Sunday, June 16, 2024

पृथ्वी में संगीत



सितारतय सुबह  


आज 16 जून की सुबह संगीतमय रही। मुंबई की खाली सड़कों का आनंद लेते हुए सवा सात बजे हम पृथ्वी थिएटर पहुंच गए। संगीत प्रेमी वहां पहले से ही पधारे हुए थे। यहां अच्छी सीट पाने के लिए लोग आध पौन घंटा पहले ही आकर कतार में लग जाते हैं। आज भी करीब तीस लोग हमसे पहले वहां मौजूद थे। अवसर था महीने के तीसरे रविवार की सुबह पंचम निषाद संस्था के शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम उदयस्वर ऐट पृथ्वी। आज सहाना बैनर्जी का सितार वादन था। पृथ्वी थियेटर हाउस फुल नहीं था फिर भी ठीक-ठाक संगीत प्रेमी इतनी सुबह पहुंच गए थे। सहाना बैनर्जी ने सुबह के तीन राग प्रस्तुत करने थे, राग ललित, गुर्जरी तोड़ी और राग भैरवी। महफिल को सजाने संवारने के लिए सहाना जी ने राग ललित बड़े इत्मीनान से पेश किया। अपनी वादन कला से दर्शकों को शुरू से ही सम्मोहित किए रखा। 

पृथ्वी थिएटर में माइक्रोफोन और एमप्लीफायर का प्रयोग नहीं होता है। साज से निकलने वाली ध्वनि तरंगें अपने मूल रूप में सारे सभागार में फैलती हैं। हम लोग जानबूझकर मंच के करीब बैठे ताकि सुनने के साथ-साथ संगीतकारों के हाव-भाव को भी नजदीक से देख सकें। मंच पर तीन ही लोग थे- रामपुर सेनिया घराने की सितार वादक सहाना बैनर्जी, तबले पर ओजस अधिया और संभवत: सहाना की एक शिष्या तानपूरे पर। सितार को गायकी अंग में सुनकर मन भीग जाता है। मैंने अभी तक शाहिद परवेज़ के ही सितार में यह गूंज और लचक सुनी थी। सुमनिका कहती हैं सितार में तो यह होता ही है। यह मीड़ या स्वर की लोच बाज़दफा इतनी लंबी और लहरदार होती है कि स्वरलहरी बलखाती दूर जाती या डूबती जाती प्रतीत होती है। जैसे रंग भरी कोई बंकिम रेखा धीमे धीमे ओझल होती जाती हो। आपके प्राण उससे बंधे बंधे खिंचे चले जाते हैं। आप उसके पीछे-पीछे उतराने लगते हैं।

राग ललित के बाद सहाना जी ने गुर्जरी तोड़ी बजाई। समय की बंदिश के चलते इसे इतना विस्तार नहीं मिला। फिर भी मेरे जैसे साधारण श्रोता को ललित की स्वर लहरी और गुर्जरी की स्वर लहरी में फर्क महसूस हुआ। उसके बाद थोड़ा समय बचा था जिसमें भैरवी में एक धुन उन्होंने बजाई। और उसके बाद इसी राग में एक पुरानी बंदिश भी बजाई। भैरवी की दोनों ही बंदिशें अत्यंत मनमोहिनी थीं।  एक साथ सभी श्रोता इस बात की गवाही भी अपनी तालियों के जरिए दे रहे थे। 

आज की संगीत सभा में सितार के साथ तबले की संगत का बहुत ही आनंद आया। ओजस अथिया सितार वादक के साथ-साथ चल रहे थे। सितार की ध्वनि जब धीमी पड़ जाती, जैसे मानो वह खुद से ही बात कर रही हो, तब तबला भी मुलायम, महीन और मंद हो जाता। जब सितार के तार उल्लसित झंकृत होते, तब तबला भी अपनी कलात्मक ओजस्विता से सभागार को गुंजायमान कर देता। दोनों की संगत बेजोड़ थी। संगीत सभाओं में तानपूरा की भूमिका अपरिहार्य होती है। तानपूरा बजाने या स्वर छेड़ने वाले की भूमिका मुझे बहुत कठिन प्रतीत होती है। मुख्य वादक सहाना जी जैसे ही मिजराव से तारों को छेड़तीं, उनकी दूसरे हाथ की अंगुलियां तारों से खेलने लग जातीं। वह कभी अपने भाव में डूब जातीं, कभी तबले की संगत पर 'क्या बात है' कह उठतीं। बीच-बीच में अपने सितार के कान भी उमेठती रहतीं ताकि सभी तारें सुर में रहें। तबला वादक भी सितार और सितार वादक की भाव-भंगिमा के साथ अपने साज़ के साथ और अपनी देह भाषा के साथ सहज अभिव्यक्ति कर रहे थे। ऐसे आंदोलित माहौल में जहां दो साज़िंदे अपनी-अपनी भाव-भूमि में और अपने-अपने साज़ के साथ आनंद रास में मगन हों, वहां तानपूरे पर सुर छेड़ने वाली साध्वी से कम प्रतीत नहीं हो रही थीं। शायद संगीत सभाओं का यह अनुशासन होता है कि तानपूरा छेड़ने वालों की मुख मुद्रा एकदम शांत और निस्पृह रहती है। यह तो हो नहीं सकता कि वे संगीत का माहौल बनाने में जो अनिवार्य योगदान दे रहे होते हैं, उनके मन में कोई भाव न घुमड़ रहे हों। लेकिन वे उसे अभिव्यक्त नहीं होने देते। उंगलियां भी तानपूरे पर एक लय से फिरती रहती हैं। संगीत की इस पृष्ठभूमि का महत्वपूर्ण योगदान है। क्योंकि यदि तानपूरा न हो तो संगीत सभा में भराव नहीं आ पाएगा। 

हम लोग सभागार में आगे यह सोचकर बैठे थे कि कलाकारों के संगीत के साथ-साथ उनकी भाव-भंगिमाओं का भी आनंद लेंगे। लेकिन संगीत का प्रभाव कुछ ऐसा था कि आप स्वर के साथ चलते हुए कहीं खो जाएं और आंखें बंद हो जाएं। तब बंद आंखों में संगीत का एक अलग ही तरह का संसार खुलता है। फिर थोड़ी देर में जब मन कहीं खोने लगता, तो  आंखें खुलतीं और रोशनी के बीच सितारे अपने साज़ों  के साथ डूबते और खेलते हुए नजर आते। आंखें मुंदने और खुलने का यह क्रम बार-बार चलता रहा।

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