रेखांकन : सुमनिका कागज पर चारकोल |
डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्थायित्व भी ज्यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।
15/09/98
पांच हफ्ते कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। डायरी लिखने का मौका भी नहीं मिला। एक बार फिर दिल्ली जाना पडा़ और लौटकर वही नियमति व्यस्तता।
कल शाम को लौटते समय (वर्ड ट्रेड सेंटर से) संजीव चांदोरकर (आईडीबीआई में सहकर्मी और मराठीभाषी सचेतन मानुस) मिल गए। ट्रेन में भी थोडी़ बातचीत होती रही। वे एक मराठी पत्रिका पर्याय का जिक कर रहे थे। हिंदी की लघु पत्रिकाओं जैसी पत्रिका है लेकिन वे उसकी संपादकीय दृष्टि, रचना-चयन यदि से प्रसन्न नहीं थे। उनका आशय यह था कि इस तरह...
16/ 09/98
... की पत्रिकाएं बहुत सीमित पाठकों तक जाती हैं। लेखकों और कार्यकर्ताओं के बीच ही जाती हैं, जिनकी बौद्धिक तैयारी काफी हद तक हुई होती है। तो उन्हें ऐसी सामग्री चाहिए जिससे उन्हें कुछ नई बात, नया दृष्टिकोण जानने को मिले। लेकिन पत्रिका में कुछ भी भर दिया जाता है। शायद पत्रिका छापने का शौक ज्यादा होता है। सब लोग कई कई वर्षो से काम कर रहे हैं और उनकी उम्रें भी चालीस को छू रही हैं लेकिन मामला कॉलेज विद्यार्थियों जैसा रहता है। इस पर मैंने कहा कुछ गड़बड़ है। शायद परिपक्व होने की उम्र बढ़ गई है। अब लोग जल्दी मैच्योर नहीं होते। मेरी उमर भी चालीस बरस हो गई है लेकिन बहुत से मसलों पर लगता है, स्पष्टता नहीं है। कई बातें पता ही नहीं हैं। बहुत कुछ तो पढ़ सीख ही नहीं पाए। पहले छोटी उमर में ही लोग बडे़ हो जाते थे। शायद यह बात सिर्फ अतीत राग नहीं है। कहीं कुछ गड़बड़ तो है। अगर कोई 50 वर्ष तक युवा ही होगा तो वह परिपक्व कब होगा, प्रौढ़ कब होगा और ज्ञानी वृद्ध होने के लिए उसके पास अपनी उमर के कितने बरस बचेंगे? क्या हमारी आयु इतनी बढ़ गई है? अगर औसत उमर 70 भी हो तो भी उसके पास परिपक्व समझ के 20 ही बरस बचते हैं यानी युवावस्था से कम। इसके कारणों को ढूंढना बडा़ मुश्किल है और अपने मामले में तो लगता है 50 तक भी परिपक्वता शायद भी आये। मतलब समझदारी।
परिपक्वता का सम्बन्ध उम्र से नहीं होता ।
ReplyDeleteआप ठीक कह रही हैं।
Deleteकवि को समझदार होना चाहिये क्या ?
ReplyDeleteअगर आप समझदारी को दुनियादारी से जोड़ रहे हैं तो, नहीं। वरना समझदारी के बिना भाववाद का रायता फैलेगा, जिसे कवि सिर्फ भावुक होकर गाता रहेगा। कवि के अंदर अगर सवाल उठाने की हिम्मत होनी चाहिए तो उत्तर ढूंढने और उत्तर देने की कूवत भी होनी चाहिए।
ReplyDeleteहा - हा .... मतलब समझदार कवि भावुक नहीं होता और खाते हुए रायता भी नहीं फैलाता ..... इन सोच समझ वालों को थोड़ी सी नादानी दे मौला !
ReplyDeleteउस नादानी से कविता का न जाने क्या होगा जब कवि मुहावरे के रायते को थाली का व्यंजन समझ बैठेगा
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