Saturday, July 9, 2011

बाबूजी, संभलना



जमाना बदलता है तो उसकी चाल ढाल भी बदलती है। रंग ढंग भी बदलते हैं। क्या चाल ढाल और रंग ढंग से ही जमाने की पहचान होती है? पूरे तौर पर न होती हो, नब्ज तो पकड़ में आ ही जाती है। बाबू की पहचान हुआ करती थी कमीज, धोती या पाजामा, जूता और टोपी। टटपूंजिया बाबू होगा तो सब्जी तरकारी ढोता दिखेगा। ए के हंगल
फिल्मों में कुछ इसी तरह चलते दिख जाते थे। सिर पर काली टोपी भी होती थी। यह मुंशी, बाबू, मास्टर, मुनीम का मिलाजुला रूप था। एक जमाने में इन महाशयों के परिधान में छतरी या छड़ी भी जुड़ी रहती थी। अशोक कुमार भी ऐसी भूमिकाओं में दिख जाते हैं। ये अपने जमाने के पढ़े लिखे नौजवान होते थे। तकरीबन
दसवीं पास। लेकिन पाएदार। उर्दूदां। अंग्रेजी के जानकार और मिसिल के माहिर। दीन दुनिया की खबर रखने वाले। जात बिरादरी,
कुनबे, कस्बे की ऊंच नीच की परवाह करने वाले। सद्गृहस्थ। आम तौर पर पत्नीव्रता। घर के मुखिया और दफतर की धुरी। निश्चिंत, संतुष्ट और दाल रोटी खाने वाले परोपकारी जीव। इनमें से बीए पास कोई नसीब वाला ही होता था। वह टाई पहनता था। उसका ठसका जरा फ किस्म का होता था।

अगले दौर में बीए पास मध्यवर्गीय बाबू की शक्ल अमोल पालेकर से मिलती है। अब तक पजामे की जगह पेंट आ गई है। कोट उतर चुका है। नौकरी के लिए इंटरव्यू के वक्त टाई की जरूरत महसूस होती है। धांसूपन दिखाना हो तो कोट पहनना पड़ेगा। जुल्फें लंबी हो गई हैं। कलमें भी कान तक नीचे उतर आई हैं। ये नौकरीपेशा नौजवान सफेद और सूफियाना पट्टीदार कमीजों से आगे निकलकर चारखानेदार और रंग बिरंगी शर्ट पे आ गए हैं। पेंट की जेबें अगल बगल से हटकर आगे आ गई हैं। प्लीट खत्म हो गए। मतलब पैंट अब झोला टाइप नहीं रही। चुस्त दुरुस्त हो गई। इससे बाबू की अदा में थोड़ी ठसक, थोड़ी धज आ गई। इस बाबू की उम्र भी थोड़ी कम हो गई। पहले बाबू पचास में होता था। यह चालीस के अंदर ही है। इस बाबू का ग्रेजुएट होना आम बात थी। मतलब तरक्की की एक सीढ़ी पार कर ली गई थी। पिछले दसेक सालों में इस मध्यवर्गीय बाबू की छवि में और चुस्ती आई है। उम्र और भी कम हुई है। वह बाबू की तुलना में अफसर भी बड़ा बन गया है। पुराने बाबू पैदल मार्च करते थे। छाता या छड़ी ले के ब्लैक एंड व्हाइट जमाने के उम्रदराज बाबू। फिर साइकिल रिक्शा आया। बाद में वे बस में लपकते हुए नौकरी पे जाने लगे। माने सिटी बस चलने लगी। तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता बाबू अब गाड़ी चला के आता है। थोड़ा कमतर होगा तो स्कूटर। अच्छी कंपनी होगी तो कार। कारों में कार मारुति। मध्यवर्ग का ब्रांड इसी से बनता है। नए जमाने का यह बाबू कोट पहने होगा, टाई गांठे होगा। हाथ में उसके ब्रीफकेस होगा। टकटकाटक चलेगा। स्मार्ट ब्वाय। यह बाबू पोस्टग्रेजुएट है।
बाबुओं की ये छवियां निरंतर बदलती चली गई हैं। और अब तो आलम यह है कि जहां बाबू बबुआइन दोनों नौकरीपेशा होंगे, उनकी सम्मिलित स्मार्टनेस आसमान छूने लगेगी। यह एक बड़ी छलांग है। जो बबुआइन एक जमाने में खाने का डिब्बा बांध के देती थी। मुन्ने की नाक अपनी चुन्नी से साफ करती थी। माइके से भाई के आने का इंतजार करती थी। वह बबुआइन अब स्मार्ट गर्ल में तब्दील हो गई है। कैरियर बनाने की धुन उसे भी सवार होने लगी है। इस जोड़े की शक्लोसूरत ही नहीं, शगल, तहजीब, तासीर और सपने भी बदल चुके हैं। यह देश में ही रहने वाला एनआरआई है। ये अमूमन बड़े शहरों के बड़े बाबुओं की अगली पीढ़ी है। ये इंजीनियर, डाक्टर और ऊपर से एमबीए हैं। पासपोर्ट, वीसा हमेशा इनकी जेब में रहता है। प्रोफैशनल संसार में पैसे के लिए कहीं भी कूद जाते हैं। मोटी तनखाहें पाते हैं। दुनिया भर के लोन ले डालते हैं। बाल पकने या झड़ने तक संपत्ति खड़ी कर लेते हैं। यह सयानापन तीस की उमर पार करते करते आ जाता है। इनमें से जो जितना घाघ होगा, वह उतना ही ऊपर उठेगा। जो जितना लद्दू होगा, वह वहीं का वहीं पड़ा रहेगा। बीबी बच्चों की तीमारदारी करते हुए जीवन बिताएगा।
शाहरुख खान, सलमान खान वगैरह इन तेज तर्रार नवबाबुओं का पोर्टेट बनाते हैं। ध्यान रखिए, इस दौर तक आते आते बाबू की उम्र और कम हो गई है। बाबू शब्द भी नए अवतार पर फिट नहीं बैठता। एक्जिक्यूटिव शब्द इस छवि को झेल लेता था लेकिन इधर दुनिया इतनी तेजी से बदली है कि एक्जिक्यूटिव आजकल का ग्लैमरस नाम है। ये तो प्रेसिडेंट वगैरह होते हैं। अजीब है कि हिंदुस्तान का तो एक ही प्रसिडेंट है लेकिन एक एक कंपनी में दर्जनों प्रेसिडेंट हो सकते हैं। बला के स्मार्ट इस बाबू की उम्र कम हो गई है तो शिक्षा पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बढ़ गई है। पैसा बेथाह आ गया है। देश दुनिया से दूरी भी उसी अनुपात में बढ़ गई है। यह बाबू लैप टॉप ले के मोबाइल हुआ फिरता है।
ईमेल के जरिए दुनिया से जुड़ा है। इससे कोई पूछे, भैये 'स्वदेस' में यह ईमेल जाती कहां कहां है?

भेड़ चाल तो हमेशा से चलती आई है। नकलचियों की कमी नहीं होती। तमाम शहर और कस्बे इसी तरह के प्रयोगों के लिए बने हैं। छोटे शहरों और कस्बों के लड़कों को ऐसी टकाटक जिंदगी तो नसीब नहीं होती, वे उसकी खराब जराक्स कापी टाइप जिंदगी जरूर बनाते रहते हैं। सपने नकल के देखते हैं। जिंदगी के धक्के असल के खाते हैं। जब उनके बाल बच्चे उनके कंधे बराबर बड़े हो जाते हैं, तो वे जवानी की अपनी हरकतों पर खिसियाने लगते हैं। वे समझने लग जाते हैं कि अब बच्चों की बारी आ गई है। उनके लिए जगह खाली कर देने में ही भलाई है।

2 comments:

  1. bahut sundar...... aaj hi dekh paya . fb par share karoon?

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  2. धन्‍यवाद. जरुर शेयर करें

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