रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल |
डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्थायित्व भी ज्यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।
03/10/98
आज आकाशवाणी के लिए अली सरदार जाफरी का साक्षात्कार लिया। मैं 10-12 सवाल लिख के ले गया था। किताब भी थोडी़ बहुत पढ़ गया था। पर ज्यादातर बात PWA पर ही केंद्रित हो गई। फिर मुडी़ तो हिंदी उर्दू से होती हुई भाषा समस्या पर पहुंच गई। अपनी कविता की विकास यात्रा पर महाराज ने कुछ बोला नहीं, माने मार्के का, और बाद में शिकायत करने लगे कि और सब पर हुई कविता पर बात नहीं हुई। फिर जो बात कविता पर की भी, वह अपनी ही कविता का वखान थी। उर्दू कविता के मिजाज या परिवर्तन पर कुछ खास नहीं बोले। प्यास और आग (1960) संग्रह के बाद उनकी कविता में क्या तब्दीलियां आईं, उन पर भी वे बहुत नहीं बोले। ''PWA का रोल खत्म हो गया है। तब की जरूरत थी, पूरी हुई। अब साहित्य अकादमी है, NBT है, दूसरी अकादमियां हैं, वे इस भूमिका को निभा रही हैं।'' ये टिप्पणियां बहसतलब हैं लेकिन साक्षात्कार में इतना समय नहीं था, कि और उलझा जाता।
इन्टरव्यू लेने के लिए हालांकि सुमनिका को बुलाया गया था, पर उसका कॉलेज था। मैं इसीलिए चला गया कि इस बहाने से सरदार से वाकिफियत हो जाएगी और सुमनिका जो प्रदीप सक्सेना के आलोचना अंक (पहल) के लिए इन्टरव्यू लेना चाहती है, वह आसान हो जाएया। हालांकि मन में कहीं यह भी था कि भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान प्राप्त साहित्कार से इस तरह सार्वजनिक बातचीत करने का अवसर चूकना नहीं चाहिए। क्या यह यश-लिप्सा का एक रूप है? पता नहीं, मन में बात खटकी क्योंकि अर्से से इस तरह के मौकों से भागता रहा हूं। क्या यह लाइकोपीडियम (होम्योपैथी) का असर है?
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