Saturday, December 4, 2021

मुंबई : अंतर्यात्राएं

 


सन् 2005 में मुंबई के गोरेगांव (पश्चिम) में रहते हुए हमें एक ही साल हुआ था। आईबीपीएस में कॉन्ट्रैक्ट की नौकरी को भी एक ही साल हुआ था। मेरे घर से दफ्तर की दूरी दस ही किलोमीटर थी पर ऑटो, ट्रेन और बस बदल कर जाना पड़ता। घर से पौन घंटा लगता था। डायरी के ये अंश उन्हीं टुकड़ा-टुकड़ा यात्राओं से जुड़े हैं। और नवनीत मासिक के नवंबर अंक में प्रकाशित हुए हैं। 
 
14 मार्च, 2005

गोरेगांव से कांदिवली स्टेशन तक लोकल ट्रेन की निर्धारित दूरी छह मिनट है। छह मिनट यानी जरा टिक कर खड़े होइए और तीसरे स्टेशन पर उतर जाइए। आज दफ्तर जाते समय बैठने को जगह मिल गई। मुंबई का जलवा है कि ट्रेन की यात्रा तो छह मिनट की ही है, पर घर से गोरेगांव स्टेशन और कांदिवली से दफ्तर (आईबीपीएस) तक पहुंचने में पौन घंटा या पचास मिनट लग जाते हैं। ट्रेन की जरा सी दूरी में भी लालच रहता है कि कुछ पढ़ लिया जाए। ओमा शर्मा की साहित्य का समकोणमें स्टीफन स्वाइग पर लेख पढ़ रहा था, तभी फोन की घंटी बजी। धर्मशाला से तेज भाई (मेरे बड़े भाई) थे। उन्होंने तुरंत फोन लोक गायक की तरफ कर दिया। वह ढोलरूगा रहा था। आज संक्रांति है। नया वर्ष आरंभ हो रहा है। हमारे यहां (यानी हिमाचल के हमारे इलाके में) नए महीने यानी नए साल के पहले महीने का सबसे पहले नाम लोक गायक लेते हैं। ट्रेन रुक गई थी। समय ज्यादा लग रहा था। अचानक समय भी कितना लंबा हो गया था। कहां स्टीफन स्वाइग, कहां मुंबई और कहां धर्मशाला, कहां वहां आया हुआ लोक गायक और उसका गायन ...।

मैं जैसे समय से परे तिर रहा था ... फ्लूइड...। पर यंत्रवत् ट्रेन के कांदिवली पहुंचने पर उतरा भी। धक्कमपेल के बीच प्लेटफार्म पर इतनी भीड़ कि धक्का दिए बिना एक कदम आगे नहीं बढ़ सकते। इसी दौड़ के बीच में से होते हुए बस पकड़ी। समय पर दफ्तर पहुंचना है। पौने दस से पहले कार्ड पंच करना है। 

6 अप्रैल, 2005

आज सुबह यूं तो देर हो रही थी, पर शायद इसी दबाव में जल्दी तैयार हो गया। ऐसी स्थिति में घर से राम मंदिर रोड से होते हुए एस वी रोड तक पैदल जाना ठीक रहता है। करीब सात मिनट लगते हैं। यहां से ऑटो के 9 रुपए लगते हैं। घर से लो तो तेरह रुपए। अगर वहां शेयर ऑटो मिल जाए तो 3 रुपए में ही काम हो जाता है। शेयर ऑटो एस वी रोड से ही मिलता है। वह भी, कभी कभी, क्योंकि ऑटो तो होते हैं सवारियां नहीं होतीं। आज संयोग से सवारियां थीं। 3 रुपए में गोरेगांव स्टेशन पहुंच गया।

ऑटो में भोजपुरी किस्म का कैसेट चल रहा था। पहले लगा, यह वही भब्बड़ किस्म का संगीत है, बंद करा दिया जाए। पर धीरे धीरे लगने लगा कि है तो लाउड पर कहीं लोकगीत वाली छटा भी है। बांसुरी भी बीच बीच में उभर रही थी। गीत के कुछ शब्दों के अर्थ याद रह गए। कि सारा जग तो जीत लिया पर घर में हार गया। जिस भाई को पीठ पर चढ़ाया था, उसी ने पीठ में छुरा घोंपा।मैं इंतजार करता रहा कि पंक्ति दोहराई जाएगी, पर नहीं। तब तक स्टेशन आ गया। चार-पांच मिनट की यह यात्रा जैसे काल से परे ले गई। संगीत के लोक में?

तभी लगा कि यह सुबह अचानक खिल सी गई है। मुक्त कर दिया इसने। ख्याल आया ये वसंत के दिन हैं। प्रकृति में ही कुछ होगा। एक मस्ती, एक खिलंदड़ापन। संयोग से ट्रेन लेट आई इसलिए मिल गई। भीड़ भी ज्यादा नहीं थी। दरवाजे पर खड़े होकर हवा खाता हुआ, पटड़ियां देखते हुए आगे बढ़ा। आज कोई पुस्तक साथ नहीं थी। 

18 मई, 2005

आजकल लोकल ट्रेन में भीड़ जरा कम है। प्लेटफार्म पर भी धक्के कम देने पड़ते हैं। स्कूल-कालेजों की छुट्टियों की वजह से लोग सपरिवार शहर से बाहर चले जाते हैं। मुंबई की भीड़ पहाड़ी चश्मों जैसी हो गई है। गर्मियों में पानी सूख सा जाता है। वेग भी कम हो जाता है। लेकिन यह परिवर्तन वेसा ही है कि आमतौर पर तिल धरने को जगह नहीं होती तो अब अखरोट धर सकते हैं। 

19 मई, 2005

कई बार दफ्तर में ए सी का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है। ठंड लगती है। हाथ सिकुड़ने लगते हैं। सुमनिका कहती है कोट पहन जाओ। दफ्तर में कोट पहनना, मुंबई में अटपटा लगता है। टाई भी। ये अफसरों के परिधान हैं। ड्रेस कोड का हिस्सा। यूटीआई में वासल साहब कहते थे, यार शाम को डिनर पे जाना है, कोट पहन के चले गए और चेयरमैन कमीज पेंट में आ गया तो तौहीन हो जाएगी। क्या पता अगला क्या समझे। निकलते वक्त पता चल जाए या दिख जाए तो कोट दफ्तर में ही छोड़ दो। या फिर सफारी ही ठीक है। कोट की कमी भी नहीं खलेगी, बुरा भी नहीं लगेगा।
कारपोरेट अफ्सर काले या नीले रंग के सूट पहनते हैं। मैं तो यहां कॉन्ट्रैक्ट पे हूं। कोट पहनना अजीब ही लगेगा। हिन्दी अफ्सरी के दौरान ठंडे इलाकों में जाने पर ही कोट पहना। टाई मीटिंगों में पहननी पड़ी। पर दम घुटता है।

रेडियो में कपड़ों के प्रति लोकतांत्रिक रवैया था। वहां लेखकों वाला झोला ले के चलता था। सुमनिका अभी भी वैसा ही झोला ले के कालेज जाती है। आकाशवाणी की नौकरी के शुरुआती दौर में ब्रीफकेस की हसरत थी, खरीद लिया। पर ट्रेन में बड़ी असुविधा होती थी। लगता था उसे ढो रहा हूं। एक बार उसमें से बटुआ चोरी हो गया। अब वो अलमारी के ऊपर शोभाएमान है। कपड़े भी वहां मन मर्जी के पहन सकते थे। टीशर्ट, कमीज, कुर्ता, चप्पल, सेंडिल, जूता, कुछ भी। आईडीबीआई और यूटीआई में यह संस्कृति नहीं थी। कमीज भी पेंट के अंदर ही खोंसी जाती है। मतलब पेटी भी बांधनी होगी। मोजे जूते पहनने होंगे। झोला नहीं चलेगा। बाद में कंधे पर टांगने वाले बरसाती बैग आए। उन्होंने बाबुओं को ब्रीफकेस से उबार दिया। फिर कंधे वाले बैंगों की जगह बैगसैक आ गए, जिन्हें पिछले जमाने में पिट्ठू कहा जाता था।

स्मार्ट किस्म के बाबू एक जोड़ी जूता दफ्तर में रखते थे। ट्रेनों, बसों के धक्कों के लिए मैला कुचैला जूता, दफ्तर के अंदर चकाचक गुरगाबी। कुछ शौकीन तो अपनी दराज में परफ्यूम भी रखते हैं।

आकाशवाणी की नौकरी के दौरान, एक बार मंहगे जूते खरीद लिए, चमड़े के सोल वाले। हमारे उद्घोषक साहनी साहब ने देखा तो कहने लगे, बाऊजी ये कालीन से चलकर गाड़ी में बैठकर आने वाले जूते हैं, सड़क पर चलने वाले नहीं। ये चलेंगे नहीं।

असल में कोट, टाई, जूते जैसी वर्दी को बचाकर रखना हो तो कार में जाना चाहिए। कारों वाले लोग चुनिंदा होते हैं। यूं तो इधर मध्य वर्ग का हर कोई कार रखने लगा है, लेकिन परिधान का यह शौक वही लोग पूरा करते हैं जिन्हें दफ्तर की गाड़ी मिलती है। क्योंकि कार दिखाने के लिए ज्यादा रखी जाती है, चलाने के लिए कम। हां, नव-एक्जिक्यूटिवों की बात और है। जिन्हें दफ्तर गाड़ी देता है, वे गिने-चुने होते हैं। जेब से धेला नहीं खरचते, रहते शान से हैं। मुंबई जैसी गर्म और उमस भरी जगह में कोट टाई उन्हीं को शोभा देते हैं। सर्द इलाकों में कोट जरूरी है। हालांकि वहां भी स्वैटर, कोट पर भरी पड़ता है। स्वेटरों के अलग-अलग डिजाइन कारपोरेट वर्दी की हवा निकाल देते हैं।    

15 जून, 2005

कल सुबह गोरेगांव स्टेशन पर ट्रेन में चढ़ा तो एक व्यक्ति की तरफ ध्यान गया। कुछ समानता थी। फिर खुद को देखा। समझ में आया। हम दोनों की कमीजें एक जैसी थीं। हरा सफेद चारखाना। मैंने रेमण्ड का लिया था सिला-सिलाया। उन्होंने भी रेमण्ड से ही लिया होगा। अजब संयोग है। पहली बार। एक जैसी कमीजें पहने दो अपरिचित लोग गाड़ी के एक ही डिब्बे में हैं। मैं और घूरता तभी उनकी पत्नी बोल उठीं, एक जैसी कमीज। उसके बाद मुझे संकोच होने लगा। उस तरफ देख नहीं पाया। उन्हें खिड़की के साथ वाली सीट मिली और वे लपक लिए। तब मैंने कनखियों से देखा उस व्यक्ति का चेहरा। मुझसे थोड़े बड़े, लंबे भी। बाल कम। तगड़े पर मोटे नहीं। 

24 जून, 2005

गोरेगांव (पश्चिम) में स्टेशन के बाहर एक डाकघर है। यूं गोरेगांव का स्टेशन से बाहर का सारा का सारा बाजार ही पुराना सा है, पर यह डाकघर और भी प्राचीन है। दफ्तर से लौटते समय देखा, शाम के सात बजे यह खुला था। एक दो लोग काम में लगे थे। ग्राहक नहीं थे। एक बाबू बैठे थे। सब पोस्ट मास्टर। पुराना मेज। पुराने कागज। पुरानी इमारत। धूल-धूसरित पुराने बाबू। वे कोई अश्वेत से लगते थे। भारी-भरकम। मंद-मंथर। चौड़ा चश्मा। बड़ा सा मुंह। अरे भई! रात को सात बजे भी काम में लगे रहते हैं? एक आदमी पीछे दरवाजे की तरफ आ-जा रहा था। वहां रोशनी थी। जैसे वो दरवाजा कहीं गली में खुलता था।

अगले दिन सुबह आठ बजे वहां फिर गया। सब पोस्ट मास्टर वहीं अपने मेज पर विराजमान थे। उन्हें देख कर लगा, यह व्यक्ति दिन-रात यहीं बैठ कर काम करता रहता है। यह कोई पराजीव है। भूख-प्यास, नींद-थकान से परे सिर्फ बैठा-बैठा काम करता रहता है।

आज सुबह फिर वहां गया तो भी सब पोस्ट मास्टर वहां बैठा था। वह कागज देख रहा था। बीच-बीच में नाक में उंगली डालता था।

मुझे एक स्पीड-पोस्ट करना था। लेकिन वह बाबू दिल्ली का भाड़ा नहीं बता पाया। जल्दी में मैं वहां से निकल के एक आदमी की सलाह पर गोरेगांव (पूर्व) में चला गया। पर इधर पोस्ट आफिस चार जगह पूछने पर मिला। पहली मंजिल पर। काउंटर पर महिला से पूछा – स्पीड पोस्ट। नंबर 1 पर जाइए। वहां कोई नहीं था। मैंने पूछा कहां हैं? बोली, अभी आए नहीं। क्या पता कहां होंगे। ट्रेन में होंगे। मैं क्या जानूं! मैंने पूछा दफ्तर खुलता कितने बजे है? बोली- नौ बजे। मैंने कहा बड़ी अच्छी बात है।

और अपना पैकेट लेकर उल्टे पैर लौट पड़ा। नीचे उतर कर ऑटो लिया। दफ्तर पहुंचने के लिए 45 रुपए खर्च करने पड़े। ऑटो में बैठते ही गर्दन की नस खिंच गई थी। अभी तक खिंची हुई है।  

21 जुलाई, 2005

बहुत दिन बाद कांदिवली से 300 नंबर बस में वही कंडक्टर दिखा। बेस्ट का बेस्ट कंडक्टर। जो भीड़ के बीच बस से उतर कर बस के लिए रास्ता बनाता है। मैं-मैं करती भेड़ों की तरह बिछलते बिखरते फुदकते ऑटो रिक्शों के बीच में से। आज उसने ठाकुर क्म्प्लेक्स में घुसने पर भी ट्रैफिक को विसल बजा-बजा कर तितर-बितर किया। यह उसका अतिरिक्त प्रयास है जो उसे कंडक्टर से बेस्ट कंडक्टर बनाता है। ऐसी पहल हम में से कितने लोग करते हैं। यह वही सज्जन है जो मेरे बस में चढ़ने-उतरने पर मुस्कुराता-बतियाता है। मुसाफिरों से दोस्ताना करने वाला मित्र कंडक्टर। जैसे दिल्ली में एक ट्रैफिक पुलिस चौराहे पर भरतनाट्यम् करता था। यह भी वैसा ही है, नौकरी की मोनॉटनी में रचनात्मकता और मानवीयता ढूंढ़ लेने वाला। 

28 फरवरी, 2006

कल सुबह ऑफिस के लिए कांदिवली स्टेशन से बस के बजाए ऑटो लिया। जरा देर चलने के बाद ऑटो वाला कुछ लोगों को देखकर रुक गया। उसने उन्हें पुकारा। दो जन आ गए। एक आगे एक पीछे बैठ गए। वे तीनों बहुत जोश में गप्पें मारते रहे। मेरा अहं आहत हो चुका था। ऑटो का किराया मैं दे रहा हूं, शेयर ऑटो थोड़ी है। यह भाई क्यों किसी तीसरे को बिठा रहा है, बल्कि दोस्तों को बिठा रहा है। मैं कुढ़ता रहा। हाई वे पर आकर वे उतर गए। मैंने मन ही मन सोचा, कुछ न कुछ बोलूंगा जरूर। यूं नहीं जाने दूंगा। जब दफ्तर के गेट पर उतर गया तो जरा साहबी अंदाज में कहा, उन लोगों को क्यों बिठाया? पूछना चाहिए था न? ऑटो वाला एकदम खिसिया गया। वो ड्राइवर लोग थे न
खिसियाई हंसी ने मुझे जमीन पर ला पटका। यह आदमी कितना भोला है। कितनी जल्दी शर्मिंदा हो गया। मैं खुद से पूछने लगा, बड़ा चला था अपना हक झाड़ने।  
 
आज अपने बॉस (आईबीपीएस के निदेशक) से मिला। बात करते समय धड़कन तो हमेशा ही बढ़ जाती थी पर इतनी ज्यादा? आवाज भी रुंधने लग जाती है। मानो बोल ही न निकलेगा। यह क्या हो रहा है अनूप सेठी? फिसल के कहां गिर रहे हो? और घर में क्या करते हो, सोचो? सुमनिका से, बीजी से, अरु से बात-बात पे चिल्ला पड़ते हो। पल भी नहीं लगता, पता भी नहीं चलता। वहां बॉस बने फिरते हो? यहां पता चल रहा है कैसे होता है सामना बॉस से
   
30 अगस्त, 2006

आज ट्रेन में तीन लोग दिखे। कांदिवली उतर रहे थे। एक युवा था, एक्जिक्यूटिव क्लास का सा। एक प्रौढ़ था, वृद्धावस्था की तरफ बढ़ता हुआ, पर चुस्त-दुरुस्त। दोनों, बातों में तल्लीन थे। एक तीसरा युवा एक्जिक्यूटिव भी लाइन में लग गया, उतरने के लिए। तीनों ने कॉटन के ट्राउजर्स पहने थे। इन्हें सूती कपड़े की पेंट या पतलून कहने से काम नहीं चलेगा। कॉटन की पेंट या कॉटन की पतलून भी नहीं। ट्राउजर शब्द ही इस नए ब्रांड के परिधान को साकार कर सकता है। एक खाकी, एक फीका सलेटी और हरे की तरफ का खाकी। यह आज के उच्च मध्यवर्ग का पहरावा है। ब्रांडेड शर्ट, ब्रांडेड ट्राउजर्स। अब टैरीकॉट जरा निम्न मध्यवर्ग और बूढ़ों की तरफ सरक गया है।

ख्याल आया इन तीनों रंगों के ट्राउजर्स मेरे पास भी तो हैं। सुमनिका के परिवार के रेमण्ड के सौजन्य से। तो क्या मैं भी उनकी तरह का उच्च मध्यवर्ग का एक्जिक्यूटिव हूं? अपने रंग-ढंग से लगता तो नहीं। पर अरु अक्सर इन्हीं पेंटों को पहनने को कहती है। उसे कमीज के साथ कॉम्बीनेशन बनाना भी आता है। मतलब नए जमाने का कॉम्बीनेशन।    

2 comments:

  1. आदत शानदार
    डायरी लिखने की
    किसी भी पन्ने में कोई
    औरत या लड़की नहीं मिली?
    आभार
    सादर..

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  2. शानदार प्रस्तुति।
    संस्मरण डायरी के पन्नों से।
    बहुत खूब।

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