Sunday, September 4, 2016

विजेताओं का आतंक



इतनी जोर का शोर होता था कि खुशी की भी डर के मारे चीख निकल जाती थी 
असल में वो खुशी का ही इजहार होता था जो शोर में बदल जाता था   
खुशी को और विजय को पटाखों की पूंछ में पलीता लगा कर मनाने का चलन था 
सदियों से 
ये सरहदों को रोंद कर दूसरे मुल्‍कों को फतह करने वाले नहीं थे 
ये तो अपनी ही जमीन पर ताजपोशी के जश्‍नों से उठने वालों का कोलाहल होता था
धमाके इतने कर्णभेदी होते थे कि पटाखे चलाना कहना तो मजाक लगता था 
विस्‍फोट ही सही शब्‍द था बेलगाम खुशी और महाविजय के इस इजहार के लिए 
ए के फॉर्टी सेवन की दनदनाती हुई मृत्‍यु वर्षा की तरह 

धुंए और ध्‍वनि का घटाटोप था आसमान में ऐसा कि हवा सूज गई थी 
गूमड़ बन गए थे जगह जगह, कोढ़ के फोड़ों की तरह
जिस भूखंड में जितनी ज्‍यादा खुशी वहां के अंबर में उतना ही बड़ा और सख्‍त गूमड़

प्राचीन सम्राटों के अट्टहास ऊपर उठ कर पत्‍थरों की मानिंद अटके हुए थे 
पृथ्‍वी की गुरुत्‍वाकर्षण की सीमारेखा पर
उनके नीचे बादशाहों के फिर 
राजाओं रजवाड़ों सामंतों जमींदारों सरमाएदारों के ठहाकों के रोड़े
हैरानी तो यह थी लोकतंत्री राजाओं जिन्‍हें जनता के प्रतिनिधि कहा जाता था
उनकी पांच साला जीतों का विस्‍फोट भी 
आसमान में चढ़ कर सबके सिरों पर लटक  गया था  
गूमड़ दर  गूमड़ 

वायुमंडल में बनी इस ऊबड़-खाबड़ लोहे जैसी छत में
परत दर परत पत्‍थर हो चुकी खुशियां थीं 
असंख्‍य विजेताओं पूर्वविजेताओं की  
धरती से ऊपर उठती 
आसमान का इस्‍पाती ढक्‍कन बनी हुई 

दंभ का सिंहनाद 
गूमड़दार लोहे की छत की तरह था 
जिसमें से देवता क्‍या ईश्‍वर भी नहीं झांक सकता था 

दनदनाते विजेताओं के रौंदने से उड़ रही धूल ने सब प्राणियों की आंखों को लगभग फोड़ ही डाला था 
पीढ़ी दर पीढ़ी
जीत की किरचों से खून के आंसू बहते थे अनवरत
जिसे आंखों में नशीले लाल डोरे कहा जाता था 
जड़ता के खोल में बंधुआ होती जनता को 
हर दिन महाकाय होते जश्‍न का चश्‍मदीद गवाह घोषित किया जाता था 
सदियों से

यह कविता अकार के ताजा अंक में छपी हैं 

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