Monday, March 11, 2024

चौबारे पर एकालाप

 


पिछले साल लमही पत्रिका का एक कविता विशेषांक शशि भूषण मिश्र के संपादन में छपा। इसमें हिंदी के सौ कवि शामिल थे। इसमें मेरे दूसरे कविता संग्रह चौबारे पर एकालाप पर कवि कथाकार नाटककार रमेश राजहंंस ने समीक्षा लिखी। वह समीक्षा यहां आपके लिए प्रस्तुत है।  चित्रकृति: सुमनिका, कागज पर पेंसिल, स्याही और पुष्प। 


चौबारे पर एकालाप : पठन क्रिया-प्रतिक्रिया


'चौबारे पर एकालाप' अनूप सेठी जी का दूसरा काव्य संग्रह है। पहला काव्य संग्रह 'जगत में मेला' 2002 में आया था। यह दूसरा संग्रह 16 वर्ष बाद आया है। मन ही मन मुस्कुराया - जगत के मेले से अनूप जी निकल कर ये चौबारे पर एकालाप क्यों करने लगे भई ! उत्तर भी अपने आप उभरा - ये तो संग्रह की कविताएं ही बताएंगी। 16 वर्षों में चयनित कविताओं का दो ही संग्रह आना इस बात का संकेत देता है कि वे अपनी सृजन प्रक्रिया के सचेतन कवि हैं। उनके अनुभवों - अनुभूतियों का अपना सर्भाधान काल है। गद्य - कविता के अन्य फौरी कवियों के क्षिप्र गल्पावेग से उनकी कोई प्रतियोगिता या स्पर्धा नहीं दिखती। 

कविवर अनूप सेठी जी की 55 कविताओं के इस संग्रह की अधिकांश  कविताएं 2001 से 2014 के दौरान लिखी गयी बतायी गयी हैं। इसमें दो लम्बी कविताएं 'मेरे भीतर का शहर' 1988 और 'चौबारे पर एकालाप' 1989 में लिखी गयी हैं। अनूप जी ने कविताओं का रचनाकाल देकर पाठकों और खासकर आलोचकों को अपने आंतरिक व्यक्तित्व और रचना प्रक्रिया को समझने का सुलभ अवसर प्रदान किया है; पर इन कविताओं के लेखन और चयन के बारे में स्वयं कुछ नहीं लिखा है। अगर वे भूमिका या प्रस्तावना के रूप में कुछ लिखते तो वह इन कविताओं के सूक्ष्म सन्दर्भ का काम करतीं। हाँ, संग्रह के फ्लैप पर आगे-पीछे विजय कुमार जी की एक छोटी टिपणी जरूर है, पर यह तय मैं नहीं कर पाया कि उस टिप्पणी का प्रयोजन क्या है ? क्या उसे पुस्तक खरीदने या पढ़ने के लिए दृष्टिबन्ध और सिफारिश माना जाये ? आजकल के कविता संग्रह में ऐसे अमूर्त फ्लैप लेखन का चलन खूब दिखता है। मुझे नहीं मालूम यह अनूप जी ने लिखवाया है या ज्ञानपीठ के प्रकाशक-संपादक ने ? 

इस संकलन की आरंभिक कुछ कविताएं विद्यमान हिन्दी साहित्य के परिवेश और प्रवृत्ति से जुड़ी हुई हैं। साहित्य का सुधी और गम्भीर पाठक जब संस्कारित होकर रचना के क्षेत्र में उतरता है और अपनी संभावना को जानने-समझने के लिए हाथ-पैर मारता है तो उसे कैसे-कैसे माहौल और स्थितियों का सामना करना पड़ता है, ये कविताएं कुछ-कुछ उसी का बयान करती हैं। 'कवि लीलाधर जगूड़ी जी आये थे' कविता की ये पंक्तियाँ देखी जाएं -

 

मिल तो तब भी रहा होता है कवि

जब पाठक पढ़ रहा होता है

अकेले में उसे अपने आप

 

कवि से मिलना कविता के बाहर फिर भी

बड़ा जरूरी लगता था

रह गये जैसे जीवन में बहुत जरूरी बहुत काम

रह गया यह भी आधे धाम

 

 

उपर से साधारण दिखती ये पंक्तियाँ विद्यमान साहित्यिक परिवेश की गतिविधियों की सांकेतिकता से अथाह अर्थ भरी हैं। जब कभी कविता का गंभीर पाठक किसी कवि के कविता संग्रह को जरूरी पढ़ना समझ कर पढ़ता है, तो उस कवि से उसकी आंतरिक मित्रता होने लगती है। उनमें उन्हें कुछ-कुछ अपनापन मिलता है। यह अपनापन कितने दिनों तक टिकता है या विकसित होता है, यह दोनों के आंतरिक व्यक्तित्व की विकास-प्रक्रिया पर निर्भर करता है। उद्धृत पंक्तियों का मर्म यह है कि एक कवि अपने सीनियर कवि से, जिससे उसका संबंध कविता के माध्यम से श्रद्धामूलक बना हुआ है, मिलना तीर्थ (धाम) जैसा जरूरी समझता है पर साहित्य के स्थानीय पंडे (या सूबेदार) उस कवि को अपनी ही दुनिया में उड़ा ले जाते हैं। वह अपहरण कर्ता कवि अपहरित कवि को अन्य स्थानीय कवियों से नहीं मिलने देना चाहता कि कहीं सबसे मिलकर उस सीनियर कवि को उसकी असलियत का पता न चल जाये और अन्य समर्थ कवियों से उनका नाता जुड़ जाये। यह कविता इसी प्रवृत्ति को उजागर करती है। 

'छोटी सी साहित्य सभा', 'कवि की दुनिया, "कवि को देश निकाला', 'स्थानक कवि', 'स्थानीय कवि' आदि कविताएं आज के हिन्दी साहित्य के पतनशील सम्पर्कवादी माहौल पर बड़ी मार्मिक और मीठी व्यंग्यात्मक टिप्पणी है। अनूप जी ने 'स्थानक कवि' और स्थानीय कवि की दर्दनाक और शोचनीय स्थिति का जो दबे स्वर में बयान किया है, वह मारक प्रभाव छोड़ता है और अचानक नागार्जुन की कविता 'उनको प्रणाम' याद आती है। अनूप जी द्वारा वर्णित यह परिवेश चित्र पूरी तरह मुकम्मल हो जाता अगर वे ऐसे ही सम्पर्कवादी और  स्ट्रैटजीबाज तथाकथित नेशनल परमिट धारी कवियों पर भी अपनी सिद्धहस्त कलम चलाते। 


स्थानक कवि का स्थानिक रह जाना उनकी विवशता है। मुझे लगता है अनूप जी ने यह शब्द मराठी भाषा से लिया है जहाँ यह वाहनों के रुकने के लिए निर्दिष्ट होता है। आजादी के 70 सालों के बाद भी हिन्दी क्षेत्र पुस्तकालय, पुस्तकों की दुकान आदि सूचना और ज्ञान केंद्रित बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। पाठ्यपुस्तक को छोड़ कर शायद ही अन्य सामान्य विषयों की पुस्तकें उपलब्ध होती हैं। ऐसे में उनकी भाषा में ताकत और अभिव्यक्ति कौशल का विकास नहीं हो पाता। फिर महानगरों और भोपाल, इलाहाबाद, लखनऊ जैसे शहरों से आने-जाने वाले कवि-लेखक उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। आज की पहली पंक्ति के अत्यन्त वरिष्ठ प्रमुख कवि ने तो एक साक्षात्कार में यहां तक कह डाला कि भविष्य में हिन्दी के सारे प्रमुख कवि दिल्ली और भोपाल जैसे विकसित नगरों से ही आयेंगे क्योंकि प्रचार-प्रसार के शक्तिशाली केन्द्र और विभिन्न बड़े बड़े संस्थानों में नौकरियों के अवसर भी इन्हीं जगहों में होंगे। यानी आने वाले दिनों में कवि अपनी कविता की गुणवत्ता के कारण शायद ही मूल्यांकित हो, उसके बड़े होने की काबिलियत इस बात पर निर्भर करेगी कि वह मीडिया में कितनी जगह पर कब्जा कर पाता है और सेलेब्रेटी का दर्जा हासिल कर पाता है। लेकिन ताज्जुब होता है कि ऐसे भविष्यद्रष्टा महान कवि यह नहीं देख पाते कि इण्टरनेट और सेलफोन के प्रसार से गाँव- कस्बे के सचेतन लोग भी दुनिया में घटित हो रही उथल-पुथल और उनके वैचारिक स्रोतों से कटे नहीं रहेंगे । इसलिए उनकी चेतना और गुणवत्ता का स्तर शहरी लेखकों के बनिस्पत कमतर होगा; ऐसा मानना उन्हीं की सचेतनता पर प्रश्न चिह्न लगाता है। 

तीसरी कविता 'कवि को देश निकाला है' इस बात को दर्ज करती है कि हिन्दी साहित्य की दुनिया में सच सुन पाने का साहस छीजता जा रहा है। यहाँ अब चारणों- विरुदावली गायकों को पद्मासन पर पद्ममाला से विभूषित कर बिठाने और सत्तासीन प्रभुओं के मंगल गान को देशरत्न से नवाजने की नव परंपरा स्थापित की जा रही है। मुझे लगता है कवि ने यहाँ देश निकाला exile के समतुल्य के रूप में लिया है। प्रमाण -


आसान नहीं सच का गीत सुन पाना

अन्तरमन तक छिल जाता है

जीवन के घमासान में कुछ कर जाता है

 

वो जिगरा कहाँ कि कोई आग में जले

वो हुलस कहाँ कि कोई चन्दन मले

 

यह कवि को देश निकाला है

 

स्थानीय कवि की पहचान कराते हुए अनूप जी कहते हैं कि 'स्थानीय कवि में अपार श्रद्धा होती है कविता के प्रति...  श्रेष्ठ कवियों का भक्त होता है वह... बाहर के कवियों पर न्योछावर हो-हो सकारथ होता पाता है अपना जीवन । ये श्रेष्ठ कवि कौन होते है ? जो लघु पत्रिकाओं के विशेषांकों में जगह बनाते हैं और समीक्षाओं और पुरस्कारों और आयोजनों प्रायोजनों में सहभागिता से महिमामण्डित होते हैं और श्रेष्ठ होने की भंगिमा अर्जित करते हैं। ये स्थानीय कवि होते हैं जो सहज ही उनकी श्रेष्ठता को स्वीकार लेते हैं और स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं। 

ऐसे श्रेष्ठ कवि जब दूसरे शहरों में जाते हैं जहाँ इनके सम्पादक या गोष्ठीबाज  कवि मित्र रहते हैं तो पहले यह सुनिश्चित करते हैं कि वहाँ उनकी कविताओं का एकल पाठ हो और तमाम स्थानीय कवि श्रोतागण में उपस्थित हों। लेकिन ये मंच पर किसी स्थानीय कवि के साथ, आयोजक को छोड़कर, बैठना हेठी समझते हैं। इसी तरह विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों की चापलूसी करता वहाँ के आयोजनों में जगह बनाता है। फिर वह प्राध्यापक अपने किसी छात्र से उसके 'कृतित्व और व्यक्तित्व' पर लेख लिखवाता है और एक दिन किसी आयोजन में उसे महान कवि का मुकुट पहना देता है। आगे जब आधुनिक कविता के पुरोधों की नाम गिनाई शुरू होती है और उसमें उनके मित्र का नाम छूट जाता है तो उस लेख को ही सिरे से खारिज कर दिया जाता है, ऐसी मुहिम चलाई जाती है। फिल्मी संघर्ष के तर्ज पर आजकल इसी को कहा जाता है साहित्यिक संघर्ष| 

रमेश राजहंस :
हाल में प्रकाशित एकांकी संग्रह
अगर मगर दफ्तर चर्चा में है।  रंगकर्म पर
अपनी तरह की एक पुस्तक अत्यंत प्रचलित है।   

आगे कुछ 'घर गृहस्थी की कविताएं' हैं। इनमें 'जूते बेटी के', 'ये लोग मिलें तो बतलाना', 'पिता', 'तर्पण', 'कुनबा' जैसी कविताएं, पारिवारिक संबंधों के अनुभव - अनुभूतियों की कविताएं हैं। 'जूते बेटी के ' की आरंभिक पंक्तियाँ हैं- घर भर में फैले हैं जूते बेटी के, जगह-जगह कई जोड़ियाँ। आज के जागरूक मध्यवर्गीय परिवार में बच्चों की परवरिश में उनकी छोटी-छोटी रुचियों और मांगों पर मम्मी-पापा किस तरह ध्यान देते हैं, यह कविता इसी पर हमारा ध्यान केंद्रित करती है। 

पर उपर से सामान्य-सी दिखती यह कविता इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हो जाती है कि बच्चा यहाँ बेटी है, जिसे भारत के अधिकांश क्षेत्र में लाइबलटी माना जाता है। इसलिए उसे वह तरजीह नही मिलती जो बेटों को दी जाती है। बेटी की आवश्यकता की पूर्ति की जाती है, उसे एफ्लूएंस का स्वाद नहीं चखाया जाता क्योंकि अगर उसे ऐसे स्वाद का चस्का लग गया तो ससुराल में एडजेस्टमेंट में कठिनाई हो सकती है। ....... 'ये लोग मिलें तो बतलाना' एक आदर्श परिवार का बिंब है जो खोता जा रहा है। ऐसे परिवार में बूढ़ों की भूमिका के महत्व को दर्शाती है। पारिवारिक रिश्तों की ऐसी मोहक कविता मैंने हाल फिलहाल नहीं पढ़ी| इस कविता को पढ़ते हुए ऐसा महसूस हुआ जैसे वर्षों बाद मैं किसी अमराई में पहुँच गया हूँ। पेड़ अभी भी फल दे रहे हैं पर चुप लगाये हैं, अब वहां वह गहमा- गहमी नहीं है।

 

बेटा होने का मतलब है धमा चौकड़ी

घर को सर पर उठा लेने वाले शरारती देवदूत

घुटरुन चलत राम रघुराराई

माँ-बाप को घुटने टिकवा देते हैं

.................

उनकी बहनें न होतीं तो अन्तरिक्ष को थरथरा देते

.................

देश देशान्तर को राज्य प्रांतर को घर द्वार को

बेटा तोड़ के सीखना चाहता है

खिलौना हो वस्तु हो या हो संबंध

बेटी सहेज के जोड़ना जानती है

गुड़िया हो गृहस्थी हो या हो धरती माता

 

परिवार में लड़कियों के होने मात्र से परिवार में भावी पुरुषों में किस तरह भावनात्मक और नैतिक संतुलन स्थापित होता है, उक्त पंक्तियाँ उनकी मौजूदगी से स्फुरित ऊर्जा का जो प्रभाव क्षेत्र बनता है, उसका व्यक्तित्व निर्माण में जो योगदान होता है, उसकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। इसी तरह अनूप जी परिवार में बूढों की उपस्थिति की अनिवार्य भूमिका को भी दर्ज करते हैं-

 

कथा बाँच के ताकत पाते हैं बूढ़े

खाते कम गाते ज्यादा हैं

धीरे-धीरे सत्ता त्याग करते जाते हैं

................

आंखों की जोत मंद होती देह सिकुड़ती जाती

आत्मा का ताना-बाना नाती-पोतों के हाथ सौंपते

 

एक चादर बुनना मेरे बच्चों

उस चादर में महकेगा फूल

ख़सोटोगे तो झरेगा

सहेजोगे तो फलेगा

 

इसी सुर की कविताएं है 'भाई', 'पिता', 'तर्पण' और 'कुनबा' । 'कुनबा' थोड़ा सा अलग है। इसमें कवि यह दर्शाने की कोशिश करता है कि हमारे शारीरिक और स्वाभावगत चरित्र में कैसे हमारे पुरखे बसते हैं। वे नहीं रहते हुए भी हमारे व्यक्तित्व में छाये रहते हैं। 'टमाटर' मुंबई के उपनगर स्टेशनों से सटी सड़कों पर रोज लगने वाले भीड़-भड़क्के भरे बाजार में सब्जी खरीदने के जोखिम से पाठकों को परिचित कराने का प्रयास है। मुझे तो इस कविता में मुंबई की भागमभाग जिन्दगी के मासूम से लगते इस चित्रण में शालीन सूक्ष्म व्यंग्य और मीठे हास्य का स्वाद मिलता है। महानगरीय जीवन से स्पर्धा रखने वाले गंभीर आलोचक को इसमें जीवन की भारी विद्रूपता का साक्ष्य मिल सकता है। यानी, अपनी जमीन से कट कर बड़ी उपलब्धियों की प्राप्ति के चक्कर में आप महानरार में की ओर भागते हैं, वहां आप की टमाटर जैली उपलब्धियाँ भी भीड़-भाड़ की धक्कम-धुक्की में आप के हाथ से छूट कर रौंदी जाती हैं। अर्थात महानगर के आकर्षण में जो लोग अपनी जमीन से उखड़  कर भागते हैं, वे टमाटर जैसी उपलब्धियां भी सहेज कर नहीं रख पाते। 


अगली कविता 'रोना' ने अपने साथ बहुत देर तक बांधे रखा। यह कविता रोने की क्रिया और उसके बाद की अनुभूतियों को पकड़ने की कोशिश करती है। हम सभी वाकिफ हैं कि रोना अकारण नहीं होता। जो संबंध धुआँ का आग से है, वही संबंध रोने का पीड़ा से है। अपमान, अवमानना, अवहेलना, उपेक्षा तिरस्कार, प्रताड़‌ना आदि से जो व्यक्ति प्रतिकार द्वारा मुक्ति पाने की स्थिति में नहीं होता, तो प्रकृति उसे इससे मुक्ति दिलाने के लिए नैसर्गिक उपाय रोना लेकर उपस्थित होती है। उसी रोने को यहाँ कवि कारण से मुक्त कर सिर्फ एक कार्य या घटना के रूप में देखता-परखता है। यह कविता रोने का चाक्षुनिरीक्षण करती है और उसे बारिश में नहायी प्रकृति जैसी निर्मल, महकती और मिट्टी से अंखुआ फूटने जैसा पाता है। अंतिम परिणति के अहसास की पंक्तियां बाकी सब कह देती हैं--

 

फिर भी रह रह कर यही लगता है

कि रोना और रोने के बाद का होना कुछ और ही है

बहुत हल्का बहुत खाली

बहुत भारी बहुत भरा हुआ

पास भी अपने बहुत और दूर भी अपने से पता नहीं कितने

 

इसी तरह की एक और कविता है - 'अकेले खाना खानेवाला आदमी'।  यह महानगरों में परिवार से दूर रहने वाले कारीगरों, क्लर्कों, सेल्समेन, बहुत ही छोटे छोटे व्यापारियों आदि के रात्रि भोजन का चित्र उपस्थित करता है। ये वे लोग होते हैं जो कई कारणों से अपने परिवार को साथ नहीं रख पाते। ये जो कमाते हैं, उसका न्यूनतम से न्यूनतम हिस्सा अपने उपर खर्च करतेहैं ताकि अधिक से अधिक राशि अपने गाँव या कस्बे में स्थित परिवार के भरण-पोषण के लिए भेज सकें, इसीलिए महानगर की नारकीय जिन्दगी को जीते हैं। आटोमोबाइल को जैसे काम करने के लिए पेट्रोल की जरूरत होती है, उसी तरह ये पेट भरने के लिए खाते हैं। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पौष्टिक आहार के सेवन या भोजन का आनन्द लेने के लिए नहीं खाते। अक्सर खाते समय ये अपने जीवन की समाधानहीन समस्या में उलझे होते हैं। इसलिए कवि को वह खाने की धीमी मशीन-सा लगता है। कवि मक्खी के अवतार में उसे विभिन्न कोनों से देखता है। भारतीय समाज में खाना बनाने से लेकर परिवार के सदस्यों को खिलाने तक की प्रक्रिया से पारिवारिक स्त्रियों का अविछिन्न संबंध है जो अकेले खाते आदमी के मन मस्तिष्क में कौंधता रहता है। उसके खाने की तमाशबीन मक्खियाँ असंख्य हैं जिनकी उपस्थिति से हम जान पाते हैं कि खाने की उक्त जगह स्वास्थ्य की दृष्टि से हितकर नहीं है। फिर क्यों खाता है ऐसी जगह आदमी ? क्योंकि यही जगह उसके पेट और जेब के सामर्थ्य के अनुकूल है। कविता के अगले बंध में यह बात खुल जाती है।

 

खाने का बिल चुकाने के बाद

अकेले आदमी के माथे पर बल पड़ गये

जहाँ लिखा था दाम फिर बढ़ गए हैं

पेट भराई का अब कम दामी ठिकाना ढूँढना होगा

 

महंगाई की मार आदमी को कैसे धीरे-धीरे अदृश्य रूप में तोड़ती है, उसे निकष्ट तर जीवन की ओर धकेलती है, अनूप सेठी की यह कविता इस तथ्य को जैसे परत-दर-परत उघाड़ती है, क्या यह काम इसी शिद्दत से किसी प्रख्यात राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय प्रसिद्धिप्राप्त वामपंथी अर्थशास्त्री का आंकड़ों भरा लेख मुद्रास्फीति के दूरगामी प्रभाव या सरकारी मौद्रिक नीति पर सारगर्भित लेख कर सकता है ? 

अच्छी कलाकृति, कविता, संगीत, चित्र और फिल्म एक और बड़ा काम करती है। वे आप की स्मृतियों के अजायबघर के द्वार खोल देती हैं। इस कविता को पढ़ते हुए मुझे अकिरा कुरोसोवा की फिल्म, 'ईकरू, गोगोल की कहानी 'ओवरकोट', मुंबई का डाकयार्ड इलाके से गुजरती सड़क पीडिमेलो के मस्जिद बन्दर, दानाबन्दर, कर्नाक बंदर जैसी जगहों पर बसे पुराने गंदे रेस्त्रां में खाते अफ्रीकी, यूरोपीय मूल के बदरंग लोग जो जहाज से दण्डस्वरूप उतार दिये गये हैं; बान्द्रा स्टेशन के समीपवर्ती नेशनल होटल में फिल्मी स्ट्रग्लर के बिंब एक-एक कर उभरने और तिरोहित होने लगते हैं। 

'बेसुध औरत' और 'बेसुध औरत का आदमी' आप को राजकमल चौधरी के 'मृत्युप्रसंग' कविता की विवरणात्मक शैली का स्मरण दिलायेगी। 'भोली इच्छाएँ', 'प्रेतबाधा, 'रोजनामचा', 'गेहूँ' जैसी कविताएं जीवन के बहाव में सामान्य में विशिष्टता देखती दृष्टि का प्रमाण है। 

एक और महत्वपूर्ण खण्ड है- राजभाषा हिन्दी के कार्यान्वयन की केन्द्र सरकार की नीतियों के तहत केन्द्र सरकार के कार्यालयों और उपक्रमों में हिन्दी अधिकारियों की नयी नस्ल की पैदाइश। अस्सी के दशक के आस-पास इनका प्रादुर्भाव हुआ और नौकरशाही के विशाल तंत्र में इनके अस्तित्व और कार्य की द्वन्द्वात्मकता पर अनूप जी ने हल्की-फुल्की कविताओं के माध्यम से दशा- दुर्दशा पर नजरे इनायत फरमाई है जो ऐतिहासिक महत्व रखता है। 

इस संग्रह में दो लम्बी कविताएं हैं- 'मेरे भीतर का शहर' (1988) और 'चौबारे पर एकालाप' (1989)  मैं लम्बी कविताओं का पाठक बहुत प्रयास कर भी नहीं बन पाया। मुक्तिबोध के 'अंधेरे में', धूमिल की 'पटकथा', मणि मधुकर की 'घास का घराना, राजकमल चौधरी की 'इस अकाल वेला में; और नागार्जुन की 'हरिजन गाथा' जैसी लम्बी कविताएं बहुत बौद्धिक मशक्कत से बार-बार पढ़ीं, पर यहाँ वहाँ कुछ टुकड़ों के सिवा कहीं कविता की रसात्मकता को नहीं पाया। इसलिए ऐसे कवियों से सविनय अनुनय है कि लम्बी कविता लिखने की इतनी ही बेचैनी और आंतरिक दबाव है तो हे काव्यवीर प्रबंध काव्य - महाकाव्य जैसे काव्य रूपों पर हाथ आजमाएं, तो हम जैसे लोग भी आप का लोहा मान लेंगे। यह मेरी सीमा है। 

इन कविताओं में जो अच्छी बात लगी, वह है इनका सौम्य स्वाभाव, मंथर लय, व्यंग्य में भी मधुरता, भाषा में पहाड़ी जीवन की सी सादगी और बिंबों की सघनता, विराम चिह्नों की अनुपस्थिति। गद्य कविताओं के रूखेपन, एकरसता और पोस्चरिंग से आप को राहत मिलेगी और कविता के कवितापन के सौन्दर्य से आप का मन भर जायेगा।

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