कल फिर हिन्दी दिवस है, हर साल की तरह। भाषा अपनी जगह, भाषा का खेल अपनी जगह चल रहा हैै। यूटीआई की नौकरी छोड़ने के बाद डायरी और हिन्दी पर कुछ कविताएं पहल के पिछले दौर में छपी थीं।
कविताओं में से एक अब पढ़िए।
हो तो गया काम तमाम
अब क्या चाहिए
खुला है द्वार
हो आइए पार
बैसाखियों के सहारे चले कम
पीटते रहे भरम का सांप ज्यादा
तुम्हारे ही माई बाप
बने रहे आस्तीन का सांप
नेता नीति और रीति ने
जना विषधर
अब जाओ
बचेगी भाषा तुम्हारी लाडली
अगर होगी कूबत
बेजुबानों की बनेगी बानी
गरीब की दौलत
हारे हुए का नूर
अच्छा है ख्याल दिल के बहलाने को
बाजार बढ़ता है आगे
कमतर की पीठ पर पग धर
बाजार में क्या क्यों कैसे बेचना है
उसकी कल औ कला हमारे पास है
नकेल हमारे हाथ है
पूत पितरों सबको साध के
लगा लो जोर जी भर
जाओ कूदो अखाड़े में
पैसा फैंक हम देखेंगे
जीत का खेल तमाशा
बहुत ही सुन्दर कविता बहुत ही अद्भुत
ReplyDeleteअजय जी धन्यवाद।
Deleteसुन्दर शब्द ... कमाल का केनवास खड़ा किया है ...
ReplyDeleteधन्यवाद प्रियवर।
Delete