विनोद कुमार शुक्ल हमारे समाद्रित कवि हैं। हाल ही में घोषित अंतरराष्ट्रीय पेन पुरस्कार के कारण साहित्य समाज में खुशी की बयार बह रही है। इस पुरस्कार से हिंदी भाषा को गर्वित होने का एक और अवसर मिल गया है। इसी प्रसंग में मेरी यह टिप्पणी भारतीय विद्या भवन की मासिक पत्रिका नवनीत में छपी है।
विनोद कुमार शुक्ल की साहित्य की लंबी यात्रा रही है जो सन् 1971 में पहचान सीरीज में ‘लगभग जय हिंद’ से शुरू होकर आज तक अनवरत जारी है। सन् 1981 में उनका कविता संग्रह आया ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह’। इस शीर्षक ने पाठकों और समालोचकों दोनों को चौंकाया। विनोद कुमार शुक्ल ने कविता की अपनी निजी ‘कहनी’ विकसित की है। इसी वजह से उन्हें कला की तरफ अधिक झुकाव रखने वाला भी माना गया। भाषा में चमत्कार पैदा करने की बातें भी कही गईं । लेकिन यह पूरा सच नहीं है। बल्कि अधूरा सच भी नहीं है। जब तक उनकी या किसी की भी कविता को समग्रता में नहीं देखा जाएगा, उसकी ‘कहनी’ पर जजमेंट देना न्यायसंगत नहीं होगा। विनोद कुमार शुक्ल गहरी मानवीय संपृक्ति के कवि हैं। व्यक्ति को, उसके मानसिक वितान को, उसके घर-संसार को, उसके बाहरी परिवेश को, देश-समाज को, अत्यंत ‘कीननेस’ से, अपनेपन से, निश्छलता से, आपसी गर्माहट से, देखने वाले कवि हैं। उनका काव्य-समाज मनुष्य और प्रकृति के आपसी तालमेल से बनता है। तमाम विसंगतियों को भी वे बेलाग निस्पृहता से पकड़ते हैं। निस्पृहता और करुणा का यह मेल एक तरह की सादगी और सपाट बयानी का आभास देता है। उनके भाषाई प्रयोग में एक तरह की मंथरता और परतदारी है। शब्द दर शब्द, पंक्ति दर पंक्ति, बिंब दर बिंब, वे एक काव्य-वास्तु खड़ा करते हैं। उसी में से भाव और अर्थों की परतें खुलती हैं। उनकी कविता को हौले से अपने सामने रखकर पढ़ना होता है। तब कविता की पंखुड़ियां खुलती खिलती हैं।
सन् 2000 में छपे कविता संग्रह ‘अतिरिक्त नहीं’ में एक कविता है, ‘इस मैदानी इलाके में’। इसकी पहली पंक्ति है कि मैदानी इलाके में इस साल भी पहाड़ नहीं हैं। वे चाहते हैं कि पहाड़ों को अब मोटर स्टैंड, कचहरी, पाठशाला या खेतों के पीछे आ जाना चाहिए। आगे वे कहते हैं कि जो जगह जहां नहीं है वहां के लिए उसका न होना ज्यादती है। इसके बाद कामना करते हैं कि समतल जगह हिमालय पर चली जाए, भोपाल बांकल में चला जाए, काशी गंगा छोड़कर महानदी के तट पर आ जाए, इत्यादि। भू-स्थलियों की अदला-बदली करने की कल्पना साकार होने लगती है और कविता की परतें खुलने लगती हैं कि यहां वे सारी भू-स्थलियों को विस्थापित कर देने की कामना कर रहे हैं ताकि किसी एक जगह को दूसरी जगह की कमी महसूस न हो या हर जगह को दूसरी जगह का स्वाद मिल सके। गांव घर से किसी को भी विस्थापित न होना पड़े। इस तरह यह विस्थापन की एक अलग तरह की कविता है। मनुष्य विस्थापित न हों, जगहें इसकी भरपाई करें।
घर से कवि का बेहद लगाव है। यह कई जगह प्रकट होता है।
घर सभ्यता की, मनुष्यता की,
संबंधों की प्राथमिक इकाई की तरह उनके पास है। लॉकडाउन के दौरान फेसबुक लाइव में
भी वे अपनी बात इसी बात से शुरू करते हैं कि मैं घर से बोल रहा हूं। उसके बाद शहर
और प्रदेश का नाम लेते हैं।
जब बाढ़ आई
तो टीले पर बसा यह घर भी
डूब जाने को
आसपास का सब पड़ोस इस घर में
मैं इस घर को धाम कहता हूं
और ईश्वर की प्रार्थना में नहीं
एक पड़ोसी की प्रार्थना में
अपनी बसावट में आस्तिक हूं ...
(जब बाढ़ आई,
कभी के बाद अभी संग्रह से)
मेरी चार साल की नातिन
बस्ता लटकाए स्कूल से आ रही है
मैंने उससे पूछा
‘तुम स्कूल से आ रही हो?’
‘हां’
‘घर जा रही हो?’
‘नहीं, घर को आ रही हूं’
एक छोटी बच्ची हमेशा आ रही होती है
उससे विदा होते समय मैंने कहा
‘अच्छा, मैं आ रहा हूं’।
(आते जाते लोगों से भी, कभी के बाद अभी संग्रह से)
समाज में व्याप्त सोपान क्रम के बारे में एक कविता में वे लिखते हैं कि सामने बैठने वालों की कुर्सियां हटा देनी चाहिए, जो बड़े लोगों के बैठने के लिए होती हैं। फिर बाद वाली कुर्सियां सामने वाली हो जाएंगी और उनमें पीछे बैठने वाले ही बैठें। (वैसे सामने की कुर्सियां, कभी के बाद अभी संग्रह से) यह है कवि का चुनाव कि वह किन लोगों के साथ है। विष्णु खरे ने उनके कविता संग्रह ‘अतिरिक्त नहीं’ के ब्लर्ब में लिखा है, ‘‘ विनोद कुमार शुक्ल शमशेर बहादुर सिंह के साथ हिन्दी के सबसे बड़े प्रयोगधर्मी कवि भी हैं ... किंतु सिर्फ उन्हीं ने यह सिद्ध किया है कि लगातार प्रयोग और लगातार प्रतिबद्धता एक साथ संभव हैं। उनके सिवा और कौन लिख सकता है : सबके हिस्से की हवा वही हवा नहीं है / अपने हिस्से की भूख के साथ / सब नहीं पाते अपने हिस्से का पूरा भात ...’’।
कविता विनोद कुमार शुक्ल के लेखन का एक पक्ष है। उनका उतना ही प्रखर पहलू कथाकार का है। कथा साहित्य में भी वे विषय, कथा तत्त्व, भाषा और शिल्प के अन्यतम प्रयोग करते हैं। उनकी कथा शैली उनकी ही कथा शैली है। कोई उनकी तरह लिखने लगेगा तो तुरंत पता चल जाएगा। ‘नौकर की कमीज’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ और ‘दीवार में खिड़की रहती थी’ उपन्यासों में भी उनका घर के प्रति जबरदस्त आकर्षण है। एक तरह से घर केंद्र में है। निम्नमध्यवित्त के पात्र होने के कारण बहुत कम वस्तुओं से इनका घर बन जाता है। हरेक चीज का अस्तित्व है। पात्रों में जीने की तन्मयता है। सादगी है। प्रोफेसर को सवारी के रूप में हाथी मिल जाता है। नवविवाहित प्रोफेसर की अपनी रोमांटिक दुनिया है। इस अर्थ में हाथी की सवारी मिलने से वह यथार्थ से थोड़ा ऊपर उठ गया है। उसे अब टेम्पो और साइकिल की जरूरत नहीं रही। हाथी उसे दयनीयता और अपमान से ऊपर उठा देता है। उपन्यासकार इस बहाने से उपभोक्तावादी विकास को धता बताता है। तीनों ही उपन्यासों में मुक्ति का एक स्वतंत्र दर्शन रचा गया है। सबके पास जरूरत भर का जीवन हो और जो प्रकृति में रचा बसा हो। गरीबी का वर्णन है, महिमा मंडन नहीं। महत्वपूर्ण यह भी है कि उसका जवाब अमीरी में नहीं खोजा गया है।
उपन्यासों में खांटी यथार्थ है; जीवन की क्रूरता है और सौंदर्य भी है। उसे व्यक्त करने में उपन्यासकार बच्चों के खेल संसार जैसा मासूम बना देता है। उनके संवाद, शिल्प, उछाह, सब जैसे शिशुता की रंगत से भरे हैं। शायद इसीलिए उनमें लोककथाओं के संवादों जैसी पुनरावृत्ति, शैलीबद्धता और लय मिलती है। ‘खिलेगा तो देखेंगे’ के कुछ दृश्य तो कार्टून फिल्म की याद दिलाते हैं। बस पतली हो के गली में घुस जाती है, सीढ़ियां चढ़ जाती है।
विनोद कुमार शुक्ल का भाषा विन्यास भी भिन्न है। इनके वाक्य छोटे हैं। वे किसी दृश्य या घटना का ब्योरा छोटे-छोटे वाक्यों में देते हैं। इससे लोक कथा वाचन का रंग आता है पर कहानी में नाटकीय भंगिमा बिल्कुल नहीं है। बल्कि भंगिमा ही नहीं है। यही इसकी खूबी है। सीधे-सादे जमीनी पात्र। गरीबी का गर्वोन्नत भाल लिए। यहां गरीबी या अभाव का रोना नहीं है। आत्मदया की मांग नहीं है। उससे बाहर आने का क्रांतिकारी तेवर भी नहीं है। वे असल में जैसे हैं, वैसे ही उपन्यासों में हैं।
फर्क यह है कि ये पात्र वैसे नहीं हैं जैसा हम प्राय: लोगों के बारे में सोचते हैं। विनोद कुमार शुक्ल का सारा गद्य ही वैसा नहीं है जैसा हम प्राय: पढ़ते हैं। यह अपनी ही तरह का गद्य है। इसने गद्य की रूढ़ि को तोड़ दिया है। हमें रूढ़ गद्य पढ़ने की आदत है। शायद इसीलिए विनोद कुमार शुक्ल पर उबाऊ गद्य लिखने की तोहमत लगती है।
विनोद कुमार शुक्ल की दृष्टि अद्भुत है। वे अपने पात्र को मचान पर बैठकर या गर्त में गिराकर नहीं देखते। उनके पात्र न तो ऊंचाई से दिखने वाले खिलौने हैं, न ही नीचे से दिखने वाले भव्य महापुरुष। रचनाकार समस्तर पर रहकर देखता है। उसके पास पात्र को रंगने या बदरंग करने की कोई कूची भी नहीं है। रचनाकार को किसी चीज को जैसी है वैसा ही कहना बड़ा पसंद है। जैसे दिन की तरह का दिन था, या रात की तरह की रात थी। इसी तरह उसके पात्र जहां और जैसे हैं वे वास्तव में ही वहां और वैसे ही हैं। रचनाकार बस उनके अंग संग बना रहता है।
सिर्फ पात्र ही नहीं, पूरा जीवन-जगत ही उसके अंग संग है। उसमें व्यक्ति, प्राणि जगत और प्रकृति सब समाहित है। यहां व्यक्ति का मन भी उसी पारदर्शिता से दिखता है जितनी स्फटिक दृष्टि से प्रकृति और वनस्पति जगत को देखा गया है। एक हिलता हुआ पत्ता भी मानवीय स्थिति का हिस्सा ही होता है, संवादरत होता है। पेड़ की छाया भी, चींटी भी, चिड़िया भी, आलू प्याज और तोते का पिंजरा भी।
इस समावेशी दृष्टि के साथ-साथ विनोद कुमार शुक्ल के
देखने में भावुकता नहीं है। निर्ममता और उदासीनता की कोई जगह नहीं है। पूरी तरह से संलिप्तता भी नहीं है। बल्कि उस पर निर्लिप्तता की छाया प्रतीत होती है। शायद
इन्हीं दोनों के संतुलन से करुण दृष्टि का जन्म होता है। रचनाकार का देखना करुणा से डबडबाया हुआ है। यह एक दुर्लभ गुण है। इस तरह उपन्यासकार जीवन-जगत
के सम-स्तर पर रहते हुए उसे करुणा-आप्लावित नजर से देखता है। और यह करुणा सपाट बयानी की तरह नहीं आती। करुणा पर वो एक झीना परदा डालते हैं। यह उनके खास शिल्प का पर्दा है जिसमें लोक कथाएं, बच्चों के खेल और परी कथाओं का शिल्प है। सच और झठमूठ के
खेल का एक निराला संतुलन बनता है।
विनोद कुमार शुक्ल की नजर में एक और गुण है, उनकी आर पार देखने की शक्ति। इसी नजर से वे आकाश को देखते हैं और उसमें अंधेरे उजाले को देखते हैं। इसी दृष्टि के कारण वे हाथी की खाली होती जगह देखते हैं और लिखते हैं ‘हाथी आगे आगे निकलता जाता था और पीछे हाथी की खाली जगह छूटती जाती थी।’ यथार्थ को रूढ़िबद्ध ढंग से देखने का आदी पाठक इस पंक्ति को निरर्थक पाता है। रूढ़ि में नवीनता देखने वाला पाठक इस पंक्ति में चमत्कार देखता है। लेकिन अगर आप ध्यान से पढ़ें और देखने लगें तो हाथी की जगह आपको दिखने लगेगी। हम कह सकते हैं कि एक दृश्य के गतिशील तत्वों को वे देखते हैं तो रुके हुए तत्वों को भी। फोरग्राउंड को देखते हैं तो बैकग्राउंड को भी। और उन्हें इंटरचेंज भी कर देते हैं। कभी अग्रभूमि का आकार देखते हैं तो कभी पृष्ठभूमि का। जैसे अंधेरा और हाथी। फिर अंधेरे के हाथी। पानी के भीतर और पानी के ऊपर का अंधेरा। मनोविज्ञान में यह परसेप्शन का खेल होता है। असल में ये सारी चीजें तभी दिखती हैं जब हम उन्हें धैर्य से पढ़ें। विनोद कुमार शुक्ल को हड़बड़ी में नहीं पढ़ा जा सकता। धीरज से पढ़ने पर ही अनूठी दुनिया खुलती है।
यह सुखद है कि पारदर्शी भाषा के रचनाकार विनोद कुमार शुक्ल पिछले एक दशक से निरंतर बच्चों के लिए लिख रहे हैं। बच्चों की कविताएं भी वे बड़ी तन्मयता और लय के साथ सुनाते हैं। उनकी जिस शैली को तिर्यक नजर से देखा जाता था, वह अब और अधिक सरल और मृदुल होकर बाल सुलभ सरलता पा गई है।
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