वे घास की तरह झुकते हैं, चट्टान की तरह अड़ते हैं
विश्व के कुछ श्रेष्ठ कवि और उनकी कविताएं : विनोद दास के अनुवाद की जरिए।
यह लेख चिंतनदिशा पत्रिका के विनोद दास अंक में प्रकाशित है।
हम किसी
कविता को कब, कैसे, किस माहौल में
पढ़ते हैं, इसका असर उस कविता के हमारे पाठ पर पड़ता
है; कविता का रसास्वाद लेने या उसे समझने में। किसी पत्रिका या पुस्तक में या सिर्फ किसी पन्ने पर,
या कंप्यूटर या मोबाइल पर कविता पढ़ने के प्रभाव हम पर अलग
अलग हो सकते हैं। हमारी मन:स्थिति
और आसपास के माहौल का भी खासा असर होता है। मसलन हम उद्विग्न या उखड़े
हुए से हों तो कविता से जुड़ना आसान नहीं। हालांकि कविता कई बार हमारे मन को उबार
भी देती है। जरूरी नहीं कि सिर्फ तथाकथित रोमांटिक और गीतात्मक कविता ही मन को
उत्फुल्लता की ओर ले जा सकती है, गहन संवेदना की लहर या
विचार की कौंध भी हमारे भीतर ऊर्जा भर दे सकती है। कौन सी कविता किस समय किस तरह
का रसायन रच दे, कुछ नहीं कहा जा सकता। इस तरह यह
प्रदर्शनधर्मी कलाओं की भंगुरता और तत्क्षणता के बीच अनुभव की लुकाछिपी से अलग
नहीं होती। यह कविता और काव्य रसिक के बीच की जैविकता है।
कविता
का अपना स्पेस
अब कंप्यूटर और मोबाइल का जमाना है, वह भी कोरोनाकाल में। ट्यूब लाइट की तरह चमकती और चलायमान स्क्रीन पर आभासी कागज पर कविता पढ़ना पारंपरिक तरीके के तुलना में भिन्न है। इस नए माध्यम का अभ्यास करना पड़ता है। इसके साथ एक रिश्ता बनाना पड़ता है वैसे ही जैसे जिल्दबंद किताब से या बंधनमुक्त पन्नों से हमारा पाठकीय रिश्ता बनता आया है। मतलब यह कि आज पाठकीय संदर्भ में कविता का दो तरह का स्पेस निर्मित हो रहा है। एक तो पारंपरिक यानी छपे हुए कागज के जरिए और दूसरा आभासी संसार के साधनों पर फिसल फिसल जाता, पर है यह भी वास्तविक।
ये बातें मैं विनोद दास की अनूदित कविताओं के संदर्भ में कह रहा हूं। इस दायरे में वही कविताएं हैं जो उन्होंने पिछले एक-डेढ़ साल में फेसबुक पर साझा की हैं। सोशल मीडिया पर जब हम कोई रचना पढ़ते हैं, तो पाठक समुदाय का दबाव भी बनता है जैसे लाइक के रूप में पसंदगी जाहिर करना, तुरंत उस पर टिप्पणी करना। लेकिन बहुत बार तुरंत टिप्पणी लिखने का मन भी नहीं होता। पर पाठक प्रेशर बना रहता है। यह काफी हद तक (भले ही सच्चा-झूठा) पाठ-पाठक रिश्ते को मजबूत करता है। कुछ हद तक बाधा भी खड़ी करता है। पर वहां भी एक ‘काव्य स्पेस’ तो निर्मित होता ही है।
चिंतनदिशा में टिप्पणी लिखने के लिए मैंने विनोद दास जी की यही अनूदित कविताएं फेसबुक से डाउनलोड कीं और उनकी एक वर्ड फाइल बनाई ताकि मैं उन्हें एकाधिक बार आसानी से पढ़ सकूं। यह कोई बयालीस पन्नों का दस्तावेज बना। पर्यावरण की चिंता के चलते इसका कागज पर प्रिंट नहीं लिया, हालांकि क्ंप्यूटर पर पढ़ना इतना सुविधाजनक नहीं। तो भी पूरी फाइल को आदि से अंत तक स्क्रोल करने में भी एक स्पेस निर्मित होता है। उसके साथ आप पाठक की तरह जुड़ने लगते हैं।
इन बयालीस पन्नों में बारह कवियों की कविताएं हैं। उत्तरी अमरीका की लुइस ग्लुक और दक्षिणी अमरीका के पाब्लो नेरुदा को मैंने एक ही बार पढ़ा और छोड़ दिया। शेष कवि यूरोप और मध्य एशिया के हैं। प्राय: सभी बीसवीं सदी के हैं। इस सदी में यूरोप ने खूब उथल-पुथल झेली है। दो विश्व युद्ध देखे हैं। वहां के मुल्कों ने आपसी लड़ाइयां लड़ी हैं। जातीय हिंसा, नाजियों का कहर झेला है। साम्यवादी क्रांति, सर्वसत्तावाद और तानाशाहियां देखी हैं। और यूरोप इस सब से उबरा भी है।
विनोद जी के इस अनूदित कवि संसार और काव्य स्पेस में रूस के मरीना त्स्वितायेवा (1892-1941) और ओसिप मंदेलश्ताम (1891-1938), पोलैंड के विस्लावा शिंबोर्स्का (1923-2012) और जिबग्न्यू हर्बर्त (1924-1998), हंगरी के मिक्लोश राद्नोती (1909-1944), स्पेन के फेदरिको गार्सिया लोर्का (1898-1936), यूनान के यानिस रित्सोस (1909-1990), तुर्की के नाजिम हिकमत (1902-1963), सीरिया के मुहम्मद अल मगूत (1934-2006) और फिलिस्तीन के महमूद दरवेश (1941-2008) कवि शामिल हैं।
ये सभी कवि अपनी अपनी तरह से व्यवस्था से टकराते हैं। मरीना त्स्वितायेवा का जीवन जलावतनी और अभाव में बीता। उसने 1917 में रूसी क्रांति देखी और उसके बाद का अकाल भी। एक बेटी भुखमरी के कारण अनाथालय भेजी जहां वह मर गई। 1922 में रूस छोड़ दिया, पेरिस, बर्लिन, प्राग में रही और 1939 में रूस वापस लौटी। जासूसी के इलजाम में पुत्री और पति गिरफ्तार हुए। पति को फांसी हुई और खुद मरीना ने आत्महत्या कर ली। उसका लिखा बीसवीं सदी के महानतम रूसी साहित्य में शुमार किया जाता है। मरीना अपनी कविता में गीतात्मकता, वृत्तांतता, भावप्रवणता, साफगोई, दृढ़ता और प्रयोगशीलता के लिए जानी जाती है। रूस के दूसरे कवि ओसिप मंदेलश्ताम के बारे में विनोद दास ने अपने अनुवाद में लिखा है, ‘यहूदी परिवार में पैदा हुए ओसिप मंदेलश्ताम की जिंदगी संघर्षभरी रही। रूस में क्रांति के बाद संस्कृति मंत्री लूनाचर्स्की के साथ काम किया। 1918 में ख़ुफ़िया विभाग के एक अधिकारी से विवाद के कारण क्रान्ति विरोधी बताकर उन्हें गोली मारने का आदेश। फिर हस्तक्षेप से बचे। 1920 में फिर गिरफ्तार किये गये। लेखकों के हस्तक्षेप से फिर छूटे। 1934 में स्टालिन विरोधी कविता लिखने के लिए गिरफ्तार किये गये। साइबेरिया सज़ा के तौर पर भेजा गया। फिर कवि बोरिस पास्तेरनाक की सिफारिश पर स्टालिन ने उन्हें वरोनिझ में सज़ा काटने के लिए भेजा। 1938 में क्रांति विरोधी काम के लिए 5 साल के लिए यातना शिविर में रहने की सजा सुनायी गयी। 27 दिसम्बर 1938 को वहीं बीमारी से देहांत। कई कविता संग्रह और गद्य की किताबें प्रकाशित जिसमें पत्थर, त्रिस्तीया आदि चर्चित।’
पोलैंड की कवयित्री विस्लावा शिंबोर्स्का हिंदी साहित्य समाज के लिए परिचित नाम है। विस्लावा ने शुरुआत में पाठ्यपुस्तकों के रेखांकन बनाकर जीविका कमाई है। पोलिश साहित्य और समाजविज्ञान की पढ़ाई पर आर्थिक मजबूरी के चलते डिग्री नहीं ली। शुरु में समाजवादी विचारों के प्रभाव में रहीं, बाद में इससे अलग हो गईं और उस समय के अपने राजनैतिक लेखन को नकार दिया। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पक्षधर रहीं; विपक्ष में रहीं। नब्बे के दशक में गैर साम्यवादी सरकार पर अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन किया। उनके लेखन में विडंबनात्मक सटीकता, विरोधाभास, अंतर्विरोध और दार्शनिक विचारों को प्रकट करने में मितकथन जैसी विधियों का प्रयोग हुआ है। विस्लावा शिंबोर्स्का ने लिखा बहुमत कम है, सिर्फ साढ़े तीन सौ कविताएं। इसकी वजह पूछने पर उनका कहना था, ‘मेरे घर में कूड़ेदान है’। विस्लावा शिंबोर्स्का के ही समकालीन जिबग्न्यू हर्बर्त का लेखन अपेक्षाकृत देर से सामने आया, हालांकि वे हैं उन्हीं की पीढ़ी के, यानी शिंबोर्स्का, ताद्युज रोजविच, क्रिस्तोफ कमिल बैकिन्स्की के समकालीन। हर्बर्त के लेखन में मिथकों, मध्यकालीन नायकों और कलाकृतियों का प्रयोग हुआ है। हर्बर्त एक खास तरह से गैर मिथकीकरण का प्रयोग करते हैं – जहां तक संभव हो सांस्कृतिक परतों को उतार कर आद्य बिंबों तक पहुंचते हैं और प्राचीन नायकों का सामना करते हैं। उनके यहां अतीत को किसी दूर दराज की या बंद चीज की तरह नहीं माना जाता। पुनरुज्जीवित किए गए चरित्र और घटनाएं इतिहास ही नहीं, मौजूदा क्षण को समझने में भी सहायता करते हैं।
हंगरी के कवि मिक्लोश राद्नोती के बारे में विनोद दास ने लिखा है, ‘यहूदी परिवार में 1907 में जन्मे राद्नोती की कविता की दूसरी किताब “आधुनिक गड़रिये का गीत” को अश्लीलता के आरोप में जब्त किया गया और इसके लिए कुछ दिन उन्हें जेल में रहना पड़ा। 1934 में हंगारी साहित्य में उन्होंने पीएचडी की। इसी वर्ष फानी गार्मती से शादी की। उन्होंने वर्जिल, शेली, रेम्बा, मलार्मे, एलुआर सरीखे अनेक कवियों की कविताओं के अनुवाद हंगारी में किये। यहूदी होने के कारण उन्हें तीसरी बार जबरन यूगोस्लाविया स्थित बोर के यन्त्रणा शिविर में भेजा गया जहाँ उन्होंने तांबे की खदानों में काम किया। रूस की रेड आर्मी के आने की ख़बर से यंत्रणा शिविर खाली कराया गया और इक्कीस साथियों के साथ उन्हें जबरन कूच करने को कहा गया। यह उनकी मौत की कूच थी। राद्नोती जब पोस्टकार्ड शीर्षक से कविताएँ लिख रहे थे तभी उन्हें पीटा गया। पीटने से घायल और चलने से लाचार मात्र छत्तीस साल के राद्नोती को उनके इक्कीस साथियों के साथ गोली मार दी गयी। जंग खत्म होने के बाद उन कब्रों को खोदा गया। उनकी लाश की जेब में उनकी पत्नी को पेंसिल से लिखी कविताएँ मिलीं जो बाद में “फोमिंग स्काई” नामक कविता संग्रह में संकलित की गईं ।’
स्पेन के कवि फेदरिको गार्सिया लोर्का ने संगीत प्रेम के कारण किशोरावस्था में छह साल तक पिआनो सीखा। युवावस्था में मैड्रिड में एक रिहायशी स्कूल में रहते हुए उनकी सल्वाडोर डाली सहित कई चित्रकारों, कवियों और नाटककारों से दोस्ती हुई। अगले कुछ साल लोर्का स्पेन के ‘आवां-गार्द’ आंदोलन में शामिल रहे। स्पेन के एक नृत्य ‘फ्लेमेंको’ के बारे में लोर्का ने अपने एक व्याख्यान में कहा है कि इसमें कलात्मक प्रेरणा के एक ढांचे को परिभाषित करने की कोशिश होती है, और यह कि महान कला मृत्यु के बारे में स्पष्ट जागरूकता, देश की मिट्टी के साथ संबंध और तर्क की सीमाओं को पहचान लेने पर निर्भर करती है। छात्र-थियेटर कंपनी के निदेशक के तौर पर लोर्का स्पेन के देहात में थियेटर दिखाने के लिए निकले। उन्होंने निर्देशन भी किया अभिनय भी। उनका कहना था, ‘‘मैड्रिड के बाहर थियेटर लगभग मर चुका है। लोगों को इस वजह से वैसा ही नुकसान हुआ है मानो वे देखने, सुनने और स्वाद लेने का एहसास खो चुके हों। हम उन्हें यह वापस हासिल करवाएंगे।’’ गरीब ग्रामीण स्पेन और न्यूयॉर्क में खास तौर से नागरिकता से वंचित अफ्रीकी अमरीकी आबादी के बीच की गई यात्राओं से मिले अनुभवों ने लोर्का को सामाजिक कार्रवाई (सोशल एक्शन) वाले थियेटर के एक उत्कट पक्षधर में बदल दिया। उन्होंने लिखा, ‘‘थियेटर रोने और हंसने की पाठशाला है, एक मुक्त मंच, जहां आप गले सड़े और गलत समझे गए तौर-तरीकों पर सवाल उठा सकते हैं और इंसानी दिल के सनातन तौर-तरीकों के जीते-जागते उदाहरणों से समझा सकते हैं।’’ कहा जाता है कि राष्ट्रवादियों ने लोर्का को मार दिया था।
यूनान यानी ग्रीस के कवि यानिस रित्सोस साम्यवादी विचारों के थे। यूनान के साम्यवादी दल में भी रहे, लेकिन उन्हें खुद को राजनैतिक कवि कहलाना पसंद नहीं था। इनके शुरुआती दो काव्य संग्रह साम्यवादी हलके में कविता की अलंकृत भाषा के कारण ज्यादा पसंद नहीं किए गए। 1936 में तंबाकू मजदूरों के विशाल प्रदर्शन के दौरान एक मृत प्रदर्शशनकारी के चित्र से प्रभावित होकर लिखी गई उनकी कविता ‘एपिटाफियोस’ अपने में कीर्तिमान बन गई। (पारंपरिक रूप से ‘एपिटाफियोस’ का संबंध गुड फ्राइडे और ईस्टर से है।) इस कविता ने पारंपरिक लोकप्रिय काव्य ढांचे को तोड़ दिया। लोगों को जोड़ने का संदेश देने वाली इस कविता की भाषा स्पष्ट और सरल थी। इसी साल दक्षिणपंथी तानाशाही ने इस कविता की शेष प्रतियां जला दीं। कवि रित्सोस ने फिर अपनी दिशा बदली और अतियथार्थवाद की तरफ बढ़ गए। 1946-49 के गृहयुद्ध में वाम पक्ष का समर्थन किया। चार साल जेल काटी। जो कविता जला दी गई थी, 1950 के दशक में वही यूनानी वाम का एंथम बनी। यूनान के महानतम कवियों में से एक माने जाने वाले रित्सोस के बारे में पाब्लो नेरुदा ने कहा था कि रित्सोस नोबल के ज्यादा हकदार हैं।
अब हम तुर्की की तरफ बढ़ें तो नाजिम हिकमत सामने आते हैं जिन्हें ‘रोमांटिक कम्युनिस्ट’ और ‘रोमांटिक क्रांतिकारी’ कहा जाता है। नाजिम हिकमत ने भी अपना बहुत सा जीवन जेलों में और मुल्क से बाहर बिताया है। नाजिम तुर्की के ‘आवां-गार्द’ के करिश्माई लीडर रहे, नई-नई तरह की कविताएं, नाटक और फिल्में लिखने वाले। इस कवि ने भी हमारे निराला की तरह छंद के बंध को तोड़ा। नाजिम हिकमत को लोर्का, मायकोव्स्की और पाब्लो की बराबरी का माना जाता है। 1950 में हिकमत ने भूख हड़ताल शुरु की जिससे सारे देश में आंदोलन छिड़ गया। इनकी मां और कई कवि भी भूख हड़ताल में शामिल हो गए। जिस कानून को पास कराने के लिए कवि ने आंदोलन किया, नई सरकार ने उसी एमनेस्टी कानून को पास करके कवि को जेल से रिहा किया।
सीरिया के शहर सलामैयाह् के कवि मुहम्मद अल मगूत को अरबी की मुक्त छंद कविता का जनक माना जाता है। उन्होंने कविता के पारंपरिक रूप को बदल दिया। कवि ने अपनी शुरुआती कविताएं जेल में सिगरेट की पन्नी पर लिखीं। थे तो ये निजी संस्मरण लकिन बाद में ये क्रांतिकारी कविताएं सिद्ध हुईं । मगूत की औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी। उनके लेखन के केंद्र में हाशिए की दुनिया के संघर्ष हैं।
फिलीस्तीनी कवि महमूद दरवेश का जन्म गलीली में अल बिरवा गांव में हुआ था जिसे बाद में इस्राइली फौज ने ढहा दिया। इस्राइली जनगणना में न आने की वजह से दरवेश और उनके परिवार को आंतरिक शरणार्थी माना गया। बिना परमिट गांवों में यात्रा करने और कविता पढ़ने पर उन्हें जेल हुई। उनकी ‘पहचान पत्र’ नाम की कविता प्रतिरोध गीत बन गई तो उन्हें नजरबंद कर दिया गया। काहिरा और बैरूत में रह कर अपने मुल्क के लिए महमूद दरवेश ने रिसाले निकाले। इन्हें इस्राइल के खिलाफ अरब जगत का प्रवक्ता माना जाता है। उन्होंने कहा था कि मेरे पास इस्राइल से मुहब्बत करने की कोई वजह नहीं है पर मैं यहूदियों से नफरत नहीं करता हूं। वे अरबी भाषा के लेखक थे और उन्हें हिब्रू बहुत अच्छी आती थी। उनकी कविताओं के हिब्रू में अनुवाद भी हुए हैं। (कवियों के बारे में यह जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध विभिन्न स्रोतों से ली गई है।)
काव्य अनंत
काव्यार्थ अनंता
विनोद दास द्वारा प्रस्तुत इस वैश्विक कवि मंडल पर एक सरसरी निगाह डालने के बाद काव्य-वस्तु और वास्तु की ओर रुख करते हैं। हम ये कविताएं हिंदी में पढ़ रहे हैं। ठेठ हिंदूस्तानी लहजे में। पढ़ते हुए ये मूल भाषा से अंग्रेजी के माध्यम से अनुवादक तक पहुंची हैं। फिर उन्हें हिंदूस्तानी चोला पहनाया गया है। मनुष्य की वेदना, संवेदना और सत्ता से टक्कर लेने का जज्बा इन्हें हमारा अपना बनाता है।
रूसी कवयित्री मरीना त्स्वितायेवा की टूटते हुए प्रेम पर लिखी कविता में जैसे वॉयलिन की तीव्र और मंद्र, चीरती हुई सी स्वर लहरियां हैं; एक बदहवासी और बेबसी। मंदेलश्ताम की कविताओं में भी तल्खी, तंज, तिरस्कार, धिक्कार और बयान की बेबाकी है। वह लेता रहता है / अपने दुमछल्लों की लल्लोचप्पो के मज़े / कोई बजाता है सीटी / दूसरा मिमियाता है / तीसरा रिरियाता है / वह अंगुली करके उन्हें गुदगुदाता रहता है / और सिर्फ़ वही बम बम करता रहता है (ओसिप मंदेलश्ताम)। ये काव्य पंक्तियां हमारी भाषा के हिसाब से भी बेहद देशज और प्रासंगिक हैं। विनोद जी ने लिखा है कि ‘बम बम’ करती कविता के कारण कवियों को गिरफ्तार किया गया था। जानने का मन होता है कि ‘दुमछल्लों’, ‘लल्लो-चप्पो’, ‘बम बम’ जैसे पद अंग्रेजी और रूसी के किन पदों के लिए इस्तेमाल किए गए होंगे।
शिंबोर्स्का का हिंदी में काफी अनुवाद हुआ है। अनुवाद भी एक से बढ़ कर एक हुए हैं। वे अपने ही काव्य समाज की सदस्य लगती हैं। उम्मीद को / तरानों में सुनने से बेहतर / दुनिया उसे अमली जामे में देखना चाहेगी (विस्लावा शिंबोर्स्का) । पोलैंड के ही कवि ज़िबग्न्यू हर्बर्त की मुकदमा कविता धाराप्रवाह चलती है और किसी नाटक या सिनेमा की तरह दृश्य खुलता जाता है। पात्रों, उनकी साज़िशों, उनके मंसूबों और इंसान की बेचारगी पंक्ति दर पंक्ति बेपर्दा होती जाती है। उफ! कितनी करख्त है यह हुकूमत! लेकिन कवियों का भी माद्दा कम नहीं है। वे घास की तरह झुकते हैं, चट्टान की तरह अड़ते हैं।
हंगारी कवि मिक्लोश राद्नोती यंत्रणा शिविर का शिकार
हुआ। वहीं उसे मार दिया गया। उफ़ ! इस धरती पर मैं
ऐसे वक्त में रहता था / जहाँ इंसान इस कदर
गिर गया था / कि वह सिर्फ़ हुक्म की तामील के लिए नहीं /
बल्कि लुत्फ़ उठाने के लिए हत्या करता था। यह मिक्लोश राद्नोती की जबरन कूच
(फोर्स्ड मार्च) कविता का अंश है। यह यंत्रणा शिविर से बलात् ले जाए जाने के वक्त
की कविता है। जरा सोचिए, आतंक और भय के अत्यधिक त्रासद समय में कवि छिप कर पोस्टकार्ड पर कविता
लिखता है। उसे नहीं पता वह जिंदा बचेगा या नहीं। उसकी कविता किसी पाठक किसी सहृदय
किसी सगे तक पहुंचेगी या नहीं। पर वह लिखता है और जिंदगी को याद करता है। जिजीविषा
की पराकाष्ठा है यह। विपरीत और विकराल परिस्थितियों में जीवन राग लय और तुक में।
जो शिकार हो चुकी कवि देह की जेब में महफूज थी। यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि विनोद
दास ने इस कविता के अनुवाद में भी लय और तुकांत का कौशल दिखाया है।
गिर चुकी हैं दीवारें गिर चुका है बेर
का हरा वह दरख्त
पहले लगती थीं रातें मीठी अब डरा रहीं
हैं वो कमबख्त
हाय यकीं नहीं होता अब भी है ख़ाली मेरा
यह दिल
बसी है मेरी जन्मभूमि जाकर वहां मेरा मन जाता है खिल (मिक्लोश राद्नोती)
स्पेन के कवि लोर्का संगीत, अतियथार्थवादी कला के माहौल से लेकर नाटक की दुनिया तक विचरते रहे। विनोद दास ने ठीक ही चेताया है कि उनकी कविताएं जटिल लग सकती हैं। और बाजदफा जटिलता एक तरह के आकर्षण का जाल भी बुनती है।
यूनानी कवि रित्सोस की एक कविता में एक स्त्री का कुरूप और हास्यास्पद सा वृत्तांत है जो अंतिम पंक्ति में क्रांति के बाद की कविता के रूप में प्रकट होता है। कविता की ऐसी दशा का दंश गहरे गड़ता है। दूसरी कविता ‘हमारे पुरखों की मजार’ में शहीदों को मौत के बाद भी बचाकर रखने के बारे में बुनी गई है। सोचने की बात है कि दुश्मन (और कोई नहीं, व्यवस्था ही, क्योंकि लड़ाई तो अपने ही हुक्मरानों से है) कितना भयभीत होगा जो लाशों को भी चुरा ले जा सकता है। इसलिए शहीदों की मजारों को गुमनाम रखना ही बेहतर है। इतिहास से भय और इतिहास को नष्ट करने, और दूसरी तरफ बेनाम ढंग से इतिहास को बचाने जैसी चिंगारियां भी फूट रही हैं।
यूरोप के इन उस्ताद, जुझारू और प्रतिभाशाली कवियों के बाद तुर्की के नाजिम हिकमत की तरफ रुख करते हैं। तुर्की वैसे भी यूरोप और एशिया का संधिस्थल है। तुर्की होते हुए हम सीरिया और फिलिस्तीन के कवि के पास चलेंगे। नाजिम हिकमत को ‘रोमांटिक’ कहा गया है। जो कविता विनोद जी ने चुनी है वह कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन का पक्ष चुनती है। फर्ज़ कीजिए पचास साल की उम्र के इर्द - गिर्द / हम क़ैदखाने में हैं / और उसके लोहे के फाटक को खुलने में अभी अठारह साल और बाकी हैं / फिर भी हमें ज़िन्दगी जीनी होगी / बाहरी दुनिया के लोगों, जानवरों, संघर्षों और हवाओं के साथ / मेरा मतलब दीवारों के उस तरफ़ दुनिया के साथ जीने से है / कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है / कि हम कैसे और कहीं भी हों / हमें जिंदगी ऐसे जीनी चाहिए गोया हम कभी मरेंगे ही नहीं (नाजिम हिकमत) कवि गीतात्मकता, सरलता और सपाटता के साथ हमसे मुखातिब होता है।
आगे बढ़ने पर देखिए, सीरिया के अरबी कवि मुहम्मद अल मगूत और भी लिरिकल हो उठते हैं। वे ‘अपनी’ और ‘उनकी’ दुनिया को परिभाषित करते हैं- वे फांसी के तख्ते के मालिक हैं / हमारे पास गर्दनें हैं / वे मोतियों के मालिक हैं / हमारे पास मस्से और चकत्ते हैं (मुहम्मद अल मगूत) आदमी की तकलीफों की एक बड़ी फाइल तैयार की जा रही है जिसे वे ईश्वर को सौंपेंगे। ऐसा लगता है कि मगूत की आवाज दिल से निकल रही है। कवि सारी कायनात को बाहों में भर लेना चाहते हैं।
अंत में हम निर्वासित फिलीस्तीनी कवि महमूद दरवेश को
कविताओं से गुजरते हैं। क्या विडबंना है कि फिलीस्तीन है पर नहीं है, जबकि
इस्राइल है और इस्राइल ही है। यह सभ्यता की छाती पर मवाद से भरा हुआ एक नासूर आज
भी रिसता है। एक कवि है जो इस धरती का है पर निर्वासित है। यह सच्चाई है कि नागरिकता
कैसे सिद्ध की जाए। वे मुझे पहचान न पाये/ पासपोर्ट के काले धब्बों ने/
मेरी तस्वीर की रंगत को उड़ा दिया था । कवि गुहार लगाता है - पेड़ों से उनके नाम मत पूछो
/ घाटियों से उनकी माँ के बारे में मत पूछो…. / मेरा
मुल्क शोकगीतों और कत्ले आम में बदल रहा है …. / उन्होंने
उसकी छाती की तलाशी ली / पर वहां मिला फ़कत उसका दिल / उन्होंने
उसके दिल की तलाशी ली / लेकिन वहां मिले सिर्फ़ उसके लोग । दरवेश की अति लोकप्रिय ‘पहचान पत्र’
कविता नागरिकता और अपनी जमीन के हक का उद्घोष है- मेरी भूख से होशियार रहिये / मेरे गुस्से से बचिये
इस तरह इन कविताओं को एक साथ पढ़ने से एक और स्पेस निर्मित होता है। हमारे पास रूस, पोलैंड, हंगरी, स्पेन आदि से होते हुए फिलीस्तीन तक की कविता की बानगी को इस क्रम में पढ़ने पर जुड़े हुए महाद्वीपों, जातीयताओं, भाषाओं और उनके नायाब शब्दकारों की दुनिया की वस्तु और वास्तु निर्मित होते हैं। अगर हम इन कविताओं के पढ़ने के क्रम में उलट फेर कर दें तो रसास्वाद के लिए अलग तरह का काव्य वास्तु निर्मित होगा। एक आंतरिक तार इनके सबके बीच जुड़ा हुआ है। अन्याय की पहचान करना और अपार कष्ट सह कर भी अपनी आवाज बुलंदी से उठाना। इस तरह के वास्तु निर्माण के पीछे अनुवादक का बड़ा योगदान है। असल में कवियों और कविताओं का चुनाव तो उसी का है। यहां वही बड़ा सर्जक है। एक तो चयन के स्तर पर, दूसरे उसे हमारी हिंदी में प्रस्तुत करके। इन कविताओं में विदेशी होने का बेगानापन और अनुवाद की बोझिलता नहीं है। बल्कि वह हमारे भाषाई मुहावरे में घुलमिल कर साकार होता है मानो यह हमारे ही खालिस समाज की उपज हो।
बहुत अच्छा
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