यह छः कविताओं की श्रृंखला है. मनाली से केलंग जाने के रास्ते में रोहतांग दर्रे से शुरु होकर धर्मशाला तक पहुंचाती हुई एक जमीनी उड़ान. बारी बारी से छहों कविताओं को पढ़ने का लुत्फ उठाइए. इस बार पहली कविता -
1
ओ मेरे रोहतांग! ओ मेर राल्हा!
चलते चले आए नदी के किनारे किनारे
कहां नदी बिछ आई दीवारों के भीतर
कहां दिवारें खड़ी हो गईं नदी के ऊपर
पता ही न चलता कहां पर नदी कहां गई धरती
ब्यास के किनारे बस्तियां ही बस्तियां हैं
उन्हीं के बीच में चलते चले आए
यह मान कर कि चलते चले आए नदी के किनारे
यह जान कर कि बढ़ते चले आए बजार के हरकारे
नदी सिकुड़ गई देवदार ठिगने हुए
हमी हम चढ़ते चले आए हर इक दुआरे
रोहतांग के सीने को बींध डाला
गाड़ियों की पांत ने
बर्फ का दम घुटता है इस शहरी खुराफात में
राल्हा दिखता नहीं, मेरे बचपन का पड़ाव
कहते हैं दूर छिटक गया है सड़क के घेर से ॥
आप के पास पहाड़ को देखने की अलग ही दृष्ति है. अद्भुत!
ReplyDeleteधन्यवाद अजेय जी.
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