सन 2020 के मई महीने में भी कोरोना की दूसरी लहर का कहर जारी था। हमारा परिवार अप्रैल में इसकी चपेट में आ चुका था और धीरे धीरे उससे उबर रहा था। किसी काम में मन लगता नहीं था। 4 मई को फेसबुक पर मैंने कथाकार एस आर हरनोट की पोस्ट देखी और उनकी एक कहानी में उलझ गया। उसी दिन प्रिय कथाकार चित्रकार प्रभु जोशी को कोरोना ने लील लिया। उस दिन का जिक्र मैंने 5 मई को अपनी डायरी में किया।
कल फेसबुक पर एसआर हरनोट ने अपनी एक कहानी 'लाल होता दरख़्त' का जिक्र करते हुए देवकन्या ठाकुर
द्वारा उस पर बनाई फिल्म का लिंक दिया था। आधे घंटे की यह फिल्म यूट्यूब पर मैंने
देखी। फिर हरनोट की कहानी भी पढ़ी। दोनों माध्यमों में कहानी को देखना पढ़ना
अलग-अलग अनुभव रहे। यह मैंने ऐसे समय में किया जब साथ ही प्रभु जोशी के निधन की
खबर फेसबुक पर आग की तरह फैल चुकी थी। महामारी के दुष्काल में रोज ऐसी ही खबरें आ
रही हैं। संवेदना सुन्न सी हो गई है। जिन साहित्यकारों से परिचय रहा है या जिनसे
मिलना जुलना रहा है, उनके जाने की खबरें ज्यादा आघात
पहुंचाती हैं। लेकिन विवशता है कि कर कुछ नहीं सकते। उल्टे खुद को बचाए रखने की
जद्दोजहद सी चली रहती है। रोजमर्रा के काम भी चलते रहते हैं। भीतर कुछ टीसता भी
रहता है। तरह तरह से खुद को अवसाद, दुख, जड़ता से बचाने के खेल भी करते रहने पड़ते हैं।
इसलिए कल जब हरनोट जी की कहानी देखी और फिर पढ़ी तो प्रभु जोशी
साथ-साथ थे। उनसे हुई मुलाकातें, उनका बोलना, उनकी अदाएं, उनकी हंसी, बार-बार
दिख रही थी। हम लोग तो आकाशवाणी के कुनबे के भी रहे हैं। वह भी एक तार था जो जोड़े
रहता था। हरनोट की कहानी 'लाल होता दरख़्त' पर पहले फिल्म देखी। अपनी बोली के लहजे के बलाघात के साथ बोली जाने वाली
हिंदी ने ध्यान खींचा। पहाड़ी दृश्यावलियों की ताजगी भरी हरियाली भी आकर्षक है।
ग्रामीण इलाका, घरों और मंदिर का वास्तु शिल्प, पहरावा, जीवन शैली, फिल्म को
प्रामाणिक बनाती है। हरनोट अपनी कहानियों के माध्यम से स्थानीय लोक जीवन की
विषमताओं को उभारने वाले कथाकार हैं। विशेष मकसद लेकर भी चलते हैं कि समस्या का
समाधान करना है। और उसी योजना के तहत अंत तक पहुंचते हैं। इस कहानी में तुलसी और
पीपल के विवाह की परंपरा को निभाने का दबाव मुख्य किरदार मथरू पर है। तुलसी के
विवाह के लिए वह अपने खेत को गिरवी रख चुका है। अब बेटी और पीपल के विवाह के लिए
बाकी जमीन को भी गिरवी रख देगा। पंडित होने के कारण अपनी जमीन में उग आए पीपल का
विवाह करने की परंपरा को निभाने या ढोने का दबाव उसके ऊपर है।
तुलसी के विवाह के लिए वह अपने खेत को गिरवी रख चुका है। अब बेटी और
पीपल के विवाह (जिसे वह करना ही चाहता है) के लिए बाकी जमीन को भी गिरवी रख देगा।
यह समझ नहीं आया कि वह पुश्तैनी ही सही, पर पुरोहिती कैसे
करता है? क्योंकि वह निरक्षर है, जमीन
के कागजों पर वह अंगूठा ही लगाएगा। वह जंत्री कैसे पढ़ता होगा? तो क्या वह वाचिक परंपरा का पुरोहित है? लेकिन क्या
यह परंपरा अब जीवित है? कहानी में बताया गया है कि वह मजदूरी
भी कर लेता है पर फिल्म के किरदार को देखकर नहीं लगता कि कलाकार की देह को मजदूरी
का अथ्यास है। बरहाल! बेटी जमीन को गिरवी नहीं रखने देना चाहती है इसलिए थोड़ी
कश्मकश के बाद सुबह-सुबह शादी का जोड़ा पहन कर पीपल से खुद ही शादी कर लेती है।
यानी पीपल के पत्ते पर से सिंदूर डालकर अपनी मांग भर लेती है। यह समाधान हमें
वास्तविक जीवन में कहीं नहीं ले जाता। शादी के प्रपंच और रूढ़ियों के सांकेतिक
विरोध के संकेत जरूर देता है। साथ ही जिस तरह से इस प्रसंग का फिल्मांकन किया गया
है वह लोक कथा की तरह लगता है और काव्यात्मक हो उठता है। शायद यह फिल्म माध्यम की
ताकत है। फिल्म में लोकगीतों का भी सरस और सार्थक प्रयोग है।
यह कहानी मैंने पहले भी पढ़ी थी, कल फिर पढ़ी तो नए
सिरे से पढ़ने जैसा ही हुआ। पढ़ते समय देखी हुई फिल्म के दृश्य भी भीतर घुमड़ रहे
थे और प्रभु जोशी तो विद्यमान थे ही। वे तो आज यह डायरी लिखते समय भी उपस्थित हैं।
कहानी पढ़कर लगा कि कहानी में बारीकी ज्यादा है। वर्णन में चरित्र
ज्यादा खुलते हैं। मुख्य पात्र मथरू का द्वंद्व और बेटी की उहापोह विस्तार से
प्रकट होती है। फिल्म में यह एक घटना सी बन कर रह जाती है। फिल्म की प्रमाणिकता की
अलग खूबियां हैं लेकिन जो बारीकी हरनोट जी ने कहानी लिखने में बरती है, वह व्यक्ति के भीतर के रेशों को ज्यादा खोलती है। 'दारोश
और अन्य कहानियां' संग्रह में यह कहानी का संशोधित रूप है।
हरनोट जी ने 1986 में लिखी इस कहानी को यहां दोबारा लिखा है।
हो सकता है देवकन्या जी ने पुरानी कहानी के आधार पर फिल्म बनाई हो इसलिए उसमें
सपाटता ज्यादा दिखती है। यह मेरा निजी मत है। हर दर्शक फिल्म को अपनी तरह से
देखेगा।
देख रहे हैं प्रभु जोशी! आप भाषा के महीन कारीगर थे। बोलियों के माहिर और रंगों-रेखाओं के मास्टर। आपने जिस दिन शरीर छोड़ा या इस महामारी के वक्त में चरमराई हुई व्यवस्था ने आपको शरीर छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उस दिन आपको याद करते हुए मैंने कहानी के एक और शिल्पी की कहानी दो माध्यमों में देखी। जैसे आपके कई माध्यम थे - शब्द, रंग, रेखाएं, रेडियो, टेलीविजन, और सबसे बड़ा अपनेपन से लबालब भरा आपका प्यारा व्यक्तित्व। मैं आपके जाने के शोक में डूबूं या आपके होने को महसूस करूं!
देवकन्या ठाकुर की फिल्म : लााल होता दरख्त
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