Thursday, April 6, 2023

दोस्त

 


मैंने कहानियां ज्यादा नहीं लिखीं हैं । जो लिखी हैं वे भी पचीस तीस साल पहले । रोटियां कहानी हिमाचल की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर हैजो मधुमति में छपी थी । मुंबई के आवारा कुत्तों के पकड़ने की कुत्ताघर नाम की कहानी वर्तमान साहित्य में छपी थी । एक और सीधी-सादी कहानी सवा दो अक्षर नव भारत टाइम्स में छपी थी । वीटी बेबे नामक कहानी कथादेश में सन 2002 में छपी थी।  जो कहानी आपको आज पढ़वा रहा हूंवह भी मुंबई के तंगहाल जीवन को केंद्र में रखते हुए लिखी थी । दोस्त शीर्षक से यह कहानी भी नव भारत टाइम्स में छपी थी। 


फाइलों से घिरे फैले पसरे मेज के ऊपर डाक के पांच सात लिफाफे और आ जुड़े । शर्मा जी बादामी और खाकी से लिफाफों को फाड़-फाड़ कर देखने लगे । उस मटमैली जमात में अलग-थलग पड़ा, नीले रंग का एक अंतर्देशीय शर्मा जी के हाथ में आकर खुलने ही वाला था कि बाईफोकल चश्मे ने पते पर लिखे गणपत राम शर्मा को सीधे शर्मा जी के दिमाग में घुसा दिया ।

यहां उन्हें हर कोई जी आर शर्मा के नाम से ही जानता है ।

गणपत राम शर्मा ने पत्र को पलटा । भेजने वाले का नाम साफ पढ़ा जा सकता था । धनवंत सिंह ठाकुर ।

आगे-आगे गनपत राम पीछे-पीछे धनवंत सिंह, दोनों नाम शर्मा जी के दिल में छपाक से गोता लगा गए । शर्माजी की पीठ पीछे हटकर कुर्सी की पीठ से जा लगी और मेज के नीचे उनके पैर हिलने लग गए । अरे! यह तो वही अपना धनवंत लगता है । चुकस्ता मारकर लिखने की वही पुरानी आदत ।

शर्मा जी ने चिट्ठी खोल ली । पढ़ाई के दिनों की तैरती छवियों के साथ खत पढ़ने लगे । खत के खत्म होते-होते आंखों की पुतलियां, नाक और होंठ फैलने सिकुड़ने लगे करीब । करीब दस साल बाद यार को याद आई खत लिखने की । पिताजी के गुजरने पर शर्मा जी गांव गए थे तो वहां आया था धनवंत विचार करने ।

खत में लिखा था कि वो जिला वन अधिकारी हो गया है और बंबई घूमने आ रहा है । शर्मा जी समझ नहीं पाए, वे खुश हो रहे हैं या झेंप रहे हैं । वो लफंटर डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट ऑफिसर हो गया और बंबई भी आ रहा है ।

शर्मा जी को जरा गर्मी सी महसूस हुई । उठकर खिड़की के पास खड़े हुए । अंतर्देशीय तहा कर जेब में रखा । अब दफ्तर के काम में उलझे रहने की मन:स्थिति नहीं थी । अंतर्देशीय शर्मा जी को इस बदामी खाकी मटमैली कागजों की धूसर दुनिया से बाहर ले आया । उसी झोंक में वे इमारत से बाहर निकल आए । थोड़े से फैले हुए पेट को साथ लेकर बेध्यानी में चाय के खोखे के पास आ गए, जहां उनके महकमे का कोई न कोई हर वक़्त जमा ही रहता है । पवार और दलवी के साथ कटिंग पीने के लिए रुक गए । दूसरी तरफ तीन-चार महिलाएं भी चाय के बहाने खड़ी थीं । शर्मा जी ने चारों महिलाओं की साड़ियों के रंग अलग-अलग पहचान लिए । किस साड़ी का प्रिंट अच्छा है, किसका बॉर्डर सलीके से कंधे पर चढ़ा हुआ है । धनवंत के शब्द टनटनाते हुए शर्मा जी के दिमाग में कौंधे  - वह फूल वाली, वो टोकरी । धनवंत साड़ी के डिजाइन से औरतों के रूपाकार की कल्पना करता था ।

पवार ने टोका

- क्यों शर्मा जी बड़े खुश नजर आ रहे हैं ।

- नहीं-नहीं, बोलते हुए शर्मा जी की दोनों आंखों के बीच माथे का भारी सा हिस्सा हरकत में आ गया । अनजाने में हाथ जेब तक गया और अंतर्देशीय को छूकर निश्चिंत हो गया ।

रात को घर में घुसते ही शर्मा जी का मन उचाट सा हो गया । चौदह साल की बेटी सात साल के बेटे और अधेड़ सी दिखती पत्नी से कोई खास बात भी नहीं हुई ।

दूसरे दिन सुबह चाय के साथ अखबार पलटते हुए अपने प्रदेश की खबर पर नजर गई तो शर्मा जी ने आंखें मिचमिचा कर उसे पूरा पढ़ा । दाढ़ी बनाते हुए उन्होंने पत्नी को धनवंत के बारे में बताया कि अब जिले भर का अफ्सर हो गया है । वे उसके मुंबई आने की बात नहीं बता पाए । तरक्की की खबर सुनकर पत्नी को कैसा लगा शर्मा जी भांप न सके। वे खुद को भी जांच नहीं पाए थे कि दोस्त की पदोन्नति से खुश हैं या मुंबई आने से तनिक चिंतित ।  

पत्नी ने उस दिन अपने डेढ़ कमरे के फ्लैट की हर चीज को खूब झाड़ा पोंछा । शाम को जब शर्मा जी के ब्रीफकेस से उसने सब्जी निकाली तो ब्रीफकेस की किनारियों पर जमी धूल को देखकर बड़बड़ करने लगी । शर्मा जी ने नोट किया कि पत्नी ने सलीकेदार कपड़े पहन रखे थे । कमरे की ताजगी को देखकर उन्होंने तहकीकात भी की – क्या कोई आया था ?

- कौन आएगा यहां । और पत्नी ने बेटी को ब्रीफकेस साफ करने की हिदायत दी ।

कोई चार दिन तक शर्मा जी जब भी अकेले होते उनके माथे पर बल पड़ जाते और नाक के ऊपरी हिस्से पर गुमटी सी खड़ी हो जाती ।

आठवें दिन उनके ये बल खत्म हो गए । इसके बाद ठाकुर धनवंत सिंह के मुंबई आने के दिन ज्यों-ज्यों नजदीक आने लगे, वे निश्चिंत से दिखने लगे । शर्मा जी जैसे निर्भार हो गए थे ।

·        

और एक दिन शर्मा जी ने अपने परिवार को खुशी-खुशी विदा कर दिया । बच्चे खुश थे कि तीन-चार दिन छुट्टी मनाएंगे, पिंकू-टिंकू के साथ खेलेंगे, आंटी आइसक्रीम खिलाएगी । वीडियो पर फिल्में दिखाएंगी । पत्नी ने राहत महसूस की कि गृहस्थी की चक्की से चार दिन तो निजात मिलेगी ।

विरार में शर्मा परिवार के परिचित रहते हैं अपने ही इलाके के । अच्छे खाते पीते । उनकी कई सारी टैक्सियां हैं । विरार में दो साल हुए एक बड़ा बंगला बनवाया है । शर्मा पत्नी को वहां जाकर माईके जैसा ही लगता है सो तुरंत जाने को तैयार भी हो गईं । एक टैक्सी लेने आ गई थी और शर्मा जी ने हाथ हिलाकर विदा कर दिया । विदा करते समय मुस्कुराना वे नहीं भूले । पेंट की जेबों में हाथ डालकर चलने लगे तो उन्हें अपना वजन कम महसूस हुआ ।

·        

- क्यों शर्मा जी सब्जी नहीं लेनी ?

- नहीं । फैमिली बाहर गई है ।

- मतलब आप भी बैचलर हो गए ?

- ऐसे ही समझो ।

- तो चलो आज मेरे यहां ।

दफ्तर से लौटते हुए शर्मा जी बिना न नुकर किए श्रीवास्तव के साथ हो लिए । चाय के बाद तय हुआ कि जरा महफ़िल जमाई जाए तभी कुंवारापन सार्थक हो ।

रम का एक-एक पैग अंदर गया तो कमरा चहकने लगा । श्रीवास्तव ने बताया कि घर से इतना दूर होने के बावजूद लोग उसके यहां आते रहते हैं । सबसे ज्यादा तो दोस्त यार । हर महीने कोई न कोई । यूनिवर्सिटी में पढ़ने और हॉस्टल में रहने का यही तो नुकसान होता है । मेरे बैच के कोई दस लोग यहीं मुंबई में होंगे । फिर दिल्ली, हैदराबाद, मद्रास, कहीं न कहीं से चले ही रहते हैं । बंबई ससुर जगह ही ऐसी है ।

- अच्छा है न दिल लगा रहता है ।

- पर यह दिल लगाना बड़ा महंगा पड़ता है ।

- दोस्तों से मिलना तो हो जाता है न ?  

- हां, यह तो है । पर शर्मा जी आपका परिवार कहां गया है ?

- वो भी दोस्त के यहां गए हैं । घर जैसे ही हैं ।

- आप नहीं गए ?

- मुझे आपसे जो मिलना था । शर्मा जी ने मसखरी सी की ।

- छोड़िए शर्मा जी । यह तो मैं जबरदस्ती ले आया वरना आप कहां आते हैं ।

- नहीं श्रीवास्तव ऐसी बात नहीं है । तुम तो मुझे बहुत अच्छे लगते हो । पर घर गिरस्ती और दफ्तर । वक्त ही कहां मिलता है ।

- शर्मा जी, आप तो यहां कई सालों से हैं । आपके दोस्त मित्र भी काफी होंगे ।

- दोस्त ! हां दोस्तों की कौन सी कमी है ।

शर्मा जी दूसरे पैग के साथ रौ में आने लगे थे । दोस्ती की लहर में बह चले ।

- डियर श्रीवास्तव, बीस बीस साल पुरानी दोस्तियां हैं अपनी । अपना एक लंगोटिया यार है ठाकुर । जिले भर का अफसर बन गया अभी कुछ दिन पहले । उसकी चिट्ठी भी आई । चिट्ठी लिखना नहीं भूला ।

- अच्छा ! आप तो बड़े आदमी हैं ।

- बड़े हम नहीं, बड़ा तो वो है । वन विभाग में है । खूब पैसे कूटता होगा साला ।

शर्मा जी का मन दोस्त के बारे में और बातें करने का हो रहा था, पर गला अटक अटक जाता था । पूरा गिलास गटक कर उन्होंने गला तर किया ।

- पर देखो श्रीवास्तव, में भी अजीब उल्लू हूं । वो अपना दोस्त अफसर ही नहीं बना, बंबई भी आ रहा था ... और मैं ...

शर्मा जी फिर अटक गए ।

- कब आ रहा है वो बंबई ?

शराब पी के शायद अपनी कमजोरियों का सामना करने की ज्यादा ताकत आ जाती है आदमी में । पिछले हफ्ते जो फैसला शर्मा जी ने किया था उस पर दुबारा विचार करने की हिम्मत वे नहीं कर पाए थे । खुद को भी उन्होंने याद नहीं दिलवाया कि उनका पुराना दोस्त आ रहा है और कई सालों बाद उससे मिलने का मौका मिलेगा ।

लेकिन नशे में मन के भीतर छिपी हुई बात जुबान पर आ ही गई । खुद को गालियां देखने देने लग गए शर्माजी ।

- मैं तो बहुत ही चूतिया निकला यार । भैनचो अपने ही दोस्त के आने की खबर को छिपा गया । शायद डर ही गया यार मैं कि वो बहुत बड़ा अफसर हो गया है । इधर मैं मुंबई में कैसे-कैसे तो रहता हूं । दोस्त देखेगा तो क्या इंप्रेशन पड़ेगा । फिर वह बीवी बच्चों के साथ आ रहा है । कहां ठहराऊंगा ? और साली चुप ही लगा गया मैं । ऐसी चुप कि घर में किसी को हवा तक नहीं लगने दी ।

श्रीवास्तव को समझ न आए,  शर्मा जी क्या बोल रहे हैं और क्यों बोल रहे हैं । वह उन्हें शांत करने लगा ।

- जो हो गया भूल जाइए ।

- भूल कैसे जाऊं मेरे दोस्त । नहीं, दोस्त कहने का हम मुझे नहीं है श्रीवास्तव साहब । मेरे जैसा बेगैरत कोई नहीं होगा। बीवी बच्चे विरार भेज दिए । खुद साला आपके पास आ गया ताकि अगर भूले भटके घर आ ही जाए तो ताला लगा देखकर अपना इंतजाम खुद करता रहे ।

और शर्मा जी ठहाका मार कर हंस पड़े । फिर उन्हें खांसी आ गई । जरा सांस लेकर उन्होंने घूंट भरा और फिर शुरु हो गए ।

- पर जानते हैं दोस्त से छिपता क्यों फिर रहा हूं ? इतने सालों से इस शहर में लल्लू सी नौकरी कर रहा हूं । घर में एक्स्ट्रा गद्दा नहीं है कि कोई आ जाए तो सुला सकूं । किसी की खातिरदारी करने की हिम्मत नहीं पड़ती । बीवी को कोई सुख नहीं दे सका । बच्चे भी जैसे समझदार हो गए हैं, कोई मांग नहीं करते । पता है पूरी ही नहीं होगी । पर श्रीवास्तव साहब घर में कभी झगड़ा नहीं किया मैंने । जितना बन पड़ा परिवार को सुख देने की कोशिश की पर साली चादर इतनी छोटी है कि पैर नंगे ही रहते हैं हमेशा । क्या जिंदगी है ?

श्रीवास्तव को लगा शर्मा अपने पर कुढ़ता ही रहेगा । सांत्वना देते हुए बोला

- तो इसमें आपकी क्या गलती है!

- गलती कैसे नहीं ? साला मैंने दोस्त से दगा किया । जान जाता न मैं कैसे रहता हूं ? क्या सोचता ? कौन सी इज्जत चली जाती ? ऐसे ही कौन से झंडे झूल रहे हैं ।

- अरे शर्मा जी आप तो यूं ही छोटी सी बात दिल पर लगा के बैठ गए ।

- श्रीवास्तव तुम इसे छोटी सी बात कहते हो ?

- छोड़ो छोड़ो शर्मा जी ग्यारह बज गए । अब खाना खाते हैं ।

- अब खाना क्या खाना । में तो बहुत ही नीच निकला श्रीवास्तव । तुम मेरे दोस्त हो न ?

- हां हां

- नहीं, दिल से बोलो, दोस्त हो ?

- हां हां बोल रहा हूं ।

- मेरी कसम ?

- हां आपकी कसम ।

शर्मा जी बुक्का फाड़ कर रो पड़े ।

- मेरे प्यारे दोस्त । मुझे माफ कर दो।

नशे में धुत शर्मा जी का नजारा देखने लायक था । वो रोते जा रहे थे और श्रीवास्तव के पैरों में झुके जा रहे थे ।

- माफ कर दो दोस्त... माफ कर दो... ।

झुकते हुए चप्पल उनके हाथ लग गई । उठा कर श्रीवास्तव को देने लगे ।

- लो मुझे जुत्ते लगाओ । मैं इसी लायक हूं । मारो मेरे दोस्त मारो मुझे । और खुद ही अपने सिर पर चप्पलें टिकाने लगे ।

श्रीवास्तव ने चप्पल छीन कर फेंकी । और बात करने लगा ।

- ये तो बताया ही नहीं वो आ कब रहा था ?

- कौन ?

-आपका दोस्त

- दोस्त नहीं, मेरे जिगर का टुकड़ा । बीस की रात को उसकी ट्रेन यहां पहुंचनी थी ।

- बीस तो आज ही है ।

- तभी तो फिर रहा हूं भागा भागा ।

- तो चलो पहनो जूते । चलो । उसको ले के आते हैं ।

- क्या कह रहे हो श्रीवास्तव । नहीं नहीं । मैं उसे मुंह दिखाने लायक नहीं हूं ।

- क्या कह रहे हैं शर्मा जी । वो आपका जिगरी दोस्त है । और ठहराने की चिंता न करो । उसका इंतजाम हो जाएगा।

- तुम तो देवता आदमी हो श्रीवास्तव । मुझे चरणबंदा करने दो मेरे दोस्त, मेरे देवता ।

एक बार फिर श्रीवास्तव ने शर्मा जी को उठाया ।

·        

आखिर वे दोनों मुंबई सेंट्रल रेलवे स्टेशन पहुंचे । संयोग से वक्त से पहुंच गए । गाड़ी रुक ही रही थी ।

 - हां शर्मा जी जल्दी करो । पहचानो । कहीं निकल न जाए ।

शर्मा जी का सारा नशा काफूर हो गया । वे पसीने से नहा गए । उतरती सवारियों पर उनकी नजर दौड़ती जाती थी । आखिर उन्हें झटका सा लगा जिसकी वे तैयारी सी भी कर ही रहे थे । आंखों से होता हुआ पैरों तक बिजली का करंट सरसराया । उन्होंने श्रीवास्तव का हाथ कसके पकड़ लिया । थोड़ा नजदीक गए और सारा सामान उतरने दिया। तीन चार लोगों के झुंड के पास दम साधे खड़े हो गए ।

मजदूरों को पैसे देकर व्यक्ति ने जैसे ही चारों तरफ नजर दौड़ाई, वह अचानक रुक गया । उसकी बांछें खिल गईं ।

- अरे गनपत ? तुम यहां ? मुझे लेने आए हो ? अरे देखो सावित्री गनपत आया है ।

नमस्ते-वमस्ते होती रही । गनपत छुई-मुई होता रहा ।

- क्या बात है, सब ठीक तो है ?

- हां... तुम...?

- बस आ गए तुम्हारे पास ।

- हां ... हां...

शर्मा जी के गले में कांटे चुभ रहे थे ।

- और बाल-बच्चे, राजी-बाजी ?

- हां सब ठीक है ... ये मिलो मरे कुलीग श्रीवास्तव ।

अपने बच्चों को हिदायत देते हुए ठाकुर सामान उठवाने और टैक्सी ढूंढ़ने में व्यस्त हो गया ।

- जल्दी करो, आगे ही इतनी देर हो चुकी है ।

शर्मा जी ने सूखते गले से फिर बोलने की कोशिश की

- तु... तुम ... क... कहां ...

- अरे यहीं ताड़देव में एक गेस्टहाउस में बुकिंग है । अपने एक टिंबर मर्चेंट ने करवा दी थी । आओ चलो वहीं गप्प लगाते हैं ।

शर्मा जी का गला जरा खुला ।

- मेरी चिट्ठी नहीं मिली तुम्हें ?

- न । चलने के दिन तक तो नहीं मिली थी ।

- आप दो दिन से दफ्तर भी कहां गए थे । ठाकुर पत्नी ने जोड़ा ।

और शर्मा जी सामान लदवाने के लिए टैक्सी की तरफ बढ़ गए ।        


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