अचानक स्लिप डिस्क वाली दर्द उभर आई है। जुकाम तीसरे
दिन भी शांत नहीं हुआ। जिस कारण दफ्तर नहीं गया। सोचा। होम्योपैथी दवाएं पढ़ीं। अमरकांत
का उपन्यास सूखा पत्ता पढ़ना शुरू किया। डायरी लिखते समय एक ख्याल हमेशा आता है कि अमूमन
डायरी रात में लिखने की धारणा क्यों है?
या यह सिर्फ मेरे मन में बैठी बात है या तमाम तमाम चीजों से सामना
रात के निस्तब्ध अंधकार में ही संभव है। दिन का उजाला, हरकत,
खलल चीजों को बेपर्दा देखने नहीं देते।
तीन एक दिन पहले सतना से कमला प्रसाद आए थे। अपने बेटे
की स्लिप डिस्क के इलाज के सिलसिले में। शुक्रवार को विनोद श्रीवास्तव के दफ्तर में
मिलना तय था। लेकिन पलायनवाद का ऐसा घनघोर दौरा पड़ा कि सारी बातें भूलकर घर आ घुसा।
मन भारी बना रहा। सुमनिका को भी दुखी किया। पलायन की यह वृत्ति नई नहीं है। बहुत वर्ष
पहले बंबई में एक संबंधी आंनद की शादी में गया था। थोड़ी देर वहां रह कर भाग खड़ा हुआ।
खाना खाने की हिम्मत नहीं हुई। संजय खाती नवभारत टाइम्स में रात की पाली में था। उसके
पास गया। कल्पना रेस्टोरेंट में हम दोनों ने खाना खाया।
इधर पढ़ने लिखने का काम संतोषजनक ढंग से न कर पाने के
कारण उदासी स्थाई भाव बन गया है। इससे और ज्यादा गड़बड़ हो रही है। काला
चिकना दलदल है। जो अपने भीतर खींचता ही जाता है। सुमनिका बराबर कोशिश करती रहती है।
तरह तरह से। पर खुद से ही कुछ बन नहीं पाता।
कमला जी से शुक्रवार को न मिल पाने का अपराध बोध तब
और बढ़ गया जब इतवार को उनका फोन आ गया कि आज (इतवार) रात वे वापिस जा रहे हैं। तभी
तय कर लिया कि मैं और सुमनिका उनसे मिल के आएंगे। रमन जी से भी कहा। वे तैयार भी हुए, पर ऐन मौके पर ठिसर गए। वीटी तक
जाते समय मैं और सुमनिका लोकल में इसी उदासी, नाकारापन के
बारे में बात करते रहे। उसका मत है कि हमेशा नेगेटिव ही क्यों देखा जाए। और कुछ न कुछ
अवश्य लिखते रहना चाहिए। कुछ दिन पहले तो वह मुझे पहाड़ी जीवन पर एक उपन्यासिका लिखने
की सलाह दे रही थी। मैं इस बात से चिढ़ गया कि मैं तो कविता लिखना चाहता हूं। उपन्यास
क्यों लिखूं? हालांकि यह एक और मूर्खतापूर्ण सोच है।
आचर्श्य है कि कमला जी से जो थोड़ी देर बात हुई, उसमें भी निष्कर्ष यही था,
बल्कि उनकी सलाह थी कि लिखने का अभ्यास बंद नहीं करना चाहिए। कुछ
न कुछ अवश्य लिखते रहना चाहिए।
27-7-98
अनूप जी.. तारीख़ बताती है कि पोस्ट पुरानी है, सो 'कम बैक सून' कहना तार्किक नहीं लगता। जहां तक पलायन की बात है तो हर चिंतक इससे दो-चार होता ही है।
ReplyDeleteसुमनिका जी का सुझाव भला है। अमल न किया हो तो कर लें, अच्छा लगेगा पहाड़ी जीवन के बारे में 'पढ़ना'...
माधवी जी, धन्यवाद. आपकी बातें ठीक हैं. असल में ये डासरी के अंश हैं. इंट्रो न लगाने की वजह से यह अंश शायद अधूरा लगता है. वैसे भी मुझे लगता है जब वस्तु तहत्वपूर्ण हो, तभी लगाई जाए, वरना पाठक का वक्त बरवाद होता है.
ReplyDeleteअनूप जी, मुझे लगता है कि दिन भर की घटनाएं इकट्ठा करने के इन्तज़ार में रात हो जाती है डायरी लिखने के लिये :) वैसे भी डायरी एकान्त में इत्मीनान से लिखी जा सकती है और रात सा एकान्त और कहां?
ReplyDeleteकमला जी से मुझे भी हमेशा यही सलाह फटकार के रूप में मिलती रही है. पता नहीं कितना अमल कर पाती हूं :(
अरे जनाब डायरी लिखने के लिए घडी नहीं देखी जाती, मूड देखा जाता है. वैसे आपने इतनी पुरानी पोस्ट पेलकर कैलंडर दिखा दिया है.
ReplyDeleteनामवर सिंह "द्वितीय"
घड़ी तो तभी देखी जाती है जब हम समय से पीछे रह गये हों या समय का पीछा करना हो। फिर डायरी तो बीते हुए का लेखा-जोखा होती है इसलिए बीत जाने के बाद ही लिखी जा सकती है। अब वो बीते हुए समय का एक टुकड़ा हो या अपने आप में सारे जीवन को समेटे कुछ पल। फिर दिन हो या जीवन बीतते-बीतते रात हो ही जाती है। सलाह घड़ी नहीं देखने की और देते-देते कैलंडर में घुस गये। जनाब। तब पता चला कि पुराना पेला जा रहा है। इस पेलने के बिना भी काम चल सकता था पर तब मजा नहीं आता।
ReplyDeleteसच है, कुछ न कुछ तो लिखते रहना चाहिए... भले ही वह पुराना क्यों न हो, आखिर पुराना भी तो लेखन ही है॥
ReplyDeleteजी चंद्रमौलेश्वर जी, पुराना भी अगर लेखन ही है तो उसे फिर से कैसे लिखा जा सकता है, यह सम्रझ में नहीं आया. क्या आप यह कहना चाहते हैं कि पुराने लिखे हुए हो को ब्लॉग पर लिख देना चाहिए? अगर ऐसा है तो ठीक है. वैसे ब्लॉग पर लिखना भी एक तरह से छापना या लेखन का सार्वजनिक होना ही है. मैं यह मानता हूं कि अगर हम पुराना लिख हुआ, अपना या किसी और का ब्लॉग पर या मुद्रण में दें तो स्रोत का उल्लेख अवश्य करना चाहिए.
ReplyDelete