Sunday, November 24, 2013

तीर्थाटन-सह-पर्यटन-सह गृहगमन

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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल 


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।


29/05/2000
नया साल शुरू हुए पांच महीने ख़त्म हो गए। नया साल नई शताब्‍दी। नई सहस्राब्‍दी। वक्‍त के इन टुकड़ों पर इतरा के क्या होगा। वक्‍त या तो अणु-परमाणु की तरह विखंडित होता है या फिर अंतहीन क्रम है। ये टुकडे़ तो सुविधा और भोग के खेल हैं।

मई महीने में करीब 20 दिन मुंबई से बाहर रहे। पिता जी के लिए खास तौर से हम सभी तीर्थाटन-सह-पर्यटन-सह गृहगमन करके आए। हरिद्वार, ॠषिकेश, देहरादून, मसूरी, धर्मशाला, मंडी, अमृतसर। हरिद्वार - गंगा स्नान। धर्म और कर्मकांड का एक और गढ़। पर भीतर झांक कर देखो तो यह एक सांस्कृतिक स्थल भी तो है। भारतीय परंपरा और मानस का एक जीवंत स्रोत। जीवंत पौराणिक आख्‍यान। जन समुदाय इह लोक परलोक सुधारने के लिए जुटा रहता है। धर्म के व्यपार की भी कई गझिन छायाएं यहां हैं।

धर्मशाला दो वर्ष बाद जाना हुआ। जब तक वहां न पहुंचो, एक तड़प बनी रहती है। टीस। हूक। पहुंच जाओ तो वर्तमान यथार्थ एक उदासी पैदा करने लगता है। हांलाकि शहर बहुत नहीं बदला है, पर न जाने वहां कैसी खुश्की और खालीपन है जो मुंबई की खुश्‍की और रीतेपन से अलग है। शायद घर भी एक कारक है। पर इस बार दो महत्वपूर्ण फैसले हो गए। भाई साहब को पूरे मकान में रहने की छूट। और बगल वाली ज़मीन की उनके नाम रजिस्ट्री। शायद अब उस शहर के कुछ रंग लौट आएं। हमारे वापस लौटने का हौसला थोडा़ पस्‍त हो गया है। नए सिरे से मंसूबे बांधने होंगे। खास तरह के जीवन को बनाए रखने का बंधन भी एक सीमा बन जाती है। उससे कैसे पार पाया जाए। रचनात्मकता को जीवित रखना ही शायद मूलमंत्र है।

01/10/2000
इस बीच फिर लंबा वक्‍फा बीता है, बिना कविता लिखे। यह फर्क ज़रूर है कि बिना कुछ लिखे नहीं रहा यह वक्त। इस बार यात्रा वृत्‍तांत लिखा। बहुत समय उसमें लग गया। 30 जुलाई को लिखना शुरू किया सितंबर के पहले हफ्ते में अंतिम रूप से तैयार हुआ। खरामा-खरामा। साथ में दीन दुनिया भी चलती रहती है। सुमनिका ने यात्रा के मिस बैजनाथ मंदिर पर अपनी विद्या के सहारे से लिखा। वह पहले पूरा हो गया था। मुझे ज्यादा वक्त लग गया। पर पूरा होते ही विपाशा को भेज भी दिया। अभी इन्टरनेट के लिए वेब दुनिया को भेजने की तैयारी है। अगर इन लोगों को पसंद आया तो, वैसे इन्टरनेट पर अभी गंभीर लेखन की परंपरा बनी नहीं है। इसीलिए उम्मीद कम ही है।

लाख टके का ख्याल यह रहता है कि कविता लिखी जाएगी?

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