चिंतनदिशा में समकालीन कविता पर विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार की चिट्ठियां आप पढ़ चुके हैं. फिर अगले अंक में उन चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह की प्रतिक्रिया भी पढ़ चुके हैं. चिंतनदिशा के ताजा अंक में राधेश्याम उपाध्याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और मेरी प्रतिक्रियाएं छपी हैं. इन्हें बारी बारी से यहां रख रहा हूं. इस क्रम में राधेश्याम उपाध्याय, महेश पुनेठा और सुलतान अहमद की प्रतिक्रिया आप पढ़ चुके हैं. अब यह रही मेरी टिप्पणी.
समकालीन कविता पर यहां अभी तक हुई बातचीत में हमेशा की तरह विचारधारात्मक सरणियां बनाने की कोशिश हुई है। इसमें खींचतान भी हुई है। आलोचक का वस्तुनिष्ठ होना ज़रूरी होता है। अक्सर निजी पसंद और आग्रह सीमा बन जाते हैं। इसलिए निष्कर्षों में झोल आ जाता है।
विजय बहादुर जी के परंपरा या भारतीयता खोजने के आग्रह सिद्धांत रूप में ठीक हो सकते हैं पर आधुनिक विचार को विदेशी कह कर दर किनार कैसे किया जा सकता है? वे अपनी पसंद के कुछ ही कवियों के नाम लेते हैं। नागार्जुन उनकी चर्चा के केंद्र में हैं। नागार्जुन विजेंद्र जी की चर्चा के भी केंद्र में हैं। लेकिन उनकी अवधारणात्मक लाइन विचारधारात्मक लाइन में चली जाती है, जो आगे क्रांतिकामी लाइन पकड़ लेती है और विजय कुमार जी की बातों, निष्पत्तियों और आशंकाओं को काटती चली जाती है। विजेंद्र जी के लिए अस्तित्ववाद वर्ज्य है, कविता में आता अवसाद और निराशा के भाव भी। क्या हम इस तरह यथार्थ से आंखें मूंदे रह सकते हैं या अपनी सुविधा से यथार्थ दर्शन कर सकते हैं? हमारे देखते देखते मार्क्सवादी पार्टियां किस तरह अप्रासंगिक हुई हैं, पहले उन्होंने सांस्कृतिक क्षेत्र में काम नहीं किया और इधर नक्सलबात्रडी ने जनता के बीच अपनी और फजीहत करवा ली है, इतर जनांदोलनों की शक्ति भी क्षीण हुई है। चाहे पानी, बांध और जंगल का मसला हो, या शासकीय हिंसा का, जनआंदोलनों को एनजीओ ने ग्रस लिया है। अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद तो सिविल सोसाइटी शब्द ने आंदोलनों की साख को ही संदेह के घेरे में ला पटका है। संघर्ष और जनांदोलन और परिवर्तन की नई जमीन तोड़नी पडे़गी, नए औजारों के साथ। पता नहीं विजेंद्र जी और जीवन सिंह जी के फार्मुलेशन कितने काम आएंगे। यहां पुराना सवाल फिर सामने आ जाता है कि क्या कविता को मात्र विचारधारात्मक औजार तक सीमित किया जा सकता है?
हमें यह भी सोचना होगा कि बदलते हुए समय में क्या लोक का चेहरा और चित्त वैसा ही है? ऊपर से नब्बे के बाद, और नई आर्थिक नीति के बाद लोक की कैसी फजीहत हुई है? जो बदसूरत, बदरंग, बेढंगा शहरीकरण हुआ है, विस्थापन हुआ है, उसमें से लोक का किस तरह का चेहरा निकल के आ रहा है? शहर तो शहर आज गांव का क्या हाल है? बाज़ार, इंटरनेट, केबल, टैक्सी, लोक को क्या से क्या बना रहा है? गांव ही क्यों, शहरी निम्नमध्य वर्ग की क्या हालत है? यह लोक त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार, विजेंद्र, बद्री, देवी, एकांत या चेतनक्रांति, किसके लोक में दिखता है? किसी एक के या हरेक की अलग छटा है?
ऐसे में क्या हम मान सकते हैं कि रघुवीर सहाय प्रासंगिक नहीं थे या नहीं रहे? क्या रघुवीर सहाय मुक्तिबोध की अगली कड़ी नहीं हैं?
आज हमारे समय का सौंदर्यदृष्टि विहीन, आपाधापी से भरा, रौंदते चले जाने को उद्धत (या विवश) और तथाकथित सैटल होते जाने को आतुर, उखड़ा हुआ, जो भद्दा रूप है, मूल्य-हीनता के लिए विकलता-विहीनता, अतीत के प्रति उदासीनता, अवसाद के उजाड़ वाला जो व्यक्ति के भीतर का खालीपन है क्या उसे रघुवीर सहाय के बहाने शहर और नागार्जुन के बहाने गांव में बांटने से काम चल जाएगा। क्या चंद्रकांत देवताले, जगूड़ी, विष्णु खरे की कविता समकालीनता को समझने में कोई मदद नहीं करती?
यहां पर यह सवाल इस तरह भी उठता है कि समाज में व्याप्त बहुलता, बहुआयामी यथार्थ और पेचीदगी के बिना बात कैसे हो सकती है? क्या उसे आधुनिकता या आधुनिकतावाद कह कर खारिज किया जा सकता है? आधुनिकता ही क्यों (चाहे वह आधी अधूरी हो और हमारे जीवन में बलात् प्रविष्ट हुई हो), क्या आज उत्तरआधुनिकता की पदचाप भी सुनाई नहीं पड़ती, जो जीवन को और अधिक जटिल बना रही है?
विजय कुमार जिन चिंताओं, दुश्चिंताओं की बात उठाते हैं, उनके बिना कविता की बात पूरी होती नहीं लगती। लेकिन उनकी भी निजी पसंद साथ साथ काम करती रहती है। प्राय: उनकी अपेक्षाओं पर कविता खरी नहीं उतर पाती। ख़ास तौर से मंगलेश, असद, राजेश जोशी, नरेंद्र जैन के बाद के कवि उन्हें ख़ास प्रभावित नहीं कर पाते। इसकी वजह शायद यह है कि वे समय को जिस तरह देखते हैं, कविता उन्हें उस तरह देखती प्रतीत नहीं होती। वे समकाल को अपने हिसाब से खोलते हैं, जिससे हमें बेशक एक तरह की अंतदृर्ष्टि मिलती है।
इस नजरिए से देखने पर एक बात सामने आती है, जो हमें यह देखने के लिए उकसाती है कि हमारी कविता इस वक्त कहां खड़ी है? वह कितनी श्रेष्ठ है और कितनी साधारण? विष्णु खरे कुछ वर्ष पहले तक हिंदी कविता को विश्व कविता के समकक्ष रखते थे। लेकिन इधर भारतभूषण अग्रवाल सम्मान प्राप्त कई कवियों में उन्हें वैसी श्रेष्ठता और श्रेष्ठता की निरंतरता नज़र नहीं आई। मतलब कविता से विजेंद की एक अलग तरह की मांग है, विजय कुमार की अलग तरह की, और विष्णु खरे की और भी अलग तरह की। यानी जो आलोचक को चाहिए वह कविता में नहीं है। तो क्या समकालीन कविता बेकार है? या जो कविता में है उसे आलोचक देख नहीं रहा? जैसा कि अशोक कुमार पांडे की टिप्पणी है कि पहले कविता तो पढ़ लो। इसका मतलब है कि असंतोष की जड़ इस बात में भी है कि क्या कविता सनातन होती है या वह युग सापेक्ष भी होती है? या सनातन और युग सापेक्ष के बीच कहीं संतुलन साधना ज़रूरी होता है?
समकालीन कविता की परख करने के लिए कुछ और बाहरी यानी संरचनागत बातों को भी ध्यान में रखना होगा -
- आज कविता बहुतायत में लिखी जा रही है। उसमें विविधता कितनी है, एकरूपता कितनी?
- आज एक साथ कई पीढ़ियां सक्रिय हैं। क्या सबकी कविता एक जैसी है?
- आज हिंदी कविता का भौगोलिक विस्तार भी अभूतपूर्व है, रोहतांग पार के लाहौल से उत्तर पूर्व तक, कोलकाता से गुजरात, महाराष्ट्र तक। किसान कवि तो ढूंढने पर मिलता है पर दलितों और जनजातियों के प्रतिनिधि मिल जाते हैं। कवयित्रियों की संख्या में भी उत्साहवर्धक इजाफा हुआ है। इधर विदेश में भी कविता लिखी जा रही है। इस बहुविध विस्तार वाली कविता का मिजाज क्या है?
- पाठक समाज में कविता की पैठ कितनी है? कविता में समाज है पर क्या समाज में भी कविता है? या कविता सिर्फ़ कवियों के लिए है, जैसे बहुत सी लघु पत्रिकाएं सिर्फ़ लेखकों के लिए हैं।
और अंत में, क्या हम सिर्फ़ कविता के कथ्य के आधार पर ही बात करेंगे या पूरे सौंदर्यबोध की तरफ भी ध्यान देंगे? जहां कविता को एक सम्पूर्ण कलाकृति की तरह परखा जाएगा - जिसमें कथ्य अपने आप आ जाएगा, हम कविता को सिर्फ़ समाजार्थिक-शास्त्रीय वस्तु समझने की लंगड़ी चाल हीं चलते रहेंगे।
अनूप सेठी
मो.: 09820696684
इतने सवाल खड़े कर दिए आप ने कि मेरे जेहन मे अभी एकदम एकाध के सिवा किसी सवाल का जवाब नही है. वह जवाब देने मे भी खुद अकेले को नाकाफी मानता हूँ . इन के जवाब तो समकालीन कविता की पूरी पीढ़ी को देना होगा और बहुत सोच समझ कर देना होगा . आप की इस प्रतिक्रिया से एक गलती, जो अब तक इस पूरे सीरीज़ मे हम कर रहे थे, समझ आई ; कि हम यह तय किए बगैर ही कि "कविता क्या है ", समकालीन कविता बहस करने बैठ गए. इसी लिए कुछ सार्थक बहस यहाँ नही बन पाई.
ReplyDeleteयह एक नई खिडकी मिली मुझे . अब इस खिड़की से इस पूरी बहस को ( अपनी बचकानी टिप्पणियो सहित ) फिर से देखूँगा / परखूँगा . यदि यह टिप्पणी मैने पहले देख पढ़ ली होती अपनी उक्त बचकानी टिप्पणियों से बाज़ आता . हाँ , मुझे बेहद खुशी हुई कि कविता के समकालीन शिल्प सौष्ठव और रूप पक्ष पर चर्चा की कमी मेरी तरह आप को भी खली . मुझे तो पूरी बहस इस पक्ष के अभाव मे एकाँगी लगती रही , और मैने एकाध जगह यह कहा भी है . विजेन्द्र जी इस पर ज़रूरी बात कर सकते थे . विजय कुमार जी भी . आप स्व्यम भी इस विषय पर कुछ अधिकारिक तिप्पणिया दे सकते थे . क्या मै भी एक प्रश्न पूछ सकता हूँ , कि क्या रूप पर बात करने मात्र से हम रूपवादी कहलाए जाएंगे ? और क्या रूप वादी कहलाना ( होना नही)कोई निन्दनीय अपराध है ?
sulataan ahamad जी के लेख पर कुछ कहना था मुझे , लेकिन इस मे इतने ब्यौरे और इतना विस्तार है कि एक बार पढ़ कर कुछ खास कॉंसंट्रेट नही कर पाया .आप ने यह पोस्ट कुछ जल्दी बदल ली . फिर भी इसे दो तीन बार फिर से पढ़ कर कुछ कहूँगा .
ReplyDeleteधन्यवाद अजेय जी,
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए धन्यवाद. आपके उठाए सवालों पर हम आगे बात करते रहेंगे.
कल नवभारत टाइम्स में छपे एक छोटे से इंटरव्यू में अरुण कमल की कविता के बारे में टिप्पणी है - 'मुझे कहने में संकोच नहीं कि हिंदी कविता, आरंभ से अब तक, दुनिया की श्रेष्ठ कविता की पंक्ति में बैठने के योग्य है. आज की कविता भी समकालीन विश्व कविता के बराबर है - हिंदी ही नहीं, पूरे भारत की, सभी भाषाओं की कविता.'
कविता के बारे में यह विचार एवं दृष्टि बहुलता ही कविता और कविता आलोचना की शक्ति है.