ये चार कविताएं बनास जन के अगस्त 2023 में छपे ताजा अंक में छपी हैं।
दो कविताएं पिछले साल की हैं और दो कोरान काल की हैं।
महबूब शहर से गिला शिकवा
मिलने
जाना था
मिलने
चला
मिला
जितना
मिलना मिथा था
उससे
कम मिला
कुछ
ऐसा था सिलसिला
इस
बरस पिछले बरस से कम मिला
इस
तरह हर अगले बरस थोड़ा कम मिला
कोई
छोटी उम्र में
कोई
भरपूर जी करके
कोई
बीमारी में कोई लाचारी में कोई चलते चलते ही चलता बना
एक-एक
कर चले गए मिलने वाले मिलने के इंतजार में
जो
पीछे छूट गए
अब
उनसे
अनमिले
चले गयों की याद में
मिलने
का बहाना था
यह
मिलना भी कोई मिलना था
भीतर
बसी थी बरस दर बरस जो दुनिया
दरकती
चली गई हरफ दर हरफ वो दुनिया
बहुत
हंसी ठिठोली है बाहर
बेतरह
फुदक रही है दुनिया
किसको
किससे मिलना था
किससे
कौन मिला
या
रहा आया बरस दर बरस अनमिला
यही
है गिला
न
जाने किसने किसको छला
लौटना
नदियां
नाले वन वनस्पितयां
चढ़ाइयां
उतराइयां पार करनी होती थीं
तब
जाकर प्रकट होता था वह लोकोत्तर लोक
बहुत
दिन से तरस गए दरस को
पुलक
से भर जाते
निश्छल
स्पर्श हम पाते
अंतिम
मोड़ के बाद बस्ती के छोर पर
हवा
की तासीर बदल जाती
महकते
पेड़ों से सरसराती
आम
और आंवले की बगल से
उतरती
सीढ़ियां बलखाती
ठंडक
बिछाती चलतीं
जाना
पहचाना पर हर बार नया होकर
खुलता
दिग दिगंत
वहीं
लौट जाना है
हर
जगह हर तरह के बैरीकेड तोड़कर
जैसे
झाड़ियों मेड़ों बाड़ों दीवारों सलाखों से
रगड़
खाते खरोंच पाते भागते जाते
चराते
पशुओं को सम्हलाते।
बहुरूपिये
हैं आततायी।
आगे
बढ़ने के हर एक रन वे पर
दौड़ते
हुए राख झड़ती है
पहला
मौका मिलते ही
बस
चकमा दे के निकल जाना है
जैसे
ही कौल भरता हूं शुरु में लौट जाने का
आंख
में नमी बढ़ जाती है
देह
में हरकत बल खाती है
भीमकाय
कीलों को रोंद कर
निकल
जाएंगे सीधे उस नदी में डुबकी लगाने
जिसके
तट के सप्पड़ों पर कपड़े पछीट रही हैं
माताएं
शताब्दियों से
कोख
में ही लौट जाना है।
दुनिया
में नए सिरे से आना है
वे
धो धो के देती जाएंगी
बच्चे
सुखाते जाएंगे
सारी
दुनिया को पछीट-पछीट के सूखने डाल दिया जाएगा।
कटखनी आवाजें
(कोरोना के दौरान)
लोहे की पटड़ियों को चीरती
फिसलती हुई भाग जाती है रेल इंजिन की चीख
दूर गांव को धावती रेल के पहिए
तुफैल बहुत मचाते हैं
गणपति विसर्जन के दिन जैसे फटते हैं ढोल
उससे ज्यादा ठुकते हैं लोहे पर लोहे के
बोल
लोकल ट्रेन की घुटी हुई सी चीख
घिसटती हुई रुकती है मेरी
खिड़की के नीचे
प्राणायाम की अभ्यासी यह, सांस रोक कर दो पल
दबी दबी सी सरकती आगे निकल जाती है
कुछ शरीर उतरे कुछ लदे वायरस भरे अनभरे
अब अगले स्टेशन पर घिसटती हुई रुकेगी यह
लोकल
कुछ शरीर उतरेंगे कुछ लदेंगे वायरस भरे
अनभरे
दुनिया घरों में बंद है
लोहा अस्बाब चालू है
दूर कहीं टिटहरी सी बोलती है मंद
नजदीक आती एम्बुलेंस के साइरन में बदल
जाती है
चारों याम कभी भी
मानो ये हाई वे ये फ्लाईओवर एम्बुलेंसों
के रुदन के लिए ही बने थे
रौरव जब नहीं होता
कोई भीमकाय कंक्रीट मिक्सर घूमता रहता है
दानवी श्वास जैसे समुद्र की लहर
पथरीले तट पर सिर पटकती रहती है
रह रह कर
वाईब्रेशन पर रख दी गई हैं दीवारें
निरंतर दोलायमान
कंपन से मूर्च्छित
मेरी सांस इस कर्कशता में
कहीं दुबकी हुई सी
शायद चल रही है
सुगंध की सुरंग
(कोरोना के दौरान)
महानगर की बालकनी में
पल रही
विदेशी तुलसी की मंद
मादक गंध
पचास साल पीछे ले जाती
रोहतांग पार लाहुल की
घाटियों के
श्वेत शुष्क मदिर
मदहोश करते
पावन सुरभित लोक में
नींबू और गलगल और
अमरूद और खीरे और
सेब और अखरोट और बादाम
की महक मोहिनी
पीछे पीछे चली आती
कांगड़ा कलम की
उतराइयों चढ़ाइयों की
हरी भरी अमराइयों और
आबादियों में
खींच ले जाती
खिलखिलाती
नंगे पैर लुर लुर करते
बचपन की बदमाशियों में
अदृश्य विषाणुयुक्त
वायु के हाहाकार के बीच
खिड़कियों पर टंगी
हरीतिमा को
मधुर महक को
आंखों से छू छू कर
सांसों में पी पी कर
भीतर खुलता खिलता चला
आता
कारू का सुगंधित
स्मृति का खजाना
नित्य नूतन मदमस्त
वायवीय निराकार
हथेली पर जैसी धरी है
धरा ठोस और साकार
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 30 नवंबर 2023 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
सुन्दर रचनाएं |
ReplyDeleteसुशील जी धन्यवाद ।
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteआंकार जी धन्यवाद ।
Deleteबेहतरीन
ReplyDeleteहरीश जी धन्यवाद ।
ReplyDeleteमनोज शर्मा की फेसबुक पर यह टिप्पणी आई
ReplyDeleteप्रिय भाई
मुझे यह कविता पल्ले नहीं पड़ी।यानि एक ही बात को तोड़- मरोड़ रच देना।आप कुछ समझाएं।
मैंने वहां लिखा - मेरा दुर्भाग्य।
इसके बाद वट्सऐप पर हमारा यह संवाद हुआ-
अनूप: बंधु, कविता में आपको दोहराव लगा। एक बार फिर पढ़ें धीरे धीरे।
रिश्तों के छीजते जाने का, लोगों के मर जाने का, उनसे न मिल पाने का, रुदन है इसमें।
सार्वजनिक जगह पर अपनी कविता की पैरवी नहीं करना चाहता।
आप सुधी पाठक हैं इसके मर्म तक पहुंच जाएंगे।
[3:28 pm, 03/12/2023] Manoj Sharma: जी,ज़रूर।
[8:07 pm, 03/12/2023] Manoj Sharma: बार-बार पढ़ ली जी।
[8:08 pm, 03/12/2023] Anup Sethi: पर बात नहीं बनी ?😄
[8:10 pm, 03/12/2023] Manoj Sharma: आदरणीय
मैं ,आपकी कविता पर कुछ कहने के काबिल नहीं।
सब उचित ही है।
[8:14 pm, 03/12/2023] Anup Sethi: संकोच की जरूरत नहीं। जो लगे वही कहना चाहिए।
हो सकता है मेरी कविता ही कमजोर हो।
[8:15 pm, 03/12/2023] Manoj Sharma: कविता कमज़ोर कहां
मुझे कई बार क्राफ्ट पर किंतु हो जाता है,भाव पर कतई नहीं।
[8:18 pm, 03/12/2023] Anup Sethi: मेरा क्राफ्ट के बिना काम नहीं चलता।
[8:18 pm, 03/12/2023] Anup Sethi: अगर हम कविता पर तकल्लुफी छोड़कर बेलाग बात करने लग जाएं तो कितना अच्छा हो।
[8:27 pm, 03/12/2023] Manoj Sharma: भाईसाहिब
करता तो हूँ,पर मुझे नासमझ भी मान ले जाते हैं।बहरहाल, क्राफ्ट और भाव के संचारण पर ,आप बेहतर जानते हैं कि लंबी बहस है।ज़रूरी क्या हो?
जिस संवेदना को आपकी इस कविता में कहा गया, वह रहतरिक के बीच डिल्यूट होती गयी।ऐसी मेरी समझ है।
इतनी संवेदनशील कविता को सीधे से भी कह देते तो,आंसू आ जाते।
[11:13 pm, 03/12/2023] Anup Sethi: क्राफ्ट की बहस तो रहेगी ही। काव्य कला है, यह भी ध्यान में रखना होगा।
मनोज शर्मा की यह टिप्पणी महबूब शहर से गिला शिकवा कविता पर है।
Deleteमहबूब शहर से गिला शिकवा कविता पर मेरे बड़े भाई की टिप्पणी -
ReplyDeleteTejkumar Sethi
तुम्हारी कविता एक गुत्थी की तरह है जो पाठकों की अपनी अपनी गुत्थियों को सुलझाने में मदद करती है । आदमी किसी से मिलने की चाह में जिस समय की प्रतीक्षा करता है वह सरक कर आगे निकल जाता है ।
समय बड़ा विदूषक है ; वो ठट्ठा करके आगे निकल लेता है ; अपनों को अपने आगोश में समा लेता है। तुम्हारी कविता में वेदना के अश्रु उमड़ते हैं जो जमीन पर गिरते हैं और तब तुम्हारी कविता एक और गुत्थी सुलझाने लगती है ;
जो शायद संसार की निसारता की गुत्थि है।
आदमी किसी एक को मिलना चाहता है
जो अपना है केवल अपना ।
कविता मानस के मन की एक औैर गुत्थी सुलझाने लगती है। वह है मनुष्य अर्न्तमुखी होने की गुत्थि । वहीं उसे अनेक गुत्थियों को सुलझाने की कुञ्जी मिल जाती है।
अब जो कविता मुखरित होती है , उसमें दुनियाँ नहा उठती है।
तुम्हारी कविताओं की गुत्थियाँ तव हवा में छोड़ दी जातीं हैं खुले आम
और फिर वे स्वयमेव वायु के प्रदूषण को निथारने लग जातीं हैं।
लोग बाग अपनी अपनी गुत्थियों को सुलझाने लगते हैं।
** सुमनिका के जलरङ्ग चित्र में धुंधलका आसमान प्रकृति की अर्ध-पारदर्शिता को दिखा रहा है और मानव मन उलझावों की गुत्थियों को सुलझाने की होड़ में टकटकी लगाये बैठा है । कविता के सापेक्ष्य में और भी अशेष संकेत दे रहा है जो शायद कविता में कहने शेष रह गये होंगे।
महबूब शहर से गिला शिकवा कविता पर मित्र हेमंत भट्ट के उद्गार-
ReplyDeleteBhatt Hemantkumar
मिले अनमिले जुड़ गए, बस गए सदा के लिए दिल में, हर पल जिंदगी में मिले,
साथ साथ चले, दुआएं हैं बार बार मिलें।
महबूब शहर से गिला शिकवा कविता पर नवनीत शर्मा की टिप्पणी- Navneet Sharma
ReplyDeleteएक-एक कर चले गए मिलने वाले
मिलने के इंतजार में
जो पीछे छूट गए
अब उनसे
अनमिले चले गयों की याद में
मिलने का बहाना था
यह मिलना भी कोई मिलना था.......
चौबारे पर एकालाप को ध्यान से पढ़ने के बाद अब कुछ दावा कर सकता हूं कि आपके कवि को पहचानता हूं और कविताओं को भी। इस कविता में उदासी का गाढ़ा रंग है। और शिल्प वैसा ही है जैसे कोई दुखी हो पर सीटी बजा रहा हो। हम कहां मिलते हैं, और हर बार यह मिलना कमतर होता जाता है। बहुत अच्छी कविता।
महबूब शहर से गिला शिकवा कविता पर मदन लाल सुमन की टिप्पणी- Madan Lal Suman
ReplyDeleteअनूप सेठी ने इस कविता में अपने अंतर्मन की पीड़ा को बखूबी हम सबके सामने रखा है। उसे अपना घर बार,शहर छोड़ने का दर्द है। इस भाग दौड़ की जिंदगी में वह अपने लोगों से मिलना चाहता है लेकिन सबसे नहीं मिल पाता। इसके विभिन्न कारण हैं। कोई छोटी उम्र में तो कोई बीमारी से इस दुनियां को छोड़ गया। उसे इस बात का मलाल है कि वह उनसे नहीं मिल पाया। यही आज की त्रासदी है कि रोजी रोटी की तलाश में लोगों को अपना घर बार, शहर छोड़ना पड़ता है और इस दौरान वह उन सभी को नहीं मिल पाता जिनको मिलना चाहता है।
आज के यथार्थ को दर्शाती एक बहुत ही सुंदर कविता।