एल मुनुस्वामी |
आपने हिब्रू और अरबी कवि सलमान मासाल्हा की कविताएं यहां पहले भी पढ़ी हैं।
अब पेश हैं कुछ और कविताएं। ये हिंन्दी अनुवाद विवियन ईडन के अंग्रेजी अनुवाद से किए हैं ।
ये कविताएं नया ज्ञानोदय और विपाशा में छपी हैं।
आत्मचित्र
आदमी अपनी छड़ी पर झुका हुआ
एक हाथ में, दूसरे में थामे गिलास एक
शराब का। वक्त, जो बदल गए
उसकी टांगों के बीच तकती जगह में
उड़ गए उसके कांपते हाथ से।
वह गायब होता जा रहा
बेसमेंट में रखी
बोतलबंद सौंफ की खुशबू की तरह।एक, अरबी
सुबहों में, पसर जाता है वह अपनी कुरसी पर
मसरूफ गली में छोड़ता
राहगीरों के वास्ते कुछ प्रेतात्माएं।
एक वक्त था, प्रेत गर्व से खड़े रहते थे उसकी
टांगों के बीच
शराबखाने की मेज पर। और आज
उसके ओठों से शराब जा चुकी है
मेज अब रहा नहीं। सिर्फ रेखाएं
यायावर कारीगर की, उसके चेहरे की झुर्रियां बनीं
ये निशान हैं उस आदमी के जो
उतरा मयखाने के गोदाम में और लौट के नहीं आया।
ऐसे चले गए उसके हाथ
अपने अपने रास्ते
एक सौंफ की भभक के साथ स्वर्ग को
दूसरा बेंत की छड़ी के साथ धूल में।
सिर्फ आदमी जिसने पी अपनी जिंदगी धीमे धीमे
लटका लिया उसने खुद को दीवार पर
नीचे उतारने वाला उसे कोई नहीं।
जैसे अनार पर्ण छोड़ता है। और मैं बदलते मौसमों
की तरह
हरी यादें मेरी देह से गिरती हैं जैसे बर्फ
बादल से
और कई बरसों के दौरान मैंने यह भी सीखा
अपनी केंचुल छोड़ना
जैसे सांप फंस जाता हो कैंची और कागज के बीच।
इस तरह मेरा भाग्य नत्थी था शब्दों में
दर्द की जड़ों से कटे हुए। ज़बान
दो हिस्सों में बंटी हुई
मां की याद को जिंदा रखने के लिए
दूसरी, हिब्रू
सर्दियों की रात में प्रेम करने के वास्ते
करा दिया
ReplyDeleteमुक्ति बोध जैसे
चित्रित किया