पिछले कुछ अर्से से डायरी के कुछ अंश लगा रहा हूं. ये दस साल से ज्यादा पुराने हैं. हमारा वक्त बहुत तेजी से बदल रहा है, यह सच है पर बहुत कुछ वैसा ही है यह भी तो सच है.
एक दिन शाम को दफ्तर से लौटते हुए सांताक्रूज से बस
ड्राइवर पता नहीं किसी बात पर झल्लाया हुआ था या क्या बात थी कि बस को नई उमर के छोकरों
की तरह दौड़ा रहा था। डर लग रहा था कोई कुचला न जाए। एस.वी. रोड से जुहू रोड के लिए
उसने इतनी तेजी से बस मोड़ी कि सबके अंजर पंजर हिल गए। थोड़ी देर बाद कुछ आवाज आनी शुरू
हुई। एक मेहनतकश महिला का खाना पकाने के तेल का डब्बा लुढ़क गया था और बहुत सा तेल बह
चुका था। महिला ने चिल्लाना शुरू कर दिया। अढ़ाई सौ रुपए का नुकसान हो गया। मुझे पैसे
दो। उसका दर्द बड़ा सच्चा था। बेचारी चिल्लाए जा रही थी। अगले स्टाप पर आकर वह ड्राइवर
तक पहुंची। कोई उसकी बात सुन नहीं रहा था। ड्राइवर ने जब बस के अंदर की तरफ की जालीदार
खिड़की की चिटखनी लगा ली तो वह नीचे उतर गई। वैसे भी शायद उस औरत को वहां उतरना ही रहा
होगा। नीचे उतर कर भी उसका विलाप कम नहीं हुआ। सुनवाई न होते देख उसने एक पत्थर ड्राइवर
की ओर फेंक मारा। कांच टूट गया। बस रोक दी गई। हवलदार की ढूंढ मची। सवारियां कम ही
थीं। उतर गईं।
औरत को शायद अपनी गलती का एहसास हो गया था। पुलिस के
डर से कहीं ओझल हो गई। बस में जो सवारियां थीं,
वह जरूर उससे बेहतर आर्थिक स्थिति वाली थीं। उनके लिए अढ़ाई सौ रुपए
का नुकसान शायद सहनीय था। असल बात यह भी थी कि उनका नुकसान हुआ नहीं था। औरत को 250
की कीमत पता थी।
हैरानी की बात यह थी कि औरत के पक्ष में खुलकर कोई नहीं
आया। किसी ने चूं तक नहीं की। अलग थलग बने रहने की यह प्रवृत्ति तेजी से फैल रहीं है।
सहायता करना मानवीय स्वभाव नहीं रह गया है। यह एक तरह का पेशेवर काम हो गया है। कुछ
लोग सहायता करने का काम चुन लेते हैं। यहां सोशल वर्क में एमए की डिग्री भी मिलती है।
लेकिन आम आदमी के मन में इस तरह का अलगपन उसे अकेला ही बना रहा है। भयावह भी। डरपोक
भी। लाचार भी।
8-2-99
अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति बेवजह नहीं है. दिल्ली में कई बार दूसरों के 'पचड़े' में पड़ने के कारण गालियाँ खा चुका हूँ. अब तो पत्नी ने कसम भी दिला दी है कि मैं अपने काम से काम रखूँ.
ReplyDeleteअब तो मैं किसी को कुछ नहीं बोल पाता. लोग भरपूर जगह होने के बाद भी मेरी गाडी पार्किंग में फंसा देते हैं. मैं चुप रहता हूँ.
पार्किंग वाले मुझसे दो घंटे की बजाय आठ घंटे का किराया मांगते हैं. मैं चुप रहता हूँ.
तेल से जुदा एक और वाकया है, कुछ मजाकिया. कुछ दिन पहले कैंटीन से दो लीटर का तेल का डब्बा खरीदा. बेसमेंट में लिफ्ट के सामने उसे लिए खड़ा था कि अचानक डब्बे का हैंडल मेरे हाथ में रह गया और डब्बा नीचे गिरकर पूरे लैंडिंग एरिया में गोलाकार घूम गया. पूरा दो लीटर तेल शानदार डिजाइन बनाते हुए वहां फैला हुआ था. उसे बर्बाद हुआ देख मुझे अफ़सोस क्या होना था, मैं तो वहां से भगा, कहीं कोई यह न बोल दे कि इसे साफ़ करने की ज़िम्मेदारी भी मेरी है. इत्तेफाक से वहां उस वक़्त कोई नहीं था. अब वह बात याद करते ही बेतरह हंसी आती है.
आपकी डायरियां और पुरानी पोस्टें लगातार बांचते रहते हैं। मुझे आपका वागर्थ में हिंदी ब्लागिंग के बारे में लिखा लेख हिंदी ब्लागिंग के बारे में लिखे लेखों में सबसे प्यारा लेख लगता है।
ReplyDeleteआप अपने ब्लाग में ये ताला क्यों लगाये हैं। कापी करने में बारह बज गये।
आप जुगाली उर्फ़ गऊ चिंतन घराने की और पोस्टें लिखिये न।
आपके ब्लाग के बारे में चर्चा देखिये- घिस घिस कर पति पत्नी भी सिल बत्ता हो जाते हैं :)
जिसका नुकसान होता है उसकी कीमत उसके लिये कितनी है केवल उसे ही पता होता है। और बात रही मानवीय भावनाओं की तो आजकल माहौल यह है कि अगर आप मदद कर भी दें तो दुनिया शंकालू निगाहों से देखती है।
ReplyDeleteनिशांत और विवेक जी, टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद. आप दोनों ही ठीक कह रहे हैं. जीवन की स्थितियां ही कुछ ऐसी हो गई हैं कि हरेक जन अपने तक सीमित रहने को मजबूर हो जाता है. लेकिन हमें आदर्श स्थिति के बारे में सोचते तो रहना होगा, वरना भूल ही जाएंगे कि दूसरे की तकलीफ क्या होती है और मनुष्य दूसरे की मदद कर सकता है.
ReplyDeleteनिशांत जी जैसे आपका तेल बिखरा, वैसे ही एक बार मेरे टमाटर बिखर गए थे, सड़क पर. मैंने बाद में उस वाकये पर एक कविता भी लिखी है.
भाई अनूप शुक्ल जी, आपने मेरे ब्लाग की चर्चा की, मैं बेहद शुक्रगुजार हूं आपका. आपने लेख लिखने में बड़ी मेहनत की है. तकरीबन सारा ब्लॉग ही खंगाल डाला है. ऊपर से हर बार ताला तोड़ने की जहमत! असल में ब्लॉगिंग थोड़ी और परिपक्व हो जाए तो ताले की जरूरत खत्म हो जाएगी. प्रिंट और इंटरनेट दोनों माध्यम एक दूसरे की इज्जत करना सीख जाएं बस. मान्यता देंगे तो इज्जत भी करेंगे.
गऊ चिंतन का आपका आदेश शिरोधार्य है. कोशिश करूंगा कि आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरूं.
मुझे आप सबको यह बताते हुए भी खुशी हो रही है कि मेंरे ब्लॉग की पोस्टों का शतक जल्दी ही पूरा होने वाला है. अब तक बहुत नियमित नहीं लिख पाया हूं पर अब उत्साह जाग रहा है.
आभार
धन्यवाद, अनूप जी.
ReplyDeleteटमाटर बिखरनेवाली कविता यदि आपने ब्लौग पर डाली है तो उसका लिंक उपलब्ध करा दें.
एक चुटकुला है एक आदमी दौड़ता हुआ आया और बोला ‘सरदार जी, सरदार जी आग लगी।‘ सरदार ने कहा ‘मैंनु क्या? जवाब मैं उस आदमी ने कहा ‘आग आपके घर में लगी है।‘ सरदार ने पलट कर जवाब दिया। तो तैंनु क्या? कई बार सहायता करने पर ऐसी स्थिति भी हो जाती है। बहुत पुरानी बात है पालमपुर बस अड्डे पर दो-तीन ग्रामीण महिलाएं परेशान सी बसों को देख रही थीं मुझे लगा कि उनकी सहायता करना चाहिए इसलिए मैंने पूछा आपने कहां जाना है? उन्होंने जवाब दिया तैं क्या करना है असां कुत्थी भी जाणा होअे।(तूने क्या करना है हमने कहीं भी जाना हो) बैसे समाज सेवा और सहायता करने वालों की स्थिति घर के मौर्चे पर शराबी से भी बदतर होती है क्योंकि सब जानते हैं कि वह शराब पी कर आया है। परंतु समाज सेवक क्या बताए। वह क्या करके आया है। बताए तो गाली खाए। महिलाएं आलोचना को लेकर अतिसवेंदनशील होती हैं और समाज के कामों में बातें तो सुनना ही पड़ती हैं। वे भी लाचार होती हैं क्योंकि शराबी की पत्नी कह सकती है कि उसके पति ने अपने पैसों की पी है किसी को क्या तकलीफ है। अनूप जी, यदि आप तेल वाली महिला का साथ देते हुए कुछ कहते तो ड्राईवर को तकलीफ होती। इसीलिए चुप रहना ही ठीक होता है।
ReplyDeleteकुशल जी, व्यावहारिक ढंग से सोचेंगे तो आपकी बात ठीक ही है. लेकिन अन्याय होते हुए देखने पर तकलीफ तो होती ही है.
ReplyDelete