लेखक संगठनों के पुनर्गठन का मसला
हिमाचल मित्र के इस संपादकीय के साथ
जोड़ कर देखा जाएगा
तो परिवर्तन की जरूरत और शिद्दत से महसूस होगी.
माहौल को गरियाना, राजनीति को लतियाना, युवा पीढ़ी पर बिगड़ जाने के फतवे जारी करना और फिर व्यवस्था के मत्थे दोष मढ़ देना एक फैशन है। हर कोई खुद को हर चीज का एक्सपर्ट समझता है इसलिए उसे लगता है हर मसले का समाधान उसके पास है। बिनमांगी सलाहों का जखीरा हर किसी के पास होता है जिसमें राजनेताओं को तड़ीपार करने से लेकर डिक्टेटरशिप लागू करने तक के अव्यवहारिक और विचारहीन फंडे कढ़ी में उबाल की तरह उफनते रहते हैं। इस तरह की चकल्लस में हमारे पुरुष ज्यादा लिप्त रहते हैं और घर-घर में चक्रवर्ती सम्राट बनके घूमते रहते हैं। महिलाएं चूंकि एक के बाद एक शिफ्ट में बेगार करती रहती हैं, इसलिए वे इस चर्चा-चर्वण में कम ही शामिल होती हैं। हम दूसरों से तो बहुत उम्मीद लगाए रखते हैं पर अपनी तरफ भूलकर भी नहीं देखते। समाज के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारी है, इस पर लच्छेदार भाषण तो दे सकते हैं पर अमल करते वक्त हम कन्नी काट लेते हैं। कथनी करनी में समानता हमने महात्मा गांधी जैसे महात्माओं के लिए छोड़ दी है।
हरेक जन अपने आचार-व्यवहार से अपने समय की सभ्यता-संस्कृति की रचना करता है। अगर हम कहेंगे कुछ, और करेंगे कुछ, तो विचार-व्यवहार की यह फांक हमारी सामूहिक चेतना में भी फैलती जाएगी। यह ठीक है कि हरेक प्राणी अपने सर्वाइवल के लिए जीता है। लेकिन लाखों वर्षों की विकास यात्रा में हमने सामाजिकता के मूल्य भी तो विकसित किए हैं। वे हमारे खून में या कहें जीन्स में आ गए हैं, हमारे चित्त में बैठे हैं, हमारी चेतना को रोशन करते हैं। ऐसी विकासमान और आत्मिक धरोहर को धता बताकर अगर हम खुद से ही लिथड़े रहें, खुद को अपनी इंस्टिंक्ट्स के शिकंजे में फंसाए रखें, लेकिन सारी सदाशयता, परमार्थ और सामाजिक उत्तरदायित्व की उम्मीद दूसरे से करते रहें तो ऐसे दोफाड़ व्यक्तित्व को वैचारिक सिजोफ्रेनिया का शिकार ही कहा जाएगा। और खंडित व्यक्तित्व एक रोग होता है। इस पंगुता को हम अपनी सभ्यता-संस्कृति में संक्रमित करते जाते हैं।
यह भी ठीक है कि आदर्श समाज तो एक यूटोपिया है। लेकिन हर युग ने इस यूटोपिया को फलित करने के प्रयत्न तो किए ही हैं। सभ्यता-संस्कृति के निर्माण में यूं तो मजदूर, किसान, कारीगर, इंजीनियर, आर्कीटेक्ट, डॉक्टर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, राजनेता, बच्चे, बूढ़े, युवा, प्रौढ़, कन्या, युवती, माता, पिता, दादी, नानी सबका योगदान है। प्रकृति के प्रत्येक प्राणी से ही नहीं, जड़ वस्तु और मानव निर्मित वस्तु से भी हमारे रिश्ते इसके डीएनए के निर्माण में योगदान देते हैं। ये संबंध आपस में भीतर तक गुंथे हुए हैं। इतने गझिन कि हमें पता ही नहीं चलता कि हम क्या दे रहे हैं और बदले में क्या पा रहे हैं।
ऐसी जटिल संरचना के बीच रहते हुए बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका नि:संदेह महत्वपूर्ण हो जाती है। इनमें भी भाषा, साहित्य और कला के क्षेत्र में सक्रिय बुद्धिजीवियों का कार्यक्षेत्र बहुत जिम्मेदारी भरा है। लेखक, अध्यापक, पत्रकार, भाषा अधिकारी, सांस्कृतिक अधिकारी को कथनी-करनी में भेद करने की छूट किसी भी कीमत पर नहीं मिल सकती। लेखक कलाकार की कला-जन्य स्वायत्तता अपनी जगह है पर हम यह नहीं भूल सकते कि इन बुद्धिजीवियों के काम का संबंध आगे आने वाली कई पीढ़ियों से है। लेखक-कलाकार ज्ञान और संवेदना के औजार लेकर जीवन जगत की पुनर्रचना करता रहता है; अध्यापक अगली पीढ़ियों को जीना सिखाता है; पत्रकार के ऊपर सारे समाज को बाखबर और खबरदार रखने की जिम्मेदारी है; उनसे भी अहम भूमिका नौकरशाही के उन आला अफसरों की है जो केंद्र और राज्य सरकारों की सांस्कृतिक, भाषाई और शिक्षा संबंधी नीतियों और संस्थाओं के नियंता और संचालक हैं।
इसकी तुलना में आज के अदबी हालात देखकर आंखें फटी की फटी रह जाती हैं। तकरीबन हर लेखक परेशान है कि उसे उसकी प्रतिभा के बराबर महत्व नहीं मिलता। पुरस्कारों, फैलोशिपों, पदों और पीठों के आबंटन पर थुक्का-फजीहत चली रहती है। कभी किसी आयोजन पर विचारधारात्मक हमला होता है, तो कभी किसी लेखक या संगठन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता है। एक कवि गाली-गलौच पर उतर आता है तो दूसरा हाथापाई करने से नहीं हिचकता। और हिंदी साहित्य की दुनिया अपनी लघु पत्रिकाओं में ललकारती रहती है। पाठकों की कमी मुंह बाए खड़ी एक सच्चाई है। अभी तक हम पुस्तक बिक्री का नेटवर्क ही खड़ा नहीं कर पाए हैं। उल्टे थोक खरीद के जमींदोज नाले का नेटवर्क ज्यादा पुख्ता हो गया है। यह किसका किया धरा है? बुद्धिजीवी का ही न। जो करना था वो नहीं किया, जो नहीं करना था वह करते चले आए। अगर साहित्य की पैठ व्यापक पाठक वर्ग तक हो तो लोकप्रियता के मानक बदल जाएंगे। किसी भी लेखक को पाठक लोकप्रिय बनाएंगे, पुरस्कार या मित्र-लेखक नहीं। पाठकों के कम होने के कारण लेखक वर्ग की एकाउंटेबिलिटी तय नहीं हो पाती।
भाषा से जुड़े तकरीबन सभी पेशे इसी के कारण स्वच्छंद और लगभग स्वेच्छाचारी हैं। अकादमिक जगत पर नजर डालिए तो निराशा घेरने लगती है। स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों के पाठयक्रमों का मसला हो, पाठयपुस्तक उद्योग हो या उच्च स्तरीय शोध हो, खुला खेल फर्रुखाबादी चलता है। अकेले या गिरोहबंदी करके मनमानी की जाती है। तू मुझे पोस मैं तुझे पोसूं का खेल चलता है। अधिकार का दुरुपयोग करना मानो मौलिक अधिकार बन गया हो। चाहे कक्षा पांच का पाठ हो, चाहे एमफिल पीएचडी के शोध, भ्रष्ट भाषा के नमूने हर कहीं मिल जाएंगे। ऐसे ऐसे लेखकों पर शोध हुआ मिल जाएगा, जिन्हें सही भाषा लिखने का अभ्यास भी नहीं है। हमारे यहां तकरीबन तीन सौ विश्वविद्यालय हैं। यानी इतने ही हिंदी विभाग होंगे जहां शोध होता है। असल में शोध तो अनवरत चलती हुई फैक्ट्री है, जहां भारी संख्या में पुस्तकों, लेखकों और आलोचकों की कच्चे माल की तरह निरंतर खपत होती है। यहां अकादमिक अध्यापक, शोध निर्देशक और आलोचक स्वायत्त होकर काम करता है। वह क्या करता है, कैसे करता है, क्यों करता है, इसका लेखा जोखा करने वाला कोई नहीं। कमोबेश इसी रास्ते पर हमारा मीडिया चल रहा है। वह तो सत्ता के और भी करीब है। इसलिए मुंह जोर है। आज हर कोई प्रिंट और टीवी को पानी पी पी कर कोसता है। लेकिन मालिकों को छोड़ दें तो इन्हें चलाता कौन है? हिंदी के बुद्धिजीवी ही न? क्या वे इतने पंगु और मूढ़ हैं या भीरु और कायर हैं या मोटी तनख्वाहों और सुविधाओं के गुलाम हो गए हैं कि चलताऊ, भड़काऊ, उबाऊ खबरों से परे कुछ देख सोच ही नहीं पाते? एक एक करोड़ पाठक और आपको विश्लेषण के लिए अंग्रेजी की शरण में जाना पड़े? या कालम लेखक भी अनुवाद करके लाने पड़ें? हिंदी में कितने कालमिस्ट होंगे, जिनके शब्दों को नीति-निर्माता तवज्जो देते होंगे? टीवी पर तो खबरों तक को सनसनीखेज सीरियल बनाने में कोई कोर- कसर नहीं छोड़ी जाती। हमारा पत्रकार तबका हिंदी समाज को बौड़म, ठरकी और पतित ही मानता है इसलिए उसी तरह की लुगदी परोसता चला जा रहा है। आत्मान्वेषण तो छोड़िए, न तो कोई वाचडॉग इन मीडिया-मेधावियों पर नजर रखने को तैयार है और न ही कोई मीडिया संस्थान विचार-विश्लेषण करने को। हिंदी को राजभाषा बनाए जाने के कारण सरकारी हल्कों में हमें हिंदी अधिकारी मिला। यह एक विलक्षण अवसर था। हिंदी अधिकारी नौकरशाही और प्रशासन के मकड़जाल में सांस्कृतिक चेतना फैला सकता था। पर वह अंतर्विरोधों और हीनताग्रंथी में उलझ कर रह गया। नौकरशाही के जो अफसर भाषा-साहित्य-संस्कृति की नीतियां बनाने और उन्हें चलाने के लिए तैनात किए जाते हैं, वे ज्यादातर सत्ता के मुहरे बन कर ही रह जाते हैं।
जब मशाल लेकर चलने वाले ही दिशाहीन होकर लड़खड़ाने लगें, तो वे व्यापक हिंदी समाज पर उदासीनता, अपढ़ता, कूढ़मग्जी, संस्कारविहीनता आदि के दोष किस मुंह से मढ़ सकते हैं? यह दोषारोपण बंद होना चाहिए। सारे बुद्धिजीवी वर्ग को आत्मान्वेषण करना चाहिए; और ऐसा इंतजाम करना चाहिए जिसमें लेखक, अध्यापक, पत्रकार, संपादक और अधिकारी का सोशल ऑडिट हो। उसकी जिम्मेदारी तय हो और उसे जवाबतलब किया जाए। यह काम कैसे किया जाए कि रचनात्मक स्वायत्तता का हनन भी न हो और उच्छृंखल हरकतों की छूट भी न मिले, बल्कि जिम्मेदारी की चेतना का प्रसार हो, यह मिल बैठकर तय किया जाना चाहिए। लेकिन वाग्विलास से परे, चर्चा-चर्वण से हटकर, आंतरिक और अनिवार्य जरूरत के तहत, एक आत्मिक पुरुषार्थ और परमार्थ की तरह।
चित्रः प्रभु जोशी. खंडित करने के लिए क्षमा करेंगे. अंदर बाहर की कटी फटी चिडि़या तकलीफ देती है. जीवन जगत का सौंदर्य साथ रहने में ही है.
जीवन जगत की पुनर्रचना किस दौर से गुजर रही है इसका साक्षातकार कराती लाजवाब संपादकीय.
ReplyDeleteहिंदी में बुद्धिजीवि हैं ही कहां?
ReplyDeleteत्यन्त सम्यक विचापढ़ने को मिला।
ReplyDeleteसेठी जी, आपके चिन्तन की गहराई, विस्तार एवं महानता को देखते हुए आपसे हिन्दी विकि पर कुछ लेखों का योगदान करने का निवेदन कर रहा हूँ। आप अपनी रूचि और विशेषज्ञता के अनुसार विषयों का चुनाव करके कुछ महत्व के विषयों (टॉपिक्स) पर लिखें तो हिन्दी का कल्याण हो।
aapka prayash jari hai yahio dekh kar lagta hai ki ye kaam ho kar rahega, jarurt hai naye aur imandar logo ki... ham aapke saath hai, chandrapal, mumbai
ReplyDeleteचंद्रपाल जी, ऐसे ही साथी मिलते जाएं, जीवन संवरता जाएगा. ऐसे ख्यालों से हौंसला भी बना रहता है.
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन सामग्री आपने दी है
ReplyDeleteहरयिश जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद
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