डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्थायित्व भी ज्यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिड़ा हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के दूसरे अंक में हाल में छपे हैं।
कविता की हूक
11/12/97
पहल के नए अंक के साथ एक पुस्तिका आई है- मंगलेश डबराल से ललित कार्तिकेय की बातचीत। बहुत से पहलुओं को उन्होंने छुआ है। कविता लिखने को लेकर उन्होंने कहा है कि हर बार नई कविता लिखते समय लगता है जैसे कविता लिखना भूल गए हैं। नए सिरे से लिखना शुरू करना होता है।
यह बात लगा, मेरी ही बात है। अर्से से मेरे साथ भी यही होता है। ऐसा लगता है जैसे कविता लिखनी आती ही नहीं। जब लिख लो तो वह भाती नहीं। कविता लिखने का वैसा उद्रेक नहीं होता। संवेदना ही जैसे सोई रहती है। बहुत बड़ी बड़ी चट्टानें जैसे राह में पड़ी रहती हैं। अपनी कविता के प्रति निर्ममता और भी भटकाती है। वर्तमान कविता की बाढ़ को देखकर निर्ममता ज़रूरी लगती है। लेकिन यह निर्मतता किसी बच्चे की निश्च्छलता को बरज देने जैसा कहर भी ढा देती है। जैसे अरू और सुमनिका (बेटी और पत्नी) को ज़रा ज़ोर से बोल दूं तो दोनों ढुलमुल हो जाती हैं। उनका उत्साह मर जाता है। अपनी कविता पर कड़ाई बरतने से भी ऐसा ही होता है। शायरों और कवि सम्मेलनी कवियों जैसी आत्म-मुग्धता की प्रतिक्रिया स्वरूप ही तो कहीं ऐसा नहीं होता है? ऐसा नहीं लगता। वह तो रास्ता ही अलग है। यह मौजूदा कविता के रंग-ढंग से बचने का मकैनिज्म है। जो वाज़ दफा क्या, अक्सर ही सिट्टी-पिट्टी गुम कर देता है। तीन कविताएं लिख रखी हैं। संतुष्ट नहीं करतीं। वे पूर्ण नहीं होतीं। नई बनती नहीं। यूं भी गति बेहद कम है। कविता लेखन के लिए अक्सर लगता है कि आदमी में आत्मरति होनी चाहिए। इसका ज़रा सुधरा हुआ रूप होगा अपने ऊपर भरोसा। अपने देखे, सोचे, महसूस किए पर विश्वास। अपनी बात की कीमत।
थोडी़ देर पहले अरू किताबों से खेल रही थी। क्लास के दृश्य की कल्पना कर, खुद अध्यापिका बन, सबको पुस्तकें बांट रही थी। उसमें मेरी एक पुरानी डायरी भी थी। वह डायरी मैंने उठायी। पलटी। उसमें शुरुआती दौर की हिंदी और पहाडी़ कविताएं हैं। एक कविता पढी़। पहाडी़ में। तुक में। पहाडी़ (भाषा) में बोली की लोच है। लावण्य भी। सुमनिका को अर्धनिद्रा में सुनाई। पढ़ कर मज़ा आया। संयोग यह भी था कि वह ठीक 22 वर्ष पहले की थी, सन् 1975 की। दिसंबर महीने की 12 तारीख की और आज 11 दिसंबर है। यह कविता 1977 में हिमभारती में छपी भी थी। कविता के नीचे यह भी दर्ज कर रखा है। पढ़ कर लगा, उस वक्त क़े हिसाब से, बी. ए. के दूसरे साल में बुरा प्रयास नहीं था। शायद यही कारण था कि रूह में थोडी़ फुरफुरी हुई। नीचे उतर कर पान-चर्वण कर आया। आ कर डायरी लिखने बैठ गया। मित्र कवियों की कविताएं पढ़ने तक सीमित हो चुके समय में इस तरह अपनी पुरानी कविता पढ़ कर जाग उठना उत्साहवर्धक है। नौकरी के बेतुकेपन के बीच यह जागृति ज़रा देर ठहर जाए! जैसे आजकल सुबह-शाम ज़रा सी तुर्शी, ज़रा सी ठंडी हवा, मन में नॉस्टेलिज्या भर रही है, कविता ने उस नॉस्टलिज्या को थोडा़ और सघन कर दिया है। मन करता है, रात भर जागे रहा जाए। बैठ कर मन के उच्छवास को उचारा जाए। पर दिनचर्या का भूत कड़ियल मास्टरनी की तरह कमरे में टहल रहा है। जो कहता है, बस करो। सो जाओ। वरना सुबह दफ्तर देर से पहुंचोगे। ओ कविता की हूक, तू फिर से दिल में समा जा। छुट्टी वाली रात को हाहाकार बन निकलना।
Bilkul sach hai chhuti aur hahakar kee peeda ,kitna kuchh chhoot jaata hai rotee ke chakkar mein.
ReplyDeleteजी, यही तो विडंबना है।
Deleteरोचक है यह डायरी !
ReplyDeleteधन्यवाद हमनाम शुक्ल जी
Deleteडायरी में चाशनी के रस का ज़ायका आता जाता है. दिल तो करता है डायरी के और भी पन्ने होते या फिर सिलसिलेवार क्रम से डायरी पब्लिश हो सकती होती तो हम शहद की मक्खी की तरह चिमड़े रहते..
ReplyDeleteसही कहा
Deleteजी, और भी आ रही है।
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