चिंतनदिशा में समकालीन कविता पर विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार की चिट्ठियां आप पढ़ चुके हैं. फिर अगले अंक में उन चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह की प्रतिक्रिया भी पढ़ चुके हैं. चिंतनदिशा के ताजा अंक में राधेश्याम उपाध्याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और मेरी प्रतिक्रियाएं छपी हैं. इन्हें बारी बारी से यहां रखने का इरादा है. इस क्रम में राधेश्याम उपाध्याय की प्रतिक्रिया आप पढ़ चुके. आइए अब पढ़ें महेश पुनेठा के विचार.
अभी तक 'चितंन दिशा' देखने का सुअवसर तो नहीं मिला लेकिन 'समकालीन कविता' को लेकर इसके अलग-अलग अंकों में छपे बहुचर्चित पत्रों को अनूप सेठी जी के ब्लाग में पढ़ा। चारों पत्र बहुत महत्वपूर्ण एवं विचारोत्तेजक हैं। अपनी-अपनी बातों को दमदार तरीके से रखते हैं। समकालीन कविता पर एक गंभीर बहस को आगे बढ़ाते हैं। विजय बहादुर सिंह जी के पत्र में जहाँ परम्परा के प्रति अधिक आग्रह दिखाई देता है तो विजय कुमार जी के पत्र में आधुनिकता के प्रति। विजेन्द्र जी और जीवन सिंह जी ने इन दोनों अतिवादों से बचते हुए परंपरा और आधुनिकता को द्वंद्वात्मक रूप से देखने की बात कही है। पहले दो पत्रों में कविता पर अधिक बात हुई है तो बाद के दो पत्रों में कविता के साथ-साथ कवि कर्म और कवि-दायित्व को भी बहस के केंद्र में लाया गया है, मुझे लगता है जो किसी भी काल की रचनाधर्मिता के सही मूल्यांकन के लिए ज़रूरी भी है। हिंदी में बहुत कम कवि-आलोचक हैं जो कवि-दायित्व पर इतना जोर देते हैं। इस तरह बाद के दो पत्रों में अधिक संतुलित, व्यावहारिक और व्यापक दृष्टिकोण अपनाया गया है। कविवर विजेंद्र जी ने बहुत सारे प्रश्न खडे़ कर बहस को नया आयाम प्रदान किया है। आशा है जिन पर आगे सुधी आलोचकगण अपना पक्ष प्रस्तुत करेंगे। ताकि समकालीन कविता की एक मुक्कमल तस्वीर सामने आ पाए।
विजेंद्र जी ने अपने पत्र में आलोचक द्वय की मान्यताओं पर अपनी सहमति-असहमति दर्ज करते हुए तीन बिंदुओं पर अपनी बात को विशेष रूप से केंद्रित किया है - कवि की पक्षधरता, परम्परा का ज्ञान और लोक से उसका जुड़ाव। ये तीनों बिंदु एक दूसरे से जुडे़ हुए हैं। कविता में पक्षधरता का सवाल बहुत ज़रूरी सवाल है। कला पर थोड़ा समझौता हो सकता है पर पक्षधरता पर नहीं। यह पहली शर्त है। ऐसी कविता का कोई मूल्य नहीं जो अतीतगामी, प्रतिगामी और यथास्थितिकामी हो। पक्षधरता का ही सवाल है जो कविता प्रयोजन से जुड़ा है। कविता वाग्विलास या मनोरंजन का साधन नहीं है बल्कि परिवर्तन का औजार है। अकल्याणकारी को नष्ट करना कविता का प्रयोजन है। आपकी कविता इस प्रयोजन को पूरा करती है या नहीं, यह आपके पक्ष को बताता है। बिना इस पक्षधरता के कवि कर्म की कोई महत्ता नहीं। यही कवि की प्रतिबद्धता है। विजेंद्र जी बिल्कुल सही कहते हैं कि प्रतिबद्धता एक रचनात्मक अनुशासन है। इनमें विकार या विकृतियाँ तभी आती हैं जब रचनाकार अपने आचरण से गिरता है। वास्तव में कविता का काम मात्र यथास्थिति का चित्रण या उद्घाटन करना नहीं बल्कि विकल्प प्रस्तुत करना भी है। विकल्प ही बताता है कि कवि किसके पक्ष में खड़ा है। इससे कवि और कविता का कद तय होता है। 'भक्त कवियों' की कविता 'रीत कवियों' की कविता से बड़ी अपने पक्ष को लेकर ही सिद्ध होती है। लोर्का, पाब्लो नेरूदा, वाल्ट हिटमन, ब्रेख्त, नाजिम हिकमत, सारोवीवा, कार्देनाल से लेकर निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, मुक्तिबोध, गोरख पांडे, पाश, फैज, गिर्दा, अदम गोंडवी तक की कविता अपनी पक्षधरता से ही महत्वपूर्ण है। इनका पक्ष शोषित-पीडि़त किंतु संघर्षशील जनता का पक्ष है। ये सभी कवि जीवन और कविता दोनों मोर्चों पर बराबर सक्रिय रहे। इन कवियों ने संघर्षशील लोक से एकात्म होकर उसके मुक्ति संग्राम को आगे बढ़ाया। सर्वहारा के उत्पीड़कों तथा दमनकारियों का विरोध किया। इनकी कविता 'आत्माभिव्यक्ति' के संकीर्ण दायरों को तोड़कर जनता से एकात्म होती है। इसीलिए बुर्जुआ मन इनकी संघर्षधर्मी कविता से डरता है। उसे इनकी कविता में अपने विनाश के बीज अंकुरित होते दिखाई देते हैं। इसके लिए जीवन में अच्छा मनुष्य होना ज़रूरी है। विजेंद्र जी की इस बात से मेरी पूरी सहमति है कि जीवन में गिरा हुआ मनुष्य एक बड़ा कवि या समीक्षक नहीं हो सकता है। एक बेहतर इंसान होना रचना कर्म की पूर्वशर्त है। हमारा पक्ष इसको निर्धारित करता है। यदि हम मनुष्यता के पक्ष में है तो यह हमारे बेहतर इसांन होने का प्रमाण है।
हमारी पक्षधरता को परम्परा का ज्ञान बल प्रदान करता है। परंपरा की जितनी अच्छी द्वंद्वात्मक समझ कवि को होगी वह उतनी अधिक मजबूती के साथ अपने पक्ष को लेकर खड़ा रह सकता है क्योंकि अपनी परंपरा और इतिहास का गहरा ज्ञान वर्तमान का सही विश्लेषण करने का विवेक प्रदान करता है। जैसा कि टेरी ईगल्टन ने भी कहा है, ''जो कला अपने दौर की महत्वपूर्ण गतिविधियों से अपने को काट लेती है और जिसने स्वयं को इतिहास से अलग कर लिया है वह अपना महत्व खो देती है।'' इतिहास और परम्परा ज्ञान से ही उन शक्तियों की सही-सही पहचान हो सकती है जो इतिहास और समाज को गति प्रदान करने वाले हैं। बदलाव के कारक हैं। मुक्ति-संग्राम को अग्रसर करने वाले हैं। साथ ही परंपरा का ज्ञान उसको नवीकृत कर विकसित करने में सहायक होता है। विजेन्द्र जी का यह कहना तर्कसंगत है कि परंपरा और इतिहास से हम यही तो सीखते हैं कि कठिन दौर में रहकर भी मनुष्य ने अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष किया है। वही इस दुनिया को रूपांतरित कर स्वयं भी बदला। वह आज भी जिंदा है। यह अहसास आगे लड़ने का साहस भी प्रदान करता है। जीवन सिंह जी का यह कहना मुझे उचित लगा कि परंपरा और नवीनता में हर युग में तनावपूर्ण सामंजस्य का रिश्ता होना चाहिए। जिस तरह परंपरा और रूढि़ के बीच अंतर करने की आवश्यकता है उसी तरह आधुनिकता और औपनिवेशिक आधुनिकता के बीच भी। न हर पुराना त्याज्य है और न हर नया ग्राह्य।
परंपरा के ज्ञान के लिए जहाँ एक ओर हमें विश्व क्लैसिक्स का अध्ययन करना ज़रूरी है वहीं दूसरी ओर लोक और उसके जीवन से जुड़ाव उससे भी अधिक ज़रूरी है। तभी उससे एकात्म होना संभव है। यहाँ लोक से मेरा आशय जैसा कि विजेन्द्र जी भी अपने पत्र में स्पष्ट करते हैं-लोक सर्वहारा के रूप में ऐसी वैश्विक शक्ति है जो दमन और शोषण के विरुद्ध खड़ी होती है। जीवन में धँस कर ही जीवन की गति को हम अधिक अच्छी तरह से पकड़ सकते हैं। एक कवि का जीवन से जीवंत संबंध होना बहुत ज़रूरी है। तभी वह जीवन को अधिक गहराई, प्रमाणिकता, मानवीयता और ऐतिहासिक संवेदना के साथ समझ और चित्रित कर सकता है। ऊपर हमने जिन कवियों का नामोल्लेख किया है उनकी कविता की ताजगी और श्रेष्ठता का एक कारण अपने जन-जनपद के समाज और प्रकृति से उनका सीधा, सक्रिय एवं गहरा संबंध रहा। इसीलिए विजेंद्र जी एक कवि के लिए लोक से जुड़ना अनिवार्य बताते हैं। उनकी दृढ़ एवं स्पष्ट मान्यता है कि लोक से जितनी दूर जाएंगे हम उतने ही असहाय, संशकित, डरे हुए, दिशाहीन महसूस करेंगे। आज के लोक से कटे मध्यवर्गीय कवियों में यह बात हमें दिखाई भी देती है। यही वजह है कि 'आज की अधिकांश कविताओं में श्रमिक, छोटे भूमिहीन किसान, बुनकर तथा कठिन श्रम में लगे लोगों के चित्र गायब हैं। उनकी तीखी अंतर्विरोधी स्थितियों के प्रसंग लगभग लुप्त हैं।'
ढुलमुल पक्षधरता, परंपरा-ज्ञान और लोक-संपृक्ति के अभाव के चलते आज की अधिकांश कविता में वाग्मिता और चमत्कार की प्रवृत्ति बढ़ी है और जीवन के चित्र गायब हुए हैं। बुनियादी जीवन-चिंताओं और क्रियाशील जीवनानुभवों की रिक्ति के चलते ही कविता अमूर्तन, काव्य-चमत्कृति, जादुई कौशल का शिकार होती है। जीवन सिंह जी के इस मत से मेरी बहुत अधिक सहमति बनती है। उनका यह मानना सही है कि- ''आधुनिकतावादी वितान के नीचे काम करने वाले कवियों ने कविता को समकानीन कला-समृद्धि प्रदान की है।'' जबकि ज़रूरत है जीवन समृद्धि प्रदान करने की। साहित्य-चिंता की अपेक्षा जीवन-चिंता को अधिक प्राथमिकता देने की। मनुष्यता विरोधी प्रवृत्तियों के खिलाफ खडे़ होने की। इसके लिए 'नागार्जुन और मुक्तिबोध जैसे कवियों की तरह समयबद्ध विचार की जटिल और सहज प्रक्रियाओं के साथ जीवनानुभवों का एक समावेशी कोश मौजूद होना ज़रूरी है।' उन्होंने 'शक्ति संरचना' का जो सवाल उठाया है वह भी विचारणीय है। शक्ति संरचना केवल राजनीतिक-सत्ता स्तरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर स्तर पर उसे देखा और महसूस किया जा सकता है। साहित्य-संगीत-कला-संस्कृति के क्षेत्र भी उससे अछूते नहीं है। यदि गौर से देखा जाय तो यह संसार छोटी-छोटी सत्ताओं का एक संजाल है जो मिलकर एक बड़ी सत्ता का निर्माण करता है। ये छोटी-छोटी सत्ताएं राजनीतिक-सत्ता को मजबूत करने का काम करती हैं। इनके बीच अन्यान्योश्रित संबंध है। इस शक्ति संरचना को एक समकालीन कवि के लिए समझना ज़रूरी है।
वास्तव में यह विडंबना है ''कि जिस कविता जगत के पास नागार्जुन और मुक्तिबोध सरीखे दो बडे़ प्रेरक प्रकाश पुंज मौजूद हैं। वह अपनी भविष्य गति के लिए रघुवीर सहाय सरीखे महत्वपूर्ण किंतु अनिर्णय के कवि को सिर चढ़ाए घूम रहा है।''(जीवन सिंह) यहाँ यह विचार करने की आवश्यकता है कि आख़िर ऐसा क्यों किया जाता है? इसके पीछे किसके और कौनसे हित छुपे रहते हैं? हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह एक सुनियोजित राजनीति के चलते होता है। इसको भी कहीं न कहीं शक्ति संरचना के परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है। इसके पीछे भी कहीं न कहीं जीवन-चिंता और पक्षधरता के सवाल मुख्य हैं।
मुझे लगता है आज की कविता पर कोई भी बात तब तक पूरी नहीं होगी जब तक उक्त बिंदुओं के आलोक में आज की कविता और कवि-कर्म को नहीं देखा जाता है। किसी भी दौर की कविता और कवि का सही-सही मूल्यांकन 'एक पंक्तीय आलोचकीय वक्तव्य' से नहीं किया जा सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खराब कविता के लिए खराब आलोचना भी बराबर की जिम्मेदार है। एक अच्छे आलोचक को अपने आलोचकीय दायित्व का बोध होना चाहिए। आलोचना किसी व्यक्तिगत आग्रह या पूर्वाग्रह के चलते नहीं होनी चाहिए। अभी इतना ही अधिक फिर कभी।
महेश पुनेठा
मो.: 09411707470
बहुत अच्छा लगा . पिछले समस्त पत्रों को अच्छे से पढ़ कर महेश पुनेठा ने यह कॉम्पेक्ट आकलन प्रस्तुत किया है,और विजेन्द्र जी और जीवन सिंह जी की दृष्टि को पाठक के सामने बेहतर ढंग से खोला है.
ReplyDeleteविजेन्द्र जी से मेरी सर्जक और सृजन की परस्पर ता पर अनुभवों और अभिव्यक्तियों के एस्थेटिक गैप की ज़रूरत पर; उन की आपसी तथा सृजनात्मक तटस्थता और लिप्तता पर लम्बी बहसें हुई हैं . और हम एक दूसरे को अपनी बात कभी नहीं समझा पाए. महेश भाई ने इस पत्र मे विजेन्द्र जी के उस नज़रिये को भी छुआ है. और चीज़ें स्पष्ट हुई हैं . मुझे बहुत मज़ा आया ."न समझे जाने का दुख" की एक ही काट होती है " समझ मे आने का सुख"
एक दम सही है कि *गिरा* हुआ आदमी अच्छा रचनाकार नही हो सकता . लेकिन मामला वहाँ टेढ़ा हो जाता है जब हमारे सामने *गिरने* की एक से अधिक परिभाषाएं आ खड़ी हो जाती हैं . काश की ज़िन्दगी थोड़ी सी ब्लेक एंड व्हाईट हो पाती ! बहर हाल महेश भाई का समीक्षक ही इस पत्र मे अधिक मुखर हुआ है . उन के कवि की आवाज़ किंचित पिछड़ गई है . फिर भी उम्मीद है कि यह चर्चा अभी लम्बी चलेगी .आज की हिन्दी कविता पर और अधिक फोकस्स्ड बातें होंगीं. विचारधारा , दृष्टि , और पक्षधरता बेहद वाईटल घटक हैं कविता के . लेकिन केवल ये तीन चीज़ें किसी भी कविता को मुकम्मल नही बना सकतीं . ये तीन चीज़ें तो हमे कविता से बाहर भी मिल जाती हैं . उन घटकों पर भी तनिक गौर कर लेना अनिवार्य है जो कविता को कविता बनाती हैं . अब इस पर चाहे आप लोग मुझे कलावादी ( जो कि मैं नहीं हूँ )ही घोषित कर लें , परवाह नहीं . महेश पुनेठा का विश्लेषण मुझे हमेशा ताक़त देता है . आभार !!
बहुत तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से अपनी बातें रखी हैं, महेश पुनेठा ने. मैं अपने आपको उनके साथ खड़ा पाता हूं. विजेन्द्रजी की बैटन को ढंग से समझा ही नहीं गया, यह कहने में मुझे कोई झिझक नहीं है.दर असल, वह सौन्दर्यशास्त्रीय समझ कम लोगों में है. मुझे खुशी है कि महेश जैसा नौजवान उस समझ से भरपूर संपन्न है. परंपरा-बोध भी उनके पास है. कवि और समीक्षक दोनों ही रूपों में वह आगे जाएंगे, यह साफ़ दिखता है. बधाई. यह संवाद पटरी पर से उतरता और फिर चढ़ता कहीं पहुंचे, यह कामना है.
ReplyDeleteजीवन में गहरे धंस कर ही जीवन की गति को समझा जा सकता है और जीवंत जीवन को समझना कवि कर्म में आता है न की किताबी ज्ञान को कविताओं में झाडना.. महेश जी को पढ़ना हमेशा सुखद होता है क्योंकि महेश जी इतनी सरलता से अपना पक्ष रखते हैं की कही कोई विवाद ही नही रहता..भला इन बातों से कौन सहमत नही होगा की
ReplyDeleteन हर पुराना त्याज्य है न हर नया ग्राह्य.. अतीत हमें संघर्ष की शक्ति देता है तो लोक हमें जीवन की समझ..एक बहुत अच्छा लेख.
चिंतन दिशा ने बेहद मूल्यवान बहस की शुरुआत की है . इस क्रम में श्री विजय कुमार , विजय बहादुर सिंह और विजेंद्र जी की सोच और तर्क -दृष्टि सामने आ चुकी है . निष्कर्ष , निर्णय कोई निरपेक्ष चीज नहीं है . वह अपने संस्कार , संरचना और व्यक्तित्व की ध्वनि है . इसी लिए तीनों विद्वान् किसी से पूरी तरह सहमत न हों , स्वाभाविक है . सहमत हो जाने से निष्कर्ष के शिखर तक पहुँचने वाला विकास भी बंद हो जाता है . कीमती मुद्दे को स्तरीय अंजाम तक ले जाने वाले चिन्तक के लिए जरुरी है , कि वह आत्मवादी न हो , अपने निर्णय का अँधा न हो और अपने वैज्ञनिक निष्कर्ष में भी संदेह करे और दूसरे के विचारों का आत्मवत सम्मान करे . तीनों विद्वानों में सहमति का घोर अकाल है और असहमतियों की बाढ़ आयी हुई है . जब तक हम अपने तमाम पुराने , जमे -जमाये , चट्टानी , पाताली, पक चुके अर्थहीन पूर्वाग्रहों को छोड़ेंगे नहीं तब तक बहस यूँ ही मची रहेगी और प्रकाशमय निष्कर्ष कुछ भी नहीं निकलेगा . विजेंद्र जी समकालीन हिंदी कविता के जनवादी किसान हैं . जिन्होंने अपने युवा काल से ही लोक जीवन के प्रति खुद को समर्पित कर रखा है . आज जबकि बड़े - बड़े मार्क्सवादी कवियों और आलोचकों की पक्षधरता लाल पानी के अलौकिक नशे में डूब चुकी है , विजेंद्र अकेले ऐसे सिपाही हैं जो बिना पराजय या हताशा के मैदान में खड़े हैं . वैचारिक कमियां विजेंद्र में भी हों , यह स्वाभाविक है. परन्तु एक कवि के रूप में उनकी स्थायी महत्ता को इंकार नहीं किया जा सकता .
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