कवि मोहन साहिल की शिमला से करीब चालीस किलोमीटर दूर ठियोग कस्बे में चाय की दुकान है. पिछले दिनों कुल्लू में एक सेमिनार हुआ जिसमें एस आर हरनोट, अजेय, सुरेश सेन निशांत, मोहन साहिल, ईषिता गिरीश आदि की रचनाओं पर डिग्री कालेज के छात्र-छात्राओं ने परचे पढ़े. इस प्रोग्राम में छात्र ही समीक्षक थे. हिमाचल मित्र के लिए मोहन साहिल ने इसकी रिपोर्ट लिखी. इस रिपोर्ट में कवि और कविता के बारे में मोहन के विचार भी थे. लगा कि इन बातों को यहां भी रखा जाना चाहिए. यह एक ठेठ पहाड़ी कस्बे में छोटी सी चाय की दुकान चलाने वाले कवि के विचार हैं. कवि का पेशा बताने का मकसद यह कि आलकल ज्यादातर कवि बाबू किस्म की छोटी बड़ी नौकरियों में हैं. हिमाचल के दो और कवि अजेय और सुरेश सेन निशांत भी इधर सबका ध्यान खींच रहे हैं. वे भी सरकारी नौकरी में हैं. ऐसे में मोहन के विचारों को पढ़ना दिलचस्प है.
कवि भी एक साधारण इन्सान है जो रोजमर्रा की उन सभी बातों का सामना करता है जो बाकी सभी लोग करते हैं। मगर कवि होना उतना ही कठिन है जितना एक अच्छा इन्सान होना। कवि का एक अपना संसार है जिसमें वह अपना न्यायाधीश स्वयं है। कवि अपनी गलतियों की सजा स्वयं को देता है। दोबारा गलती न करने की कसम खाता है। कवि के मन-मस्तिष्क में एक युद्ध सदा चलता रहता है। इस युद्ध में वह कई बार घायल होता है मगर स्वयं को मरने नहीं देता। क्योंकि वह उपचार भी जानता है। बाहरी तौर पर लगता है कि एक कवि अभावों, उदासी तथा बेचैनी का शिकार है मगर यह स्थिति एक मधुमक्खी के छत्ते की तरह है जिसके भीतर लगातार शहद बन रहा है। यह शहद कविताओं के रूप में लगातार टपकता रहता है और कवि मन अपने आसपास के हर अच्छे-बुरे अनुभवों का पराग एकत्र करता रहता है। अच्छी कविता की रचना के लिए स्वयं को अच्छा बनाए रखना बड़ी चुनौती है और इसके लिए वह सब खोना पड़ सकता है जो आम व्यक्ति पाना चाहता है। दुनिया के बहाव के साथ चल पाना और सब कुछ होते रहने देना कवि को मन्जूर नहीं। कवि की पीड़ा, उसका आन्तरिक संघर्ष, समाज तथा धरती के हर जीव, निर्जीव के लिए उसकी संवेदनाएं ही उसकी पूंजी है। यह पूंजी खो न जाए यही कवि का सबसे बड़ा भय है। यह भय आज के दौर में और भी ज्यादा है क्योंकि इसी पूंजी को बचाना मुश्किल हो रहा है। अगर यह पूंजी है तो कविता स्वयं आती है। कवि एक नट की तरह है जिसका हर कदम रस्सी पर सही पड़ना चाहिए। अगर वह ऊंचाई से एक बार गिरता है तो उसके भीतर की सब कोमलताएं मर सकती हैं। कवि क्या काम करता है कहां रहता है यह सब बेमानी है। असली संसार उसके भीतर है जिसे कोई नहीं छू सकता, न नष्ट कर सकता है। इस संसार को कवि स्वयं ही चाहे तो उजाड़ ले।
kavita tou padhwa dete na mohan sahil ji ki. chalo aage intjar rahega, padhne ki utsukta paida kar chuppi sadh gaye aap tou.
ReplyDeleteइस संबंध में पर्याप्त साहित्य मौजूद है कि इंसान होना कवि बनने की अनिवार्यता नहीं है। अक्सर,ऐसे कवि ही मिलते हैं जिनकी कविताओं में तो बहुत ऊंची उड़ान है मगर जीवन में कोई काव्यधारा प्रवाहित नहीं हो रही।
ReplyDeleteab kuch kuch aap ki bat samjh aa rahi he
ReplyDeleteमेरा मानना है एक बेहतर इन्सान होना एक अनिवार्य शर्त है ....पेशा चाहे कोई भी है .....कई असाधारण कवियों लेखो को मैंने वास्तविक जीवन में साधारण व्योव्हार करते पाया है
ReplyDeleteअच्छा लगा मोहन साहिल के बारे में पढ़ कर! छायाचित्र तो और भी सुन्दर है! साहिल जी के साथ ठियोग में बिताया समय याद है मुझे! वे सदा ही प्रोत्साहित करने वाले रहे है ! उनकी चाय आज भी याद है! ठियोग से गुजरते हुए रुकने का मन तो होता है परन्तु समयाभव के कारण रुक नहीं पाता हूं! खैर अच्छा लगा आपका लेख!
ReplyDeleteमित्रो धन्यवाद. मोहन साहिल का एक कविता संग्रह प्रकाशित है. और वह कविता कोश पर भी है. आप उनकी कविताएं पए़ सकते हैं. सुपधिा के लिए लिंक नीचे दे रहा हूं.
ReplyDeletehttp://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%A8_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%B2
"कवि क्या काम करता है,कहाँ रहता है यह सब बेमानी है. असली संसार उसके भीतर है.... जिसे कोई छू नही सकता , न नष्ट कर सकता है . इस संसार को कवि स्वयम ही चाहे तो उजाड़ ले." बहुत उच्च विचार हैं.
ReplyDeleteसाहिल भाई वो पकोड़े वाला पोज़ भी गज़ब का है.
विजय भाई, साहिल की कविता तुरत पढ़वाएंगे आप को और आप को भेजेंगे भी.
ReplyDeleteअजेय भाई, मन ही मन मैं आपकी टिप्पणी का इंतजार कर रहा था. मोहन साहिल का पूरा संग्रह ही मौजूद है कविता कोश पर. यह प्रकाश बादल का कारनामा है लगता है. और मधुकर भारती के पास अपने संग्रह शरदकामिनी की कोई प्रति तक नहीं है. ऐसे उदासीन संप्रदाय के लोग भी हैं हमारे बीच.
ReplyDeleteअनूप जी न जाने मोहन साहिल पर इस लेख को मैंने कैसे छोड़ दिया! हिमाचल में बहुत से ऐसे साहित्यिक प्राणी हैं, जो मेरे भीतर खलबली पैदा करते हैं, (बाहर खलबली पैदा करने वाले तो अनेक हैं), इन कवियों में मोहन साहिल सबसे ऊपर हैं, अपने लड़कपन को कई दिनों मोहन साहिल के घर पर गुज़ारा है। यह देख कर हैरानी हुई कि इतना साधारन व्यक्ति इतनी असाधारण कविताएँ कैसे लिखना देता है। मोहन भाई जब टीवी पर आज की फिल्मी हीरोईनों को अधनंगे जिसम से नाचते हुए देखते हैं, तो उनकी टिप्पणी होती है," बादल भाई, ये सब मांस के पिण्ड हैं, जो बेहोशी की हालत में उछल रहे हैं, मांस के पिण्डे ही रोमांस में लीन हैं, कौर वो भी माँस का ही पिण्डा है जो इन सारे पिण्डों की रगों में लहु बनके दौड़ता है, जिसे हम भूले से किसान कहते हैं। बहुत गंभीर और स्नेही व्यक्ति के साथ-साथ मोहन साहिल एक भावुक कवि भी हैं, अपनी कविताओं को पढ़ कई बार खुद ही रो लेते हैं और रुलाते तो कई बार हैं।
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