रेखांकन: सुमनिका, कागज पर चारकोल |
डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्थायित्व भी ज्यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं। इस कडी़ के साथ ही यह श्रृंखला अब संपन्न होती है।
07/11/2000
बांदरा से आने पर लिंकिंग रोड शुरू होती है तो बहुत भीड़ के बीच में, बडी़ तीखी महक से सबका पड़ता है। खास किस्म की महक, पंजाब पहाड़ में आम तौर पर यह महक पाई जाती है। यहां चिकन तंदूरी सिक रहा होता है। तंदूरी का खास तेल मसाला। अपना आलम बिखेरता मसाला। जगह बडी़ मज़ेदार है। लिंकिंग रोड का बाजार। जूते चप्पल। सूट और सूट। जनाना सूट। ग्राहक टूटे पड़ रहे होते हैं। बहुत से लड़के चादरों में बेचने वाली चीजें जैसे पर्स या कपडे़, टीशर्ट वगैरह बेचते हैं। ट्रैफिक एक के ऊपर एक चढा़ आता है। वहीं है यह मुर्ग मुसल्लम। सारे बाजार में इस दुकान की महक गमकती रहती है। जब भी गुजरो यह गंध बडी़ पहचानी सी लगती है। आज अचानत कौंधा - अरे यह तो वही गंध है। शायद 81-82 की बात है। हमीरपुर (हिमाचल) में मिली थी यह गंध। मैंने अथकथा राजा घसीट सिंह नाटक लिख लिया था। शायद नौकरी की तलाश थी। गुरूजी (रमेश-रवि) मंडी जा चुके थे। पता चला उनकी एक्जाम ड्यूटी हमीरपुर में लगी है। मैं मिलने जा पहुंचा। करीब दस बरस बाद हमीरपुर गया था। हीरानगर के पीडब्ल्यूडी रेस्ट हॉउस में वे रह रहे थे। शाम को गुरूजी की संगत लगती थी। नीचे बाजार से तली हुई मछली लेकर गए। उनके कमरे में गाटी लगी। मैं तो तब सूफी ही था। रात को नाटक सुनाया। या पता नही, शायद तब नाटक नहीं सुनाया था, मंडी में उनके घर पर सुनाया था। पर उस तली हुई मछली की गंध ही चिकन की यह गंध है।
बांद्रा में दो सेंधें लग गईं, दोनों गंध मादन सेंधें। एक लगी थी स्टेशन से बाहर निकल कर तालाब के किनारे, गंदे पानी की नाली में। उस नाली में ट्टटी मिली हई थी। उसकी गंध निरंतर व्याप्त थी। यह गंध कुल्लू में थी। सन 70-72 में। कहां कुल्लू, कहां मुंबई। ट्टटी की दुर्गंध एक सी। यह बात मैंने भाई साहब को चिट्ठी में लिखी भी थी। अतीत में जाने की एक सेंध तब लगी थी। और एक सेंध आज लगी है - तंदूरी चिकन के जरीए। सरे बाजार।
8/11/2000
आज देखा ध्यान से, हालांकि स्कूटर पर चलते हुए। ज्यादा देर तक रुकने की फुर्सत नहीं थी इसलिए जितना ध्यान दिया जा सकता था, दिया। वह पंजाबी फिश फ्राई और चिकन की दुकान है। तदूंरी नहीं फ्राई। वही मसाला। वही गंध। हमीरपुर वाली। कहां हमीरपुर, कहां मुंबई की लिकिंग रोड। पर क्या यह गंध गुरूजी की संगत के कारण अविस्मरणीय हुई है?
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