Sunday, November 2, 2025

प्रभु जोशी से बातचीत

 


 

यह बातचीत सन 2012 को प्रभु जोशी के घर पर रिकॉर्ड हुई। 

2021 में कोविड उन्हें ले गया। 

2022 में ओमा शर्मा ने कथादेश का प्रभु जोशी विशेषांक संपादित किया। 

यह बातचीत उसी में प्रकाशित हुई।


हर शब्द का एक स्वप्न होता है कि वह दृश्य बन जाए


सन् 2012 में आकाशवाणी इंदौर ने एक कार्यक्रम रखा था जिसमें मुझे भी बुलाया गया था। मुंबई से निकलते ही मुझे जुकाम हो गया था। कार्यक्रम के अगले दिन भी शरीर ढीला ही था। मेरी वापसी की ट्रेन रात को थी। दिन में कहीं घूमने नहीं गया। प्रभु चूंकि कार्यक्रम के सूत्रधार थे, मैं उनके घर चला गया और देर शाम तक पसरा रहा। यह 16 सितंबर, 2012 की बात है। तभी मुझे लगा प्रभु से बातचीत रिकॉर्ड कर ली जाए। कोई तय प्रश्नावली नहीं थी। खुली सी बातचीत। चूंकि प्रभु जोशी कथाकार, चित्रकार और रेडियो टेलिविजन प्रस्तुतकर्ता साथ साथ थे इसलिए कहानी और चित्रकला के बीच आवाजाही जैसा ढीला सा सूत्र उन्हें थमा दिया। मैंने बीच-बीच उन्हें ज़रा-ज़रा सा उकसाया भर। एक दो प्रश्न और पूछे। और उन्हें सुना। प्रभु सवाल का सिरा पकड़ कर बात शुरु करते हैं और दूर निकल जाते हैं। वे एक चिंतक की तरह सोचते हैं। वैसे तो मेरे पास बने बनाए सवाल नहीं थे। तुरत-फुरत टीप कर पत्रकार के तरीके से डटा भी नहीं। उनके पास भी बने-बनाए जवाब नहीं थे। मेरे ख्याल से वे साथ के साथ सोचते भी जा रहे थे। इसलिए यह जुमला बार-बार आया है कि ...मैं सोचता हूं... असल में यह रिकॉर्डिंग साक्षात्कार के बजाए फुर्सत में बतकही जैसी थी। पर हल्की-फुल्की नहीं थी। इसमें प्रभु की गर्मजोशी और आत्मीयता भी थी जो दार्शनिक और चिंतनप्रधान होते हुए भी प्रफुल्लित करने वाली थी। उसी रिकॉर्डिंग में से छांट कर यह बातचीत यहां प्रस्तुत है। मेरी काहिली की वजह से यह बातचीत दस बरस बाद शाया हो रही है। अगर ओमा शर्मा जी का दबाव न होता तो यह अभी भी कंप्यूटर में ही पड़ी रहती।

एक दो बार प्रभु जी को भी मैंने याद करवाया था कि इस बातचीत को कागज पर उतारूंगा। वे उत्साहित थे कि हां यार शायद उसमें कुछ काम की बात निकल आए। उनके रहते मैं यह काम नहीं कर पाया। हो सकता है वे इसे कांट-छांट कर कुछ और संवार देते। यह खेद तो है कि मैं चूक गया पर यह बात भी तो है कि अब उनका एडिटरइस पर हावी नहीं होगा। इस बातचीत में प्रभु जोशी का चरित्र, उनका सोचने, बोलने, लिखने का तरीका, प्रकट हो रहा है। वह व्यक्ति किसी कहानी, चित्र या रेडियो कार्यक्रम के लिए कितनी मेहनत करता था। कोरल की तरह चतुर्दिक देखता और सोचता था।


 

यहां शब्द है... वहां रंग

प्रभु: चित्रकला और कहानी यानी कुल मिलाकर शब्द... और रंग...। लेकिन चित्रकला में एक और विवाद है। यहां शब्द है... वहां रंग और रेखा है। कई बार यदि आप केवल रंग रख दें तो ... Colour itself is a metaphor. रंग एक रूपक है। दूसरे, रंग के, एक ही रंग के भीतर स्पेस क्रियेटिंग प्रॉपर्टी होती है। वह अपने व्यवहार से एक ऐसा अवकाश बना सकता है जो केवल एक शब्द नहीं बना पाता। कम से कम साहित्य का शब्द नहीं बना पाता। हो सकता है संगीत का शब्द उतनी अर्थ-व्याप्ति कर ले। साहित्य कहीं न कहीं वस्तु या कथ्य के लिए आश्रित रहता ही है। यानी साहित्य में कंटेटलेस फॉर्म (कथ्यहीन रूप) संभव नहीं है।    

अनूप: कुछ लोग प्रयोग के तहत शब्दों का इस्तेमाल कर लेते हैं।

प्रभु: वह केवल अराजक स्थिति है, माध्यम यानी शब्द के साथ की गई। लेकिन वह संप्रेषित नहीं होता। 

अनूप: ध्वनि की कुछ भूमिका है?

प्रभु: जब शब्द में ध्वनि जुड़ेगी तो अनिवार्यत: हम उसका रिश्ता संगीत से जोड़ेंगे। 

 

अनूप: यह ठीक है लेकिन जब व्यक्ति पाठ करता है तो कभी ऐसा भी होता है कि उसे शब्द आकर्षित करते हैं। तो वह उनका अकेले में ही पाठ करता है। उनकी ध्वनि या संगीत भी उसमें शामिल हो जाता है।

प्रभु: यह ठीक बात है।  गुणाढ्य ने जब वृहद् कथा लिखी थी तो उन्होंने जंगल में अकेले जाकर उसे पढ़ा, क्योंकि वे शब्द की ध्वनि के बारे में सोचते थे कि संप्रेषण इयत्ता का भी  सौंदर्य है (संप्रेषण एक मूल्य भी तो है, सौंदर्य भी एक मूल्य है, दोनों की एक युति है, और हमारे यहां शास्त्र के साथ एक चीज है कि वह दोनों छोरों पर सोचता है - माइक्रो लेवल पर भी सोचता है और मैक्रो लेवल पर भी।) तो गुणाढ्य ने जब पढ़ा तो उसने बहुत से परिवर्तन किए। अंग्रेजी लेखिका मेंसफील्ड कहानी लिखने के बाद एक कमरे में जाकर खुद पढ़ती थी। मैं खुद भी कहानी का आरंभ लिखता हूं तो बार-बार बदलता हूं। ऐसा नहीं कि जो कहानी लिखी वह एक बार में ही हो गई। पहले पन्ने को बार बार पढ़ कर देखता हूं कि वह ध्वनि के स्तर पर कैसा है। इसमें कहीं पर एडवर्ब आना चाहिए या एडजेक्टिव आना चाहिए। फिर मैं वर्ण बदल कर भी देखता हूं कि परंपरागत रूप से जिस कर्ता के साथ क्रिया आ गई है, कहना चाहिए कि पतिव्रता की तरह, तो मैं उस युति को भंग कर देता हूं - कि नहीं यहां से मुझे बदलना पड़ेगा। और कोशिश हमेशा यह करता हूं कि जो देखा जा रहा है और जो हो सकता था या जिसका हमें सिर्फ संदेह था, वह भी उसके साथ आए। तो उससे क्या होगा कि जैसे रंग की एक परत, दो परत तीन परत लगाई, एक ग्रेडेशन तैयार होता है। मैं यह काम अपनी कहानी में भी करता हूं। यह बात मुझ में अपने पिता से आई, जिनके संस्कार लोक से और लोक भाषाओं से बहुत ज्यादा प्रभावित थे; संस्कृत बहुत अच्छी जानते थे; महाभारत उन्हें मुखाग्र थातुलसीदास का रामचरितमानस उन्हें मुखाग्र था। उनका बात करने का तरीका कैसा था सुनिए कि जैसे वह बोले-   

आषाढ़ की दोपहर का हिस्सा था और मां इस संसार से विदा हो रही थी। तब तुम्हारे काका वहां आ चुके थे। और मोहिनी भाभी भी थी। तो हम जा रहे थे। नहीं मोहिनी भाभी नहीं थी, काका आ चुके थे। (वे फिर उसमें परिवर्तन करते थे।) तो जब हम जा रहे थे और जब अर्थी को ले जाते हुए  हमने  वह रास्ता पार किया तो एक गाय रंभाती हुई बाएं हाथ से निकली। (तब मेरे पिता रुक गए और उन्होंने कहा) कि देखिए वक्त। गाय काली थी वैसे।  

यानी यहां तक आते-आते कोई मोहिनी भाभी थी, गाय भी थी, वह काली भी थी और जो रास्ता काट के निकल गई थी। जबकि अभी सिर्फ उन्होंने यही बखान किया था कि उनकी मां की मृत्यु हुई थी और शव यात्रा रास्ते पर जा रही थी। तो यहां दृश्य के साथ-साथ पात्रों के भी स्तर पर स्तर बनते जाते थे। मैं बाकायदा रंग में भी यही करता हूं। मेरे रंग में बहुत सारे ग्रेडेशन हैं।  

लगता है कि आप जब जा रहे हैं तो एक समय में जा रहे हैं। इसलिए कई बार मुझे निर्मल वर्मा बहुत अच्छे लगते हैं।  जब वे कहते हैं कि वह अगस्त की शाम थी और मैं सड़क क्रॉस कर रहा था। अगर एक वाक्य कहा जाए कि वह अगस्त की शाम थी और मैं सड़क क्रॉस कर रहा था। यह वाक्य चित्रकार के लिए बहुत जरूरी है। क्योंकि जब मैं सड़क क्रॉस कर रहा था तो मेरे पास कौन से कपड़े थे? मैं उदास था, प्रसन्न था, धूप मेरे चेहरे पर सीधी गिर रही थी या तिरछी गिर रही थी? 

अनूप: मतलब यह नाटक से भी थोड़ी आगे की चीज है! 

प्रभु: हां आगे की चीज है। तो जब मैं लिखता हूं तो कोशिश करता हूं एक चित्रकार की तरह एक चित्र-भाषा हो। यह भाषा यह काम करती है कि जैसे एक रेखा है या एक रंग है, वह दूसरे रंग को आमंत्रित भी करता है अपने पास। जैसे चित्र बनाते हुए पहाड़ बन गया, तो मुझे लगा कि पहाड़ किसी न किसी अच्छे आकाश की मांग कर रहा है। तब मैं तय करता हूं, मेरी ज्योमेट्री तय करती है कि इसको मैं कितना आकाश दे सकता हूं। कई बार यह होता है कि मैटीरियल जो है वही डिक्टेट करता है। यानी कई बार जो चीजें आप जल रंग में करते हैं, तैल रंग में नहीं कर सकते। मैं हमेशा इस बारे में अपने मित्रों से, और जो मेरी कला के बारे में बात करना चाहते हैं उनसे, कहता हूं कि आप देखें कि एक कृति जल रंग में है, उसका एक विषय है। वही विषय मैं तैल रंग में भी चित्रित करता हूं। मान लीजिए एक फूल है और वह कागज पर रखा हुआ है तो जब मैं तैल रंग में उसे चित्रित  करने की कोशिश करूंगा तो कुल मिलाकर उसका प्रभाव यह आएगा जैसे कागज पर कोई पेपरवेट रखा है। तैल रंग में फूल इतना हल्का नहीं बनता। और जल रंग में मान लीजिए मैं कोई स्त्री पेंट करता हूं या एक पत्थर पेंट करता हूं तो पत्थर का पत्थरपन उलीच कर मैं बाहर कर देता हूं। वह पत्थर होने के बावजूद एक अलग किस्म का पत्थर होता है जो कला में आया हुआ पत्थर होता है। जैसे आप खजुराहो की किसी मूर्ति को देखिए। वह स्त्री तो लगती है लेकिन स्त्री होने के बावजूद लगता है कि वह दो रास्तों से आई है- एक तो चित्रकार की अपनी कल्पना से। दूसरे वह साहित्य में से होती हुई भी आई है। अगर आप यूरोपीय न्यूड पेंटिंग देखें तो ऐसा लगता है कि धड़धड़ाती  हुई जीवन से निकलकर सीधी कैनवस पर आ गई है। और अगर उसके पांव के नीचे कोई  भार तोलने की मशीन रख दी जाए तो लगेगा की पैंसठ-सत्तर किलो के आसपास वजन होगा। एक पृथुलता उसके अंदर है। लेकिन आप खजुराहो की मूर्ति देखिए- स्तन हैं, भारी हैं, नितंब हैं, भारी हैं, पृथुलता उसके अंदर भी है। लेकिन जब आप यक्षिणी की उस मूर्ति को देखते हैं, तो ऐसा लगता है कि अगर यह मंदिर के शिखर से नीचे गिरी तो न्यूटन के सेब के फल की तरह नीचे नहीं आएगी बल्कि ऊपर उठ जाएगी। यानी उस पत्थर के पत्थरपन को उलीच के बाहर करके जो स्त्री बनाई गई है, वह स्त्री कविता में भी बहुत आई है। और वह कवि की कल्पना में भी लथपथ है। इसलिए वह जीवन से अलग जीवन जीती है। और जीवन को लुभाती भी है। 

इसलिए मुझे लगता है कि यह जो सेंसुअसनेस है, इन मूर्तियों में, वह एक तरह की मैटेफिजिकल सेंसुअसनेस है।  आप मान लीजिए एक यूरोपियन न्यूड पेंटिंग देखें। तो ऐसा लगता है कि आप जो फ्रेम के बाहर खड़े हैं, उसने आपकी देह के चप्पे-चप्पे को एक किस्म की उत्तेजना से भर दिया है। लेकिन अगर आप पत्थर की एक मूर्ति देखें तो कई बार ऐसा लगता है कि आप पत्थर की मूर्ति के साथ मूर्ति के अतीत में भी चले गए हैं। आप अपने अतीत में भी चले गए हैं। तो यह है हाफ कंक्रीट एंड हाफ एब्स्ट्रेक्ट। एक तरलता भी है और ठोसपन भी है। दोनों की युति उसके बीच है। मैं सोचता हूं कि यह जल रंग के साथ-साथ हिंदुस्तानी कला की भी विशेषता है, उसके शिल्प की भी विशेषता है। यह बात थोड़ी  बारीक हो सकती है। हुसैन ने जब सीता चित्रित की तो (और यह मुझे हमेशा लगता है (माइथोलॉजी एक किस्म का पवित्र इतिहास भी है और यह हाफ लिविंग और हाफ फॉरगॉटन हिस्ट्री भी है) भाई माइथोलॉजी के चित्रण के समय आपके अंदर जो अर्द्धविस्‍मृत और अर्द्धजीवित स्पंदित है, उसे आप बिल्कुल इस तरह से मैटेरियलिस्टिक ढंग से पेंट करेंगे तो, मैं सोचता हूं कि हमारी कल्पनाओं में मिथक से संबंधित जो कुछ है, शायद उसके बीच एक तरह का क्लेश आएगा।  

जैसे मैं याद करता हूं हमारे यहां सत्यनारायण जी का मंदिर था। वहां एक चित्र आया था। क्योंकि मैं (बचपन में) चित्र देखता रहता था। मेरे घर में उस समय शारदा वकील के चित्र होते थे। बंगाली कलम के बहुत से चित्र होते थे। गीता प्रेस गोरखपुर के, कल्याण में वॉश टेक्नीक में छपे  हुए। यहां तक कि देवलालीकर साहब के चित्र भी होते थे। उन चित्रों में बहुत सुंदर आंखें - कमलनयन यानी एक तरह की अलौकिक दीप्ति वाली देह हुआ करती थी। अच्छा, मेरे गांव में कोई दूसरा पढ़ा लिखा था ही नहीं। पिता ही सबसे ज्यादा पढ़े लिखे थे। टीचर। तो कई बार बच्चे मुझसे पूछते थे तो मैं (उन दिनों) भगवान का हुलिया बखान करने में बहुत माहिर होता था। वे पूछते थे राम कैसे हैं? सीता कैसी हैं? कृष्ण कैसे हैं? चूंकि मैंने वे चित्र देख रखे थे शारदा वकील के  तो मैं उनका बखान करता था। मेरे सारे छोटे-छोटे मित्र सम्मोहित हो जाते थे। जिनकी फटी चड्ढियां हैं, ढंग का कपड़ा नहीं है, जिनके जीवन में कहीं इस तरह की कला का मौका नहीं है, उन्होंने गांव के जो भगवान देखे हैं वे भैरों महाराज देखे हैं। एक पत्थर है जिस पर सिंदूर लगा  हुआ है। दूसरा पत्थर है उस पर सिंदूर लगा हुआ है, वे हनुमान जी हैं। यानी आकृतिमूलकता की विदाई थी। 

अनूप: यानी आप चित्र की बारीकी बताते थे... 

प्रभु: हां। मैं देखकर चित्र की बारीकी बताता था। कई बार वह कहता भी था  प्रह्लाद माली नाम का लड़का कि यार राधा जी के बारे में तू जो बताई रियो है, म्हारे लेखे तो जे ऊ नूं छू लूं नूं मरी जाऊं यार। यानी राधा अपने आप में इतनी अलौकिक स्त्री थी ... लगभग अलभ्य... वो अलभ्यता का जो आकर्षण था… 

अनूप: वो चित्र आपको भी बहुत अच्छे लगते रहे होंगे 

प्रभु: हां... एक दिन किसी  ने अचानक कहा कि राधा कृष्ण का एक चित्र आया है बड़ा सा। बड़ी गाड़ी-वाड़ी में लाद कर लाया गया था। मैं अपने सारे मित्रों को, जिनमें मेरा बड़ा वर्चस्व था, और जिनमें मैं बड़ा ज्ञानी था और जिसने (यानी मैंने) लगभग यह बता दिया था कि जैसे श्वर से मेरे तालुक्कात बहुत ही अच्छे हैं। निकट के हैं। लगभग रोज जैसे संवाद चलता हो। मैं उस छोटे से टुल्लर का नेतृत्व करता हुआ वहां पहुंचा कि चलो देखते हैं कौन सा चित्र आया है। जब मैंने वह चित्र देखा तो दंग रह गया। शर्म के मारे जैसे अपने पास कोई शब्द ही नहीं है। घिग्घी बंध गई। क्योंकि उसमें राधाजी ऐसी लग रही थी जैसे हमारे पड़ोस की जो मनोरमा भाभी है, वो हड़बड़ी में भाग के वहां आ के बैठ गई है। उसने उल्टा पल्ला पहन लिया है। हमने गांव में उल्टे पल्ले की साड़ी वाली कोई स्त्री नहीं देखी थी। क्योंकि महाराष्ट्र की कोई स्त्री वहां आई नहीं थी। वह कृष्ण की तरफ ऐसे देख रही थी, और कृष्ण भी क्या बताएं, ऐसे देख रहे थे कि हमें शर्म आने लगी कि ये कृष्णजी कैसे देख रहे हैं? क्योंकि वह एक रीयलिस्टिक पेंटिंग थी। अलौकिकता को लगभग विदा कर चुकी कृति थी। राधा के प्रति कृष्‍ण ऐसे देख रहे थे कि ऐसा लग रहा था कि हम अगर आँख मूंद लें तो कृष्ण राधाजी की चुम्मी ले लें। इतनी रीयलिस्टिक। दरअसल वह राजा रवि वर्मा का चित्र था।  

और मैं बड़ा नीचा सिर किए कि यार ये कैसे कृष्ण हैं, अपने दोस्तों के साथ वहां से चला आया। पूरे के पूरे टुल्लर में सन्नाटा खिंच गया। हमारी तो जो कुछ पूँजी थी, लुट गई। निर्धन हो गए। इसे मैं कला की ठेस मानता हूं। यह यथार्थवाद की ठेस थी जो कला की हमारी अवधारणाओं को पहुंच रही थी।  

तो मेरा यह कहना है कि कला जब भी रूप बदलती है या उसका कोई नया रूप आता है या साहित्य की भी बात हो तो पहले ठेस पहुंचाती है। जब गेय कविता विदा हुई और कविता में विचार प्रमुख हो गया तो ठेस पहुंची।  

उस कला में दिल केंद्र में था। इसमें ऐंद्रिकता थी। वह जो मैं कह रहा था मैटाफिजिकल सेंसुअसनेस... यह शब्द मैं इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि हेमिंग्वे याद आ रहा है मुझे। मार्था बीस बरस की थी या चौबीस के आसपास होगी शायद और हेमिंग्वे साठ बरस के थे। दोनों पति पत्नी थे। मार्था चिट्ठी लिखा करती थी। तो मार्था ने कहीं यह शब्द इस्तेमाल किया है। वो पापा कहती थी हेमिंग्वे को। कि तुम्हारे और मेरे बीच जो है, एक मेटाफिजिकल सेंसुअसनेस है। शायद हेमिंग्वे ने कहा है कि मार्था मैं जब तुमसे प्यार करता हूं तो प्यार करते हुए साठ वर्ष की ऊंची सीढ़ी से उतर कर चौबीस में आता हूं। और तुम अपनी चौबीस को छोड़ के ऊपर आती हो। तो जो हेमिंग्वे प्यार कर रहा है वह नॉनएक्जिस्टेंट है और तुम जो प्यार कर रही हो वह भी नॉनएक्जिस्टेंट है क्योंकि उस तक वह पहुंची नहीं है। लेकिन इनके बीच सेंसुअसनेस  मौजूद है।  अगर मैटाफिजिकल है जो ऐंद्रिक है तो निश्चित है कि वह  सेंसुअस है।  जो सेंसुअस है वह मैटाफिजिकल नहीं है।  तो यह डायलेक्टिकल डबलिंग  ऑफ सेंसुअसनेस  मुझे इस चित्र के संदर्भ में और कलाओं के संदर्भ में बड़ी याद आती है।  यह एक तरह से खोए हुए को प्राप्त करने का कला का अपना उद्यम है।  कहानी का भी यही काम है कि एक  सच जो देखा गया है उस सच को उस जगह से खोकर वह दूसरी जगह से प्राप्त करती है।  तब लगता है कि जो हमारा अति परिचित सत्य थावह सत्य जब कला के भीतर उसके परिधान के साथ आता हैउसकी  शर्त  पर आता है तो लगता है यार यह तो हमने देखा था।  लेकिन हमने इसे पहचाना  ही नहीं।  यह जो क्षीण  सा अपरिचय होता है  वही कला  का सौंदर्य हैवही कला की आत्मद्युति भी हैवही कला का आस्वाद भी है। और मैं यह मान के चलता हूं कि विचार की जब कविता आई तो विचार जितना रियलिस्ट होता हैजितना वस्तुगत होता हैबावजूद उसके वह अमूर्त तो होता ही है।      

अब आप देख लें कि जब  ईश्वरीय कण की बात आई है  तो  वह जितना अमूर्त है उतना ही कंक्रीट है क्योंकि उसकी गति आते ही वह द्रव्यमान को खींच लेता है और द्रव्यमान को छोड़ देता है।  इसलिए यह डाइकॉट्मी अब नहीं है। अब आप मान के चलिए कि दोनों एक दूसरे को ताकते घूरते नहीं हैं।  दोनों के बीच  हाइफन आ गया है।  इसलिए मैं यह भी मानता हूं कि विज्ञान और दर्शनहो सकता है आप उसे धर्म-दर्शन भी कहेंक्योंकि हमारे यहां जो दर्शन है वह धर्म दर्शन भी है।  इसलिए हमारे यहां जो नीति शास्त्र है वह कहीं ना कहीं ऐथिक्स है। हमारे यहां सारा का सारा ढांचा धर्म से प्रेसिपिटेट हो के बना है। जैसे रिश्वत लेना पाप है। कभी रहा होगा।  क्योंकि तब कहा जाता था की धन संचय पाप है। तब एडमिनिस्ट्रेशन का इतना जाल नहीं था कि गली गली में आपको पकड़ लिया जाए।  आज आप जरा सी भी ऐसी पूंजी जमा करेंगे तो पकड़ में आ जाएगी। तब इकॉनमी नैतिकता के जरिए काम करती थी, अब हमारे पास कानून है कानून की व्यवस्था है। मेरा कहना है कि ऐथिक्स का ढांचा जो हमारा था कि जो पाप होता था अब वह सामाजिक अपराध कहलाता है।  

सौंदर्य में भीसाहित्य और कला, इन सबके बीच यह एक हाइफन है। यह मैं इसलिए भी कह रहा हूं कि एक आवाजाही बनने की जो बात आप कह रहे थे कि एक शब्द कब दृश्य बन जाता है और एक दृश्य शब्द बन जाता है। जैसे मैं तो यह मानकर चलता हूं कि हर शब्द का एक स्वप्न होता है कि वह दृश्य बन जाए।  मसलन आप देखें कि तमाम कलाएं अपने को व्यक्त करने के लिए अंत में शब्द की शरण में आती हैं।  लेकिन याद रखिए कि जैसे ही वह उसके पास पहुंचती हैं  सेतु की तरह उसे नष्ट कर देती हैं।  मसलन कुमार गंधर्व जी के गाए हुए के बारे में कहूं कि उन्होंने युगन युगन जोगी क्या गाया है! उसमें गायक आत्मा को छू लेता है। या अशोक वाजपेई कह देते हैं  कि कुमार गंधर्व सुनते हुए हम अनंत में चले जाते हैं। लेकिन अपन शब्द के सहारे ही जा रहे हैं।  लेकिन जैसे ही आप कुमार गंधर्व को सुनेंगे तो उनके संगीत का झाड़ू अशोक बाजपेई के सारे शब्दों को अलग कर देगा।  

अनूप: यहां अनुभव और अभिव्यक्ति में भी अंतर है? 

प्रभु:  मैं यह सोचता हूं कि कला-अनुभव कब साहित्य का अनुभव बनता है या साहित्य का अनुभव कब कला-अनुभव में बदलता है, पर मुझे लगता है कि अंत में वह अनुभव एक आर्टिस्टिक ट्रुथ ही होता है।  

अनूप: अनुभव अगर है भी तो वह अनुभूति की चीज है यानी कि आप अनुभव कर रहे हैं।  दृश्य हैकला हैशब्द का सहारा हम ले रहे हैं जब हम उस को अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं।  

प्रभु:  जी।  लेकिन आप देखिए कि यह एक सबसे बड़ी बात है कला की। 

अनूप:  दूसरा हिस्सा है कि जो अनुभव है क्या वह स्वायत्त है?   क्या उसे अनुभव करने में उसे शब्द की जरूरत नहीं है 

प्रभु:  मैं यह मान के चलता हूं कि अनुभव तो जो आदिम मनुष्य रहा होगा, उसके अंदर भी रहा होगा। सवाल इस बात का है कि वह अनुभव दृश्य के सहारे ही हुआ होगा।  एक और बात-  सबसे प्राथमिक कला मैं चित्रकला को मानता हूं, दूसरी संगीत को मानता हूं, तीसरी कला मैं नृत्य को मानता हूं। और कहीं चौथे स्तर पर मैं साहित्य को मानता हूं। अन्य जितनी कलाएं हैं जैसे फिल्म-विल्म  मैं इनको कला रूप मानता हूं।  अगर मान लीजिए कि बिजली नहीं है तो कहां जाएगी आपकी बीसवीं शताब्दी की कलाअगर आपके पास प्रोजेक्टर नहीं है तो वह कला कहां जाएगी? उपकरणों पर आश्रित कला, कला नहीं कला रूप है, उन कलाओं का जो आद्य कला है, जो संगीत है, जो नृत्य है। जब आदमी कला नहीं जानता था तब भी वह भीत पर भित्ति चित्र बनाता था।  जब वह नृत्य नहीं जानता था कत्थक-वत्थकयानी शास्त्र, तो भी गतिमय देह ही उसके लिए नृत्य था। आपने बाद में शास्त्र ईजाद कर लिया।  संगीत भी...   कोई राग नहीं था...  बल्कि भीतर उसका जो आत्म है  उसके भीतर अपने गाए हुए को सुनने वाला है, उसकी तसल्ली ही संगीत कला की अभीष्ट थी।   इसलिए कई बार मैं सोचता हूं कि यह कलाएं ज्यादा स्वायत्त हैं।  यह निर्भर नहीं है।  अपाहिज नहीं है।  

तो बहुत सारी चीजें इतनी जटिल हैं  की जब हम शब्द का आश्रय लेकर उनको व्याख्यायित करने जाते हैं तो मैं अंत में इस बात पर पहुंचता हूं कि कला या साहित्य का संप्रेषण चिंता का विषय नहीं है। संप्रेषण शब्द ही समाजशास्त्र का है। कविता की चिंता तो पहले एक कविता हो जाने में है। अगर वह अपनी  पूर्णता हासिल कर लेती है, तो संप्रेषण उसकी समस्या नहीं है।  इसी तरह  अगर अपने आप में कोई चित्र पूर्णता प्राप्त कर सकता है तो वही अपने आप में संप्रेषण है।  तो पूर्णता को प्राप्त करने की, की जा रही अथक कोशिश ही संप्रेषण है।  

अनूप: इसमें भावक कहीं नहीं है 

प्रभु: भावक उस समय नहीं है। क्योंकि भावक तो फ्रेम के बाहर पड़ा है।  जब हम उसे कला कह रहे हैं तब भावक आता है… 

अनूप:  तो जो बात कही जाती है कला के स्वांत: सुखाय की, क्या वह सरलीकरण है 

प्रभु:  सरलीकरण तो नहीं है।  मैं सोचता हूं कि निश्चित ही तमाम रचनात्मकताएं जब अपनी शर्त पर अपने ढंग से पूरा होना चाहती हैं, तब तक वे स्वांत: सुखाय लगती हैं, लेकिन जैसे ही उसका (कला का) उससे (कलाकार से) विच्छेद हो जाता है, जैसे कि पेंटिंग है, वह फ्रेम में आ गई तो अब उसके बाद वह पूरी तब होगी जब बाहर से उसे कोई देख रहा हो। क्योंकि वह उसे कृति की तरह देखना चाहता है। एक कान जब उपस्थित हो जाएगा, तभी तो वह कहेगा कि संगीत है। पाठक जब मिल जाएगा, तभी वह रचना कहलाएगी। 

अनूप: यह तो ऋषि मुनियों की तरह ही हो गया कि आप तपस्या कर रहे हैं, आप उस कला में लीन हैं।  

प्रभु: जी। मतलब वह तो रेशम के कीड़े की तरह है। वह अपना काम जैविक रूप से करता है लेकिन उत्पादन रेशम का हो जाता है।    

अनूप: यह भी तो लगता है कि जो कृति फ्रेम के बाहर आ गई, या कागज पर आ गई, या संगीत श्रोता के पास आ गया, यानी जब वह कला संप्रेषित हो रही है, तब वह पूर्ण हो रही  है 

प्रभु:  नहीं, मैं यह मान के चलता हूं कि जैसे गॉड पार्टिकल के बारे में बात की जाती है तो वह स्वतंत्र कहां है? कॉसमॉस से उसका संबंध है। एक कृति ऐसे है जैसे बहते जल से हम बाल्टी भर के रख लें। समय जो बह रहा है, उसमें से हमने कुछ अंश रख लिया  है। वह उस बाल्टी का जल  है या वह उस कृति का समय है। उस कृति का समय होने के बावजूद वह उसके बहते काल के निरंतर प्रवाह का भी हिस्सा है। क्योंकि उसके बगैर वह जस्टिफाई नहीं होगा, अपने होने को ही सिद्ध नहीं कर पाएगा। 

अनूप: इसी से जुड़ी इस बात को भी थोड़ा सा स्पष्ट करें कि पाठक या दर्शक के आस्वादन के समय का पाठ या कृति के समय से कृतिकार का संबंध कहां कैसे बनता है 

प्रभु: देखिए मैं यह मान कर चलता हूं कि समय, हर समय गुजर रहा है। जैसे दूध है। अगर इस दूध को आप फ्रिज में रख दें तो, चूंकि इसमें से जो समय गुजर रहा है, जिस तरह वह अपनी शर्तों के साथ गुजरता है, तो हो सकता है उसकी गति जरा कम हो जाए। हो सकता है दो दिन तक वह दूध बना रहे। उसके भीतर जो समय है, यानी दही कुछ नहीं है उसके भीतर से समय का गुजर जाना है। अनूप सेठी को आज देख कर रहा हूं लेकिन उसमें से तिरप्पन साल का समय गुजर गया और वह व्यक्त भी हो रहा है। मैं उसे काल से विच्छिन्न नहीं कर रहा हूं। आपकी दाढ़ी को समय ने ही सफेद किया है। क्या मैं इस अनूप सेठी को उस अनूप सेठी से काट कर रख सकता हूं जो पांच या दस साल का था? यहां फिर प्रश्न उठता है कि समय गुजर रहा है तो क्या वह लीनियर (रेखीय) है? लेकिन यह बात भी है कि समय अपने को पुन:सृजित करता रहता है। और अपने को व्यक्त करता है तो किसी के जरिए व्यक्त करता है। मान लीजिए आप यह पेंटिंग देख रहे हैं तो इसमें समय है। दो तरह का समय है। कृतिकार का, और जो चित्रित है, उसका भी। यानी इस पेंटिंग को देखने के बाद आपको लगेगा कि यह कृति जलरंग में जीवन के बीस-पचीस साल समाप्त करने के बाद ही कोई इसे अर्जित कर सकता है। तो इसके अंदर मेरे सर्जक का समय भी है। और जो समय मैंने चित्रित किया है - कि इसमें धूप है, पानी बह रहा है, धूप तिरछी गिर रही है, वो समय भी इसके अंदर है। वह कृतिकार का समय नहीं है। वह कृतिकार का देखा हुआ समय है। बहते समय में से उठा लिया गया समय। मैं यह कहता हूं कि कोई वस्तु, कोई ऑब्जेक्ट इस समय को उलट के रख देता है। जैसे एक दृश्य है। परदे पर चल रहा है। नदी बह रही है। धूप गिर रही है। और सूरज तप रहा है। यह सन् 2012 में यानी आज भी गुजर रहा है। लेकिन जैसे ही बहती हुई नदी में से चीवर पहने हुए बुद्ध आ जाते हैं, तो वही नदी ई. पू. चौथी शताब्दी में बहने लगती है, धूप ई. पू. चौथी शताब्दी में गिरने लगती है, वह पेड़ ई. पू. चौथी शताब्दी का हरापन लिए होते हैं। यह कला की बात है। कोई कह दे कि मैं समय को खदेड़ कर बाहर कर दे रहा हूं तो वह असंभव के बारे में बहुत ही सरल टिप्पणी कर रहा है या ऐसी टिप्पणी कर रहा है जिसे सुविचार नहीं कहा जा सकता। या वह अहम् में कह रहा है। जब अहम् ज्यादा हो जाता है तो वह विचार का अपहरण वैसे ही कर लेता है। हम अहम्शून्य होकर चीजों को सही मायने में समझ सकते हैं। इसलिए रचनाकार की उपस्थिति दोनों तरह से होनी चाहिए। रचनाकार का सर्जनात्मक पक्ष भी हो और वह अपने को गायब भी कर ले। इसलिए जो बहुत सरलीकृत ढंग से चीजों को कहते हैं, मैं उनमें विश्वास नहीं करता। मैं हमेशा उदाहरण देता हूं, कि हमारे सौरमंडल का सबसे शक्तिशाली बिंब है सूर्य। वह अपनी पूरी शक्ति से प्रकाशित होने के बावजूद आधी ही पृथ्वी को प्रकाशित कर पाता है। है न  

तो आप क्या समझते हैं कि एक विचारधारा से, एक दर्शन से, एक कोण से चीजों को देखा जा सकता है? अगर पृथ्वी का दूसरा हिस्सा भी रोशनी में आता है तो सूरज के कारण नहीं आता है। वह (पृथ्वी) घूम कर उसे धूप में लाती है तब दूसरा हिस्सा प्रकाशित होता है। 

तमाम विचारधाराएं मनुष्य या प्रकृति को समझने में अपूरणीय हैं।   उसे  पूर्णता में नहीं देखा जा सकता।  वे जो दावा करते हैं  या तो वे ईश्वरीय कण की तरह सर्वत्र व्याप्त हैं, कहीं भी हो सकते हैं, यहां भी हो सकते हैं।  लेकिन लेखक अगर मनुष्य के बीच रहते हुए जी रहा है, वह दावा करे तो हमें लगेगा की वह बढ़ा चढ़ाकर कह रहा है। 

अनूप: अच्छा अब एक और बात। आप साथ-साथ सांस्कृतिक और वैचारिक लेखन भी करते हैं। क्या उसे कहानी या चित्रकला के जरिए व्यक्त किया जा सकता है? या गद्य के उसी रूप में उसे लिखा जा सकता है 

प्रभु: मुझे लगता है कि वैसे तो जो दिख रहा है वह शब्द में बदला जा सकता है; रंग में भी बदला जा सकता है। लेकिन इन सब की सीमाएं हैं। शब्द की भी सीमाएं हैं; रंग और रेखा की भी सीमाएं हैं। प्रश्न फिर से दोहराएं। 

अनूप: प्रश्न यह था कि जो बात आप वैचारिक या सांस्कृतिक लेख में कहते हैं उसे क्या आप कहानी और चित्रकला में कह सकते हैं? वहां समय की अभिव्यंजना कैसी होगी ? 

प्रभु: जैसे जो बात बहुत टॉपिकल है ... तो मैं कोशिश यह करता हूं, सबसे पहले, कि जो मैं देख रहा हूं वह मुझसे कितना संवाद करके क्या कहना चाहता है? मैं अपनी तरफ से उसे आरोपित नहीं करना चाहता।  वह खुद भी सुझाता है। जैसे रंग फैलते हुए जिस आकार को बनाने लगता है तो मैं ब्रश से उसे पेंट नहीं करता हूं। मैं ब्रश से  सिर्फ मदद करता हूं कि वह जिस दिशा में बह रहा है उसे थोड़ा और धकेल दूं। है न ? रंग की इच्छा को प्राथमिक मान के चलता हूं।  

अनूप: तो कागज का धरातल भी तो है ... क्या आप उसे समतल रखते हैं 

प्रभु: मैं जो पेंटिंग करता हूं वह चिकनी सतह पर करता हूंजिस पर पेंटिंग करना सबसे कठिन होता है। उस पर जल रंग करना बहुत ही कठिन होता है। कोई करना नहीं चाहता है। इसलिए जब कोई देखता है तो लगभग अलभ्य सा प्रभाव उसे दिखाई देता है... कि अरे जल रंग में तो ऐसा कहीं नहीं है। अमरीका में कैलिफोर्निया के एक बड़े कलाकार हैं ट्रैवर लिंगार्ड, वे मेरे काम को देखकर बहुत उत्तेजित होते हैं। वे कहते हैं कि मैं एक तरह की कलात्मक उत्तेजना महसूस करता हूं। वे कहते हैं, I am privileged that I Know Prabhu Joshi. आप उनकी कृतियों को फेसबुक पर देख भी सकते हैं। वो कहते हैं कि तुम कैसे करते हो याररंग के साथ ऐसा साहचर्य कैसे है? ऐसा लगता है कि रंग के भीतर तुम ही उतर के चल रहे हो घूमते हुए। मैंने कहा, नहीं मैंने सिर्फ पानी के मिजाज को पहचान लिया है (संतोष भरी हंसी)। मैं उसका सम्मान करता हूं। I respect the flow of water.  

अनूप: मेरे सवाल पर आइए कि वह समय जिसे आप खालिस गद्य या लेखों में व्याख्यायित करते हैं...  

प्रभु: मैं जो अनुभव करता हूं, जो देखता हूं, तात्कालिक रूप से कभी भी नहीं कर पाता कि आज देखा और आज के आज उस पर कहानी लिखी। या आज ही देखा और आज ही उस विषय पर पेंटिंग कर दी। क्योंकि वह पत्रकारिता जैसा काम होगा। मैं उसे कुछ वक्त देता हूं। और वक्त के बाद मैं देखता हूं कि अब यह कितना ग्रहण करने लायक रह गया है। इसमें से कौन सा समय उठाऊं। क्योंकि कलाकार होने के लिए चुनने से ज्यादा रद्द करने का विवेक आपके अंदर होना चाहिए कि इसमें से आप क्या छोड़ सकते हैं। क्योंकि इतना भरा हुआ है... अनंत है वह तो... आपको चुनना है... इसलिए यदि आपके अंदर यह विवेक है, कलागत विवेक, कि आप क्या रद्द कर सकते हैं, क्या छोड़ सकते हैं तो आपकी बात को बहुत तीव्रता से, बहुत विश्वसनीयता के साथ वह समय रखता है। इसलिए मेरे चुने हुए रंग होते हैं। रंगों का हार नहीं होता। क्योंकि सब होंगे तो शोरगुल हो जाएगा न। दूसरा, लिखते समय मैं कोशिश यह करता हूं कि पहले एक दृश्य बने और दृश्य ही की तरह पहले वह खड़ा हो जाए। फिर उसमें पात्र शामिल हों। जैसे खाली फ्रेम होता है और उसमें पात्र आता है। और मैं यह मानकर चलता हूं कि मनुष्य की स्मृति जो मस्तिष्क में है, वो दुनिया की सबसे बड़ी कथाकार है। और वही दुनिया की सबसे बड़ी एडिटर भी है। एडिटर क्या है? एडिट करने का मतलब है रिजेक्ट करने का विवेक। जैसे आपको मैं कहूं कि सुमनिका जी...। यहां बैठ कर जब मैं सुमनिका जी बोलूंगा तो सबसे पहले आपके दिमाग में लॉन्ग शॉट में बॉम्बे आएगा... फिर आपका इलाका आएगा... वो घर आएगा और उसके बाद सुमनिका जी आएंगी। और यह इतना त्वरित होता है कि अगर हमारे पास रिकॉर्ड करने की सुविधा होती तो हम पहचान जाते कि हम पहले चीजों को बहुत व्यापकता में ही देखते हैं, विराट में ही देखते हैं। और फिर उसमें हम वामन को ढूंढ़ते हैं। उसे पकड़ते हैं।  

अनूप: यह सहज स्वाभाविक क्रिया है या...  

प्रभु: यह सहज स्वाभाविक क्रिया है।  

अनूप: यह इस वजह से तो नहीं कि आप चित्रकला में पहले आए और लेखन में बाद में। यानी इस बात का ज्यादा संबंध चित्रकार से तो नहीं 

प्रभु: नहीं। यह हरेक के अंदर है। अगर आप न्यूरॉलोजी पढ़ें तो आपको पता चलेगा कि कोई भी दृश्य-छवि जो दिमाग में बनी है, वह हमेशा पहले मेगा इमेज ही होती है। विराट ही होती है। फिर आप उसमें से चुन के वहां पहुंचते हैं। यदि किसी दिन आप बहुत ध्यान से याद करें और विश्लेषण करें तो यही पाएंगे। एडिटर भी यही करता है।  

अनूप: विचार कहीं पीछे रहते हैं 

प्रभु: मैं सोचता हूं कि विचार की जो व्याप्ति है, वह बहुत है। क्योंकि एक रंग दे देते हैं तो वह भी एक विचार है। इसलिए. यह कल्पना से बाहर ही है कि कोई रूपहीन कथ्य हो सकता है या कथ्यहीन रूप हो सकता है। 

अनूप: यह भी माना जाता है कि विचार तो विद्यमान रहता ही है। It exists on its own.  

प्रभु: हम जब विचार कहते हैं तो हमारी चेतना में वह दर्ज होता है तभी तो हम उसे विचार जैसी संज्ञा दे पाते हैं। आपके सिर पे तलवार लटकी है। अगर आपको नहीं पता है, यानी दर्ज नहीं है आपकी चेतना में तो उसका अस्तित्व ही नहीं है। तो तलवार कहां से आ जाएगी? आपके लिए आकस्मिक या चौंकना तो तभी होगा न कि लगे कि अरे! यह तलवार थी यहां। टन्न से गिर गई, क्योंकि वह दर्ज नहीं थी। हालांकि कई बार आकस्मिकता को कला में मूल्य बना लिया जाता है। लेकिन आकस्मिकता कभी भी मूल्य नहीं बननी चाहिए। क्योंकि मनुष्य का विकास या कला का भी विकास केवल आकस्मिकता के आधार पर नहीं होता है।  स्फुरण  हो सकता है कोई। क्योंकि अगर आकस्मिक है तो दोबारा पैदा नहीं किया जा सकता। और जिसे दोबारा पैदा नहीं किया जा सकता, उसका अनुकरण नहीं किया जा सकता, उसका अनुगमन नहीं किया जा सकता। जिसका अनुगमन नहीं हो सकता है वह परंपरा नहीं बनाता। जो परंपरा नहीं बनाता वह जीवित नहीं रहता। तो आकस्मिकता को कला में ऐसा मूल्य बनाना कोई मूर्ख ही आदमी कर सकता है।  

हां  आकस्मिकता  को आप पहचानें ही नहीं और कहें कि आकस्मिकता तो कला का महान सत्य है तो ऐसा नहीं है। चूंकि हम उसे नहीं जान रहे हैं इसलिए आकस्मिक लग रहा है न? तलवार अचानक नहीं गिरी। आपको उसके बारे में मालूम नहीं था। कई बार कैनवस में आकस्मिक रूप से रंग में मूर्खता कर दी गई होती है... और फिर यह सोचते हैं कि मैंने जो बनाया वह महान है। आप उसको दोबारा नहीं बना सकते तो उसका अनुगमन कैसे होगा? उसका विकास कैसे होगा? हालांकि कहने को आप जरूर कह सकते हैं कि नहीं साहब, एक नदी में दो बार नहीं नहा सकते। या वे काल के प्रवाह की बात करते हैं। लेकिन जब आप दृश्य कलाओं में, परफार्मिंग आर्ट्स में या शब्द में आएंगे तो फिर यह दार्शनिकता ... एक वक्त लगने लगता है कि आप बहुत कलात्मक झूठ बोलने की कोशिश कर रहे हैं जो दार्शनिक झूठ है। 

 


आकाशवाणी के अनुभव

अनूप: अब एक अलग सवाल आपसे पूछना चाह रहा हूं। आप सरकारी मीडिया में काफी वर्षों तक रहे हैं। वहां का अनुभव कैसा रहा है 

प्रभु: प्राइवेट मीडिया की तुलना में सरकारी मीडिया में काम करना मुझे फिर भी मुफीद लगता है। जैसे मान लीजिए मैं अखबार में काम करता हूं और आज अभय छजलानी से मेरा झगड़ा हो जाता है तो दूसरे ही दिन मैं नई दुनिया में रहूंगा ही नहीं। लेकिन अगर मेरा आकाशवाणी के स्टेशन डाइरेक्टर से झगड़ा हो गया तो या तो तीसरे साल उसका ट्रांसफर हो जाएगा या मेरा हो जाएगा। फिर प्राइवेट मीडिया जितना पूंजी से संचालित है या निजी पूंजी का वर्चस्व वहां है, जो आपका नियमन करता है, आपका शोषण करता है, जनतांत्रिक सरकार के संस्थान में आपका उतना शोषण नहीं होता है।  

लेकिन सत्ता का जो चरित्र होता है, वह अपने ढंग से प्रतिरोध तो पैदा करता ही है। मेरी शुरु में ही भिड़ंत हुई। जैसे ही मैंने जगदलपुर में ज्वाइन किया, कोई पंद्रह दिन हुए होंगे, संजय गांधी आकाशवाणी जगदलपुर का उद्घाटन करने आए थे। अंग्रेजी के एक अखबार ने मुझसे पूछ लिया, आकाशवाणी का खुलना आपको कैसा लगता है? मुझे लगा कि वे आदिम संस्कृति और समाज में रहते हैं। उन्हें अभी नागर भाषा भी नहीं आती। वे अभी अपनी भाषा के नाकाफीपन के शिकार हैं। अभी उन्हें बहुत सारी चीजों की जरूरत है। तो मैंने यह टिप्पणी कर दी कि यह तो ऐसा लग रहा है जैसे दिगम्बरों के मुहल्ले में लॉन्ड्री खोल देना। तो साहब, मुझे तुरंत स्टेशन डाइरेक्टर ने बुलाया और मेमो दे दिया कि तुमने आकाशवाणी के बारे में यह क्या कह दिया। जानते हो, तुम्हारी नौकरी चली जाएगी? मैंने कहा, साहब यह मैंने, बहैसियत लेखक जो सोचता हूं वह कहा है। एक कर्मचारी की तरह नहीं बोला। वे बोले, कर्मचारी और लेखक क्या होता है? ये अलग थोड़े ही हैं। तब मुझे पहली बार लगा कि आप कहीं सरकारी मातहत हैं। आपकी पहचान, व्यवस्था आपके ओहदे से ही करना चाहती है, उससे ज्यादा नहीं करना चाहती।  

अनूप: लेखन आदि के लिए तो बाकायदा परमीशन लेनी पड़ती है।  

प्रभु: हां, परमीशन लेनी पड़ेगी। लेकिन मैं कभी डरा नहीं। दो केंद्र निदेशक लीलाधर मंडलोई और लक्ष्मेंद्र चोपड़ा मेरे मित्र भी थे, इनके अलावा कोई भी ऐसा स्टेशन डाइरेक्टर नहीं होगा, जिससे मेरी लड़ाई नहीं हुई। हमेशा ही द्वंद्व रहा। मेरे दस बार ट्रांसफर हुए। वे सिर्फ इसलिए हुए थे कि जो मैं करना चाहता था, वो उनकी समझ में नहीं आता था।  

जैसे सबसे पहले मुक्तिबोध के 'अंधेरे में' पर जब प्रोग्राम बनाया तो सबसे पहले एक ने पूछा कि मुक्तिबोध लिखा हुआ किसका है? मैंने कहा भई ये कवि हैं। वे बोले, हमने तो नाम नहीं सुना। और जब नाम सुना तो बोले, ये तो नागपुर आकाशवाणी में कोई स्क्रिप्ट राइटर था। और वो प्रतिबंधित था। तो उसका प्रोग्राम आप कैसे बना रहे हो? उसके लिए उन्होंने मुझे बाईस मेमो दिए। उस प्रसंग में मुझे यह लगा कि आजादी की लड़ाई हमने हिंदी में चाहे लड़ी हो, लेकिन व्यवस्था की लड़ाई अंग्रेजी में लड़ना पड़ती है। मुझे अंग्रेजी आती थी तो मैं उनके जवाब अंग्रेजी में दे पाया। लेकिन अंत में हुआ यह कि जो स्टेशन डाइरेक्टर मुझे नौकरी से टर्मिनेट करने वाला था, एक दिन जब टेलेक्स आया (तब टेलेक्स चलता था) कि it has received first prize in history of twenty five years among Hindi states. तो वह सुबह-सुबह कार लेकर मेरे घर आया। मैं नाराज था। बातचीत नहीं करता था। मैंने तय कर लिया था कि मैं यह नौकरी छोड़ दूंगा और हिंदी अधिकारी बन जाउंगा। हिंदी में एम ए कर रहा था। मैं पहले से अंग्रेजी में एम ए था पर माना नहीं जा रहा था कि मुझे हिंदी आती है, जबकि मैं लेखक भी था हिंदी का। आकाशवाणी में जाने से पहले मेरी सात कहानियां छप चुकी थीं, धर्मयुग और सारिका में। एक ही कहानी पहल में छपी। तो वह केंद्र निदेशक आया और उसने कहा कि प्रभु जोशी, मुझे अफसोस है और उसके लिए मैं क्षमा मांगता हूं कि मैं तुम्हारी समझ और प्रतिभा की पहचान नहीं कर पाया क्योंकि people had wrongly briefed me. मैं अब समझ सकता हूं कि तुमने जो बनाया वह क्या था। बधाई दी। मेरा एक पांव पैडल पर था और एक सीट पर। मैं बिल्कुल जो ब्लिंकिंग ईडियट होते हैं न, उनकी तरह आँख मटकाते हुए उसकी तरफ देखता रहा। क्या सुना तूने क्या कहा मैंने वाली मुद्रा में पैडल मारता हुआ परीक्षा देने चला गया।  

बाद में उसने मुझे बुलाया और सारे मेमो विदड्रॉ किए। उसने यह बात भी बताई कि रतलाम के कलेक्टर सुदीप बैनर्जी ने इस कार्यक्रम के बारे में जब चिट्ठी लिखी कि कार्यक्रम बहुत अच्छा है तो मुझे लगा कि इसकी जो निंदा की जा रही है, इस बारे में मैं फिर से सोचूं। और यह पुरस्कार जब आया तो मुझे लगा कि नहीं यह गलत चल रहा था। एक जन उसी समय शिकायत कर रहा था कि साहब प्रभु जोशी बीस-बीस टेप लेकर प्रोग्राम बना रहा है। साहब बोले कि ऐसे कार्यक्रम के लिए सौ टेप भी लग जाएं तो मैं दूंगा।  

अनूप: फिर भी सारे संघर्ष के बावजूद आप रहे आकाशवाणी में ही। संगीत के बड़े कलाकारों को भी मेमो मिलते रहे हैं। लेकिन वे छोड़ कर चले गए।  

प्रभु: मेरी स्थिति यह थी कि मेरे दो छोटे भाई पढ़ रहे थे। मैं गांव से भाग के आया था। बारह साल तक लौटा नहीं था। यह कह के निकला था कि कुछ बन के लौटूंगा। बन के बताउंगा। मैं अपने भाइयों को ले आया था। उन्हें भी बनाना था। पढ़ाना था। मैंने आकाशवाणी में विवाह भी कर लिया था। मुझे लगा कि एक लड़की जो सब कुछ दाव पर लगा कर मेरे साथ जीवन में आई, आज मैं उसे छोड़ दूंगा तो ये लोग उसे और सताएंगे। वहां भी ब्यूरोक्रेसी अपने ढंग से बहुत खतरनाक काम करती थी। आकाशवाणी मैं छोड़ नहीं पाया। मुझे लगा कि चीजें नहीं बदलतीं। लेकिन चीजें बदल कर रहती हैं। इसी झूठ और सच की वजह से आदमी जिंदा है। और लेखक भी जिंदा है। इसलिए मैंने आकाशवाणी को छोड़ा नहीं। और अंत में यह हुआ कि I am the lone person in the history of AIR who has received 16 national awards for outstanding programmes in radio. इनमें दो अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम भी थे। हो सकता है बावजूद इसके मुझे यही ट्रीट किया जाएगा कि अरे! वो तो पेक्स (प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव) था। लेकिन मैं बहुत जल्दी इससे तो मुक्त ही हो चुका था।  

अनूप: आपका कुमार गंधर्व से गाढ़ा परिचय रहा है, रेडियो कार्यक्रमों के संबंध में भी। उनके साथ कैसे अनुभव रहे? 

प्रभु: आप कभी कुमार गंधर्व से मिले नहीं। एक किस्सा सुनिए। नया-नया टेलीविजन आया था यानी दूरदर्शन। मैं बैठा हूं, एक चौधरी थे जो उनके साथ तबले पर संगत करते थे। ऐसा होता है ना कि कोई भाषा का जानकार है और कोई गलत पढ़ रहा हो तो उसे अच्छा नहीं लगता। कार्यक्रम में तबले वाला तबला इस तरह बजा रहा था कि चौधरी जी ने कहा, यह क्या कर रहा है कुमार जी? कुमार जी ने ध्यान नहीं दिया। चौधरी फिर बोले, यह क्या बजा रहा है? तो कुमार जी बोले, नहीं वो तबला नहीं बजा रहा है, वह ड्यूटी बजा रहा है। (ठहाका) पापी पेट का तबला है। वह किचन में बैठा है। काहे को नाराज होना चौधरी। चलने दे। नहीं तो बंद कर दे।  

उनके अंदर बहुत सी खास चीजें थीं। खासतौर से एक गीत बहुत मधुर गाते थे - बड़ी का गीत। जब केतन मेहता उन पर फिल्म बनाने आए तो वे कुमार जी की राहुल वारपुते के साथ बात करवाना चाहते थे। मैंने केतन से बात की तो केतन बोले राहुल वारपुते चाहे उनके दोस्त हों पर आप जो बात करोगे वह अलग तरह की बात होगी, तो आप करो। अब क्या था कि गंधर्व जी की दो पत्नियां थीं। एक मर गई थी। हम लोग छोटे थे तो याद है कि देवास में वह मिडिल स्कूल में बग्घी में बैठकर पढ़ाने आती थीं। उन्हें हेड टीचर बना दिया गया था। वे बहुत सुंदर थीं। उनका फोटो भी बनाया उनके मर जाने के बाद। मालवी में एक लोकगीत है। पहली पत्नी जो मर जाती है और जो नई ब्याहता आती है, वह पहली वाली को बड़ी कहती है। नई वाली जो कुछ भी करती है जैसे खाना भी खाएगी तो चांदी की एक चीज बनी रहती है उससे छुआएगी। उसके बाद खाना खाएगी। वह यह मानकर चलती है कि तेरा ही दिया हुआ मैं खा रही हूं। प्रेम भी करती होगी तो मुझे लगता है वह सोचती होगी कि तुम्हारा ही दिया हुआ हिस्सा है। तो मैंने कहा कि एक आधी अधूरी स्त्री का जीवन है। उसमें निश्चित ही कृतज्ञता बोध भी होता होगा। एक पीड़ा भी होती होगी। उस गीत को कुमार जी बहुत बढ़िया गाते थे। तो मैंने वह इस्तेमाल किया कुमार जी पर एक कार्यक्रम में। कार्यक्रम का नाम था 'अमर मेरी काया'। उस कार्यक्रम को लेकर कुमार जी के साथ मेरे बहुत से अनुभव थे। जैसे वह गाएंगे तो आधा... ऊपर ले जाएंगे। जैसे सुनो भाई साधो है या अवधूता तो पंचम को छूकर झट से सम पर आते थे। (इसके पहले प्रभु यह अंश गाकर सुनाते हैं) तो मैंने उनसे कहा, खरज में ही चलिए ना। मुझे ऐसा चाहिए कि जमीन के नीचे ही कुछ चल रहा हो। एक कार्यक्रम एक फ्रेंच कहानी पर था। उसमें यह था कि एक दंगा हुआ और आदमी भागते भागते एक म्यूजियम में घुस गया। म्यूजियम में घुसा तो वहां प्रागैतिहासिक चीजें थीं। उनके बीच भागता रहा। रात का वक़्त था। समय खत्म हो रहा था चौकीदार भी बंद-वंद करके चला गया। तो यह आदमी तीन दिन वहीं बंद रहा। तो मैंने कुमार जी से कहा, वह रात भर बंद रहता है, उस म्यूजियम में प्रागैतिहास से चलते हुए आधुनिक समय तक आता है। यह एक उसकी पूरी यात्रा थी। पर मैंने परिवर्तन क्या किया कि दौड़ते दौड़ते वह व्यक्ति मैनहोल में गिर गया। जमीन के अंदर ही अंदर वो चलता दिखाया गया है। सतह के नीचे। तो मैंने कहा, कुमार जी पूरे समय मुझे आलाप वह चाहिए जो खरज में ही चलता रहे। आलाप तो वैसे पंचम को छूता हुआ सप्तम में जाकर फिर लौटेगा ना? तो वह खरज में ही चले। (फिर से प्रभु अवधूता गाकर सुनाते हैं) वे आधी ही तान लेते थे क्योंकि फेफड़ा एक था। फिर मैंने कहा, एक चाहिए मुझे मां शब्द को लेकर। बोले, हां हां तू लिख दे हिंदी में मां। और फिर क्या सुर लगाया। (प्रभु फिर मां शब्द को गाकर सुनाते हैं) और कुमार जी ने मां शब्द को कम से कम कोई बीस तरीकों से गाया।


 

प्रतिरोध के स्‍वर

अनूप: अब एक और सवाल... वह यह कि जो प्रतिरोध के स्वर हैं, उन्हें दूर तक हम कैसे पहुंचा सकते हैं? या कैसे पहुंचाया जाना चाहिए, व्यक्तिगत ही नहीं सांगठनिक स्तर पर भी  

प्रभु: एक गाना था कि सच से सत्ताएं खड़ी  होती हैं लेकिन सच को इस्तेमाल करने से वही सत्ताएं नष्ट हो जाती हैं। सच अपने आप में जितना जोड़ने वाला है उतना ही तोड़ने वाला है। इसलिए याद रखिए कि संस्थानों या संगठनों में भी जिसने जहां सच बोला उसे बाहर कर दिया गया या साइबेरिया भेज दिया गया। तो मैं यह मान के चलता हूं कि अगर हम किसी को प्रतिरोध के स्तर पर आने देना चाहते हैं तो वह चाहे अराजक होने की सीमा तक क्यों न चला जाए, आगे आने देना चाहिए। क्योंकि अराजक हो जाने की भी संभावना है। हो सकता है आज उसकी अराजकता के कारण उसे महान करार दे दिया जाए लेकिन अंत में इतिहास और समय के पास भी एक छलनी होती है जो बाद में छान देती है। यह फूहड़ विद्रोह होता है। जैसे अकविता का बहुत सारा लिखा हुआ फूहड़ विद्रोह था। वह एक तरह का प्रतिरोध पैदा कर रहा था लेकिन अंत में छन के बह गया कचरे की तरह। तो प्रतिरोध तो होना चाहिए। बाकायदा किसी भी सीमा तक जाने देना चाहिए उसे। क्योंकि कलाओं में अगर कलाकार के अंदर इस तरह की सीमाएं बनने लगीं तो वो संदिग्ध हो जाएगा। पहले तो उसे व्यक्त हो जाने दीजिए। कृति जब रूप लेती है, उसके बाद हमारा अपना मनुष्य होने का, कलाकार होने का इतिहास है, वह मदद करता है कि नहीं आप कलाकार हैं तो कितना रखना चाहिए। जैसे अभी व्यंग्य चित्र का प्रसंग आया। मैं मानता हूं कि वे फूहड़ थे। कुरुचिपूर्ण बनाए गए थे। यानी वह व्यंग्य की असामर्थ्य की सूचना है कि आप गू-मूत्र पर उतर आए। हो सकता है तर्क के स्तर पर एक बात हो जिसकी मैं तर्क के स्तर पर वकालत करता हूं।  

अनूप: तर्क या कलात्मक मूल्य 

प्रभु: मगर कलात्मक मूल्य या सत्य आपने खो दिया तो फिर मैं सोचता हूं मां की गाली देना भी उतनी ही महान कला हो जाएगी। असीम त्रिवेदी के संदर्भ में बात कर रहा हूं मैं।  

अनूप: लेकिन उसमें एक तरह का वैचारिक विरोध तो है।  

प्रभु: विरोध है। यानी संसद को आपने पश्चिमी शैली का फ्लश बना दिया या शेर की छवि का भेड़िया बना दिया। वो ठीक है। लेकिन ये सब प्रश्न कला में पहले व्यक्त तो हो जाएं। हमें विरोध के लिए भी तैयार होना चाहिए। फिर इतिहास जो फैसला करेगा उसे स्वीकारना होगा। वरना क्या है कब्र में जिसे दफ्ना दिया गया, वक्त ने उसे उखाड़ कर फिर से माला पहना दी। उसकी वजह क्या थी? वह सच था। 

 

आस्‍था और उम्‍मीद

अनूप: अच्छा यह बताइए, साहित्य और समाज में भी, आस्था और उम्मीद का संचार कैसे होता है 

प्रभु:  जब हम किसी आस्थाहीन को भी चित्रित करते हैं तो कोई एक आस्था हमारे पार्श्व में खड़ी होती है। जब मैं किसी को चुन रहा होता हूं या रद्द भी कर रहा होता हूं तो मेरे अंदर श्रेष्ठ कोई दूसरा है। जब मैं इसे कूड़ा कह रहा हूं तो इसका मतलब है दूसरा कोई मेरे पास सर्वश्रेष्ठ है। और यह सर्वश्रेष्ठ होने की जो प्रतीति है वही तो आस्था है। अब अगर आस्था को आप ईश्वर या उन मूल्यों के बजाय सिर्फ मनुष्य के होने की आस्था मानें। 

अनूप: दिक्कत यह है कि जब लोग आपस में मिलते हैं तो बात करते हैं, और यह आम प्रवृत्ति भी है, कि पिछला समय अच्छा था, अब समय बहुत खराब है। इस बात का और गहराई से विश्लेषण करने लगें  तो लगता है कि क्या हम निगेटिव की तरफ बढ़ रहे हैं? जितने मूल्य हमने बनाए, ऐसा लग रहा है कि वे भंजित हो गए या कहें खोखले निकल गए। उस परिप्रेक्ष्य में जानना चाह रहा हूं… 

प्रभु: आप बहुत अच्छी बात कह रहे हैं। देखिए यह समय के प्रवाह का ही संबंध है। लेकिन हम अपने अतीत से संबंध विच्छेद करके कभी


नहीं रह सकते, होते ही नहीं। मैं आपसे जिस भाषा में बोल रहा हूं, अतीत इसमें शामिल है। क्योंकि इसके भीतर सैकड़ों सालों से अर्जित भाषा का अतीत भी है। इसलिए अगर कोई कह रहा है कि अतीत छोड़ दो तो मैं समझ रहा हूं बहुत दुनियादार किस्म की बात कर रहा है। हमें समग्रता में देखना है। जैसे किसी ने कुमार गंधर्व से पूछा कुमार जी आपने तानपूरा कब खरीदा? यह कितना पुराना है? उन्होंने कहा तीन हजार साल छह महीने। इसका मतलब वह तानपूरे को उसके ऐतिहासिक विवेक के साथ देख रहे हैं, उसके अतीत के साथ भी देख रहे हैं। यह दृष्टि एक कलाकार की दृष्टि है। ऐसे ही राजनेता की दृष्टि हो सकती है, एक प्रोजेक्ट वाले की दृष्टि हो सकती है कि इतिहास बकवास है, छोड़ दीजिए। किसी नेता की भी यह भाषा हो सकती है। लेकिन अगर कोई सही मायने में नेता है तो वह ऐसा नहीं कहेगा। उसके लिए सारा समय साथ है। यानी मैं विचारधारात्मक रूप से सारे मार्क्सवादी जार्गन की बात करते हुए भी... क्योंकि मैं यह मानकर चलता हूं कि मार्क्सवाद अंतिम आर्थिक दर्शन है, पूरा दर्शन नहीं है... लेकिन दर्शन तो अंत में आएगा ही। क्योंकि कोई भी लेखक बगैर दार्शनिक दृष्टि के महान हो ही नहीं सकता और कोई रचना भी महान नहीं हो सकती। मैं यह मान कर चलता हूं कि तीन चीजों से एक लेखक भिड़ता ही है- समय, मृत्यु और ईश्वर। इनसे भिड़े बगैर कोई बड़ा लेखक होता ही नहीं है, कृति भी बड़ी नहीं होती है। आप देख लें कि दुनिया की तमाम महान कृतियां अंततः अपने समय, ईश्वर और मृत्यु से लड़ती हैं। अगर हम समग्रता में देखें तो कुछ त्याज्य नहीं है। वह तिरोहित हो जाता है, त्याज्य नहीं है। यदि आप आज पार्टिकल फिजिक्स की बात करें तो न्यूट्रोनियम फिजिक्स को बंद कर देंगे? संभव ही नहीं है। जबकि न्यूट्रोनियम फिजिक्स और पार्टिकल फिजिक्स दोनों झूठ सिद्ध हो चुकीं। टी. एस. इलियट ने 'पास्टलेस पास्ट' की बात की है, उसे भी याद कीजिए। उन्होंने ट्रेडीशन एंड द इंडिविजुअल टैलेंट निबंध में यह बात कही है कि जब वे बोल रहे हैं तो उनके अंदर होमर भी बोल रहा है। तो मैं सोचता हूं कि इतनी ही समग्रता में चीजों को देखा जाएगा। और यह समग्रता केवल दर्शन की समग्रता है, विचारधारा कि नहीं। मैं तो कई बार उदाहरण देता हूं कि जैसे पानी में कोरल होता है ना? मैं बायोलॉजी का छात्र रहा हूं! उसकी पीठ में, नीचे, पीछे  सब जगह आंखें होती हैं। जब तैरता है तो समुद्र की ऊपर की सतह भी देखता है, इधर भी, उधर भी, चारों तरफ देखता है। तो समग्र दृष्टि तो कोरल की होती है। मनुष्य की थोड़ी होती है। (हंसी) है ना? तो वही बात है कि समग्रता को या पूर्णता को पाने की तलाश में ही जीवन है! 

अनूप: तो आस्था? 

प्रभु: जब नेति नेति कहते हैं तो इसका मतलब? सच कहीं और है। सबसे बड़ी आस्था चलते रहने की आस्था है। एक गाना था ना हमको सफर प्यारा... मंजूर.... खुदा हाफिज... चलते रहना, गतिमयता अपने आप में एक मूल्य है। और एक लेखक के लिए वह मूल्य, स्थिर मूल्य है ही नहीं। जिस दिन स्थिर हो जाता है उसी दिन उसकी मृत्यु घोषित हो जाती है। चाहे विचार हो चाहे रचना हो। इसलिए वह अपने आप को नित्य नवीन करते रहते हैं। 


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