Sunday, November 20, 2016

मुद्रित शब्द के परे : आभासी संसार में उथल-पुथल



अक्‍तूबर 2016 में छपे चिंतनदिशा पत्रिका के पत्रिका-परिक्रमा स्‍तंभ में पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर मुनि मुक्तकंठ की टिप्‍पणी छपी है। दैनिक समाचार समाचारों को एक दिन बाद रद्दी में बदलता है लेेकिन फेसबुक दैनिक अखबारों से भी ज्‍यादा तेजी से चलता है और दिन के असंख्‍य हिस्‍सों में समय को रद्दी में बदलता है। जिन घटनाओं का यहां जिक्र है, वे वहां कब की दफ्न हो चुकी हैं। लेकिन प्रिंट में छपने वाली पत्रिका इसका नोटिस ले रही है और दो तीन महीने बाद अपनी बात पाठकों तक पहुंचा रही है। सोशल मीडिया को समझने का यह भी एक तरीका है। 



खासकर फेसबुक में हिंदी साहित्य को लेकर उबाल आता रहता है। लेखकों के बीच कुछ गंभीर, कुछ चुहुलबाजी, कुछ कीच युद्ध, कुछ जूतम पैजार, कुछ गाली-गलौज, चर्चा-कुचर्चा का आलम बना रहता है। यह आभासी फूहड़बाजी है। पुराने किस्म की अड्डेबाजी या प्रतिगोष्ठियों में भी यह सब होता था, लेकिन वरिष्ठता और उम्र का थोड़ा लिहाज रख लिया जाता था। एक-दूसरे के गिरेबान पकड़े जाते थे, पर अपवादस्वरूप ही। आमने-सामने यानी एक्चुाअल की  अड्डेबाजी के बरक्स आभासी यानी वर्चुअल अड्डेबाजी में खुला खेल फर्रुखावादी चलता है। युवा लेखकों के सिर तोहमत मढ़ी जाती है, तो यह गलत भी नहीं है, क्योंकि वे जब बकने पे आते हैं, तो किसी का लिहाज नहीं करते। भाषा की शालीनता और सभ्यता के परखच्चे उड़ जाते हैं और उनकी सारी भड़ास सामने आ जाती है। इनका गुस्सा वरिष्ठों पर निकलता है। अब देखा जाए तो वरिष्ठ भी कम घाघ नहीं  हैं। उनकी गिरोहबाजी, भितरघात और चालाकी भी यत्र-तत्र दिखती रहती है। सोशल मीडिया इन दोनों ही पीढ़ियों को माफिक आ रहा है। यह नंगई भरा, गंधाता हुआ, गैर जिम्मेदार किस्म का लोकतांत्रिक स्पेस है। पर यह हमारे समय की सच्चाई भी है और एक मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षी ‘पढ़ीक’ इस गंद को मुट्ठी में लिए घूमता रहता है।

सोशल मीडिया में इधर दो बातें कुछ दिनों तक खबदाती रही हैं। युवा कविता के लिए भारत-भूषण अग्रवाल पुरस्कार एक तरह से कुख्यात हो चुका है, फिर भी हर महत्वाकांक्षी युवा कवि इससे विभूषित भी होना चाहता है। इस बार के निर्णायक उदय प्रकाश थे और उन्होंने शुभम् श्री की एक कविता इसके लिए चुन ली। कविता के बारे में उनका वक्तव्य तो बाद में सामने आया, कविता की शामत पहले आ गई। कुंठित कवियों ने अपनी कुपढ़ता को जगजाहिर करते हुए पहले पुरस्कृत कविता को नोंच-चोंथ खाया, फिर उसकी अन्य कविताओं की मिट्टी पलीद की, फिर कवयित्री पर भी कीचड़ उछालने से परहेज नहीं किया। उधर दो-तीन वरिष्ठ कवि, कवयित्री और कविताओं का बीच-बचाव करते रहे। फेसबुक पर आई इस पंक-वृष्टि का कुछ प्रसाद वट्स ऐप पर भी गिरा। यहां चूंकि चर्चाएं समूहों में चलती हैं, इसलिए इसका चरित्र किंचित भिन्न है। पर उबाल तो यहां भी आता रहता है। 
इस परखच्चे-उड़ाऊ चर्चा के कुछ ही दिन बाद द्रौपदी सिंघार नाम की कवयित्री फेसबुक पर अवतरित हुई और उन्होंने तेजस्वी, धारदार, तकलीफदेह, सच्ची-सी लगने वाली मारक कविताओं की झड़ी लगा दी। झड़ी के लगते ही  उनके फेक होने पर बहस छिड़ गई। रचनाकार के नकली होने के साथ-साथ कविताओं के नकलीपन पर भी बहस होने लगी।

अब सवाल यह उठा कि छद्म नाम से पहले से भी लिखा जाता रहा है तो इसमें क्या हर्ज है। लेकिन कागजों के पुलिंदे से मशाल बनाने की कोशिश करने की तरह इन माओवादी क्रांतिकारी कविताओं की राख दो ही दिन में हवा हो गई। आग की लपट की तो बात ही क्या करनी। उससे तो बीड़ी जलाना भी मुमकिन नहीं लगता। यहां सोशल मीडिया का चरित्र अपना खेल खेल गया। वो हर बात को, हर विमर्श को, हर संजीदगी को पलभर में चकनानूर कर देता है। अगर प्रयोक्ता उसका समझदारी से इस्तेमाल न करे तो उसके हाथ का खिलौना ही बन जाएगा।  इलेक्ट्रॉनिक लोक का यह नया स्पेस स्वभाव में जितना चंचल है, प्रयोक्ता को उतना ही बड़ा चूतिया बनाता है। 

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