Thursday, June 14, 2012

समकालीन कविता

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चिंतनदिशा में समकालीन कविता पर विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार की चिट्ठियां आप पढ़ चुके हैं. फिर अगले अंक में उन चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह की प्रतिक्रिया भी पढ़ चुके हैं. चिंतनदिशा के ताजा अंक में राधेश्‍याम उपाध्‍याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और मेरी प्रतिक्रियाएं छपी हैं. इन्‍हें बारी बारी से यहां रख रहा हूं. इस क्रम में राधेश्‍याम उपाध्‍याय और महेश पुनेठा की प्रतिक्रिया आप पढ़ चुके हैं. आइए अब देखें सुलतान अहमद क्‍या कहते हैं.

 
प्रिय भाई शैलेश सिंह,
पाँच तारीख़ को जब आपका फोन आया, तब मैं रास्ते में था। 'चिंतन दिशा' पर बात करने का बिल्कुल मन नहीं था, फिर भी कुछ बातें हो ही गयीं। उन बातों को आगे न बढ़ाया जाय, तो ये बुज़दिली ही कहलायेगी। शुरूआत ऐसी बात से करूँगा, जिसका फोन पर बिल्कुल ज़िक्र नहीं आया था।
सबसे पहले तो 'चिंतन दिशा' के चौथे अंक में भाई श्री विजयकुमार की विजय का डंका चाहे जितना बजा हो, 'चिंतन दिशा' के चिंतन की चिंदियाँ उड़कर रह गयी हैं। ऐसी कौन-सी क्रांति अटकी जा रही थी कि एक ही अंक में उनकी लिखी हुई आलोचना, उनका ख़त और उन्हीं के द्वारा लिया हुआ इंटरव्यू दे देना निहायत ज़रूरी हो गया? एक अंक में एक ही लेखक की कई चीज़ें देने का मतलब तो यही निकलता है कि चीज़ें मिल नहीं पा रही हैं और किसी तरह पत्रिका का पेट पाला जा रहा है। और ऐसा भी नहीं है कि चीज़ें मिल नहीं पा रही हैं। आप लोग उन्हें अटकाते भी ख़ूब रहते हैं।
विजयकुमार और विजयबहादुर सिंह ने बातें तो बहुत सारी कीं, लेकिन मुद्दे चार ही उभरे -- कवियों के 'नाम' यानी उनकी देवमाला, 'छंद', 'सपाटपन' और अंत में 'विचारधारा'।
विजयकुमार कहते हैं, 'सभाओं और गोष्ठियों में आज एक भक्ति-रस की धारा बहती रहती है। बल्कि यह सही मायने में भक्ति और श्रद्धा भी नहीं उसका एक 'मेलोड्रामा' है। शिखर आलोचक सुबह-शाम प्रवचन की मुद्रा में अपने पिट्ठुओं को आस्मान पर चढ़ाते रहते हैं। भक्तगण श्रद्धा विगलित होने का नाटक करते हुए उनकी धोती पकड़कर भवसागर पार कर जाना चाहते हैं। गुरु जितने चतुर, चेले उनसे ज्यादा चतुर। कहाँ हैं बहसें?'
'शिखर आलोचक' के बिंब में फ़िट करने के लिए मैंने कई आलोचकों, मसलन परमानंद श्रीवास्तव, अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे और नंदकिशोर नवल वग़ैरह पर नज़र डाली, मगर हाथ में नामवर सिंह ही आये। मुश्किल तो ये हुई कि उनके पिट्ठुओं में विजयकुमार के द्वारा प्रशंसा के लिए पेश की गयी फ़ेहरिस्त के ही कई कवि नज़र आने लगे। इसके बाद मैं ये सोचने लगा कि आख़िर विजयकुमार ने नामवर सिंह का नाम क्यों नहीं लिया? नाम लेने में ख़तरा है कि 'शिखर आलोचक' कभी भी उनका नाम नहीं लेंगे। नाम न लेने पर ये लुभावनी संभावना तो बनी ही रहती है कि हो सकता है कभी वो उन्हें भी 'आस्मान पर' चढ़ा दें। यहाँ फ़िक्र फ़ेहरिस्त की ही ज्यादा नज़र आयी, किसी मुद्दे या विचारधारा की नहीं। फ़ेहरिस्त की फ़िक्र भी हमारे समय का एक नागवार लक्षण है।
आगे विजयकुमार कहते हैं, 'आपकी इस बात से एक हद तक सहमत हुआ जा सकता है कि वर्तमान में समकालीन कविता की कुछ रूढ़‍ियाँ बन गयी हैं। हमें पता नहीं कि कवियों की एक छोटी-सी बिरादरी के बाहर वास्तविक रसिक कितने हैं!' इस सिलसिले में विजयबहादुर सिंह की बात से 'समकालीन हिंदी कविता' की किन्हीं रूढ़‍ियों का तो पता नहीं चलता, उसमें उनकी इस तरह की अरुचि का ज़रूर पता चलता है, 'समकालीन कविताएं भी अपनी शक्ल-सूरत में मुझे कभी-कभार ही खींच पाती हैं।' उनकी तान टूटती है छंद पर। कहते हैं, 'मैं जब दुष्यंत रचनावली पर काम कर रहा था, उनकी दो-तीन सौ गीतात्मक कविताओं को देख हैरान होता रहा कि इस आदमी ने कविता के इन छंदों में कितनी उठक-बैठक की है।' विजयबहादुर सिंह मुग्ध भाव से दुष्यंत की आरती ही उतारते रहे, मानो ये काम हिंदी में कम हुआ हो। उन्होंने तटस्थ मूल्यांकन के मक़सद से ये देखने की कोशिश नहीं की कि दुष्यंत इस 'उठक-बैठक' में कैसी-कैसी ग़लतियाँ करते रहे। आप देख ही रहे होंगे कि इन ग़लतियों का कितना बुरा असर 'समकालीन हिंदी कविता' के उस हिस्से पर पड़ा, जो दुष्यंतकुमार जैसी लोकप्रियता की लालच में बिना किसी दायित्व-बोध के अंधाधुंध ग़ज़लें कहता और वैसी ही बल्कि उनसे भी बढ़चढ़ कर ग़लतियाँ करता चला जा रहा है। आलोचकों के पास ऐसी नज़र तो होनी ही चाहिए कि वो इन ग़लतियों को देखकर दिखा सकें। चलिए, हम दुष्यंत के सबसे लोकप्रिय संग्रह 'साये में धूप' से इस तरह की ग़लतियों के कुछ नमूने देखते हैं। सबसे पहले छंद के लिए --
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग,
चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम
एक बयान है।
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उनको क्या मालूम विरूपित
इस सिकता पर क्या बीती,
वे आये तो यहाँ
शंख-सीपियाँ उठाने आयेंगे।
क़ाफ़िये की ख़ामी के लिए ये देखें कि उन्होंने 'भूख है तो सबा कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ, आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ।' मत्लेवाली ग़ज़ल में ये शे'र भी डाल रक्खा है, 'क्या वजह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ, लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुऑं।'
इसी तरह की दूसरी ख़ामी पर नज़र डालने के लिए देखें कि 'आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, घर अंधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।' मत्लेवाली ग़ज़ल में ये शे'र डाल रक्खा है, 'एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख, पतवारें न देख।'
रदीफ़ की ख़ामी के लिए उनका ये मत्ला देखें, 'पक गयी हैं आदतें, बातों से सर होंगी नहीं, कोई हंगामा करो, ऐसे गुज़र होगी नहीं।
दुष्यंत के यहाँ छंद की दुर्दशा की चिंता शायद विजयबहादुर सिंह ने इसलिए नहीं की कि कहाँ कोई 'समकालीन हिंदी कवि' इसे समझता है! लगता है आजकल की छंदों में लिखी जा रही चीज़ें इन तक पहुँचती नहीं या आम लोगों की तरह वो भी यही समझते हैं कि 'समकालीन हिंदी कवि' तो उसी मूर्ख को कहा जाता है, जिसे छंद आता ही नहीं। मज़े की बात ये है कि आजकल के 'कविता के जनपद' में इस तरह की मूर्खता पर गर्व करने का रिवाज बडे़ पैमाने पर मक़बूल हो चला है। 'समकालीन हिंदी कविता' के पहले के आधुनिक कवियों नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर बहादुर सिंह को छोड़ दिया जाय तो विजयकुमार की फ़ेहरिस्त में एक भी ऐसा नाम नहीं आता, जिसने कभी ये ग़लतफ़हमी पैदा होने दी हो कि देखो ये भी छंद को गंभीरता से लेता है। अपनी इस फ़ेहरिस्त को छंदों से पाक रखने के लिए ही शायद वो दुष्यंत का नाम लेने से ही कतरा जाते हैं। वो नामों की तमाम दाख़िल-ख़ारिज और मर्तबे की उलट-फेर के बावजूद 'समकालीन हिंदी कविता' की प्रचलित या कह लें रूढ़ फ़ेहरिस्त का ही अनुसरण करते हैं। वो इस 'देवमाला' में उन्हीं को शामिल करते हैं, जो अक्सर 'छंदहीन' कविताएं ही लिखते हैं। इनमें से एकाध ऐसे भी हैं जो कभी-कभी छंद पर हाथ मार तो ज़रूर देते हैं, मगर इसपर लजा भी जाते होंगे। विजयकुमार चाहे जितनी 'कविता की संगत' करते हों, क्या दुष्यंत की ग़ज़लों की संगत उनसे हो पायेगी? छंद में लिखनेवाले बाद के कवियों को तो जाने ही दें। क्या वो रूप की अपनी रूढ़ रुचि को रवादार बना पायेंगे?
रही बात 'सभ्यता-समीक्षा' की तो जो बातें छंदहीन कविताएं कहती हैं, उसी तरह की बाते ग़ज़लें भी कहती हैं, दोहे और गीत भी कह जाते हैं। ग़ज़लों, गीतों और दोहो में कमज़ोरियाँ ज्यादा हो सकती हैं, लेकिन छुआछूत की भावना छंदहीन कविताओं के कवियों में कहीं ज्यादा पायी जाती है। अरुण कमल, राजेश जोशी, देवीप्रसाद मिश्र वग़ैरह की चर्चा करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन हरजीत सिंह, नूर मुहम्मद 'नूर' और ज्ञानप्रकाश विवेक वग़ैरह की ग़ज़लों और अब्दुल बिस्मिल्लाह के दोहों की चर्चा करने से 'आधुनिक प्रगतिशीलता' की इज्ज़त लुट जायेगी, ऐसा सोचने में एक जड़ पूर्वग्रह के सिवा शायद ही कोई और तत्व हो। इनकी चर्चा कीजिए। ज़रूरत पडे़ तो कसकर खिंचायी भी कर दीजिए। आप सोच रहे होंगे कि जब छंदवाले रूपों का समर्थन ही करना था, तो विजयबहादुर सिंह ने जब दुष्यंतकुमार की तारीफ़ की तो मैंने उनकी हाँ में हाँ क्यों नहीं मिलायी? इसलिए कि वो 'समकालीन हिंदी कविता' के किसी भी रूप का ठीक से मूल्यांकन किये बिना उसपर दुष्यंतकुमार के छंदों की मक़बूलियत की नाजायज़ धौंस जमा रहे थे।
देवमाला की बात अधूरी ही रह गयी। उससे जुड़ी एक मज़ेदार बात भी सुन लें। छायावाद के बाद की आधुनिक हिंदी कविता की देवमाला का ब्राहृा अज्ञेय को कहा जा सकता है। इनके तीन सप्तकों में शामिल अधिकांश कवि ही चर्चा के केंद्र में रहे। मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह और विजयदेव नारायण साही वग़ैरह की चर्चा करके नामवर सिंह ने सिर्फ़ अज्ञेय की देवमाला का अनुगमन भर किया था।
अज्ञेय की देवमाला के बाहर के कवि नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल चर्चा में तब आये जब 'समकालीन हिंदी कविता' के कवियों को अपनी कमज़ोरियों को ढँकने और परंपरा द्वारा पुष्ट दिखाने के लिए यानी एक तरह की क्षतिपूर्ति के लिए कुछ नामों की ज़रूरत पड़ी। मुक्तिबोध, शमशेर और रघुवीर सहाय तो उन्हें अज्ञेय की देवमाला में से ही मिल गये। इन 'समकालीन कवियों' की बहुत बड़ी कमज़ोरी है कि अक्सर ये छंद में नहीं लिख पाते। ये कोई बहुत बड़ा दोष नहीं है। दोष है इसके प्रति उनकी भयानक उपेक्षा में। लगता है कि ये सब इसी में ख़ुश हैं कि वो न सही उनके पुरोधा नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, शमशेर और रघुवीर सहाय तो छंद में लिख गये हैं। इनके पुरखों ने घी खाया था तो ये अपना हाथ सुँघाते रहते हैं। ये ख़ुद घी खा लेंगे तो क्या होगा? ये सोचिए तो बड़ा मज़ा आयेगा। अगर विजयकुमार इन्हें छोड़कर छंदों में लिखी जा रही चीज़ों की चर्चा करने लग जायेंगे तो वो फ़ौरन इनकी 'संगत' छोड़कर भाग खडे़ होंगे। अपने साथ चर्चा के चमकदार केंद्रों की सुविधाएं भी गठिया ले जायेंगे।
इसी से जुड़ी एक और मज़ेदार बात बताने से रह गयी कि 'तीसरा सप्तक' तक तो अज्ञेय द्वारा बनायी गयी देवमाला ख़ूब चली, लेकिन उन्होंने जब 'चौथा सप्तक' के रूप में 'समकालीन हिंदी कविता' की देवमाला बनायी तो वो बुरी तरह से 'फ्लॉप' साबित हुए। उसका एक भी कवि ठीक से चर्चा के केंद्र में नहीं आ पाया। अब तक लगातार ये संकट बना हुआ है कि 'समकालीन हिंदी कविता' की देवमाला न ठीक से आकार ले पा रही है, न उसे आम स्वीकृति मिल पा रही है। उसकी तरह-तरह की फ़ेहरिस्तें ज़रूर बनती-बिगड़ती रहती हैं।
छंद की ही तरह कविता के शिल्प से संबंधित एक और तत्व है तहदारी। इसका उलटा है सपाटपन। इस का ज़िक्र विजय बहादुर सिंह ने तो नहीं, विजयकुमार ने ज़रूर किया है, मगर इसका इस्तेमाल उन्होंने किसी को हलाल करने और किसी की आरती उतारने भर के लिए किया है, मूल्यांकन के लिए नहीं।
जब विजयबहादुर सिंह बताते हैं, 'रघुवीर सहाय को पढ़ते हुए तबीयत बैठ-सी जाती है। बेहद अकेलेपन और लाचारी से पाठक भर जाता है।' तब उनका मतलब था कि उनकी ही तबीयत बैठ जाती है, वे ही अकेलेपन और लाचारी से भर जाते हैं। ठीक ऐसा ही मामला विजयकुमार के साथ भी पेश आता है। जब वो बताते हैं, 'ये अपने-अपने इंप्रेशन हैं। इंप्रेशन भर। वे अंतिम सत्य नहीं कहलाते।' फिर अंतिम सत्य बतलाते हुए वो कहते हैं, 'आपको भवानीप्रसाद मिश्र पसंद हैं, किसी अन्य को उनमें कुछेक कविताओं को छोड़कर बेहद सपाटपन भी नज़र आ सकता है।' तो उनका मतलब था कि उन्हें ही भवानीप्रसाद मिश्र में बेहद सपाटपन नज़र आता है। दोनों के द्वारा 'पाठक' और 'किसी' को घसीटने से सिर्फ़ बात की धार ही कुछ कम हुई है। और कुछ तो हासिल नहीं हुआ। इस सपाटपन का मसला कविता के रूप से जुड़ा हुआ है। दोनों ही आलोचक इससे भागते हुए नज़र आते हैं। विजयबहादुर सिंह ये नहीं बताते कि रघुवीर सहाय की कविताएं अपने रूप की वजह से उनकी तबीयत बैठा देती हैं कि अपनी विचारधारा की वजह से। ग़ौर से देखा जाय तो रघुवीर सहाय के यहाँ इन दोनों मामलों में तरह-तरह के झोल दिखायी पड़ सकते हैं। मिसाल के लिए 'रामदास' कविता में रामदास के द्वारा अपनी हत्या की नियति को बिना चीख़े-चिल्लाये परमहंस की तरह ठंडी उदासी से स्वीकार कर लेने में आज के सामाजिक यथार्थ को नज़रअंदाज़ करने और उसपर नक़ली क़िस्म के आभिजात्य को थोपने की विचारधारात्मक भूल है। रहा रूप, तो उनकी कविताओं के अख़बारी अंदाज़ के उबाऊपन पर तो बहुत सारी बातें हो सकती हैं।
इन कमज़ोरियों के बावजूद रघुवीर सहाय 'समकालीन हिंदी कविता' के लिए मैथिलीशरण गुप्त से ज्यादा महत्वपूर्ण बने रहेंगे। लगता है 'मैथिलीशरण आदि की विरासत' की चिंता में डूबे विजयबहादुर सिंह 'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।' सुनकर गद्गद् ही हो जाते होंगे। ऐसी भाववादी कविताओं के आदी आलोचक का रघुवीर सहाय से नाउम्मीद हो जाना स्वाभाविक ही है; क्योंकि वो तो इस तरह की कविताएं भी लिखते हैं, 'पढ़‍िए गीता बनिए सीता फिर इन सबमें लगा पलीता किसी मूर्ख की हो परिणीता निज घर-बार बसाइए।' (प्रतिनिधि कविताएं - रघुवीर सहाय, पृ. 28)
विजयकुमार कहते हैं, 'नागार्जुन की कविता को यदि आप कहते हैं कि वह 'विशाल और व्यापक राष्ट्रीय जीवन के गर्भ से उपजी हुई है।' तो लगभग यही राय कोई दूसरा आदमी मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, चंद्रकांत देवताले, अरुण कमल और नरेंद्र जैन की कविताओं के बारे में व्यक्त कर सकता है।' इस तरह की आरती उतारने में विजयकुमार को ये याद नहीं रह जाता कि चाहे लोग बोलने से कितना भी कतराते हों, लेकिन नागार्जुन के यहाँ सपाट कविताओं की बहुत बड़ी तादाद मौजूद है। लेकिन इससे उनका महत्व कम नहीं हो जाता। सपाटपन तो सभी तरह के कवियों में पाया जा सकता है, यहाँ तक कि मुक्तिबोध में भी। मिसाल के लिए उनकी 'ओ चीन के किसानो!' की ये पंक्तियाँ 'सपाटपन' की मिसाल नहीं तो और क्या हैं-
'ओ चीन के किसानो! खेतों में काम के संग गीतों में तान के संग उड़ते हो तुम गगन में द्युतिमान देवता-से' (मुक्तिबोध रचनावली - 1, पृ. 386)
नरेंद्र जैन ने तो जैसे 'सपाटपन' की मिसाल पेश करने के लिए ही ये पंक्तियाँ लिखी थीं --
'धर्मनिरपेक्षता हमारे यहाँ राजनैतिक, सांप्रदायिक कुचक्र का मोहक नाम है' (पहल - 37, कविता विशेषांक, पृ. 185)
इन सबकी आरती उतारने में इस तरह की ख़ामियों को नज़रअंदाज़ कर देना किसी भी तरह मुनासिब नहीं कहा जायेगा। ख़ामियाँ अगर दिखती हैं तो उन्हें दिखाने में हरज क्या है? इससे आरती उतारने का मज़ा कुछ किरकिरा ज़रूर हो जाता है, मगर कविताओं के सृजन और मूल्यांकन को ताक़त ज़रूर मिलती है।
ऐसा नहीं कि इन दोनों आलोचकों ने सिर्फ़ कविता के रूप से ही संबंधित बातें ही की हैं; एक ने छंद पर ज़ोर दिया तो दूसरे ने 'सपाटपन' पर। विचारधारा से संबंधित बातें भी उन्होंने की हैं। 'तार सप्तक' की आलोचना करते हुए विजयबहादुर सिंह ने कहा है, 'अगर आप 'तार सप्तक' की उन कविताओं को देखें तो उनमें से कोई एक भी कविता लोक-हृदय पर अपनी छाप छोड़ नहीं पायी है। यहाँ तक कि मुक्तिबोध और अज्ञेय की भी।'
इस कथन का तेवर तो ऐसा लगा कि जैसे अब ये उन दोनों की तमाम कमज़ोरियाँ उजागर करके धर देंगे। मगर हुआ उलटा। वो तो इन दोनों की कविताएं उद्धृतत कर लगे उनकी व्याख्या करने। यानी 'तार सप्तक' ने लोक-हृदय पर कोई छाप न छोड़ी हो, लेकिन ऐसे कवि ज़रूर दिये, जिनकी कविताओं की व्याख्या में विजयबहादुर सिंह भी मगन हो गये। विजयकुमार की 'संगत' में रहनेवाले कवियों को हलाल करने के लिए वो मुक्तिबोध को इस तरह याद करते हैं, 'आप मुक्तिबोध की उन पंक्तियों की याद करें जिनमें वे अत्यंत क्षुब्ध, आत्म और कातर हो ग्लानि से भरे हुए स्वयं से पूछते हैं -- 'ओ मेरे सिद्धांतवादी मन! ओ मेरे आदर्शवादी मन! अब तक क्या किया जीवन क्या जिया?' यह केवल कवि का आत्मप्रन क्यों माना जाय? हमारा अपना भी क्यों नहीं? पर यह कौन कह सकता है? कौन स्वयं को कटघरे में खड़ा करने के आत्मबल से संयुक्त है? आप तो कवियों की 'संगत' में रहने का दावा ही करते रहे हैं, कृपया ज़रूर सूचित करिएगा कि कितने इस 'आत्म' का साक्षात्कार कर सके हैं? मेरी अपनी समझ से तो वे सब एक प्रायोजित और प्रदत्त संसार में रहते रहे हैं बग़ैर किसी ईमानदार पूर्ण लगाव या संलिप्ति के। उनके ज्ञानात्मक संवेदनों में इस 'आत्म' की उपस्थिति कहाँ है? अगर होती तो निश्चय ही वे संवादरत कहीं-न-कहीं ज़रूर दिखते।' विजयबहादुर सिंह के हिसाब से जिन मुक्तिबोध की 'एक भी कविता लोक-हृदय पर अपनी छाप नहीं छोड़ पायी है।' उनकी जगह उनके मुताबिक लोक-हृदय पर छाप छोड़नेवाले कवियों मैथिलीशरण गुप्त, भवानीप्रसाद मिश्र, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', जैसे कवियों की कविताओं में से ऐसा सवाल उठाने की कोशिश वो करते तो ये भी पता चलता कि हरदम लोक-हृदय के पीछे पडे़ रहने के क्या ख़तरे हो सकते हैं! ऐसे में लोक-हृदय से जुड़के जी तो जुड़ा जाता है, लेकिन सच्चाई कहीं पीछे छूट जाती है यानी गैलीलियो जैसे आदमी को नज़रबंदी में अंधा होकर रह जाना पड़ता है।
मुक्तिबोध की दुन्यावी मसलों से घिरी हुई कविता ' अंधेरे में' की पंक्तियाँ उद्धृत करने के बाद वो 'तार सप्तक' के ही दूसरे कवि अज्ञेय की भाववादी कविता 'असाध्य वीणा' की प्रशंसा में तो एकदम मगन होकर कह उठते हैं, 'यह कोई रहस्यवाद नहीं है, आप चाहें तो इसे छायावादी विदात्मवाद ज़रूर कह सकते है, जहाँ चर-अचर, मनुष्य और मनुष्येतर का भेद बेमानी हो उठता है।' ऐसे में वर्गों के भेद का तो और भी अर्थ नहीं रह जायेगा। लेकिन 'भाववादियों' को भी भौतिक समस्याएं सताती हैं यानी 'आग सबको जलाती है' (मोचीराम, संसद से सड़क तक - धूमिल, पृ. 40) तब उन्हें लिखना पड़ता है, 'बह चुकीं बहकी हवाएं चेत की कट गयीं पूलें हमारे खेत की कोठरी में लौ बढ़ाकर दीप की गिन रहा होगा महाजन सेंत की।' (सदानीरा - 1, अज्ञेय, पृ. 264) यहाँ किसान और महाजन का भेद भुलाया नहीं जा पाता।
'तार सप्तक' के सिलसिले में विजय बहादुर सिंह कहते हैं, 'पर यह कविता भी अपनी सोच और भाव-भंगिमा में न तो मैथिलीशरण आदि की विरासत का विकास लगती है, न छायावादियों की।' छायावाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के हंगामी झगड़ों को भुलाकर अब तो उनकी एकता को क़बूल कर लेना चाहिए। सुमित्रानंदन पंत तक ने इसे क़ुबूल कर लिया था, 'छायावाद वस्तुत: नवीन युग के काव्य का एक व्यापक संचरण था, जिसे प्रगतिवादी तथा नयी कवितावादी भी अभिव्यक्ति देते रहे हैं।' (छायावाद : पुनर्मूल्यांकन - सुमित्रानंदन पंत, पृ. 102) मुक्तिबोध छायावाद की 'प्रगतिवादी शाखा' से किस बुरी तरह प्रभावित थे, इसे साबित करने के लिए ही जैसे 'तार सप्तक' की उनकी कविता 'पूँजीवादी समाज के प्रति' लिखी गयी थी। अज्ञेय पर तो छायावाद से प्रभावित होने का इल्ज़ाम लगाया ही जाता रहा है। 'तार सप्तक' की योजना की बारीकियों में न जायें तो भी प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की एकता उतनी इससे नहीं साबित होती कि उसमें मुक्तिबोध शामिल थे, जितनी इससे कि 'तार सप्तक' के लिए अज्ञेय ने रामविलास शर्मा को आमंत्रित किया था। विचारधारा से ही संबंधित एक और बात पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है। अपनी उदारता दिखाने में जिसपर विजयकुमार का ध्यान नहीं गया। वो ख़ुद एक तरफ़ कुछ कवियों को पढ़ने से परहेज़ करते हैं तो दूसरी तरफ़ रवादारी की नसीहत देते हुए कहते है, 'कवियों के अपने-अपने व्यक्तित्व और अनुभव संसार होते हैं। एक का आधार लेकर दूसरे को पछाड़ना मैं समझता हूँ कि एकांगी दृष्टिकोण है। कोई भी एक रचनाकार किसी भी दौर में यह नहीं कह सकता कि सत्य की संपूर्ण अभिव्यक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे पास है। यदि ऐसा होता तो हम तुलसी के साथ सूर को न पढ़ रहे होते। सिर्फ़ कबीर से काम चल जाता, मीरा को पढ़ने की आवश्यकता न रहती।'
समस्या मध्यकाल के इन कवियों को पढ़ने या न पढ़ने की नहीं है। किसी-न-किसी तरह इन्हें तो सभी कवि कुछ-न-कुछ पढ़ ही लेते हैं। समस्या तो है 'समकालीन हिंदी कविता' में से कुछ को 'पढ़ने' कुछ को 'न पढ़ने' और कुछ से 'परहेज़ करने' की। सच तो ये है कि 'शिखर आलोचक' ही नहीं विजयकुमार भी अच्छा-ख़ासा परहेज़ बरतते हैं। इस समस्या से सीधे-सीधे सामना न करने की नीयत से ही शायद उन्होंने तुलसी, सूर, कबीर और मीरा को अपनी बातों में शामिल कर लिया है। बात निकल ही आयी है तो ये कहना भी ज़रूरी है कि इन कवियों पर मुग्ध होने भर से काम नहीं चलेगा। पढ़ना तो इन्हें सावधानी से ही पडे़गा। कौन नहीं जानता कि ये सारे-के-सारे कवि भाववादी पटरी के हैं। उनकी कविताओं में आ गये मानवीय जीवन के प्रसंगों से आज के कवि चाहे जितना लाभ उठा लें, उनकी भक्ति-भावना से आज की भयावह सभ्यता की समीक्षा में कोई सहायता नहीं ली जा सकती, उसे बदलना तो दूर की बात है। वही 'आज की सभ्यता' जिसका विजयकुमार ने इतना अख़बारी और जोशीला वर्णन किया कि ख़ुद सकुचाकर बोल उठे, 'मैं यह मानकर चल रहा हूँ, जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तो आप कम-से-कम इसे 'साहित्येतर' विषय या 'सुपरफ़ीशयल' विवेचना के खाते में नहीं डाल देंगे।'
यहाँ कहना ये है कि उदारतावाद भर के चलते उन कवियों को याद करने से काम नहीं चलेगा। उन्हें उस तीखे 'इतिहास-बोध' के नज़रिये से देखने की ज़रूरत पडे़गी, जिससे देखते हुए मुक्तिबोध इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे, 'एक बार भक्ति-आन्दोलन में ब्राह्मणों का प्रभाव जम जाने पर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा में कोई देर नहीं थी। ये घोषणा तुलसीदासजी ने की थी। निर्गुण मत में निम्नजातीय धार्मिक जनवाद का पूरा ज़ोर था, उसका क्रान्तिकारी सन्देश था। कृष्णभक्ति में वह बिल्कुल कम हो गया, किन्तु फिर भी निम्नजातीय प्रभाव अभी भी पर्याप्त था। तुलसीदास ने भी निम्नजातीय भक्ति स्वीकार की, किन्तु उसको अपना सामाजिक दायरा बतला दिया। निर्गुण मतवाद के जनोन्मुख रूप और उसकी क्रान्तिकारी जातिवाद-विरोधी भूमिका के विरुद्ध तुलसीदास जी ने पुराण-मतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया। (मुक्तिबोध रचनावली : 5 पेज 291)
कुल मिलाकर विजयकुमार और विजयबहादुर सिंह दोनों की पहली चिंता अपने प्रिय कवियों की देवमाला स्वीकृत कराने की ही प्रतीत हुई, उनका मूल्यांकन करने-कराने की नहीं। दूसरी चिंता में ज़रूर दोनों में फ़र्क़ है। जहाँ विजयबहादुर सिंह इसपर ख़ुश होते हुए दिखायी देते हैं, वहीं विजयकुमार इसपर दुखी होते हुए नज़र आते हैं कि तमाम चर्चाओं के बावजूद ये देव अलोकप्रिय ही बने रह जाते हैं। इनकी अलोकप्रियता के भीतरी और गहरे कारणों में उतरने की ज़हमत दोनों ही नहीं उठाते।
समझ में नहीं आता कि 'समकालीन हिंदी कविता' का 'छंदहीन हिस्सा' चर्चा का आख़िर कितना भुक्खड़ है कि 'शिखर आलोचक' से लेकर विजयकुमार तक सभी की चर्चाएं खाकर भी उसका पेट एकदम पिचका ही रहता है कि उसे देखकर दया आती है और विजयकुमार को कहना पड़ता है, 'समकालीन कविता से मेरे असंतोष कम नहीं हैं और यदा-कदा मैंने लिखित रूप में व्यक्त भी किया है। पर समूची समकालीन कविता को एक सिरे से नकार देने की यह स्थिति मुझे अंग्रेज़ी के उस मुहावरे की याद दिलाती है कि 'कुछ लोग बच्चे को नहलाने के बाद टब के पानी के साथ बच्चे को भी फेंक आते हैं।' ख़ैर - -! मैं इतना ही कहूँगा कि मेरे लिए आज भी तमाम साथी रचनाकारों को एक गहरी सहानुभूति और तटस्थता के साथ पढ़ना, उनके अच्छ-बुरे पहलुओं को समझना, उसके अंतर्विरोधों को पकड़ना एक प्रकार से अपने समय को समझना है।'
अफ़सोस कि विजयकुमार इतने पूर्वग्रह से भरे हुए हैं कि उनके 'साथी रचनाकारों' की तादाद बहुत कम है। भले उन्होंने कहा हो, 'नाम गिनाना मेरा उद्देश्‍य नहीं है।' लेकिन काम उन्होंने यही किया है। पूर्वग्रह तो उनके इतने सख्त हैं कि उनकी फ़ेहरिस्त में 'समकालीन हिंदी कविता' के वो ही कवि समा पाते हैं, जो अक्सर 'छंदहीन' कविताएं ही लिखते हैं और उन्हें ही 'मुक्तछंद' में लिखा समझते हैं। उन कवियों में से भी वो उन्हें छोड़ देते हैं, जो उनकी 'संगत' में नहीं रह पाते। उन कवियों से तो वो सख्त परहेज़ बरतते हैं, जो छंद में लिखते हैं। हिंसा के जिन मसलों के लिए उन्होंने अरुण कमल या बद्रीनारायण की कविताओं को याद किया, उनसे कम मार्मिक चित्र ग़ज़लों, गीतो या दोहों में नहीं पाये जाते। इसे जानने के लिए तो उन्हें पढ़ना पडे़गा। उनके मूल्यांकन की बात आयी तो उनकी ख़ामियों-ख़ूबियों को दिखाने के लिए छंद का अनुशासन भी सीखना पडे़गा और वो 'सिलहली गैल' ऐसी है कि उसमें पाँव रपट जाने का डर लगातार बना रहेगा। ये तो बडे़ झंझट का काम है। इससे तो यही अच्छा है कि हम हों, 'छंदहीन कविताएं' हों, समाजशास्त्र की अख़बारी सूचनाएं हों और दोस्तों की ऐसी चमकदार पत्रिकाएं हों, जिनमें हमारी लिखी चर्चाएं छप जाया करें।
मेरी इन बातों पर कहीं 'आपसी सहमति का 'गुडी-गुडी' संसार' असर तो नहीं डाल गया या मैं कहीं 'समूची समकालीन कविता को एक सिरे से नकार' तो नहीं गया?











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