिकता और स्थूल जानकारियों सिवाय वहां कुछ भी तो नहीं .रसज्ञता से तो वे कोसों दूर हैं .समकालीन कविता में लोक जीवन की विकलता और जन जीवन की मर्मस्पर्शी झांकियां देखनी हो ऋतुराज , लीलाधर जगूड़ी ,सोमदत्त , भगवत रावत ,दिनेश कुमार शुक्ल , अष्ट भुजा शुक्ल या निर्मला पुतुल की कवितायें पढी जानी चाहिए. इन कवियों को वास्तव में एक बड़े पाठक वर्ग की प्रशंसा मिली है .
ReplyDeleteकेदारनाथसिंह या रघुवीर सहाय की 'महानता ' पर सवाल उठाने वाले विजेंद्र की अपनी स्वयं की कविता की गुणवत्ता क्या है ?कविता में थोथी सैद्धान्तिकता और स्थूल जानकारियों सिवाय वहां कुछ भी तो नहीं .रसज्ञता से तो वे कोसों दूर हैं .समकालीन कविता में लोक जीवन की विकलता और जन जीवन की मर्मस्पर्शी झांकियां देखनी हो ऋतुराज , लीलाधर जगूड़ी ,सोमदत्त , भगवत रावत ,दिनेश कुमार शुक्ल , अष्ट भुजा शुक्ल या निर्मला पुतुल की कवितायें पढी जानी चाहिए. इन कवियों को वास्तव में एक बड़े पाठक वर्ग की प्रशंसा मिली है .
ReplyDeleteयह तो वही बात हुई हो रहा था निर्गुण गाने लगे अलाहा क्या बात हो रही थी मूल बात परम्परा और आधुनिकता के बीच एक द्वंदात्मक संबंधो के बीच थी परम्परा का मतलब रडियो पर लौटना नहीं न ही आधुनिकता का मतलब परम्परा का अंधा नकार है अबी राधेश्याम जी क्या समझा रहे है लोक के भीतर लोक भारत मैं एक और भारत इसे कौन नहीं जानता एक बौखलाहट जो सुरु होती है तो वह अंत तक कायम रहती है क्या अपने पसंद के कवी को चुनने का अधिकार वह अपने पास ही तक रखना चाहते है यहाँ विजेंद्र जी की कविताओ और औधार्नाओ पर नहीं उनके ऊपर व्यक्तिगत प्रहार है और अगर किसी को चैट की लाल टहनी पर आपत्ति है और उसे लोक का नकारात्मक पक्ष ही दीखता है तो वह उसके बैभव को नकारेगा ही वर्गीय टकराहटो से आँख मून्देगा ही मैं भी एक ठाट गोऊ से आता हो जो गौऊ से पलायन करते है कम्मा कर गोऊ ही लौटते है और रही बात पसंद के कबी पर लिखने वाले आलोचक टहलुआ है तो फिर बात दूर तक जायेगी
ReplyDeleteयह तो वही बात हुई हो रहा था निर्गुण गाने लगे अलाहा क्या बात हो रही थी मूल बात परम्परा और आधुनिकता के बीच एक द्वंदात्मक संबंधो के बीच थी परम्परा का मतलब रडियो पर लौटना नहीं न ही आधुनिकता का मतलब परम्परा का अंधा नकार है अबी राधेश्याम जी क्या समझा रहे है लोक के भीतर लोक भारत मैं एक और भारत इसे कौन नहीं जानता एक बौखलाहट जो सुरु होती है तो वह अंत तक कायम रहती है क्या अपने पसंद के कवी को चुनने का अधिकार वह अपने पास ही तक रखना चाहते है यहाँ विजेंद्र जी की कविताओ और औधार्नाओ पर नहीं उनके ऊपर व्यक्तिगत प्रहार है और अगर किसी को चैट की लाल टहनी पर आपत्ति है और उसे लोक का नकारात्मक पक्ष ही दीखता है तो वह उसके बैभव को नकारेगा ही वर्गीय टकराहटो से आँख मून्देगा ही मैं भी एक ठाट गोऊ से आता हो जो गौऊ से पलायन करते है कम्मा कर गोऊ ही लौटते है और रही बात पसंद के कबी पर लिखने वाले आलोचक टहलुआ है तो फिर बात दूर तक जायेगी
ReplyDeleteअच्छा *उत्तेजक* पत्र है. कई मुद्दों पर असहमत होते हुए भी बहुत बोल्ड और विचारणीय. लेकिन लगता है , विजेन्द्र जी के पत्र पर केन्द्रित प्रतिक्रिया भर है . इसी लिए मूल विषय की व्यापकता फर फोकस नही हो पाया है.
ReplyDeleteइस के अतिरिक्त हमे ध्यान रखना होगा कि यह बहस लोक और गैर लोक , मार्क्स और गैर मार्क्स , कला और गैर कला .... विजेन्द्र और गैर विजेन्द्र पर बहस न बन कर रह जाय . और हम चटपटी व्यक्तिगत टिप्पणियों से बचते हुए समकालीन कविता पर सचेत विमर्श खड़ा रखें . कोई भी कवि (या उस की कविता भी )शाश्वत रूप से महान ( या उस आशय मे श्रेष्ठ भी ) नहीं हो सकता . क्यों कि हमारा समय , समाज और हमारी दुनिया लगातार बदल रही है ....... हाँ लेकिन हमें कविता की प्रासंगिकता पर ध्यान केन्द्रित करना ही पड़ेगा . मुझे खुशी है आलेख ( पत्र प्रतिक्रिया) मे न सही , टिप्पणियो मे लगातार लिटेरल अर्थों में समकालीन कवियों के नाम आ ही जा रहे हैं और उम्मीद है कि आगे इन की महत्वपूर्ण कविताओं का ज़िक़्र भी आएगा , जिन का रेखाँकित होना ज़रूरी है . और पाठकों के लिए ज़्यादा लाभदायक यह रहेगा कि हम अपने मनपसन्द कवियों की आलोचना से आहत होने की बजाय उदाहरणों से , दलीलों से उन का पक्ष रखें .
अनूप जी आप एक महत्व पूर्ण काम कर रहे हैं . यह ब्लॉग पोस्ट सीरीज़ चिंतन दिशा के काम को और भी व्यापकता और गहराई प्रदान करेगी, ऐसी उम्मीद है. क्यों कि पत्रिकाओं मे त्वरित टिप्पणियाँ नहीं प्रकाशित हो पातीं . बहुधा हम समय गुज़रने के बाद अजीब से कारणों से अपनी प्रतिक्रिया सामने नही लाते . त्वरित प्रतिक्रियाएं चाहे बहुत हल्के मूड मे दी गई होतीं हैं लेकिन उस मे बहुत से ऐसे मौलिक *स्पार्क्स* होते हैं जो हम पत्र या आलेख लिखते हुए या तो *मिस* कर जाते हैं या संकोच वश जान बूझ कर नही लिखते !!
शेष पत्रों को भी अबिलम्ब पोस्ट करें . मुझे समकालीन कविता के ट्रेंड्ज़ को समझने के लिए ये चर्चाएं बहुत ज़रूरी लगती हैं . याद पड़ता है कि इस सिलसिले मे प्रदीप जिलवाने और अशोक कुमार पाण्डेय ने भी कुछ काम कर रखा है. चिंतन दिशा वाले उन से भी सम्पर्क कर सकते हैं . कि चर्चा रोचक ही नही , हम जैसों के लिए उपयोगी भी बने .
विजेंद्र जी के मूल आलेख को क्रितिऔर में पढ़ कर मैंने उनसे फोन पर बात की थी भीर अपनी लम्बी प्रतिक्रया भी लिखी थी .....विजेंद्र जी ने बड़े ही साहस के साथ अपने विचार रखे है , में उनसे पूर्ण रूप से सहमत नहीं हूँ लेकिन उनके विचारों का महत्तव मुझे पता है , इसी लिए इस पत्र की भासा से मुझे एतराज है ...पत्र लेखक को संयम बरतना चाहिए था
ReplyDeleteसमकालीन कविता पर किसी राधेश्याम उपाध्याय की प्रतिक्रिया पढ़ा बहुत लम्बा चौड़ा पत्र उपाध्याय जी ने लिखा है और उसकी मूल बात मुझे एक ही समझ में आती है की किसी भी तरीके से आदरणीय विजयेन्द्र जी के समग्र कविता संसार नकार दिया जाये विजेंद्र जी हिंदी कविता के उन थोड़े से महत्वपूर्ण लोगों में एक है जिनसे हिंदी कविता बची हुई है हिंदी कविता जीवन की कविता है,लोक की कविता है ,विचार की कविता है ,संवेदना की कविता है ,जनपद की कविता है ,गाव कसबे और नगर की कविता है जहाँ जीवन अपने विविध अनुभवों के साथ जीवन को साकार करता है विजेंद्र जी ने अपने सुदीर्ग काव्य संसार से हिंदी कविता के लोक संसार को समय के साथ सिर्फ परिस्कृत नहीं किया है बल्कि जीवित भी किया है कविता यदि आज के समय में लोगों के मन में जीवित है तो उनमे विजेंद्र जी का काव्य संसार महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है लोक और जीवन को समझे बिना आप कविता की बात कर ही नहीं सकते हमारे समग्र परंपरा में विचार की भूमिका अहम् है बिना सोचे समझे बोलने वाले लोगों को समाज ने हमेशा से ख़ारिज किया है यह पत्र उपह्ध्याय जी ने उसी ढंग से लिखा है जिसमे अज्ञानता के साथ एक कुंठा साफ़ झलकती है मुझे यह पत्र पड़ते हुए एक ही बात समझ में आती है की गाहे बगाहे विजेंद्र जी के साथ लोक के समग्र जीवन संसार को दरकिनार कर दिया जाए क्या इससे जन की कविता , लोक की कविता,जीवन की कविता ख़तम हो जाएगी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,नहीं बल्कि इस पत्र से मुझे लगता है विजेंद्र जी की कविता लोक की कविता लोक कविता अपने समग्रता के साथ समकालीन कविता में रेखांकित की जा रही है ....
ReplyDeletesharad chandra Gaur जी , आप की बात सही है कि पत्र की भाषा आक्रामक है .हम हिन्दी मे प्रतिष्ठित लेखको के साथ शोभनीय भाषा मे बात करने के आदी हैं . विजेन्द्र जी का प्रशंसक् होने के नाते मैं भी आहत हुआ . लेकिन उपाध्याय जी की बातें यूँ ही खारिज किए जाने लायक भी नहीं हैं . यह प्रतिक्रिया हमारे सामने कुछ प्रश्न तो खड़े करती ही है.
ReplyDeleteदूसरे मुझे याद पड-अता है कि विजेन्द्र जी ने इस कड़ी मे कोई मूल आलेख नही लिखा था . यह वस्तुतः पत्राचारों का एक सिलसिला था जो विजय बहादुर सिंह जी के एक पत्र और उस के उत्तर मे दिये गए विजय कुमार जी के अन्य पत्र से शुरा हुआ था . शेष सभी कड़ियाँ प्रायः इन पत्रों पर प्रतिक्रियाएं ही थीं .
मैं अजेय जी से पूरी तरह से सहमत हूँ .यह बहस विजेंद्र जी के प्रशंसकों या विजेंद्र से असहमति की बहस नहीं बन जानी चाहिए. बहस का मूल मुद्दा तो कुछ और है. राधेश्याम उपाध्याय जी भाषा में नि:संदेह एक आवेश है . पर यह भी सच है कि उन्होंने तर्क सहित विजेंद्र जी की कविता को खारिज करते हुए कुछ असुविधाजनक प्रश्न उठा दिए हैं . विजेंद्र जी भी तो रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह की कविता को खारिज ही करते रहे हैं .यह साहित्य की गतिशीलता है. साहित्य जगत में प्रत्येक को किसी से भी -चाहे वह कितना ही महिमा -मंडित क्यों न हो , असहमत होने और अपनी असहमति को साहस के साथ रखने की यह स्वतंत्रता मिलनी चाहिए. समकालीन कविता की बहस में आज के यथार्थ को लेकर कुछ मुद्दे उपाध्याय जी ने उठाये हैं , वे मुद्दे आज के समय में आधारभूत मुद्दे हैं . हमें उन पर बात करनी चाहिए .बाजारवाद ने एक नयी गुलामी का रास्ता तैयार कर दिया है. जिस लोक- जीवन और जन -संस्कृति को हम अपनी कविता में लाने की दुहाई देते रहते हैं उसकी वर्तमान दशा का बोध होना ज़रूरी है. भारत के सामान्य जन का यह जीवन आज किन सामाजिक - आर्थिक स्थितियों में घिरा हुआ है हम तो इसे ही तो आज की कविता में देखना चाहते हैं .आज एक नयी ' भारत - दुर्दशा ' लिखे जाने की आवश्यकता है . कविता में लोक जीवन की अमूर्त बातें करने वालों को यह समझना होगा कि लोक की कोई भी अवधारणा अपने समय से आँखें चुराकर नहीं हो सकती . जब हमारे पर्यावरण का इतनी तेजी से विनाश हो रहा है तो कौन से शाश्वत लोक जीवन की बात कर रहे हैं आप ?ऐसी भ्रामक अवधारणाओं ने हिन्दी कविता का बहुत अहित किया है. इसलिए यह अकारण नहीं है की हिन्दी कविता पर सारा सोच विश्वविद्यालयीन अकादमिक सोच बन कर रह गया है. परम्परा और आधुनिकता की भिडंत को नयी सामाजिक - आर्थिक स्थितियों में देखने -परखने का कौशल जुटाना आज के किसी भी युवा रचनाकार की सबसे बड़ी चुनौती है. इसलिए मुझे तो यह लगता है कि आज का युवा कवि अपने वरिष्ठ कवियों का आदर तो कर सकता है पर उनका अंध भक्त नहीं हो सकता. कविता पर यह यह बहस सार्थक बन सकती है जब हम मूल मुद्दों पर जमकर बात करें
ReplyDeleteजिस तरह से उपाध्याय जी ने अपनी प्रतिक्रिया दी है , उससे ऐसा लगता है , कि वे समकालीन कविता पर कम और विजेंद्र जी को ख़ारिज करने पर अधिक तुले हुए हैं | और इसलिए उनकी स्थापनाओ से सहमत हो पाना कठिन है |..विजेंद्र के रचना संसार पर किया जाने वाला यह पहला हमला नहीं है | ऐसे प्रयास पहले भी हो चुके हैं ...| और विजेंद्र जी ही क्यों , मुख्य धारा की आलोचना तो लोक की सम्पूर्ण अवधारणा को ही ख़ारिज करती है | फिर हम उसे इतना महत्व क्यों दें ...? उपाध्याय जी लोक में आये बदलाओं की बात तो करते हैं , और उसके समक्ष उपस्थित वर्तमान संकटो को भी गिनाते हैं , लेकिन वे विकल्पों को प्रस्तुत करते समय तर्क देने के बजाय विजेंद्र को ख़ारिज करने के अभियान में जुट जाते हैं | इससे कविता का क्या भला होगा , समझ में नहीं आता |
ReplyDeleteविजय सिंह जी, आपने बहुत सही लिखा है | विजेंद्र जी ने समकालीन कविता के उस पक्ष को पूरा किया है , जहां मध्यवर्गीय लोगों का जाना तो बहुत मुश्किल है ही, उसे समझ पाना उससे ज्यादा मुश्किल |गांवों से आने का दम भरने वाले भी सबसे पहले उस लोक से किनारा करते हैं , जो केवल अपनी मेहनत से अपनी जिन्दगी की गाडी को ढोते हैं और जिनके पास मेहनत करने के अलावा और कोई जरिया नहीं होता |यही विजेंद्र की कविता का लोक , जिसे सामान्यतया लोग " गाँव " समझ लेते हैं | राधेश्याम जी ने सारी बहस का गुड-गोबर करके रख दिया है | यह बहस ही नहीं है , जो राधेश्याम जी ने चला दी है | लगता है , वे विजेंद्र जी से कोई पुरानी खुन्नस निकलना चाहते हैं |
ReplyDeleteक्षमा करें , विजय सिंह जी की जगह रामजी तिवारी पढ़ें
ReplyDeleteअधिकाँश हिन्दी कविता आज मध्यम वर्गीय सुविधापरस्त जीवन भोगने वाले कवियों द्वारा ही लिखी जा रही है. वे अपने माथे पर चाहे जो 'लेबल 'चिपका लें. दलित या आदिवासी या भूमिहीन किसान जीवन से आने वाले हस्ताक्षर हमारे यहाँ लगभग हैं ही नहीं .इसलिए हिन्दी कविता में वास्तव में 'लोक' या 'ग्रासरूट 'का अनुभव कहीं भी नहीं है. .;अत: एक मध्यवर्गीय कवि द्वारा दूसरे के बारे में फतवे देना कि वह कुलीन कवि है और मैं जन वादी कवि हूँ और मुख्यधारा मेरी उपेक्षा कर रही है - ये सब बातें कोरी बकवास लगती हैं . क्षुद्र स्तर की खेमेबाजी , एक दूसरे पर दोषारोपण , चेले- चपाटों की कुछ कीर्तन -मंडलियाँ, आत्म मुग्धता और खोखली अहमवादिता से हमारा आज का साहित्यिक परिदृश्य पटा हुआ है. संभवत : यही कारण है कि कोई कवि या उसके पाले हुए चेले कवि की विशिष्टता के चाहे जो दावे करते रहें इस व्यापक हिन्दी भाषी समाज में उनके पाठक कहीं हैं ही नहीं. इस कड़वी सच्चाई को कहने के लिए क्षमा - प्रार्थी हूँ .
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