रेखांकन: सुमनिका, कागज पर चारकोल |
डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्थायित्व भी ज्यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।
05/01/98
इस बीच कई दिन बीत गए हैं। कई रातें गुज़र गई हैं। न कविता हूक बन के दिल में समाई। न छुट्टी वाली रात को हाहाकार बन कर निकली। दिसंबर खत्म हो गया। यानी सन् सत्तानवे खत्म हो गया। यानी एक और साल बीत गया। अ भी-अभी थोडी़ देर पहले सोच रहा था क्या किया। इतने साल बीत गये। लिखना तो दूर की बात, मसले ठीक से समझ भी नहीं पाए। समझ बनी ही कहां। उमर चालीस की हो गई। जैसे अभी तक कुछ पल्ले पडा़ ही नहीं है। सोचा था साहित्य अपना क्षेत्र है। लेकिन साहित्य की भी समझ कहां है? जेब में कोरा कागज़ ही है। उस पर ककहरा भी नहीं उकेरा गया है। जब कागज़ ही कोरा है तो लिखा कहां से जाएगा।
क्या यह अवसाद का दौरा है? हो सकता है, कुछ हद तक अवसाद ही हो। या हो सकता है कुछ न कर पाने की कुंठा हो। सुमनिका तो कहती है, चिढे़ हुए रहते हो। चेहरा भी वैसा ही दिखता है। तो क्या चेहरे में भी चिढ़ भर गई है।
नौकरी तो दिमाग़ पर चारों याम छायी ही रहती है। (इससे बडी़ मुसीबत और क्या होगी) इधर रेडियो वालों ने फंसा दिया है। भारती पर प्रोग्राम बनाने का बिल्कुल मन नहीं है। रत्ती भर उत्साह नहीं है। वे इस बात को समझते नहीं। सुमनिका भी नहीं समझती। मना कर देने का मन है पर किसे कैसे कहा जाए।
भारती को पूरा पढा़ भी नहीं है। छिटपुट पढा़ई के बूते पर न्याय नहीं हो जाएगा। उससे बडी़ बात यह कि जो प्रोग्राम उनके मरणोपरांत उनके जन्म-दिन का देखा 'पुष्पांजली', उससे मन और भी मर गया है। काफी फूहड़ था।
कविताओं के प्रति यही धारणा बन रही है कि वासना लिप्त मांसलता का ही गान भारती ने किया है। कविता में वे उससे बाहर नहीं निकले। जहां कविता में कथात्मकता या चरित्र या मिथ या इतिहास या पुराण का सहारा लिया गया है, वहां समाज की व्याख्या होने लगती है। अंधायुग उसका चरम है जबकि कनुपिया मिथक के सहारे के बावजूद दूसरे छोर की कविता है। देह की उपासना। कुल मिला कर भारती आकर्षित नहीं करते। (आज 2013 में सोचता हूं, यह कितना सरलीकरण है)
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