Monday, June 6, 2022

कुछ बचपन : कुछ जीवन

 

कुछ बचपन : कुछ जीवन

प्रो. रमेश कुंतल मेघ के साथ यह बातचीत मुंबई विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में सन 2012 की एक शाम को हुई थी। डॉक्टर साहब किसी सेमिनार में आए थे। मेरी योजना थी कि उनसे उनके बचपन के बारे में बातचीत की जाए। संवाद शुरू भी वहीं से हुआ। धीरे धीरे बातचीत उनसे जुड़े कई विषयों को छूते हुए सम्पन्न हुई। इस आयोजन में मेरे साथ हृदयेश मयंक और रमेश राजहंस भी थे। यह बातचीत फरवरी 2022 में प्रदीप सक्सेना के संपादन में प्रकाशित बनास जन के मेघ विशेषांक में प्रकाशित हुई है। 


डॉ. मेघ

:

मेरे पिताजी मिडल क्‍लास पास थे। मेरी मां निरक्षर भट्टाचार्या थी। तो मैं बहुत निम्‍न स्‍तर के (लोएस्‍ट प्लेन) के पेरेंटेज से उभरा हूं। मेरे पिताजी रेलवे में थे। मेरे ख्‍याल से वो मार्का मैन थे जो बैगन पर मार्के लगाते थे। रेलवे की वजह से ट्रांसफर होता रहा और मैं बारह शहरों में घूमा। तो इसका यह (असर) रहा कि मेरा कोई प्रांत नहीं है। अभी भी कोई प्रांत नहीं है। फिर जब मार्क्सवादी मैं हुआ तो मेरा कोई धर्म और जाति नहीं रही। और फिर जब मैं चिंतक हुआ तो फिर मेरा कोई क्षेत्र नहीं रहा। अनूप इसके प्रमाण हैं कि मैं जाति, धर्म और प्रांत से बिल्कुल मुक्त हूं।

 

सबसे पहले यह बात कि जब मेरे पिताजी रेलवे में थे तो उनके साथ एक मुसलमान थे मार्का बाबू। साथ में पिताजी थे। वे शायद बड़ी पोजीशन में होंगे। उस समय वेतन मेरे ख्याल से बारह रुपए था, महीने का।     

अनूप सेठी

:

यह कौन से सन की बात होगी?

डॉ. मेघ

:

यह सन इकतीस की बात होगी। बारह रुपए वेतन था। उसमें से पांच रुपए पिताजी घर भेजते थे अपने पिता को और सात रुपए में घर चलता था। रेलवे में क्वार्टर था। सागर की बात है यह।

अनूप सेठी

:

परिवार में कौन कौन था?

डॉ. मेघ

:

माता-पिता और.... चार साल के बच्चे को क्या याद होगा कौन-कौन थे? तो मार्का बाबू क्या करते थे कि... वैगन में एक कार्ड होता है जिस पर लिखा जाता है और लाल नीली पैंसिलें देते हैं। तो मार्का बाबू क्या करते थे कि वे मुझे मोर, तोता, बैल, घोड़ा... ये तस्वीरें बना के देते थे। मेरे लिए यह एक जीवित संसार था। यह मेरी पहली दीक्षा हुई, कला की। यानी मुसलमान मार्का बाबू कला के मेरे प्रथम शिक्षक रहे। इसके बाद, मेरे पिताजी का ट्रांस्‍फर कटनी के बाद भोपाल हो गया। भोपाल में स्टेशन के पास ही हमीदिया स्कूल था। बगल में मुगलों की एक सराय थी। उस समय कांग्रेस का आंदोलन चला। स्कूल में हमारे हेडमास्टर थे हम्जा अली। उन्होंने पूछा, ‘‘रमेश, तू किस पार्टी का है?’’ मुझे पार्टी का क्या पता। मैंने कहा मास्साहब मुझे पता नहीं पार्टी क्या होती है। तो वे बोले, ‘‘देश की आजादी की लड़ाई हो रही है।’’ यह भी तुझे नहीं पता। कहते हैं, ‘‘तू कांग्रेसी, हम कांग्रेसी, हम सब कांग्रेसी हैं।’’ यह मुझे पहली बार पता चला कि कांग्रेस कोई चीज़ होती है। यह दूसरी दीक्षा मेरी हुई।            

अनूप सेठी

 

किस कक्षा में रहे होंगे तब ?

डॉ. मेघ

:

यह दर्जा चार की बात है। यह मेरी राजनीतिक दीक्षा हुई। (तभी कमरे में शोधछात्र अमित प्रवेश करते हैं) एक हमारे उस्ताद (और) थे। वे अपने को नजमूद्दीन खटारा कहते थे। छड़ियों से मारते थे। हमारी भी पिटाई की, मुर्गा बना करके। और चूतड़ों पर छड़ी मारते थे। कई बार पेंट गीला हो जाता था। दो चार बार मेरे भी पेंट गीले हुए हैं। बच्चे डरते थे। लेकिन इतने प्यारे थे वो कि जब मुझे टाइफाइड हुआ तो रोज देखने आते थे। ऐसे उस्ताद कहां मिलेंगे! वे गणित पढ़ाते थे। वे लड़कों को डराते थे कि बुड्ढा कहे काली माई तुझे भेंट चढ़ाऊं। सबको भेंट चढ़ाते रहते थे। लेकिन अद्भुत प्यार करते थे। कोई लड़का बीमार हो, कोई लड़का परेशान हो, नजमूद्दीन साहब उसके घर जाते थे। लेकिन क्लास में वो नजमूद्दीन खटारा थे। ये मेरे तीसरे उस्ताद थे। मेरे तीनों उस्ताद मुसलमान थे, दीक्षा गुरु। इसलिए मैं मुसलमान के चक्कर से भी मुक्त हो गया। फिर पार्टी (मार्क्सवादी) में आने के बाद तो सवाल ही नहीं उठता है। 

इसके बाद जब बयालीस का आंदोलन चल रहा था, तो भोपाल में हम छोटे-छोटे लड़के, मैं और एक मेरा क्लासफैलो था मराठी लड़का दत्तात्रेय चिंतामणि शिंदे, हमने प्लास लेकर रेलवे स्टेशन में सिग्नल का एक तार काट दिया। सिग्नल मैन ने देख लिया। वो जानता था कि यह मालबाबू का लड़का है। कान पकड़ के चार ठो थप्पड़ मारे और पिताजी के पास ले गया कि बाबूजी यह देखो, आपका लड़का यह बदमाशी करके आया है। हम्ज़ा अली के बाद यह मेरी तीसरी राजनैतिक ट्रेनिंग हुई। एक राजनीतिक आंदोलन में भाग लिया। यह मेरा ग्रोइंग पीरियड था। मेरे चित्रकार गुरू, मेरे राजनीतिक गुरु और दत्तात्रेय चिंतामणि शिंदे... ये इंप्रैशन ऐसे थे जिन्हें आप ट्रॉमाज़ कह सकते हो। ये ट्रॉमा ही मेरी रचनात्मकता के रहस्य बने। 

फिर मैं आगरे में आ गया। एक गरीब मास्टर थे, ड्रॉइंग मास्टर। चित्र बनाते थे, पेंटिंग करते थे, पोर्ट्रेट भी बनाते थे। मैं उनको पेंट करते हुए देखता था। उनको देख कर मैंने भी शुरु किया। मेरा हाथ बहुत बढ़िया था। बेसिकली मैं चित्रकार बन गया था उस उस्ताद के साथ। यह स्कूल का ही दौर है। दर्जा पांच छह में आगरा में विक्टोरिया स्कूल में था। वहां मेरे (बनाए) चित्र लगे थे। आप सोच सकते हैं कि कितना अच्छा हाथ मेरा होगा। मेरे ड्रॉइंग मास्टर कहते थे कि तू चित्रकला करेगा, तेरा जीवन चित्रकला के लिए बना है। मेरे मन में यह इंप्रैशन बनता रहा। लेकिन मेरी आंखें खराब होने लगीं। पिताजी डॉक्टर के पास ले गए तो डॉक्टर ने कहा, इस लड़के से चित्र बनवाना बंद कीजिए, नहीं तो तीन-चार महीने में इसकी आंखें बिल्कुल चली जाएंगी। तो चित्र बनाना बंद हो गया। उस समय कोई सेंस तो था नहीं। पैलेट भी नहीं था। यूं ही बनाता था चित्र। तो इस तरह चित्र बनाना बंद हो गया, चित्रकला के प्रति प्रेम जाग गया।   

फिर पिताजी रिटायर हो गए, हम कानपुर आ गए। कानपुर में हम और शिवकुमार थे। उस समय बहुत जोर था समाजवादियों का, लोहिया का। उस समय समाजवादियों का भी लाल झंडा था। हम लोग लाल झंडा लेकर जाते रहे। जनयुद्ध खत्म हो गया था, ‘जनयुग निकलने लगा था। कम्युनिस्ट लोग अखबार बेचने निकलते थे। संत सिंह यूसुफ और कवि शील अखबार बेचने आते थे। हम और शिव कुमार दोनों ने मिलकर दो तीन बार इनकी बड़ी पिटाई की। बहुत पीटा इन्हें। लेकिन वे दूसरे दिन फिर हंसते हुए आ जाते थे। हम लोगों को बहुत ताज्जुब होता था। और हम लोग तब पंद्रह साल के थे। हम सोचते, ये कौन पागल लोग हैं, इतना पिटते हैं फिर हंसते हुए अखबार बेचने आ जाते हैं। तब हम आकर्षित हुए उन कॉमरेडों की ओर। पीटने से इनकी ओर एट्रेक्ट हुए। (पीटने के नाम पर हम सब की दबी दबी हंसी निकल रही थी)                      

रमेश राजहंस

:

बहुत अच्छे।

डॉ. मेघ

:

मतलब हमारी शिक्षा इनकी पिटाई से हुई है। इस तरह धीरे धीरे हम लोग समाजवादी पार्टी से कम्युनिस्ट पार्टी की ओर झुके। और कम्युनिस्ट आंदोलन तो कानपुर में बहुत प्रबल था। दो लोग वहां के नेता थे – सोने लाल और संत सिंह यूसूफ।    

रमेश राजहंस

:

और शिव दा ?

डॉ. मेघ

:

शिव दा (कॉमरेड शिव वर्मा) उस समय लखनऊ में थे। उस समय हमें उनका पता भी नहीं था। बाद में ये दोनों एमएलए भी बने। जब संवित सरकारें बनीं तो यूसुफ मंत्री भी रहे। सोने लाल बाद में कांग्रेस में आ गए थे। बहुत लोग बदल गए। तो जी यह मेरी शिक्षा दीक्षा हुई। 

फिर मैं बीएसई में आ गया। छोटा सा ही बताउंगा। बीएसई पार्ट वन में मेरे फर्स्ट क्लास अंक आए। लेकिन मैं निराला की दीवानगी देखता था तो मुझे लगा कि कवि होना कोई बड़ी बात है। यह तो पता नहीं था कवि क्या होता है। निराला जी को देखता था तो लगता था ये कोई खास तरीके के आदमी होते होंगे। देखिए यह कुतुहल। मुझे नहीं पता यह क्या था। महादेवी भी थीं, बच्चन जी भी थे। इधर बीएसई फाइनल में मेरी कम्पार्टमेंट आ गई। लेकिन मेरे दिमाग में एक बात आई कि मुझे महान बनना है। मैंने सोचा कि एमएसई कर लूंगा तो कहीं प्रोफेसर बन जाउंगा, कैमिस्ट्री या फिजिक्स का। पर यह तो मेरा जीवन नहीं है। मुझे तो महान बनना है। महान शब्द का अर्थ नहीं पता था लेकिन महान बनने का भूत सवार हो गया। आखिर जब बीएसई कर ली तो मैंने कह दिया अब मैं नहीं पढ़ सकता साइंस। पिताजी आए अपने तीन भाइयों के साथ। पांच भाई थे ये। कहने लगे तुम शुरु से शुरु करो, इंटरमीडिएट करो। बॉटनी लो और डॉक्टर बनो, इंजीनियर मत बनो। मैंने कहा मैं न डॉक्टर बनूंगा, न इंजीनियर बनूंगा। अब मैं लिटरेचेर लूंगा हिंदी का। कहने लगे तुमने सत्यानाश कर दिया। घर के सारे सपने तोड़ दिए।       

अनूप सेठी

:

यह जो परिवर्तन आया, यह निराला जी के कारण आया ?

डॉ. मेघ

:

नहीं, यह महान बनने का फितूर था। महान का मतलब पता नहीं है लेकिन महान बनना है।

रमेश राजहंस

:

मतलब यह ख्याल मन में आया...

हृदयेश मयंक

:

निराला कहीं न कहीं... 

डॉ. मेघ

:

अवचेतन में थे। खैर! फिर मैंने हिंदी में एम ए का इम्तिहान दिया। मुझे यही पता नहीं था कि हिंदी साहित्य के कितने काल होते हैं। भारतेंदु कौन हैं, प्रसाद कौन हैं, मुझे कुछ नहीं पता था। केवल निराला मालूम थे, बच्चन थे और महादेवी थीं, इलाहाबाद में। राम कुमार वर्मा जी ने टेस्ट लिया, दो पेज लिखवाए। उन्होंने यह लिखा कि इस लड़के की भाषा ठीक है, ज्ञान बिल्कुल शून्य है। यह कहा कि इसको कुछ नहीं आता है। लेकिन साइंस का है, मेहनत करने से शायद तरक्की कर लेगा और मुझे एम ए में एडमीशन मिल गया। चूंकि मैं साइंस का था इसलिए आर्ट्स वाला जो पांच घंटे में पढ़ता था, मैं वो दो घंटे में तैयार कर लेता था। मैथाडिकल था ही। तो क्रिटिकल मांइड का जर्म वहां से आया है। 

फिर मैंने कहा, नाम बदलना चाहिए। सब लोगों ने नाम बदले हैं, बच्चन बदल गए, निराला हो गए। तो मैं क्या बदलूं? मरा नाम रमेश प्रसाद था। लोग अक्सर एक नाम लेते थे, कुंतक। मैंने पूछा यह है कौन कुंतक? यह बहुत बड़ा आचार्य था संस्कृत का जिसने भाषा में क्रांति कर दी। मैंने कहा, मुझे भी तो यही करना है। (पीछे से मयंक जी की हंसी सुनाई पड़ रही है।) तो कुंतल हो गया। बाल बड़े थे मेरे। मैंने कहा तो मेघ और जोड़ दो। (सभी की प्रसन्नता भरी अस्पष्ट आवाजें आ रही हैं।) तो एम ए पार्ट वन में मैं रमेश कुंतक से कुंतल मेघ हो गया। कुंतल नाम का रहस्य आचार्य कुंतक हैं। 

और एम ए का विद्यार्थी था तभी पार्टी की मेंबरशिप ले चुका था। दो साल के बाद छोड़ दी थी। मैंने अनुभव किया था कि मैं डिसिप्लिन में नहीं बंध सकता। शिव कुमार (मिश्र) तो खैर बहुत ऊंचाई तक गए हैं। शिव कुमार तो इस समय करात के बहुत क्लोज़ हैं। मेरा यह है कि मैं छोड़छाड़ के आ गया। मैंने कह दिया कि मैं मार्क्सिस्ट रह सकता हूं, पार्टी मेंबर नहीं बन सकता। (डॉ. मेघ के चाय पीने के घूंट की आवाज़ आती है। देर शाम का वक्त था। शायद शोधछात्र बाहर से चाय लाया था या चाय वाला ही दे गया था। कागज के छोटे छोटे कपों में हम सभी लोगों ने चाय ली।)  

एम ए में मैं राम कुमार जी को सांड कुमार कहता था। थोड़े से आशिक मिजाज थे। (लेकिन) चुगलखोर कहां छोड़ते हैं जी। लोगों ने कहा कि डाक्टर साहब रमेश आपको सांड कुमार कहता है। राम कुमार जी ने कहा, अच्छा रमेश यह कहता है? (रमेश राजहंस की गुम हंसी गूंजती चली गई।) मैं समझ गया। वो गांठ बढ़ गई। विशेष अध्ययन मेरा प्रसाद था, जिसमें उम्मीद थी कि सत्तर (अंक) मिलेंगे, राम कुमार जी ने मुझे पैंतालीस दिए। और कहा अरे रमेश! तुम तो बड़े होशियार हो, तुम तो बिल्कुल सांड की तरह से घूमते हो। अरे! मैंने कहा, मार दिया। जो होना था वही हुआ। फिर जातिवाद बहुत था। तो मुझे इलाहाबाद में पीएचडी नहीं करने दी। कायस्थों का दौर था।                 

अनूप सेठी

:

एम ए इलाहाबाद में हुआ। और बीएससी? कानपुर में हुई?

डॉ. मेघ

:

बीएससी भी इलाहबाद में हुई।

हृदयेश मयंक

:

इलाहाबाद में एम ए किस वर्ष में किया डॉ. साहब?

डॉ. मेघ

:

तिरप्पन में किया।

उसके बाद मैंने बनारस का रास्ता पकड़ा। आचार्य जी के पैर छुए।

हृदयेश मयंक

:

हजारी प्रसाद जी?

डॉ. मेघ

:

मैंने बताया अपना हाल। कहने लगे, तुम आओ। तो इस तरह साहित्य में मेरी दीक्षा हुई। और जो चित्रकला का शौक था वह सौंदर्यशास्त्र में बदल गया। साम्यवाद का ज्ञान समाजविज्ञानों में बदल गया। और एक चीज जरूर मुझे मिली कि मैं अपने दो गुरु मानता हूं। एक कार्ल मार्क्स और दूसरे हजारी प्रसाद द्विवेदी। इन्होंने मुझे भटकने नहीं दिया। न चरित्र में भटकने दिया, न सेक्स में भटकने दिया। ये (अनूप सेठी की तरफ इशारा) तो जानते हैं कि मैं तो लड़कियों तक के कान खींच खींच के खड़ा कर देता था। लेकिन कभी किसी लड़की ने बुरा नहीं माना। हम माफी भी मांग लेते थे। तो वे कहतीं, डॉ. साहब हम आपको जानते हैं, सोडा वाटर हो। गुस्सा आया, खत्म हो गया। और हमारी बड़ी प्रिय छात्राएं हैं। कई छात्राएं तो हमारी बेटी हैं। मैंने निभाया है। वो भी निभाती हैं। सुमनिका एक है। एक की हत्या हो गई। ऐसी तीन चार बेटियां हैं। और ये ऐसी बेटियां हैं कि मैं कहूं कि मेरी तीन बेटियां हैं तो वो प्रोटेस्ट करती हैं कि नहीं आपकी पांच बेटियां हैं। एक अमेरिकन बेटी भी है मेरी, यहूदी। उसने वहीं शादी कर ली अपने ब्वॉय फ्रेंड से। 

मैं एक ऐसा व्यक्ति हूं कि जिसके छात्र अंत तक उसे चाहते हों। नहीं तो दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देते हैं।   

हृदयेश मयंक

:

कविता कहां पर छूट गई? शुरुआत तो मेघ से हुई?

डॉ. मेघ

:

बता रहा हूं। अभी भी मेरी चार सौ कविताएं हैं। अभी देह भाषा पर काम कर रहा हूं। इसके बाद मैं अपने कवि को प्रकट करूंगा। ..... बस इतना बहुत है.....  

अनूप सेठी

:

डॉ. साहब छलांगें बहुत लगाई हैं आपने.... 

डॉ. मेघ

:

हां छलांगें तो बहुत लगाई हैं.... एक घटना जरूर याद है। पार्टी ने, कामरेड जेड ए अहमद थे,  उन्होंने हम नौजवानों को कहा कि इलाहाबाद में मुट्ठीगंज में तवायफों को संगठित करो और उनको चुनाव में लाओ। ब्राह्मण परिवार, मैंने सोचा अगर मेरे पिता को पता लग गया कि मैं वेश्याओं के मुहल्ले में जाता हूं, तो वे समझेंगे यह हो गया रंडीबाज़। और मुझे लगा घर में एंट्री भी नहीं मिलेगी। ब्राह्मणों में तो सवाल ही नहीं उठता घर में घुसने का। मैं गया कामरेड साहब के पास कि कामरेड हम बहुत बैकवर्ड ब्राह्मण परिवार से आते हैं। मेरे पिता बड़े कट्टर वैश्णव हैं। अगर उन्हें पता लग गया तो... कहने लगे यह बताओ रमेश कि पार्टी बड़ी है कि पिता? मैंने कहा पार्टी। उस समय यह नैतिकता थी।          

हृदयेश मयंक

:

हां पार्टी के प्रति उत्तरदायित्व ज्यादा होता था।

डॉ. मेघ

:

कहने लगे कोई बात नहीं है। यह मैन्डेट है, जाओ। चले गए जी। भाई साहब हम तीनों किसी को चाची किसी को नानी किसी को दादी किसी को भाभी कह करके गए। पहले तो गंदी गंदी गालियां भड़वे, योनि और लिंग की सारी गालियां सहीं। हम तीन लोग थे। हमने कहा, अब सह लो। या तो पार्टी से निकाले जाओगे या यह करो। निकालना तो मंजूर नहीं था। हमने कहा, इसी को सहो। उसके बाद चाची दादी नानी कह कह करके सबको अपना बनाया। अंत में जुलूस निकला चुनाव के दिन। करीब ढाई सौ तवाइफें, बूढ़ी जवान, लाल झंडे लेकर, उम्मीदवार की जिंदाबाद करते हुए जूलूस में चलीं। कामरेड लोग बड़े खुश हुए। जेड ए अहमद खुश हुए। बाद में वे विधान परिषद के सदस्य भी बन गए थे। इस तरह हमारे दो अनुभव कम्युनिस्टों के साथ बड़े विचित्र हुए। एक तो जब हम पिटाई करते थे, और दूसरा यह। पिताजी को पता नहीं लगने दिया। निश्चित रूप से घर से निकाल दिया गया होता मैं। निकालना क्या एंट्री ही नहीं होती। कि तुम आ ही नहीं सकते। तुम पतित हो गए।               

अनूप सेठी

:

पिता जी को यह पता था कि आप पार्टी में हैं?

डॉ. मेघ

:

हां यह पता था। जब हमारी शादी हुई तो हमने पिता जी से कहा कि हम विधवा से शादी करना चाहते हैं। वे बोले, क्या तुम्हारा दिमाग ठीक है? (कमरे में सामूहिक ठहाका गूंज उठा।) जितने अमीर घरों के प्रस्ताव आए, मैंने सब मना कर दिए। फिर मैंने दूसरा प्रस्ताव यह दिया कि बप्पा जी मैं अमीर घर की लड़की से शादी नहीं करूंगा और सुंदरता मेरे लिए कोई महत्व नहीं रखती है। उस समय मधुबाला सबसे सुंदर थी। मैंने कहा मुझे मधुबाला नहीं चाहिए। घर की अच्छी शालीन लड़की चाहिए। मन्नूजी के भाई देखने आए तो मैं लाल कमीज और पतलून पहने था। खा रहा था। तो ये अपने घर में जा के कहते हैं, यह लड़का तो कम्युनिस्ट है, बड़े बड़े बाल रखे है, लाल कमीज पहने है, बहन को बर्बाद करना हो तो ब्याह दो उसके साथ (सभी हंस पड़ते हैं)। लेकिन हमारी सासु जी ने कहा, नहीं अगर लड़का ऐसा है तो उसमें दम भी होगा। अगर पिता को रजिस्ट कर सकता है तो दम भी होगा। उसके बाद (शादी हो गई)। और मेरी पत्नी मेरे प्रति वफादार रहीं। और मैं भी उनके प्रति वफादार रहा।          

हृदयेश मयंक

:

तो उस समय जॉब में आ गए थे क्या ?

डॉ. मेघ

:

नहीं, जॉब में नहीं थे। असल में मेरी साहित्यिक ट्रेनिंग जी बिहार में हुई है। मैं अपनी सारी देन बिहार से मिली मानता हूं। 

रमेश राजहंस

:

बिहार में कहां?

डॉ. मेघ

:

आरा।

रमेश राजहंस

:

अच्छा ? आरा में कहां ?

डॉ. मेघ

:

चार साल पढ़ाया है।

हृदयेश मयंक

:

कालेज में ?

डॉ. मेघ

:

हां। गोपाल राय वहां थे। सिद्धेश्वर। कुमार विमल। ये सब हमारे साथ थे। एक्चुअली साहित्यक ट्रेनिंग मेरी बिहार में हुई है। इसलिए मैं अपनी सृजनभूमि बिहार मानता हूं यूपी नहीं मानता।  

रमेश राजहंस

:

उस समय कुमार विमल की भी सौंदर्यशास्त्र पर एक पुस्तक आई थी सत्तर के दशक में।

डॉ. मेघ

:

हां हां। छायावाद का सौंदर्यशास्त्र।

रमेश राजहंस

:

जी जी।

डॉ. मेघ

:

दो खंडों में है। अब मर गए बेचारे।

रमेश राजहंस

:

कुमार विमल जी मर गए?

डॉ. मेघ

:

हां मर गए। दो महीने पहले खत्म हो गए। (रमेश राजहंस के दुख और हैरानी के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं।) बहुत शानदार आदमी गया।

रमेश राजहंस

:

वे रहते भी थे बड़े .... सौंदर्यशास्त्रीय तरीके से.... बहुत धीरे धीरे बोलने वाले... 

डॉ. मेघ

:

अरे! बड़े शालीन। ऐसा हीरा आदमी तो मिलेगा ही नहीं।

अनूप सेठी

:

डॉ. साहब, आरा के बाद ?

डॉ. मेघ

:

आरा से कूद कर पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़। बारह साल वहां पढ़ाया। उसके बाद अमृतसर आया।

अनूप सेठी

:

बीच में जालंधर भी तो रहे ?

डॉ. मेघ

:

नक्सलवादी आंदोलन के दौरान मैं गया वहां। तीन चार साल नैक्सलाइट मूवमेंट में भी रहा।

रमेश राजहंस

:

अच्छा आरा में चंद्रभूषण तिवारी भी थे।

डॉ. मेघ

:

हां वह हमारे ही साथ थे। चंद्रभूषण को मैंने ही दीक्षित किया। आरा में मैंने कई कामरेड बनाए। चंद्रभूषण शुद्ध आरएसएस के थे।  

अनूप सेठी

:

यह कौन से सन की बात होगी डॉ. साहब?

रमेश राजहंस

:

क्षमा करेंगे, आपके दीक्षित करने के बावजूद चंद्रभूषण बड़े ही जड़ दिमाग के थे।

डॉ. मेघ

:

(डॉ. मेघ का जबरदस्त ठहाका) कट्टर थे। कट्टर मार्क्सवादी।

रमेश राजहंस

:

कट्टर नहीं, सामंतवादी। मैं अपना एक संस्मरण आपको सुनाता हूं।

डॉ. मेघ

:

सुनो... अब हमारा दोस्त खत्म हो गया है। अब न कहो। हम उसे बहुत प्यार और इज्जत देते थे।

रमेश राजहंस

:

वो भी गुजर गए?

डॉ. मेघ

:

गुजर गए। उनको गुजरे तो दस साल हो गए होंगे।

अनूप सेठी

:

डॉ. साहब बहुत पहले, शायद अमृतसर में आपने बताया था कि घर में सनातनी माहौल था और जैसे कि गायत्री मंत्र का पाठ अनिवार्य था।

डॉ. मेघ

:

जी। संध्या मैंने तीन साल तक की है, वह भी एक टांग पर खड़े होकर के। और देखो, वही आदमी इतना कट्टर नास्तिक हो गया। यज्ञोपवीत मेरा विधिवत हुआ है। डंडा लेकर, बाल मुंड़वा कर... 

रमेश राजहंस

:

मूंज की रस्सी का जनेऊ भी ?

डॉ. मेघ

:

हां वो सारा हुआ है। उन सब संस्कारों से गुजरा हूं। लेकिन मैं ये सारी केंचुलें छोड़ता चला गया। एक केंचुल पकड़ ली मानवतावाद। मार्क्ससिस्ट ह्यूमनिज्म।

अनूप सेठी

:

तो हम बात कर रहे थे, आरा के बाद आप आ गए चंडीगढ़।

डॉ. मेघ

:

सन साठ से चौहत्तर तक चंडीगढ़ रहा। छह साल जालंधर रहा। लाला जी ने ट्रांसफर कर दिया कि खतरनाक आदमी है यह तो, इसको चंडीगढ़ से हटा दो। बाकी तो अंदरूनी कहानियां हैं, उन्हें छोड़ो। 

अनूप सेठी

:

और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ?

डॉ. मेघ

:

मैं हमेशा कहता हूं मैं तो मिट्टी था, मुझे बनाया आचार्य जी ने। उन्हें इंद्रनाथ मदान लाए थे। बहुत दानिशमंद लोग थे ये।

अनूप सेठी

:

ये बताइए कि जब आप चंडीगढ़ में थे तो कुमार विकल भी वहां थे। उनके साथ ....

डॉ. मेघ

:

रोज घूमते थे साथ। पक्के दोस्त थे। और मैं यह मानता हूं कि पंजाब में अज्ञेय के बाद कोर्द कवि हुआ है तो वह कुमार विकल है। और हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक कुमार विकल हैं।  

अनूप सेठी

:

इसी तरह जगदीश चंद्र हैं। जगदीश चंद्र को भी हिंदी वाले याद नहीं रखते हैं।

डॉ. मेघ

:

अब तो उनकी ग्रंथावली आ गई है आधार प्रकाशन से चार खंडों में।

हृदयेश मयंक

:

डॉ. साहब सब जगह आप लोग जाते रहे हैं विश्वविद्यालयों में, तो जो नियुक्तियां हुई हैं, उनमें से कौन लोग हैं जो अच्छा काम कर रहे हैं? जिनसे संतुष्ट हैं आप?  

डॉ. मेघ

:

हमें गर्व है। हम बहुत किस्मत वाले हैं कि हमारे बहुत शानदार छात्र निकले। सुमनिका प्रमाण है। नीलम शर्मा अबोहर में प्रिंसीपल है। जगदीश सिंह मन्हास अंडेमान में है। गंगा प्रसाद विमल मेरे पहले पीएचडी थे जो (हिंदी निदेशालय में) निदेशक रहे हैं। बलदेव वंशी मेरे हैं। नरेंद्र मोहन मेरे छात्र रहे हैं। 

अनूप सेठी

:

डॉक्टर साहब, आपके छात्रों के संदर्भ में एक सवाल बार बार मेरे मन में आता है कि आप मार्क्सवादी रहे, आप दूसरी चीजें छोड़ते चले गए। लेकिन आपके छात्र मार्क्सवादी नहीं हुए।  

डॉ. मेघ

:

कोई नहीं है। विरोधी हैं।

अनूप सेठी

:

तो यह कुछ वैसा ही हो गया कि जो पिता की विचारधारा होती है, बच्चे उसके विरोधी हो जाते हैं।

डॉ. मेघ

:

नहीं, उसकी यह वजह रही कि मैंने कुछ गलत ढंग से आदर्शवाद अपनाया। मैंने कभी इनको दीक्षित नहीं किया। मैं यह मानता था कि अपने आप ये ग्रहण करते हैं तो करें। मैंने कभी इन्डॉक्ट्रनेशन नहीं किया। कोअर्शन नहीं किया। लेकिन बाहर मैंने बहुत अच्छे लोगों को बनाया। आरा में आठ नौ लोगों की बड़ी शानदार फौज मैंने तैयार की। हमने और कुमार विमल ने बहुत अच्छा काम किया। जनवादी लेखक संघ भी कायम किया।      

हृदयेश मयंक

:

डॉ. साहब लेखक संघों की स्थिति पर क्या कहेंगे?

डॉ. मेघ

:

आप सब जानते हैं। जो बुरी हालत है, इस पर क्या कहना। मार्क्सवाद का सिद्धांत है न, वेन देयर इस नो एक्शन देयर इज फ्रैक्शन। जब कार्यवाही नहीं होती है तो गुटवाजी होती है। वही गुटवाजी आ गई।

अब देखिए हम दोनों भाइयों में जमीन आसमान का अंतर है। शिव कुमार पूरी तरह कमिटिड है, मैं आइडिया से कमिटिड हूं, प्रोग्राम से नहीं।    

रमेश राजहंस

:

और मुझे ऐसा लगता है, अभी तक जो मैं समझ पाया हूं, आइडियाज़ में भी आप उसके राजनैतिक आइडियाज़ के बजाए डाइलैक्टिकल मैटिरियलिज़्म या उसका जो मूल दृष्टि पक्ष है, उस पर आपने ज्यादा काम किया है।  

डॉ. मेघ

:

आप ठीक कह रहे हैं। मैंने सुपर स्ट्रक्चर पर ज्यादा काम किया है। और वैराइटीज़ मैंने बहुत अपनाई हैं। मैंने हर बार लाइनें बदली हैं। लाइनों का मतलब है कि विचार वही रहा है पर कई एरियाज़ में काम किया है। अभी मैंने शंकराचार्य पर लिखा है तीस पेज का लेख। चुनौती आ गई कि यह परकाया प्रवेश क्या बला है। त्रिपुर सुंदरी क्या है। वो शंकराचार्य जो कि ब्रह्मचारी था और तीस साल की उम्र में मर गया। संन्यासी। और त्रिपुर सुंदरी के स्तनों और नितंबों तक का वर्णन कर रहा है। मैं तो चकरा गया...

रमेश राजहंस

:

खासकर सौंदर्यलहरी ...

डॉ. मेघ

:

सौंदर्यलहरी के दूसरे खंड आनंदलहरी में .... मैंने कहा इस चुनौती को स्वीकार करूंगा।

हृदयेश मयंक

:

किसी के लिए लिखा या ....

डॉ. मेघ

:

किताब में आ रहा है। मध्ययुगीन रसदर्शन और समकसलीन सौंदर्यबोध में।   

रमेश राजहंस

:

उसमें आपको कुछ पता चला?

डॉ. मेघ

:

सारा पता किया। घास थोड़ी छीली मैंने।

रमेश राजहंस

:

बिहार में देवघर में एक शिव मंदिर है जिसे रामेश्वर कहते हैं। बहुत पुराना मंदिर है। चट्टान काट कर बनाया गया है। उसकी नींव नहीं है। चट्टान पर चट्टान रखी गई है। बैजनाथ या वैद्यनाथ धाम। वह तांत्रिकों का मंदिर है। वहां मूल शिव मंदिर की बगल में तारा, भुवनेश्वरी और त्रिपुरसुंदरी तीन देवियां हैं।   

डॉ. मेघ

:

शंकराचार्य के काम में हमने इन तीनों को लिया है। बहुत कठिन काम था। और मुझ जैसा नास्तिक आदमी। मैंने सोचा पकड़ा है तो जुट जाओ। कर जाओ।

रमेश राजहंस

:

प्रतिश्रुति है कि शंकराचार्य मंडन मिश्र के यहां जाने से पहले यहां आए थे।

डॉ. मेघ

:

शंकराचार्य के संदर्भ में एक कमी है कि उनकी कोई जीवनी नहीं है। वे किंवदंती पुरुष हैं। चारों ओर किंवदंतियां ही छाई हुई हैं। परकाया प्रवेश के बारे में मैंने दो रूप देखे। एक रूप तो यह है कि वे कामरूप के राजा के यहां चले गए। कामरूप में नारी साधना होती थी। दूसरा यह है कि अमरुक के शरीर में प्रवेश कर गए थे। हालांकि मैंने यह भी लिया है, पर मुझे लगता है कि कामरूप का (प्रसंग) तो स्पष्ट नहीं, फिर किंवदंतियों में दिक्कत यह है कि दो सौ तीन सौ सालों का अंतर पता ही नहीं लगता है इसलिए इनके बारे में काल निर्णय नहीं कर सकते।     

रमेश राजहंस

:

देवघर के बारे में कथा है कि जब वे वहां पहुंचे तो वहां के तांत्रिकों ने कहा कि खंडन मंडन ही करते रहोगे या कुछ असली ज्ञान भी अर्जित करोगे। खंडन मंडन तो तर्क है। यह जहां खत्म होता है, ज्ञान वहां से शुरु होता है। देवघर में उन्होंने तंत्र की विद्या ... 

डॉ. मेघ

:

श्रीविद्या की अवधारणा विकसित की। देखिए मैं जब लिखता हूं न तो पूरी तरह लिखता हूं। कहीं गैप नहीं छोड़ता। बोलने में चाहे जो बोल जाऊं पर लिखने में नहीं पकड़े जाने चाहिए। जी, मुझे वह सारी जानकारी है। मंडन मिश्र के घर की पहचान थी कि वहां के तोते भी संस्कृत बोलें। और भारती बहुत चतुर थी। उसने कहा, इस ब्रह्मचारी को मारो कामशास्त्र में ले जा के। तो देखिए शंकराचार्य ने धर्म और मोक्ष संन्यासी के रूप में सिद्ध कर लिया। अर्थ की कोई जरूरत ही नहीं थी। बच गया काम। उसी से अनजान था। पर भारती ने जो सवाल पूछे मैंने बहुत कोशिश की पर किंवदंतियों से कुछ पता नहीं चल पाया। लेकिन मैंने उत्तर सब निकाल दिए। बिना प्रश्नों के। (समवेत ठहाका) आनंदलहरी में सारे के सारे उत्तर भरे पड़े हैं।    

अनूप सेठी

:

डॉ. साहब इन बातों से हट कर एक और बात। लोग आपकी भाषा से बहुत नाखुश रहते हैं। आप इसे किस तरह देखते हैं।

डॉ. मेघ

:

बिलकुल सही कह रहे हो। मुक्तिबोध के बाद भाषा की सबसे लंबी लड़ाई मैंने ही लड़ी है। वजह यह है कि भाषा व्याकरण की दृष्टि से कठिन नहीं होती। भाषा होती है शब्दों के संयोजन से। क्योंकि मैंने समाज विज्ञानों को अपना लिया, अर्थशास्त्र है, राजनीतिशास्त्र है, नृतत्वशास्त्र भी है, दर्शन भी है, एस्थैटिक्स है, मिथोग्राफी हैतो इन सब की टर्मनॉलोजी आ गई हैं। वाक्य तो सरल हैं। तर्क भी बिल्कुल ठीक है। लेकिन अगर एक ही वाक्य में मनोविज्ञान, एंथ्रापॉलोजी और आर्कियोलोली भी हो तो सामान्य पाठक को मुश्किल आएगी। यह कारण है। इसलिए भाषा कठिन नहीं है, बल्कि पारिभाषिकों से दबी हुई भाषा है।    

अनूप सेठी

:

ठीक है। पर डॉ. साहब यह सवाल मैंने इसलिए उठाया क्योंकि पाठक ही नहीं, बहुत से लेखक भी यह बात कहते हैं। उदाहरण देता हूं, सुमनिका का एक लेख हमने राजेंद्र यादव को भेजा था हंस में छपने के लिए, करीब दस वर्ष पहले। और उसमें जिक्र किया था कि उसने आपके साथ काम किया है। तो आपके साथ काम करना ही डिस्क्वालीफिकेशन हो गई। कि अगर आप उनकी छात्रा हैं तो इस भाषा को पढ़ेगा कौन?  

डॉ. मेघ

:

कौन पढ़ेगा .... (हंसी)

अनूप सेठी

:

मुझे यह भी लगता है कि लोग इस तरह से फतवे भी जारी कर देते हैं। और बिना पढ़े भी कह डालते हैं।

डॉ. मेघ

:

लेकिन अनूप, मैं देखता हूं कि मेरा स्वागत भी बहुत हो रहा है। क्योंकि जो मुझे एक बार पढ़ लेता है, देखो घमंड से नहीं कह रहा हूं, वह सामग्री आपको हिंदी में और कहीं नहीं मिलेगी। कोई भी मेरा लेख पकड़ लें।    

रमेश राजहंस

:

पायनीयर काम है न

डॉ. मेघ

:

तो यह लड़ाई तो चल ही रही है अनूप। बात यह सही है। हमारे गंगा प्रसाद विमल ने भी हमारा भट्ठा बिठाया है। एक चुटकुला मेरे बारे में बनाया कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गंगा प्रसाद विमल से कहा कि विमल कुंतल की किताब आई है जरा इसका हिंदी अनुवाद तो करके हमें पढ़ा दो। (समवेत ठहाका) यह मुहावरा बड़ा चल गया। लेकिन कहते हैं न कि पहला बच्चा मां को बहुत प्यारा होता है तो विमल हमारे बड़े प्रिय हैं।

हृदयेश मयंक

:

कविता वाला काम कब शुरु कर रहे हैं डॉ. साहब?

डॉ. मेघ

:

अमेरिका से अक्तूबर में लौट कर आउंगा देह भाषा लिख कर के तब मैं अपनी कविता पर ध्यान दूंगा।

हृदयेश मयंक

:

पहली वाली शैली की ही कविताएं हो रही हैं या नई भी?

डॉ. मेघ

:

मिली-जुली हैं। देखिए कभी कविता छपाई ही नहीं। आपको आश्चर्य होगा कि चालीस साल से मैंने मंच से कविता पढ़ी ही नहीं। तो पिछड़ापन तो है। बड़ी कविताएं हैं, लंबी भी हैं। कम से कम दो तीन संग्रह होंगे। 

रमेश राजहंस

:

समकालीन कविता से गीत जो हिंदी साहित्य से बहिष्कृत कर दिया गया है यह किसी दुरभिसंधि के तहत है?

डॉ. मेघ

:

नहीं नहीं यह नया मूवमेंट चला है। लेकिन छंद अगर कविता से चला गया है तो हिंदी कविता लोक के पास नहीं जा पाएगी। छंद लोक के पास ले जाता है। कम से कम लय और तुक का तो मुक्तिबोध और नागार्जुन ने भी ध्यान रखा है। बाद में बिल्कुल छंद तोड़ दिया। अब केवल गद्य कविता हो गई है। 

रमेश राजहंस

:

आपको क्या लगता है कि यह क्यों हुआ? कवियों ने अभ्यास और परिश्रम से बचने के लिए ....

डॉ. मेघ

:

नहीं नहीं .... यह नया मुहावरा है। नए प्रकार की अभिव्यक्ति है। वे शब्दों को छोड़कर अर्थों की ओर चले गए। छंद तो शब्द बनाते हैं अर्थ नहीं बनाते हैं। शब्द को इन्होंने महत्व नहीं दिया, अर्थ को दिया। अर्थ की ओर केंद्रित करेंगे तो छंद तो टूटेंगे ही। शब्द की साधना ....   

रमेश राजहंस

:

जब हम निराला को पढ़ते हैं तो वह छंद मुक्त है। आधुनिक कविता ... 

डॉ. मेघ

:

छंद मुक्त ही नहीं है बल्कि छंद रहित है। मुक्त छंद तो नागार्जुन तक चला है। जिन जिन में छंद है वह चला। दुश्यंत में है। लेकिन धारा के खिलाफ कह दूंगा तो लोग मुझे कहेंगे बड़े पिछड़े हुए विचार के हैं। कई बार आप स्टेटमेंट पब्लिकली नहीं देते हैं।    

रमेश राजहंस

:

लेकिन सच कहना और समय के प्रवाह के विरुद्ध भी सच कहना .... 

डॉ. मेघ

:

यह भी है कि सत्यम् ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात्। तो कड़वा सत्य मत बोलो। वहां चुप लगा जाओ। (हंसी)

हृदयेश मयंक

:

पुरानी कोई कविता याद है डॉ. साहब?

डॉ. मेघ

:

नहीं, अभी नहीं। कवि के रूप में जब आउंगा तब सुनाउंगा। देहभाषा की किताब के बाद। उसके बाद मैं सोचता हूं कि साहित्य की अपनी परचून की दुकान बंद कर दूंगा। (समवेत ठहाका) पेंटिंग शुरु करूंगा। इस बार अमेरिका से कैनवस लाउंगा। ऑइल कलर्स लाउंगा। एक से दस नंबर तक के ब्रश लाउंगा। लेकिन अगर नया नहीं कर पाया तो बंद कर दूंगा। सारे रंग बेटी को दे दूंगा, कुकू को। वो करती है। अब मेरे दिमाग में एक बुखार सवार हुआ है कि मेरा चित्रकार जो आगरे में गायब हो गया था उसे बुला कर लाऊंगा।  

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